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Journal articles on the topic 'अमृतलाल'

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डॉ., रेखा धीमान. "नर्मदामयी अमृतलाल वेगड़ का कलापक्ष". International Journal of Research - Granthaalayah 7, № 11(SE) (2019): 185–88. https://doi.org/10.5281/zenodo.3587383.

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Abstract:
अमृतलाल वेगड़ जब चलने लगते हैं तो रास्ते थक जाते हैं पर पैर नहीं; कांटे, पत्थर, चट्टानें, बीहड़, जंगल, जानवर, आदिम संस्कृति के लोक मानव, सबके सब नर्मदा का अचमन कर यदि किसी परकम्मी को प्रणाम करते हैं तो वह है सिर्फ एक परकम्मी जिसको नर्मदा ने अपने अमृतजल से नाम दिया है - अमृतलाल वेगड़।<sup>1</sup>&nbsp;&nbsp; आपका जन्म 3 अक्टूबर 1928 को जबलपुर मध्यप्रदेश में हुआ। आपके माता-पिता मूलतः कच्छ गुजरात के रहने वाले थे और बाद में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में आकर बस गये। वर्तमान में तीन भाईयों का सयुंक्त परिवार है। आप सामान्य कद-काठी, इकहरा बदन, उस पर खादी का कुर्ता पजामा, उन्नत मस्तक, आँखों पर चश्मा आपके व्यक्तित्व का परिचायक है। आप मृदुभाषी, दृढ़ निश्चयी और संवेदनशील व्यक्ति है। आपकी जीवन-संगिनी कान्ता वेगड़ पति और परिवार के प्रति समर्पित सदाचारी, श्रमशील एवं सहृदयी महिला है, जो अपने पति के साथ कदम के साथ कदम मिला कर परकम्मावर्ती रही है। आपका पूरा परिवार गांधी प्रवृत्ति का है। गांधीवादी नियमों को आत्मसात कर स्वयं से संबंधित प्रत्येक कार्य स्वयं करने की आदत है।<sup>2</sup>&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;
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अमलपुरे, डॉ.सूर्यकांत विश्वनाथ. "अमृतलाल नागर के कहानियों का अध्ययन". International Journal of Advance and Applied Research 12, № 2 (2024): 192–95. https://doi.org/10.5281/zenodo.14644062.

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Abstract:
<strong>सारांश:-</strong> &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; आधुनिक काल के प्ररम्भिक साहित्यकारों में भारतेन्दु जी ,महावीर प्रसाद द्विवेदी ,आदि महानुभावों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध करते हुए कई साहित्यकारों को प्रकाश में लाने&nbsp; का कार्य किया है। इस&nbsp; कथासाहित्य में प्रेमचंद के बाद अमृतलाल नागरजी बहुचर्चित और प्रख्यात कथा - साहित्यकार के रूप में सामने आते है। उनके साहित्य में विचारों की गहनता ,समाज का दुःख ,महानता एवं मानवता जैसे भाव का स्पष्टीकरण दिया है।&nbsp; साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध होने के कारन साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।&nbsp; समाज में घटित हर एक गतिविधिओं को साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।&nbsp; यह अभिव्यक्ति कविता ,नाटक , कहानी ,उपन्यास जैसी अनेक विधाओं में होती है।&nbsp; इस सभी विधाओं में समाज का यथर्थ चित्रण मार्मिक और सक्षम रूप से साहित्यकार करने की कोशिश करता रहता है।&nbsp; यह कार्य हिंदी साहित्य के महान लेखक अमृतलाल नागर&nbsp; जी ने किया है।&nbsp; उनके<strong> </strong>कहानियों में आधुनिक युग की जटिलता ,समाजजीवन की व्यापकता अधिक मात्रा में दिखाई देती है।&nbsp; गहन सामाजिक मयथर्थ कभी चित्रण उनके कथासाहित्य में हुआ है।&nbsp; सामाजिक जीवन को&nbsp; समझने के लिए समाज का सूक्ष्म अध्ययन करना पड़ता है।&nbsp; समाज में स्थापित उच्च ,मध्य और निम्न वर्ग की स्थिति तथा नारी की स्थिति एवं दलित ,किसान मजदुर की स्थिति का चित्रण किया है।&nbsp; उनके साहित्य में उच्च वर्ग भले ही काम मात्रा में अभिव्यक्त हुआ हो परन्तु वह बड़ी सक्षमता से अभिव्यक्त हुआ है।&nbsp; उच्च वर्ग ही शोषण व्यवस्था का निर्माता है परन्तु वह अपने आप को मध्य वर्ग और निम्न वर्ग का रखवाला ,मसीहा और अन्नदाता मानता है।
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Dhiman, Rekha. "NARMADAMAYI AMRITLAL VEGAD'S AESTHETIC." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 7, no. 11 (2019): 185–88. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v7.i11.2019.3733.

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Abstract:
Shri Amritlal Vegad has been adorned with Narmada love, adorned with important honors such as 'Shikhar Samman', 'Sharad Joshi Samman', 'Srishna Samman' and Mahapandit Rahul Sanskritayan. He saw Narmada-beauty in his religion, deeds and culture. During the Narmada Pad Yatra you used to have only one mantra, 'Narmada how beautiful you are' chanting it completed your Narmada revolutions. During this time you felt that moment with enthusiasm. Shri Amritlal Vegad's Kala-yatra attains perfection only after attaining the personality of the Narmada River, which flows continuously in Madhya Pradesh. In your vein, the wave of consciousness across the veins can be seen through drawings, drawings, collages that were created during your Narmada Parakamma. The purpose of your post tour has been cultural rather than religious. You saw the beauty of the environment with kindness and reverence.&#x0D; ‘शिखर सम्मान’, ‘शरद जोशी सम्मान’, ‘सृजन सम्मान’ तथा महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जैसे महत्वपूर्ण सम्मानों से सुशोभित श्री अमृतलाल वेगड़ नर्मदा प्रेम से ओत-प्रोत रहे हैं। उन्होंने अपने धर्म, कर्म और संस्कृति में नर्मदा- सौंदर्य को ही देखा। नर्मदा पद यात्रा के दौरान आपका एक ही मंत्र होता था, ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ यही जाप करते हुए ही अपनी नर्मदा परिक्रमायें पूरी की। इस दौरान आपने उस पल को उत्साह के साथ महसूस किया। मध्यप्रदेश में अनवरत प्रवाहित होने वाली जीवनदायिनी ‘नर्मदा नदी’ का व्यक्तित्व पाकर ही श्री अमृतलाल वेगड़ की कला-यात्रा पूर्णता को पाती है। आपकी नस-नस में, संपूर्ण शिराओं में चेतना की लहर के दर्शन रेखांकनों, चित्रों, कोलाज के माध्यम से किये जा सकते हैं, जो कि आपकी नर्मदा परकम्मा के दौरान सृजित किये गये। आपकी पद यात्रा का उद्देश्य धार्मिक न होकर सांस्कृतिक रहा है। आपने पर्यावरण सौंदर्य को आत्मीय और श्रद्धा से देखा।
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Shalu Parik та Dr. Rajbala. "अमृता प्रीतम के उपन्यासों में नारी विमार्श". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 21, № 2 (2024): 51–52. http://dx.doi.org/10.29070/ha61yd76.

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Abstract:
अमृता प्रीतम को उनकी प्रेम भरी कविताओं, कहानियों और जीवन घटनाओं के लिए साहित्य जगत में प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। अमृता प्रीतम का उपन्यास ‘पिंजर‘ नारी विमर्श के समस्त घटकों की प्रस्तुति करता है। यह महिलाओं की वास्तविक स्थिति को उजागर करने वाला उपन्यास है। अमृता प्रीतम ने महिलाओं के दृष्टिकोण से विभाजन की कहानी गढ़ने की योजना दर्शाई है। अर्थात् पिंजर उपन्यास में विभाजन के दौरान महिलाओं को जो कुछ सहना पड़ा उसका सजीव चित्रण किया है। बहुत ही सशक्त तरीके से अमृता प्रीतम ने अपना तर्क दिया कि विभाजन के दोनों पक्षों पर देश की महिलाओं का उल्लंघन उसी तरह है जैसे विभाजन ने स्वयं राष्ट्र का उल्लंघन किया था। महिलाओं के साथ होने वाला दुव्र्यहार विभाजन का प्रतिबिंब और परिणाम दोनों है। पिंजर अपने अस्तित्व के भाग्य और सामाजिक दुर्व्यवहार के खिलाफ गद्य में महिलाओं की पुकार है। अमृता प्रीतम के कथानक राजनीतिक और सामाजिक हेरफेर के परिणामस्वरूप महिलाओं की स्थिति को प्रदर्शित करते हैं यह ऐसी स्थिति है जो चिल्लाती है और नाटकीय और त्वरित बदलाव की गुहार लगाती है। नारी के लिए आजादी की रोशनी जीवन अंधकार बन कर आई है इसी का अमृता जी ने साहित्य में नारी बेहना की छाया तथा इसके विरोध को नारी विमर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
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Bano, Irshad. "Overall assessment of Amritrai's personality." RESEARCH REVIEW International Journal of Multidisciplinary 8, no. 1 (2023): 195–98. http://dx.doi.org/10.31305/rrijm.2023.v08.n01.027.

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Abstract:
Amrit Rai has his own indelible identity as a strong advocate of progressive ideology in Hindi literature. He has played a special role in making progressive literature very rich. Vigilant creator Amrit Rai enriched Hindi literature by creating valuable creations in every genre of prose literature. His place is unmatched among the writers who portrayed the social reality of the era in his fiction. He was one of the pioneers of the progressive movement. As a unique creator of sarcastic expression, his creation affects not only for the Hindi world but for everyone because of its ideological concern.&#x0D; Abstract in Hindi Language:&#x0D; हिंदी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के पुरजोर हिमायती रचनाकार के रूप में अमृतराय की अपनी अमिट पहचान है। उन्होंने प्रगतिवादी साहित्य को अत्यधिक समृद्ध बनाने में विशिष्ट भूमिका वहन की है। सजग रचनाकार अमृतराय ने गद्य साहित्य की प्रत्येक विधा में मूल्यवान सृजन कर हिदीं साहित्य को समृद्ध बनाया। युग के सामाजिक यर्थाथ को अपने कथा साहित्य में चित्रित करने वाले लेखकों में उनका स्थान अप्रतिम है। वे प्रगतिशील आन्दोलन के सूत्रधारों में अग्रणी रहे। व्यंग्यात्मक अभियव्यक्ति के बेजोड़ रचनाकार के रूप में उनका रचना संसार हिंदी दुनिया के लिए ही नहीं अपितु हर किसी के लिए अपने वैचारिक सरोकार के कारण प्रभावित करता है।&#x0D; Keywords: हिंदी साहित्य, अमृतराय, प्रगतिवादी साहित्य, साहित्यकार।
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सौरभ, श्रीवास्तव. "अमृता शेरगिल भारतीय आधुनिक कला की अग्रणी". Science world a Monthly e magazine 5, № 1 (2025): 6113–15. https://doi.org/10.5281/zenodo.14773033.

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Abstract:
भारत कला एवं साहित्य का ख़जाना हैं , भारत के कलाकारो एवं साहित्यकारो ने भारत की भारतीय संस्कृति एवं कला को पूरे विश्व में प्रकाशित किया है। इनमे से एक प्रमुख कलाकार के रूप में अमृता शेरगिल का नाम आता है। अमृता शेरगिल हंगरी में जन्मी भारतीय कलाकार है। इन्हे भारतीय आधुनिक कला का अग्रणी माना जाता है। भारत में महिला के जीवन एवं उनके कई रूपो को प्रदर्शित किया अपने चित्रो के माध्यम से वो देश&ndash;विदेश दोनों जगह पर छाई रही । हंगरी से वापस आकर भारत में अंत तक कार्य करती रही एवं 28 वर्ष की छोटी सी उम्र में निधन हो गया ।
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पोतदार, डॉ. अनुराधा विजय. "जागतिक स्तरावर महिलांचे साहित्यिक योगदान". International Journal of Advance and Applied Research 5, № 35 (2024): 4–9. https://doi.org/10.5281/zenodo.13855541.

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Abstract:
प्रस्तावना:&nbsp; &nbsp; भारत हा जगातील सर्वाधिक भाषिक वैविध्य असलेला देश व हीच &nbsp;भाषिक विविधता भारतीय संस्कृतीच्या समृद्धतेमध्ये भर घालते. भारताच्या प्रत्येक प्रदेशाला &nbsp; &nbsp;उत्कृष्ट राष्ट्रीय लेखक, कवी, साहित्यिक &nbsp;आणि काही आंतरराष्ट्रीय कीर्ती असलेली उच्च विकसित साहित्यिक परंपरा आहे. भारत सरकारने साहित्य अकादमी सारख्या संस्थांद्वारे भारतातील प्रत्येक प्रादेशिक भाषा आणि साहित्याचे जतन आणि संवर्धन करण्यासाठी स्वतःला वचनबद्ध केले आहे.&nbsp;भारतीय लेखक, कवी, समीक्षक आणि कादंबरीकारांनी रवींद्रनाथ टागोरांच्या सखोल गीतांपासून ते अरुंधतो रॉय यांनी लिहिलेल्या विचारप्रवर्तक पुस्तकांपर्यंत साहित्यिक भूभागावर चिरस्थायी वारसा सोडला आहे. भारतीय साहित्य पुरस्कारात ज्ञानपीठ पुरस्कार हा सर्वात जुना आणि सर्वोच्च भारतीय साहित्य पुरस्कार, जो लेखकाला त्यांच्या "साहित्यातील उत्कृष्ट योगदानासाठी" दरवर्षी दिला जातो. 1961 मध्ये स्थापन झालेला हा पुरस्कार फक्त भारतीय भाषांमध्ये लिहिणाऱ्या भारतीय लेखकांना दिला जातो. आठ महिला लेखिकांसह 58 लेखकांना हा पुरस्कार आता पर्यंत प्रदान करण्यात आला आहे. 1976 मध्ये, बंगाली कादंबरीकार आशापूर्णा देवी या पुरस्कार जिंकणारी पहिली महिला ठरली आणि 1965 च्या प्रथम प्रोथोम र्पोस्तीश्रुती (The First Promise) या कादंबरीसाठी त्यांना सन्मानित करण्यात आले. अमृता प्रीतम, महेश्वता देवी, अमृता देसाई, अरुंधती रॉय अशा अनेक भारतीय महिला आहेत ज्यांनी भारतीय साहित्यात अतुलनीय योगदान दिले आहे.
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सत्याल, सुदेश. "एकान्त भिड कवितासङ्ग्रहमा श्यामव्यङ्ग्य". Prajna प्रज्ञा 124, № 2 (2023): 183–94. http://dx.doi.org/10.3126/prajna.v124i2.60600.

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Abstract:
प्रस्तुत लेखमा अमृतद्वारा लिखित ‘एकान्त भिड’ कवितासङ्ग्रहमा प्रयुक्त श्यामव्यङ्ग्यको बारेमा अध्ययन गरिएको छ । समकालीन नेपाली कविता परम्परा २०४६—२०७९) मा अपनाइएका विविध विषयवस्तुमध्ये श्यामव्यङ्ग्यको विशिष्ट महत्त्व रहेको देखिन्छ । विशेषतः आख्यान र नाटकमा सशक्त बनेर देखा परेको श्यामव्यङ्ग्य पछिल्लो समय कवितामा पनि सशक्त भएर देखा परेको छ । राज्यको व्यवस्था, राजनीति, नेतृत्व वर्गमा देखिएको विचलनले गर्दा कविहृदय प्रतिरोधी चेतनाको संवाहक बन्न पुग्दछ । नाम मात्रको परिवर्तनले वाक्क भएर प्रदूषित बन्न पुगेको सामाजिक व्यवस्थाप्रति अभिव्यञ्जनात्मक ढङ्गबाट सचेतनाको शङ्खघोष गर्नु लेखकीय कर्तव्यव्यापार हो । यही परिवेशमा लेखिएका अमृतका कवितामा गालीगलोज, घोचपेचभन्दा पर पुगेर सङ्गत असङ्गत युगीन व्यङ्ग्य र स्वैरकाल्पनिक अभिव्यञ्जनाको आधारमा विश्लेषण गरी निष्कर्ष प्रस्तुत गरिएको छ ।
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शर्मा, श्री मयंक, प्रो आशीष रंजन та प्रो ज्योति शर्मा. "जनसांख्यिकीय लाभांशः आत्मनिर्भर भारत की दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के दिशा निर्देश". Lokprashasan 16, № 1 (2024): 75–88. http://dx.doi.org/10.32381/lp.2024.16.01.6.

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Abstract:
भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी (12 मई, 2020) ने ‘‘आत्मनिर्भर भारत‘‘ के लिए आह्वान किया, जिसमें इसके पांच स्तंभों में से एक स्तंभ के रूप में जीवंत जनसांख्यिकी के महत्व पर जोर दिया गया। भारत वर्तमान में एक युवा आबादी से संपन्न देश है, जिसके नागरिक नवीन विचारों और उद्यमशीलता की भावना से ओत-प्रोत है। भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने के लिए आश्वस्त है। आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में, 65 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है, और आधे से अधिक आबादी 15-59 वर्ष के कामकाजी आयु वर्ग में आते हैं। यह जनसांख्यिकीय लाभ एक बहुमूल्य कार्यबल प्रदान करता है जो भारत के आर्थिक विकास में निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है। हालांकि, इन लाभों को अधिकतम करने हेतु, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कौशल विकास और आलोचनात्मक सोच क्षमताओं को सुनिश्चित करने के लिए कुशल संरचनाओं और तंत्रों को स्थापित करना आवश्यक है। भारत ने अमृतकाल में कदम रखा है, जो हमारे युवाओं के लिए अपनी क्षमताओं का लाभ उठाने और भारत को विकसित राष्ट्र में बदलने का एक सुनहरा अवसर है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम प्रगति के रास्ते में युवाओं के सामने आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने का प्रयास करें। अवसरों के साथ रचनात्मकता आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयासों को तेज करने के लिए एक आदर्श मंच प्रदान करेगी।
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आज़ाद, विजय भान. "हैमलेट नाटक के अनुवादों का तुलनात्मक अध्ययन (रांगेय राघव, हरिवंशराय बच्चन तथा अमृतराय के विशेष सन्दर्भ में". International Journal of Advanced Academic Studies 4, № 4 (2022): 113–18. http://dx.doi.org/10.33545/27068919.2022.v4.i4b.899.

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Talekar, P. R. "डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर आणि कार्यसंस्कृती : व्यावहारीक दृष्टीक्षेप". International Journal of Advance and Applied Research 5, № 17 (2024): 207–10. https://doi.org/10.5281/zenodo.12187525.

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Abstract:
<strong>&nbsp;</strong>भारताला थोर महापुरुषांकडून स्वातंत्र्याच्या अगोदर प्रचंड वाङ्मय उपलब्ध झालेले आहे व नंतरही त्यात भर पडलेली आहे. या विविध वाङ्मयाच्या आधारे भारताला स्वातंत्र्य मिळाले आणि स्वातंत्र्याचा अमृतहोत्सव साजरा करता आला आणि भारताने आज अमृतकालावधीत (2023-2047) विकसित भारत संकल्प तयार केला आहे. अनेक थोर महापुरुषात डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचे योगदान कार्यसंस्कृतीत मोठे आहेत. दिलेले काम चांगले आणि योग्य वेळेत पूर्ण करणे म्हणजे कार्यसंस्कृती होय. भारतीय राज्यघटनेची निर्मिती हे कार्यसंस्कृतीचे मोठे उदाहरण आहे.आज कार्यसंस्कृतीमध्ये बदल झालेला पाहायला मिळतो. कार्यसंस्कृती हा जो गुण विकसित भारताच्या संकल्पनेंकरिता वापरणे खूप खूप गरजेचे आहे.डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, विधी, विकास सिद्धांत, कृषी अर्थशास्त्र, धार्मिक अभ्यास, कायदे अभ्यास अशा अनेक विषयात ते प्रखर बुद्धिवादी होते. ते सर्वात महत्त्वाचे समाजशास्त्रज्ञ होते, कारण सामाजिक समस्या ओळखून त्यांची ते उकल करत होते. थोडक्यात, सर्व प्रश्नाला बाजारपेठ उत्तरर देत नाही, ही भूमिका लक्षात घेऊन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी भरतीय लोकांचे कल्याण आणि विश्वकल्याण उंचावेल यासाठी जीवनभर कार्यसंस्कृतीने प्रेरित होऊन काम केले.
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पाटिल, विजय. "उज़्बेकिस्तान में हिंदी : दशा और दिशा". Oriental Renaissance: Innovative, educational, natural and social sciences 4, № 22 (2024): 57–61. https://doi.org/10.5281/zenodo.13765056.

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Abstract:
उज्बेकिस्तान में 1940 से 1960 के मध्य हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद कृष्णचंद्र,मोहम्मद इकबाल,मिर्ज़ा ग़ालिब अली सरदार, जाफरी अमृता प्रीतम की रचनाएं प्रकाशित की गई ।वर्ष 1960 से 1980 के मध्य 25 भारतीय लेखको की रचनाओं का अनुवाद उज्बेकी में किया जा चुका था। प्रसिद्ध उज़्बेक कवि गफूर गुलाम हमीद गुलाम,असद मुख्तार,हामिद अलीम जान,मिर्तेमीर, शाहिद जूनूनोवा, जैसे कई साहित्यकारों ने भारत के साहित्य पर कविता लेख निबंध रेखाचित्र लिखे। गफूर गुलाम ने रविंद्र नाथ टैगोर, प्रेमचंद, कृष्ण चंद्रर पर निबंध उनकी कविता का अनुवाद किया।उज्बेकिस्तान में हिंदी साहित्य का अध्ययन का प्रारंभ 1947 से माना जाता है। हिंदी साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन के इतिहास से संबंधित लेखकों की रचनाओं पर यहां काम किया गया है, जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद के लेखन पर। भारतीय साहित्य केवल एक राष्ट्र की संपत्ति ही नहीं अपितु समस्त विश्व की अमूल्य धरोहर है। उज़्बेक विद्वानों के शोध पर कार्यों में समकालीन भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध मोहम्मद इकबाल, केदारनाथ सिंह मुक्तिबोध
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पालीवाल, महेन्द्र कुमार. "पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की सक्रियता". Anthology The Research 8, № 10 (2024): H 60 — H 73. https://doi.org/10.5281/zenodo.10635244.

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Abstract:
This paper has been published in Peer-reviewed International Journal "Anthology The Research"&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; URL : https://www.socialresearchfoundation.com/new/publish-journal.php?editID=8189 Publisher : Social Research Foundation, Kanpur (SRF International)&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; Abstract : &nbsp;पर्यावरण संरक्षण मानव जीवन एवं संपोषणीय विकास के लिए अति आवश्यक विषय वस्तु है। प्रस्तुत शोध पत्र अनियंत्रित आर्थिक विकास के कुपरिणामा को समझने एवं सुधारात्मक सुझावो के लिए संस्थागत,&nbsp;विधिक प्रक्रियागत एवं महिलाओ की सक्रिय सहभागिता के पक्षों पर संकेन्द्रित है। पर्यावरण के विभिन्न घटको का मानवीय क्रिया कलापो पर होने वाले प्रभावों परजन-चेतना जागृत करना एवं उसके प्रतिअवबोध विकसित करना है। पर्यावरण व वन्यजीव रक्षा के कार्यो में महिलाओं की सक्रियता से समकालीन विश्व को अवगत कराना एवं अमृता देवी द्वारा किये ऐतिहासिक कार्यों की वर्तमान में महत्वता बतायी गयी हैं। पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की सक्रिय नेतृत्व क्षमता को प्रोत्साहित करने हेतु उन्हे वन विभाग सेवाओं में उच्च पदो परआसीन किया जाये एवं विभिन्न पर्यावरण संरक्षण संबंधी कार्याक्रमों,&nbsp;सम्मेलनों एवं पर्यावरण संरक्षण से संबंध संस्थाओ मे महिलाओ की अधिकाधिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना है। जैसा कि कार्लमाक्स का कथन है कि ''सृष्टि में कोई भी बडे से बडा सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के बिना नही हो सकता"। विश्व को ग्लोबल वार्मिंग से बचाया जा सके और एक ग्रीन एवं समृद्ध विश्व का निर्माण हो सके।
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प्रमिला, देवी. "श्री धर्मवीर भारती-निबंधकार के रूप में". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 6 (2017): 689–92. https://doi.org/10.5281/zenodo.835375.

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Abstract:
प्रयोगवाद के प्रवर्त्तक अज्ञेय जी द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ 1951 ई. के साथ ही डॉ. धर्मवीर भारती का हिन्दी साहित्य में आगमन हुआ । भारती जी उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, कवि और ‘धर्मयुग’ के संपादक के रूप में जाने जाते हैं । इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारती जी को एक प्रख्यात निबंधकार के रूप में भी जाना जाता है । धर्मवीर भारती की प्रशंसा करते हुए अज्ञेय लिखते हैं - ‘‘प्रतिभाएॅं और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेखनीय है, पर उनसे धर्मवीर भारती में एक विशेषता है । वे केवल अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक नहीं हैं, वे नयी पौध के सबसे मौलिक लेखक हैं ।’’1 भारती के निबंधकार के रूप को स्पष्ट करने से पहले एक बात बता देनी चाहिए कि उनके निबंधों को निबंध की शिल्पगत व्याख्या के अनुकूल माना जाए अथवा नहीं, इस बारे में यदा-कदा प्रश्न उठते रहे हैं । उनको निबंधकार के रूप में उतनी ख्याति नहीं प्राप्त हुई, जितनी कवि के रूप में । अतः कहा जा सकता है कि निबंधकार डॉ. भारती पर अभी तक सम्यक् विवेचन होना शेष है । डॉ. वेदवती राठी मानती है कि, ‘‘हिन्दी गद्य की ललित लेखन परम्परा में उनकी तीन गद्यकृतियॉं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । जिनमें ‘पश्यन्ती’, ‘कहनी-अनकहनी’ में दी गयी ललित निबंधनुमा गद्यरचनाएॅं उनके आत्मकथात्मक प्रयोगों के सुन्दर निदर्शन कहीं जा सकती हैं । ‘ठेले पर हिमालय’ तीसरी रचना है, जिससे यात्रा-विवरण, डायरी, पत्र, शब्द-चित्र, संस्मरण, कैरीकेचर, व्यंग्य, रूपक, श्रद्धांजलि और आत्म व्यंग्य जैसे शीर्षकों के अंतर्गत जो गद्यरचनाएॅं दी गयी हैं, वे अपने रूप में ललित गद्य के सुन्दर उदाहरण हैं ।’’2 अतः यहॉं इन रचनाओं को ‘ललित निबंधनुमा गद्य रचनाएॅं’ कहा गया है । उसी प्रकार डॉ. जयचंद्र राय का मत है - ‘धर्मवीर भारती ने कहनी अनकहनी’ और ‘पश्यन्ती’ में समय-समय पर प्रकाशित टिप्पणियॉं और लेख प्रस्तुत किए हैं, जो कभी-कभी ललित निबंध का कलेवर धारण कर लेते हैं।’’3 फिर भी, अपनी समीक्षा में इन दोनों ने भारती को निबंधकार के रूप में ही स्थान दिया है । इन पंक्तियों के लेखक के मत से ऐसा होने के पीछे यह कारण होगा कि भारती जी हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ की परंपरा के ललित निबंधकार नहीं हैं । उनके निबंधों की पदसंरचना, शैली, प्रतिपाद्य विषय आदि सभी पर नवलेखन का प्रभाव दिखायी देता है । डॉ. बच्चन सिंह तो स्पष्ट लिखते हैं, ‘ठेले पर हिमालय’, ‘कहनी अनकहनी’, ‘पश्यन्ती’ आदि उनके निबंधसंग्रह हैं ।’’4 वास्तव में भारती कथात्मकता, प्रवाहपूर्णता आदि गुणों द्वारा निबंध लेखन के नये आयाम उद्घाटित करते हैं। वे वैचारिकता को लालित्य, हास्य, कथारस और घटनाओं के सुंदर वर्णनों द्वारा मनोहर रूप में व्यक्त करते हैं। निबंधकार के रूप में उनकी उपलब्धियॉं डॉ. बच्चन सिंह के शब्दों में देखें तो-‘‘भारती के निबंधों पर पांडित्य का लदाव नहीं है । वे आडम्बरहीन भाषा में प्रकृति से गहन सान्निध्य स्थापित कर सकते हैं, दार्शनिक चिन्तन कर सकते हैं, और हल्के-फुल्के व्यंग्य-विनोद द्वारा हिपोक्रेसी का पर्दाफास करते हुए भी लिख सकते हैं ।’’5 इनके अब तक प्रकाशित तीनों संग्रह ‘पश्यन्ती’, ‘ठेेले पर हिमालय’ तथा ‘कहनी-अनकहनी’ का अपना-अपना महत्त्व है । ‘पश्यन्ती’ भारती के लेखकीय व्यक्तित्व और उनके रचना-विधान पर प्रकाश डालता है । ‘ठेले पर हिमालय’ उनको एक भावुक लेखक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित करता है । ‘कहनी-अनकहनी’ में उनकी विविध वैचारिक स्थिति देखी जा सकती है। धर्मवीर जी बड़ी लगन और सूझबूझ के व्यक्ति हैं । ‘अनुक्रम’ में निबंधों के शीर्षकों के साथ उनके प्रथम प्रकाशन का वर्ष भी दे देते हैं, ताकि समय तथा संदर्भ स्पष्ट रहें । जैसे ‘पश्यन्ती’ के निबंध सन् 1959 से सन् 1967 समय में प्रकाशित हुए हैं । लेखक के जीवन में यह समय विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि यह अवधि ‘अंधायुग’ तथा ‘कनुप्रिया’ जैसी रचनाएॅं प्रकाशित होने के बहुत निकट है । अतएव उस समय की भारती की मनः स्थिति और रचना-प्रक्रिया के विविध पड़ाव ‘पश्यन्ती’ में सहज ही मिल जायेंगे । इसीलिए सत्रह निबंधों के इस संग्रह को डॉ. हुकुमचन्द राजपाल ने ‘भारती के रचना संसार की पिटारी’ कहा है ।6 यहॉं हम सुगठित अध्ययन के लिए तीनों निबंध संग्रहों में से केवल ‘पश्यन्ती’ के कुछ निबंधों की चर्चा करेंगे। भारती ने आलोच्य संग्रह को कथ्य की दृष्टि से इन सात खण्डों में विभाजित किया है - आत्मकथ्य, व्यक्तित्व और कृतित्व, सर्वथा निजी, पश्यन्तीः इतिहास सर्वेक्षण, युगबोध, चिकनी सतहें बहते आन्दोलन । हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में श्री धर्मवीर भारती का नाम अति आदर के साथ लिया जाता है । उन्होंनें खुद कहा है - ‘‘मैं लिखकर लिखकर सीखता चल रहा हूॅं और सीख सीखकर लिखता चल रहा हूॅ ।7 उनके नयेपन का इससे अधिक क्या प्रमाण चाहिए ? ‘पश्यन्ती’ का पहला ही निबंध ‘नवलेखनःमाध्यम मैं’ उनके नवलेखन का परिचय देता है । वे आधुनिकता की चर्चा करते हुए भी परम्परा के प्रति सजग रहे हैं । कुछ कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए वे आज के लेखक के साथ महाभारत के संजय की तुलना करते हैं । ‘‘आज संजय (लेखक) को सिर्फ दिशाओं की दूरी नहीं पार करनी पड़ती, वरन् काल के अजस्र प्रवाह में पैठकर कभी उसे देखना पड़ता है जो आज बीज रूप में है और कल आ सकता है, कभी उसे पीछे लोैटना पड़ता है जहॉं वह सब था और नहीं है और न होते हुए भी, अपनी जगह बदस्तूर कायम है । आज का संजय (लेखक) बहुत बड़ी उलझन में है । उसका काम भी दोहरा, तिहरा और चौहरा हो गया है ।8 उसके भाग्य में नहीं है कि वह तटस्थ रह सकें । सब की मुक्ति उसकी मुक्ति है । उसकी कोई वैयक्तिक मुक्ति नहीं है । दूसरा निबंध ‘एक घृणाः अनेक आयाम’ भारती ने अत्यंत रोचक और सजीव रूप में व्यक्त किया है । तीन अलग-अलग अभिनेता गोपालदास, मानवेन्द्र चिटणीस और सत्यदेव दुबे ‘अन्धायुग’ के अश्वत्थामा का अभिनय अपने अपने ढंग से लेखक के सामने करते हैं । भारती को स्वीकार करना पड़ता है कि ये तीनों ही अश्वत्थामा पृथक हैं । निष्कर्षरूप में वे लिखते हैं -‘‘नाटक एक सहकारी कला है और अभिनेता भी नाटक की मूल परिधी के अन्दर रहकर कितनी मौलिकता व्याख्याओं में ला सकता है । यह इस दौरान मेेरे समक्ष स्पष्ट होता गया ।’’9 ‘जलोैधमग्ना सचराचरा धरा’, ‘मध्यवर्ग का सैलाव और बूढ़ा मछेरा’ के अन्तर्गत भारती एक सहज समीक्षक के रूप में हमारे सामने उभरते हैं ।प्रथम में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के मूलमंत्र ‘‘किसी से न डरना, गुरू से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं ।’’10 के आलोक में उपन्यास तथा द्विवेदी जी के व्यक्तित्व को लेकर अपने विचार मौलिक ढंग से व्यक्त किए हैं, जबकि दूसरे मंे अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘अमृत और विष’ की आलोचना की है । ‘वह एक कहानी और उसके अनेक परिशिष्ट’ में लेखक मोपासॉं की कहानी ‘धागे का टुकड़ा’, के माध्यम से उन्हें याद आयी अनेक कहानियों का उल्लेख करते हैं । जमीन पर से ‘धागे का टुकड़ा’ उठाने वाले सीधे सादे किसान पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने बटुआ उठा लिया है और वह अपने को निर्दोष साबित करने के लिए छटपटाता है । मरने के जरा पहले बेहोशी में भी वह रटता है - ‘‘बटुआ नहीं धागे का टुकड़ा था, मेयर साहब! यकीन कीजिए मेयर साहब! यह रहा वह धागे का टुकड़ा ।11 भारती का भावुक कवि हृदय ‘शुक्र तारे वाली एक शाम’ मे प्रकट हुआ है । शुक्र तारे वाली शाम को खुद का भटकना और रातभर अपने ऑंगन में शुक्र तारे का महकना उन्हें प्यारा लगता है । ‘एक खत’ निबंध में निबंधकार डायरी शैली में कुछ टिप्पणियॉं देकर अपने अन्दर उठने वाली शंकाओं का यथासंभव समाधान खोजने का प्रयास करता है । ‘रत्नाकर शांति का सान्ध्य-चिंतन’ निबंध में तांत्रिक युग का परिचय देकर गुरू नारोपा के कारण रत्नाकर शांति को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होने की बात कही गयी है । ‘भारतीय साहित्य जगत् में हिन्दी लेखक’ नामक रचना में भारती आज की समस्या को उठाते हैं । उन्होंनें बताया है कि समसामयिक लेखक, हिन्दी प्रेमियों, हिन्दी अध्यापकों और सरकार के पूर्वग्रहों का बुरी तरह शिकार हैं । ‘हिन्दी नाट्य लेखनः कुछ समस्याएॅं’ में डॉ. भारती मराठी के वयोवृद्ध नाटककार मामा वरेरकर के शब्दों में कहते हैं - ‘‘भाई, जब तक हिन्दी नाटक खेले नहीं तब तक अच्छे नाटक लिखे कैसे जायेंगे और खेलने के लिए कॉलेज युनिवर्सिटी के छोकरों का अधकचरा रंगमंच या बड़े-बड़े शहरों के चन्द पढ़े लिखें का शौकिया रंगमंच कब तक काम देगा ? हिन्दी का एक बड़ा सुव्यवस्थित, आर्थिक दृष्टि से पुख्त रंगमंच होना चाहिए जो शहर-शहर गॉंव-गॉंव मेले-ठेलों में जा सके और उस रंगमंच से नाट्य लेखक का सीधा सम्बंध जुड़े तभी ठीक नाटक रचना सम्भव है ।12 भारती व्यंग्य करते हैं कि आजकल साहित्यिक नाट्य-लेखन के नाम पर ऐसी पुस्तकों के अम्बार लगने लगे हैं जो नाट्य विधा मेें लिखी हुई सिफारिश युक्त पाठ्य-पुस्तक मात्र होती है । अंत में वे आशा जगाते हैं कि आज जब नई कविता ने भाषा को मुक्त कर दिया है, तो आज का मंच-विधान खुद ब खुद भाषा के अनुकूल हो जाएगा । समानधर्मा निर्देशक और अभिनेता के सुझाव आज के नाटककार के लिए अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं ।
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प्रमिला, देवी. "आधुनिक हिंदी कविता और स्त्री-विमर्श". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 6 (2017): 693–95. https://doi.org/10.5281/zenodo.835393.

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Abstract:
हिंदी साहित्य के क्षेत्र में पुरूषों के साथ-साथ नारी साहित्यकारों ने भी अपनी बहुमूल्य कृतियों से उल्लेखनीय योगदान दिया है । यहाँ अतीत भारत के इतिहास के पृष्ठ भारतीय महिलाओं की विशिष्ट कृतियों से भरे पड़े हैं । उस समय उन्हें पुरूषों के समान शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता था । कालांतर में समाज में कुप्रथाएँ बढ़ने लगी । देश की आज़ादी के साथ-साथ स्त्रियों की आज़ादी का भी अपहरण हुआ । इसमें उनसे समानता और शिक्षा का अधिकार भी छीन लिया गया । आधुनिक युग में नवजागरण के साथ ही नारियों की शिक्षा दीक्षा शुरू हुई । साहित्य की सभी विधाओं पर नारियों ने कलम चलाई है । आधुनिक कालीन कवियों ने मध्य युग की नारियों की दुर्दशा का अनुभव किया । गुप्त जी ने नारी की दयनीय दशा के विषय में वर्णन किया है:- ‘‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी । आँचल में है दूध, और आँखों में पानी।।’’1 अंग्रेजी शासन के विरूद्ध नारियों ने सत्याग्रह आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । गाँधी जी ने अछूतोद्धार की तरह नारी उद्धार के लिए भी प्रयास किए । समाज सुधारकों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द आदि ने कुपरंपराओं से मुक्त करने के लिए आंदोलन चलाया । ऐसे सुधारवादी प्रयासों से नारी स्वाभिमान को बढ़ावा मिला और नारी ने भी अपनी पहचान बनायी । पंत ने अपनी कविता में कहा- ‘‘मुक्त करो नारी को, मानव चिर बंदिनी नारी को युग-युग की निर्मल धारा से जननी, सखि, प्यारी को ।’’2 राष्ट्रीय चेतना से प्रेरित होकर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता ‘झाँसी की रानी’ तथा ‘वीरों का कैसा को वसंत’ के माध्यम से नारी के सम्मान में चार चाँद लगा दिए । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समानता के लिए नारी संघर्ष ने अथक प्रयास किया । इस काल में नारियों ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, साहित्यिक आदि क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ना शुरू कर दिया। नारीवादी आंदोलनों ने और नारीवादी साहित्य ने स्त्रियों की समस्याओं का प्रतिनिधित्व किया है । हिंदी साहित्य में आज महिला साहित्यकारों के बहुआयामी लेखन, नारी चेतना रूप में व्यक्त हुआ है । इन महिला साहित्यकारों में प्रमुख हैं - सुमित्रा कुमारी सिन्हा, मृदुला गर्ग, मृणाल पांडेय, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा, महादेवी वर्मा, मन्नू भंडारी, रमणिका गुप्ता, रजनी पणिक्कर, शची रानी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार डोरिस लेसिंग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली दुनिया की सबसे पहली महिला हैं । इन्होंनें महिला मुक्ति आंदोलन को एक नए मुकाम पर पहुँचाने के लिए प्रेरित किया । महिला आंदोलन और महिला साहित्यकारों के संघर्षों का सुपरिणाम है कि आज देश के सर्वोच्च पद पर महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल आसीन हुईं । आजादी के बाद महिला साहित्यकार अपनी साहित्यधर्मिता के कारण विश्व की महान लेखिकाएँ बन गई हैं । आज़ादी के बाद जिन साहित्यकारों ने नारी की स्वतंत्रता के लिए अपनी लेखनी चलाई है उनमें प्रमुख हैं - नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, दुष्यंत कुमार, राजेन्द्र यादव आदि । नागार्जुन ने ‘भूमिजा’ शीर्षक कविता में नर-नारी की समानता के स्वर को मुखरित किया है - ‘‘नर-नारी में मर्यादा के बोध सम-सम होंगे, सम-सम होगा न्याय । सम-सम होंगे विद्या-बुद्धि-विवेक टिक सकता है क्योंकर वहाँ प्रवाद जाग्रत होगी जहाँ परख की आंच ।’’3 भारतीय सभ्यता का मूल मंत्र सादा जीवन उच्च विचार था । परंतु आज की नारियाँ सादे जीवन से बहुत दूर हैं । आज के संक्रांति युग में जब हमारे देश की जनता को न खाने को अन्न है और न पहनने को कपड़ा, संकट के क्षणों में हमारे देश के धन का अधिकांश हिस्सा फैशन परस्ती पर लुटा दिया जाता है । जिसका कोई भी रचनात्मक मोल नहीं । पुरूषों को मोहने के लिए आज की नारियाँ पुरातन स्वभाव को नहीं छोड़ रही हैं । ‘जयति नखरंजिनी’ कर्त्तव्यविमुख नारी के सामाजिक फैशन के संदर्भ को रेखंाकित करती है - ‘‘ठमक गए सहसा बेचारियों के पैर हाय इतने सुंदर, हाथ हो जायेंगे दागी भड़क उठा परिमार्जित रूचि-बोध कौन ले बैलेट पेपर, मतदान कौन करे ।’’4 सेवा भावना के धनी एवं प्रगति के महान चितेरे डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ने अपनी कृति ‘स्वयं धरित्री ही थी’’ में सदियों से उपेक्षित नारी की व्यथा का मार्मिक चित्रांकन किया है - ‘‘अमर रहेगी आर्य संस्कृति, महा तपस्विनी चिर दुखियारिनी तू धरती से ही जन्मी थी धरती में ही लीन हो गई ।’’5 इस प्रकार आधुनिक हिंदी कविता में नारीवादी लेखन से नारी की महत्ता प्रतिष्ठित हुई है ।
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डॉ., उर्मिला पोरवाल. "गांधी दर्शन के आलोक में प्रेमचन्द और उनका उपन्यास साहित्य : तुलनात्मक अध्ययन". International Journal of Research - Granthaalayah 7, № 4 (2019): 171–77. https://doi.org/10.5281/zenodo.2653833.

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Abstract:
<strong>&lsquo;दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल,</strong> <strong>साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल&rsquo;</strong> &nbsp; ये लोकप्रिय पंक्तियां बापू के करिश्माई व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रशस्ति-गान हैं। महात्मा गांधी ने किसी नए दर्शन की रचना नहीं की है वरन् उनके विचारों का जो दार्शनिक आधार है, वही गांधी दर्शन है। गांधी-दर्शन के चार आधारभूत सिद्धांत हैं- सत्य, अहिंसा, प्रेम और सद्भाव। &nbsp; वह बचपन में &lsquo;सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र&rsquo; नाटक देखकर सत्यावलंबी बने। उनका विश्वास था कि सत्य ही परमेश्वर है। उन्होंने सत्य की आराधना को भक्ति माना और अपनी आत्मकथा का नाम &lsquo;सत्य के प्रयोग&rsquo; रखा। &lsquo;मुंडकोपनिषद&rsquo; से लिए गए राष्ट्रीय वाक्य &lsquo;सत्यमेव जयते&rsquo; के प्रेरणा-श्रोत बापू हैं। बापू सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। उनका विचार था, &lsquo;अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। अहिंसा साधन है और सत्य साध्य।&rsquo; शांति प्रेमी रूस के टॉलस्टाय और अमेरिका के हेनरी डेविड थॉरो उनके आदर्श थे। &nbsp; ईश्वर की सत्ता में विश्वास करनेवाले भारतीय आस्तिक के ऊपर जिस प्रकार के दार्शनिक संस्कार अपनी छाप डालते हैं वैसी ही छाप गांधी जी के विचारों पर पड़ी हुई है। वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। &nbsp; किसी गंभीर रहस्यवाद में न पड़कर वे यह मान लेते हैं कि शिवमय, सत्यमय और चिन्मय ईश्वर सृष्टि का मूल है और उसने सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन से की है। वे ऐसे देश में पैदा हुए जिसने चैतन्य आत्मा की अक्षुण और अमर सत्ता स्वीकार की है। वे उस देश में पैदा हुए जिसमें जीवन, जगत सृष्टि और प्रकृति के मूल में एकमात्र अविनश्वर चेतन का दर्शन किया गया है और सारी सृष्टि की प्रक्रिया को भी सप्रयोजन स्वीकार किया गया है। यद्यपि उन्होंने इस प्रकार के दर्शन की कोई व्याख्या अथवा उसकी गूढ़ता के विषय में कहीं विशद और व्यवस्थित रूप से कुछ लिखा नहीं है, पर उनके विचारों का अध्ययन करने पर उनकी उपर्युक्त दृष्टि का आभास मिलता है। उनका वह प्रसिद्ध वाक्य है-- जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है। &nbsp; यहाँ उन्हें जीवन और जगत का प्रयोजन दिखाई देता है। वे कहते हैं कि जीवन का निर्माण और जगत की रचना शुभ और अशुभ जड़ और चेतन को लेकर हुई है। इस रचना का प्रयोजन यह है कि असत्य पर सत्य की और अशुभ पर शुभ की विजय हो। वे यह मानते हैं कि जगत का दिखाई देनेवाला भौतिक अंश जितना सत्य है उतना ही और उससे भी अधिक सत्य न दिखाई देनेवाला एक चेतन भावलोक है जिसकी व्यंजना जीवन है। &nbsp; फलतः वे यह विश्वास करते हैं कि मनुष्य में जहाँ अशुभ वृत्तियाँ हैं वहीं उसके हृदय में शुभ का निवास है। यदि उसमें पशुता है तो देवत्व भी प्रतिष्ठित है। सृष्टि का प्रयोजन यह है कि उसमें देवत्व का प्रबोधन हो और पशुता प्रताड़ित हो, शुभांश जागृत हो और अशुभ का पराभव हो। उनकी दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। &nbsp; इसी के प्रकाश में महात्मा गांधी ने सारी सृष्टि के विकास और मानव के इतिहास को देखा। उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। अहिंसा का अर्थ है-मन, वाणी अथवा कर्म से किसी को आहत न करना। ईर्ष्या-द्वेष अथवा किसी का बुरा चाहना वैचारिक हिंसा है तथा परनिंदा, झूठ बोलना, अपशब्दों का प्रयोग एवं निष्प्रयोजन वाद-विवाद वाचिक हिंसा के अंतर्गत आते हैं। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते हैं कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। उनकी अहिंसा केवल जीव हिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परमाशक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई शासनयत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है। &nbsp; उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी हिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। इस अहिंसक पथ को प्रदर्शित करके वे कल्पना करते हैं एक ऐसे लक्ष्य तक पहुँचने की जहाँ अहिंसा के आधार पर ही मनुष्य के जीवन, उसके समाज और उसके जगत की व्यवस्था की रचना की जा सके। वे मानते हैं कि व्यक्ति से समाज बनता है और व्यक्ति का परिवर्तन समाज को परिवर्तित कर देगा। वे यह स्वीकार करते हैं कि आर्थिक व्यवस्था का व्यक्ति और समाज पर सबसे अधिक प्रभाव होता है और फिर उससे उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती हैं। फलत: समाज के बहुत बड़े अंग का शोषण, दोहन और दलन। इस प्रकार अधिकारवंचित और शोषित जनसमाज आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से मूलतः पराधीन होता है यद्यपि देखने में स्वाधीन दिखाई देता है। &nbsp; गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँ चे ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरु षों की समस्त उच्चता निहित दिखाई देती हैं। &nbsp; गांधी जी की तरह मुंशी प्रेमचंद्र ने भी लड़ी हैं लड़ाइयां, जहां गांधीजी सत्याग्रह के माध्यम से लड़े वहीं मुंशी प्रेमचंद भी समाजिक कुरीतियों के खिलाफ पहले से ही अपनी लेखनी से लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी की क्रियात्मकता की झलक हमें प्रेमचंद्र के प्रारम्भिक साहित्य में ही मिलने लगती है फिर चाहे बात देशप्रेम की हो या फिर सामाजिक कुरीतियों कीI &nbsp; बीसवीं सदी का वह भारत, जिसकी सोई हुई आस्था जागने के लिये अकुलाने लगी थी...उसमें एक नाम साहित्य की दुनिया से था तो दूसरा राजनीतिक हलचलों से, वे नाम थे...प्रेमचंद और महात्मा गांधी। &nbsp; देश के और सामाजिक कुरीतियों के प्रति दोनों महापुरुषों की चिंता समान थी। एक ने उसका प्रतिकार अपनी लेखनी से किया तो दूसरे ने सत्याग्रह से। &nbsp; यहां प्रारम्भ में ही यह बात विचारणीय है कि क्या प्रेमचंद गांधीजी से प्रभावित थे? निस्संदेह इसमें दो मत नहीं हैं कि प्रेमचंद पर गांधी जी का प्रभाव था पर यह भी निर्विवाद सत्य है कि गांधी की लड़ाई जिन-जिन समस्याओं के विरुद्ध रही, उस लड़ाई को प्रेमचंद पहले से ही लड़ रहे थे या यूं कहें कि हम प्रेमचंद के विचारों में, उनके साहित्य में गांधी के आगमन से ही गांधी दर्शन की छाया पाने लगते हैं। गांधी की क्रियात्मकता की झलक हमें प्रेमचंद के प्रारम्भिक साहित्य में ही मिलने लगती है...चाहे वह देश प्रेम की बात हो या सामाजिक समस्याओं की। &nbsp; इसका कारण स्पष्ट है, वह यह कि गांधीजी का भारत प्रेमचंद के लिये उनका अपना घर था जिसमें उनका बचपन अठखेलियों की यादों को संजोये हुये बड़ा हुआ था, जिसकी झलक हमें उनकी कहानी &ldquo;चोरी&rdquo; में मिलती है, कुछ इस तरह-&ldquo;हाय बचपन, तेरी याद नहीं भूलती। वह कच्चा, टूटा घर, वह पुआल का बिछौना, नंगे बदन, नंगे पांव खेतों में घूमना, आम के पेड़ों पर चढ़नाकृसारी बातें आंखों के सामने फिर रही हैं...गरम पनुए रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं, चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता।...&rdquo; &nbsp; उनके हृदय में समाई इसी प्रकार की भावात्मकता प्रेमचंद को उद्वेलित करती रही अपनी लेखनी में, जिसमें देश के लिये उनकी तड़प है और प्रेम भी है। इसीलिये वे अपने देश में पनपी तमाम बुराइयों के विरोध में अपनी लेखनी चलाते हैं जिसके स्वर हमें गांधी दर्शन में मिलते हैं। &nbsp; &nbsp;भारतीय राजनीति में गांधीजी का आगमन 1916 के आस-पास हुआ पर प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ लगभग 1901 से ही हो चुका था। स्वाभाविक था कि ऐसे प्रेमचंद के लिये तत्कालीन परिस्थितियां अत्यंत प्रभावित कर देने वाली थीं जिनमें राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक संघर्ष का बिगुल बज चुका था। देश की उन परिस्थितियों ने प्रेमचंद की लेखनी को जैसे धार दे दी और वे चल पड़े उन्हीं रास्तों पर, जिन पर आगे गांधी जी को आना था। &nbsp; अमृतराय के इस कथन से इसका स्पष्ट प्रमाण मिलता है जिसमें वे लिखते हैं...&ldquo;सन् 1901 के आसपास प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास &ldquo;श्यामा&rdquo; लिखा। मुझे बताया गया है कि उसमें प्रेमचंद ने बड़े सतेज, साहसपूर्ण स्वर में ब्रिटिश कुशासन की निंदा की है।&rdquo; &nbsp; यही भावधारा उस काल की कहानियों में मिलती है। इन कहानियों का संग्रह, संभवतः 1906 में &ldquo;सोजेवतन&rdquo; के नाम से छपा था। यह किताब फौरन जब्त कर ली गई।... देश की परिस्थितियां ही ऐसी थीं कि हर सच्चे भारतीय के सीने में देश प्रेम उफान मार रहा था। &ldquo;सोजेवतन&rdquo; संग्रह की पहली कहानी &ldquo;दुनिया का सबसे अनमोल रतन&rdquo; में उसी की परिणति दिखती है जिसमें उस प्रेमिका के द्वारा मंगाई गई रत्नजड़ित मंजूषा में से निकली तख्ती पर सुनहरे अक्षरों में लिखा है... &ldquo;खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज है...।&rdquo; इस संग्रह की पांचों कहानियों में देश प्रेम की ही महिमा है। &ldquo;यही मेरा वतन है&rdquo; कहानी में अपने बच्चों के साथ अमेरिका में बस जाने वाले एक भारतीय के सीने में अपने देश के प्रति प्रेम का दर्द कुछ इसी तरह बोलता है। &nbsp; प्रेमचंद की वैचारिक चेतना के इसी क्रम में 1912 में &ldquo;वरदान&rdquo; उपन्यास आता है जिसमें बड़े-बड़े जनांदोलनों का रूप पहली बार दिखाई देता है। उपन्यास का प्रारंभ ही देश सेवा की अभिलाषा के साथ उसी के लिये वरदान मांगने से होता है। प्रेम कथा के ताने-बाने में बुनी इस रचना का अंत भी देश सेवा के ही संकल्प से होता है। &nbsp; उन दिनों देश में स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही सामाजिक सुधार के भी आंदोलन चल रहे थे। प्रेमचंद का &ldquo;प्रेमा&rdquo; अथवा &ldquo;प्रतिज्ञा&rdquo; उपन्यास उसी का प्रतिफल था जिसमें उपन्यास का विधुर नायक अमृतराय वैधव्य के भंवर में पड़ी हुई अबलाओं के साथ अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये आर्य मंदिर में प्रतिज्ञा करता है। &nbsp; प्रेमचंद देश में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों से अत्यधिक आहत थे। अछूतोद्धार और विधवा विवाह की समस्या पर उनकी लेखनी आहत होकर चली है। यह उनकी कथनी और करनी की समानता ही थी कि उन्होंने स्वयं 1905 में एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया। 1907 का यह उपन्यास गांधी के आने से पूर्व का है, जिसमें उठाई गई समस्याओं को आगे चलकर गांधीजी ने अपने समाज सुधार का प्रमुख अभियान बनाया। &nbsp; प्रेमचंद ने &ldquo;प्रतिज्ञा&rdquo; उपन्यास भारतीय समाज की सबसे पीड़ित विधवा नारी की समस्या को लेकर लिखा है जिसमें वे इस सामाजिक समस्या को सुधारवादी ढंग से सुलझाने की कोशिश करते हैं। &nbsp; यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि प्रेमचंद की इस समाज सुधारक कृति में गांधीवादी विचारधारा क्यों दिखाई देती है, वह इसलिये कि महात्मा गांधी केवल राजनीतिक आंदोलनकारी ही नहीं थे बल्कि एक समाज सुधारक भी थे, जिनका मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये देश की सामाजिक बुराइयों से मुक्ति जरूरी है। &nbsp; प्रेमचंद की इसी सामाजिक चिंता के क्रम में उनका उपन्यास &ldquo;सेवासदन&rdquo; आता है जो 1918 में प्रकाशित हुआ। भारतीय राजनीति का यह वह समय था जब गांधीजी भारत की राजनीति के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर रहे थे। ऐसे समय में प्रेमचंद का यह उपन्यास नारी समस्या को लेकर आया। प्रेमचंद की बहुत बड़ी विशेषता है कि वे यथार्थ का चित्रण तो करते हैं पर उसकी परिणति आदर्श में होती है। पर वे अपने आदर्शवादी रूप में भी सामाजिक यथार्थ को छूटने नहीं देते। उनका यही रूप &ldquo;सेवासदन&rdquo; में उनके आदर्श की स्पष्ट छाप छोड़ता है जिसमें वे गणिका हो चली सुमन को दालमंडी के कोठे से निकाल कर सेवासदन की अध्यक्षा बना देते हैं। एक समाज सुधारक के रूप में महात्मा गांधी ने भी इस समस्या को एक प्रमुख सामाजिक समस्या के रूप में देखा था जिसे वे अनैतिक और पशुवृत्ति जैसा मानते थे। प्रेमचंद भी इस उपन्यास में यही भाव लेकर चले हैं। &nbsp; बिहार के चंपारण में हजारों भूमिहीन मजदूर और गरीब किसान अंग्रेजों के शोषण से खाद्यान्न के बजाय नील और अन्य नकदी फसलों की खेती करने को मजबूर थे। किसानों पर होने वाले इस तरह के अत्याचार के विरोध में गांधीजी द्वारा 1917 में चंपारण का पहला सफल सत्याग्रह किया गया जिसके बाद उनकी समस्या दूर होने के साथ ही वे अपनी जमीन के मालिक बन सके। इसी के बाद इसी तरह की समस्याओं से त्रस्त भारत के किसानों में एक संगठनात्मक चेतना का विकास होने लगा था। ऐसे समय में प्रेमचंद की किसानी चेतना इन हलचलों के साहित्यिक आंदोलन के लिये उठ खड़ी हुई और उन्हीं कृषक समस्याओं का सच लिये 1922 में उनका उपन्यास आया...&rdquo;प्रेमाश्रम&rdquo;। गांधीजी का चंपारण सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, जिसने भारतीय जनमानस में अत्याचार का विरोध करने की शक्ति भर दी थी, जिसके कारण समाज में एक जाग्रति का उदय हो चला था ये सब &ldquo;प्रेमाश्रम&rdquo; के प्रेरणास्रोत बने। स्वयं प्रेमचंद इस प्रेरणा को स्वीकार करते हुये अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं...&rdquo;&ldquo;गांधीजी राजनीति के माध्यम से भारत के किसानों और मजदूरों के सुख-चैन के लिये जो प्रयत्न कर रहे हैं, &ldquo;प्रेमाश्रम&rdquo; उन्हीं प्रयत्नों का साहित्यिक रूपांतर है। (&ldquo;प्रेमचंद घर में&rdquo;) प्रेमचंद ने किसानों के सारे दर्द की अनुभति कर ली थी तभी तो वे ऐसे पहले लेखक हुए, जिन्होंने भारत में जमींदारी उन्मूलन की बात कही। &nbsp; &nbsp;1925 में आया प्रेमचंद का उपन्यास &ldquo;रंगभूमि&rdquo;, जो राजनीतिक मंच पर गांधीवाद के चरमोत्कर्ष का काल था। यह वह समय था जब गांधीजी असहयोग आंदोलन को स्थगित कर सविनय अवज्ञा आंदोलन की तैयारी में संघर्षरत थे। उनका &ldquo;यह&rdquo; उपन्यास गांधीजी के इसी सत्याग्रही आत्मबल से प्रेरित है जिसमें इसका मुख्य पात्र, अंधे भिखारी सूरदास का आत्मबल, पशुबल के विरुद्ध लड़ते दिखाई देता है। सूरदास बनारस के पाण्डेयपुर गांव का निवासी है जिसके पास पूर्वजों से मिली उसकी कुछ जमीन है जिसे वह अपने जीवनयापन के लिये इस्तेमाल न कर गांव के पशुओं को चरने के लिये छोड़ देता है। उसका ऐसा त्याग कि वह भीख मांग कर अपना जीवन व्यतीत करता है। &nbsp; पूंजीपति जनसेवक उसकी जमीन पर सिगरेट का कारखाना लगाने के लिये उसे अच्छे दाम देकर इस जमीन को खरीदना चाहता है पर सूरदास इससे साफ इनकार कर देता है। वह जमीन खरीदने के तमाम प्रलोभनों से भी विचलित नहीं होता और अपने आदर्शों की रक्षा के लिये सत्याग्रह करते हुए अपने को होम कर देता है। उपन्यास की मुख्य समस्या औद्योगिकीकरण के कारण होने वाली समस्या है जिससे गांधीजी भी चिंतित थे, जिसके मूल में पूंजीपतियों के निजी लाभ और बाकी सब शोषण ही शोषण था। सच्चाई की यही लड़ाई सूरदास अकेले बंद आंखों और खुले दिल से लड़ता रहा। &ldquo;रंगभूमि&rdquo; में महत्व इस बात का नहीं है कि सूरदास एक हारी हुई लड़ाई लड़ता है बल्कि महत्व इस बात का है कि वह अन्याय को चुपचाप सहन नहीं करता, बल्कि लड़ता है। &nbsp; निश्चित रूप से लेखक का आदर्श उसके उसी संघर्षमूलक आत्मबल में ध्वनित होता है जिसमें उनका पात्र हार नहीं मानता, पलायन नहीं करता बल्कि विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए शहीद हो जाता है जो उनके यथार्थ में भी आदर्श बनता है। अगर &ldquo;प्रेमाश्रम&rdquo; में प्रेमचंद प्रेमशंकर बनकर गांधी के सत्याग्रह की लड़ाई लड़ते हैं तो रंगभूमि में सूरदास के रूप में गांधी को ही उतार देते हैं। यही वह उपन्यास था जिसने अपनी प्रसिद्धि के चलते प्रेमचंद को कथा सम्राट की पदवी दे डाली। &nbsp; आगे जैसे-जैसे अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में गांधीजी का संघर्ष तेज होता गया, प्रेमचंद के उपन्यासों में भी उस विरोध के स्वर तेज होते गए। 1932 में आया उनका &ldquo;कर्मभूमि&rdquo; उपन्यास गांधीजी के स्वाधीनता और अछूतोद्धार आन्दोलन की कर्मभूमि का ही साहित्यिक रूप था। उपन्यास का नायक अमरकान्त बनारस के सेठ समरकान्त का बेटा है जो शुद्ध खद्दरधारी, चरखा चलाने वाला समाजसेवी है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने क्रान्ति का व्यापक चित्रण करते हुए तत्कालीन सभी राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को कथानक से जोड़ा है। &nbsp; प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन में कलम के सिपाही ही नहीं थे बल्कि अपने पारिवारिक जीवन के साथ उसमें सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे, जिसमें उनकी अर्द्धांगिनी शिवरानी देवी को एक क्रांतिकारी के रूप में दो महीने का कारावास भी हुआ। प्रेमचंद जेल जाने को स्वयं उत्सुक थे, पर उनकी देश प्रेम की भावना में पत्नी भी साथ खड़ी हो गई। &ldquo;प्रेमचंद घर में&rdquo;...जीवनी से शिवरानी देवी की एक सक्रिय क्रांतिकारी की भूमिका का पता चलता है। प्रेमचंद के मुंशी दयानारायण निगम को 7 जून, 1930 को लिखे पत्र से यह बात स्पष्ट होती है कि आंदोलन में जेल जाने के लिये वे पूरी तरह तैयार थे लेकिन उनकी पत्नी ने इस इच्छा को पूरा नहीं होने दिया। कारण स्पष्ट था-पत्नी की स्वयं जेल जाने की इच्छा। &nbsp; इसी समय आया प्रेमचंद का &ldquo;समर यात्रा&rdquo; कहानी संग्रह गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन पर जोर देता है पर &ldquo;सोजेवतन&rdquo; की तरह सरकार ने इसे भी जब्त कर लिया। इसके अलावा उनकी कहानियों में भी गांधी के आंदोलन की स्पष्ट छाप मिलती है जिसमें मुख्य रूप से &ldquo;जुलूस&rdquo;, &ldquo;शराब की दुकान&rdquo;, &ldquo;लाल फीता&rdquo;, &ldquo;अनुभव&rdquo;, &ldquo;मैकू&rdquo;, &ldquo;होली का उपहार&rdquo;, &ldquo;आहुति&rdquo;, &ldquo;जेल&rdquo; और &ldquo;पत्नी से पति&rdquo; आदि कहानियों में गांधीजी के आंदोलनों की स्पष्ट गूंज है। 8 फरवरी, 1921 को गांधीजी ने गोरखपुर में एक विराट जनसभा में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अपना ओजस्वी भाषण दिया था। उस भाषण का प्रेमचंद पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने 15 फरवरी को ही अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। &nbsp; एक तरफ गांधीजी का भारत तो दूसरी तरफ उसी भारत के ग्रामीण जीवन में जीने वाला प्रेमचंद का नायक नहीं बल्कि महानायक-उनका गरीब किसान जो ग्रामीण जीवन के महाकाव्य में अपने जीवन संघर्ष का नायक होकर उभरता है...जैसे लगता है, वही पूरा भारत है जिसका शताब्दियों तक शोषण और उत्पीड़न हुआ है, वह &ldquo;गोदान&rdquo; का होरी ही है। वह अपने कर्तव्य को समर्पित निष्ठावान है, सहता है, मरता है पर हार नहीं मानता। 1936 में आये &ldquo;गोदान&rdquo; को देखकर ऐसा लगता है कि प्रेमचंद की सारी उपन्यास यात्रा का अंत &ldquo;गोदान&rdquo; में ही होना था। &nbsp; इस उपन्यास तक आते-आते प्रेमचंद गांधीजी से भी आगे निकल जाते हैं। उन्हें लगता है कि हम लोगों के द्वारा लड़ी जाने वाली वह कैसी आजादी की लड़ाई है जहां इस कृषक देश में किसान की ऐसी हालत है कि वह ऋण के मकड़जाल में फंसकर विवश अपने परिवार की एक-एक इच्छा के लिये छटपटाता है और हल त्याग कर फावड़ा उठाने को मजबूर हो जाता है। उनके अंदर की चिंता कहती है, क्या इसका कोई हल है अपने भारत में? इसीलिये शायद अभी तक होने वाले उनके यथार्थ चित्रण में आदर्श की कोई जगह नहीं बची थी, तभी तो वह किसान से मजदूर बन फावड़ा चलाते-चलाते अंत में दम तोड़ देता है। उनकी यही मूल चिंता है भारत के किसान को लेकर, जो &ldquo;गोदान&rdquo; में एक किसान की किसान से मजदूर बनने की कहानी कहती है और जो कई प्रश्नों को छोड़कर समाप्त हो जाती है। प्रेमचंद ऐसे भारत के स्वप्नद्रष्टा नहीं थे, उनकी उसी चिंता की परिणति &ldquo;गोदान&rdquo; में अपने तमाम प्रश्नों के साथ हुई है। &nbsp; प्रेमचंद का आजादी पाने जा रहे भारत को लेकर एक सपना था, जिसमें था अब तक की लड़ी गई उनकी सारी सामाजिक और राजनीतिक लड़ाई से मुक्त एक भारत। &ldquo;हंस&rdquo; के अपने प्रथम संपादकीय में उनके विचार उनकी इसी कामना की तरफ संकेत करते हैं...&ldquo;हंस के लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि उसका जन्म ऐसे शुभ अवसर पर हुआ है, जब भारत में एक नये युग का आगमन हो रहा है, जब भारत पराधीनता की बेड़ियों से निकलने के लिये तड़पने लगा है... हमारा यह धर्म है कि उस दिन को जल्द से जल्द लाने के लिये तपस्या करते रहें।...हंस का ध्येय आजादी की जंग में योग देना है।&rdquo; बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे अपने एक पत्र में वे कहते हैं... &ldquo;इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य-संग्राम में विजयी हों।&rdquo;... &nbsp; स्वतंत्रता आंदोलन को निर्ममता से कुचलने के सरकार के रवैये पर वे विक्षुब्ध होकर मुंशी दयानारायण निगम को लिखते हैं...&ldquo;गवर्मेंट की ज्यादतियां नाकाबिले-बर्दाश्त हो रही हैं।...उसके बाद मई 1930 &ldquo;हंस&rdquo; के अंक में वे सरकार को चेतावनी भी दे देते हैं...&ldquo;संगीन से तुम चाहे जो काम ले लो, पर उस पर बैठ नहीं सकते।&rdquo;... &nbsp; इस प्रकार हम देखते हैं कि &ldquo;सोजेवतन&rdquo; से प्रारंभ हुई प्रेमचंद की स्वाधीनता लड़ाई समान गांधीधर्मी होते हुये समर-यात्रा तक चलती रहती है जिसमें आजादी की फिक्र के साथ ही साथ सामाजिक कुरीतियों की भी चिंता दिखाई पड़ती है। निश्चित रूप से उनकी कलम देश की आजादी के लिये मजदूरों, शोषितों और किसानों के लिए एक फावड़े की तरह औजार की तरह चलते दिखाई देती है। &nbsp; इस प्रकार हम देखते हैं कि बींसवीं सदी में दो ही पुरुष हुए भारत की सोई हुई आस्था को जगाने वाले। राजनीति के क्षेत्र में यदि महात्मा गांधी थे तो साहित्य की दुनिया में प्रेमचंद। भारतीय सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में दोनों की स्थिति और महानता समान है। प्रेमचंद को जानकर हम गांधी को अनायास पा जाते हैं और गांदी की क्रियात्मकता में हमें प्रेमचंद के जीवन-दर्शक की झलक मिलने लगती है। साहित्य और राजनीति के क्षेत्र को अपनी प्रतिभा तथा कार्य शक्ति से स्पंदित करने वाले प्रेमचंद और गांधी किसी पाश्चात्य प्रणाली के मोहताज न रहकर इसी देश की मिट्टी से उपजी सभ्यता-संस्कृति में अपने कल्याण की सम्भावनाएं खोजने वाले पुरुष थे। गांधीजी के समान ही प्रेमचंद ने कभी भी हिन्दी और उर्दू के भेद को कबूल नहीं किया। वे तो मिली जुली भाषा का ही इस्तेमाल करते थे और उसी के हिमायती थे। गांधी और प्रेमचंद दोनों सादगी और सरलता के जीवंत प्रतीक थे। प्रेमचंद साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष करने एवं देश को पराधीनता से मुक्त कराने में गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े और अपनी कलम से बड़ी निष्ठा के साथ उसे सहयोग करते रहे। प्रेमचंद की यह महानता थी कि उन्होंने स्वाधीनता संग्राम को देश की निर्धन, शोषित, पीड़ित एवं वंचित जनता के साथ सम्पृक्त किया। यही वजह है कि उनका साहित्य स्वाधीनता संग्राम का ही साहित्य नहीं है, वरन् देश की त्रस्त जनता का भी साहित्य है। मार्क्स को भी प्रेमचंद ने अपने चिंतन का केंद्र यदि बनाया तो गांधी के प्रतिलोम के रूप में नहीं बल्कि उनके पूरक के रूप में। मार्क्स और गांधी दोनों का प्रभाव प्रेमचंद पर पड़ा, परन्तु गांधी उनकी मानसिकता के अधिक अनुकूल थे। भारत में गांधीवादी के, सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय प्रतिनिधि लेखक प्रेमचंद ही हैं। यहां पर एक साहित्यिक योद्धा था तो दूसरा राजनैतिक योद्धा। उद्देश्य दोनों का एक ही था।
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-, डॉ अनुराधा आर्य. "अमृता शेरगिल के चित्रों में विषय-वस्तु". International Journal For Multidisciplinary Research 1, № 3 (2019). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2019.v01i03.848.

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Abstract:
भारतीय कला जगत में प्रथम आधुनिक महिला चित्रकार के रूप में विख्यात भारतीय पिता और हंगेरियन माता की बेटी अमृता शेरगिल की कला शिक्षा यद्यपि पेरिस में हुई, परंतु भारत के ग्रामीण परिदृश्य ने उनकी कला विषय-वस्तु में एक विशेष परिवर्तन ला दिया। चूंकि संवेदनशील कलाकार भी एक सामाजिक प्राणी है और समाज व पारिवार की विविध परिस्थितियों के संघर्ष का उसकी रचनाओं पर प्रभाव न पड़ना असंभव है। अपने जीवन काल में अमृता ने पेरिस, हंगरी, भारत आदि देशों की संस्कृतियों तथा वातावरण से साक्षात्कार कर प्राप्त अनुभूतियों को अपनी कलाकृतियों में उतारा। स्वाभिमानी और अहंवादी अमृता के मन-मस्तिष्क में अनगिनत विस्मयकारी कल्पनाओं, प्रतीकों और विषयों का संग्रह था, जिसके परिणामस्वरूप ही उनकी तूलिका से व्यक्ति-चित्र, आत्म-चित्र, दृश्य-चित्र, नग्न-चित्र, वस्तु-चित्र, पशु-चित्र तथा दैनिक जीवन के चित्र की श्रंखलाऐं रूपायित हो उठीं। अतः सत्य विदित है कि कलाकार के लिए उसका वातावरण, उसके आचार- विचार और तत्कालीन सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ उसकी प्रेरणा के स्त्रोत होती हैं। उसकी कलाकृति में उससे पूर्व के समस्त युग की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। प्रस्तुत शोध पत्र में अमृता शेरगिल द्वारा चित्रित विविध विषय-वस्तुओं पर प्रकाश डाला गया है।
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चट्टोराज, सुमिता. "रवीन्द्रनाथ के गीत और कविताएँ : संदर्भ- मृत्यु चिन्तन". Periodic Research 12, № 4 (2024). https://doi.org/10.5281/zenodo.12647751.

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Abstract:
This paper has been published in Peer-reviewed International Journal "Periodic Research"&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; URL :&nbsp;https://www.socialresearchfoundation.com/new/publish-journal.php?editID=9203 Publisher : Social Research Foundation, Kanpur (SRF International)&nbsp; Abstract : रवीन्द्रनाथ की साहित्य-चेतना आद्योपांत मृत्युबोध से युक्त है। उनके गीत हो या कविताएँ दोनों में मृत्यु-चिन्ता अभिव्यक्त हुई है। मृत्यु का उनके जीवन में बार-बार आगमन से कभी उन्हें दुख की अनुभूति हुई है तो कभी उन्होंने अज्ञात रूप में इसका स्पर्ष पाया है तो कभी इसे जीवन का अनिवार्य सत्य भी बताया है। जिसतरह से उन्होंने जीवन को स्वीकार किया है उसीतरह से मृत्यु का भी आलिंगन किया है और अन्ततः उन्होंने इस विदाई में शांति का अनुभव किया है। कभी वे मृत्यु से आहत होते है और कभी मृत्यु का पगध्वनि सुन असीम शक्ति से मिलने के लिए व्याकुल होते हैं। एकतरफ मृत्यु से आलिंगन और दूसरी तरफ मृत्यु के आगमन पर कंपित होना- यह अंतर्विरोध उनके मृत्यु-दर्शन की आधारभूमि है। उनके मृत्यु-चिन्तन में स्तब्ध-संवेदना नहीं है वरन् गतिशीलता है,&nbsp;प्रसार और व्याप्ति है।
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