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Journal articles on the topic 'आहार व व्यायाम'

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द्विजेश, उपाध् याय, та मकुेश चन्‍द र. पन डॉ0. "तबला एवंकथक नृत्य क अन् तर्सम्‍ बन् धों का ववकार्स : एक ववश् ल षणात् मक अ्‍ ययन (तबला एवंकथक नृत्य क चननांंक ववे ष र्सन् र्भम म)". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 4 (2017): 339–51. https://doi.org/10.5281/zenodo.573006.

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Abstract:
तबला एवांकथक नृत्य ोनन ताल ्रधाान ैं, इस कारण इनमेंसामांजस्य ्रधततत ैनता ै। ूरवव मेंनृत्य क साथ मृो ां की स ां त ैनतत थत ककन्तुबाो म नृत्य मेंजब ्ृां ािरकता ममत्कािरकता, रांजकता आको ूैलुओांका समाव श ैुआ तन ूखावज की ांभतर, खुलत व जनरोार स ां त इन ूैलुओांस सामांजस्य नै ब।ाा ूा। सस मेंकथक नृत्य क साथ स ां कत क कलए तबला वाद्य का ्रधयन ककया या कजस मृो ां (ूखावज) का ैत ूिरष्कृत एवां कवककसत प ू माना जाता ै। तबला वाद्य की स ां त, नृत्य क ल भ सभत ूैलुओांकन सैत प ू में्रधस्तुत करन मेंस ल साकबत ैु। कथक नृत्य की स ां कत में ूररब बाज, मुख्यत लखन व बनारस ररान का मैत् वूरणव यन ोान रैा ै। कथक नृत्य की स ां कत क कलए तबला वाोक द्वारा नृत्य क वणणों, वणव समरै , रमनाओांआको क अनुप ू ैत वणणों, वणव समैर , रमनाओांका कनमाव ण व मयन ककया या कजसका ूिरणाम यै ैुआ कक समय क साथ-साथ तबला वाोन सामग्रत का कवकास ैनता मला या कथक-नृत्य क वतव मान स् वप ू कन ो खन स यै त्‍ य भत जजा र ैनता ै। कक कथक-नृत्य एवांइसकी नृत्य सामग्रत(रमनाओ)ां क कवकास में तबला वाोन सामग्रत की भत मैत् वूरणव भरकमका रैत ै। इस आाार ूर ोनन ैत एक-ोरसर क ूररक कै जा सकत ैं स ां तत कवद्वान भत इस त्‍ य का समथव न करत ै। कक जैााँएक ओर तबल की रमनाओांका कथक नृत्य कन समृद्ध करन में यन ोान रैा ै।वैत ोरसरत ओर कथक की कवकभन् न ूोारात न भत तबला वाद्य क कवकास में अूनत मैत् वूरणव भरकमका कनभा। ै। त्‍ य क आाार ूर कथक नृत्य एवां तबला क ूुनप द्धार का काल 1700 शताब् ोत का जत् तराद्धव माना जाता ै। अत यै कैा जा सकता ै। कक तबला श।लत एवांकथक नृत्य का कवकास साथ-साथ ैुआ कथक नृत्य क साथ तबला स ां कत क कारण तबला वाोन सामग्रत(रमनाएाँ) एवांकथक नृत्य सामग्रत(रमनाएाँ) का कवकास एवांकवस्तार भत साथ-साथ ैनता मला या ्रधस्तत शना ु ूत्र का जद्द श् य तबला एवां कथक नृत्य की रमनाओांक अन् तसव ्‍ बन् ा क कवकास का अन् व षण ण एवां कवश् ल षण ण करना ै।
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खापर्ड े, स. ुधा, та च. ेतन राम पट ेल. "कांकेर में रियासत कालीन जनजातीय समाज की परम्परागत लोक शिल्प कला का ऐतिहासिक महत्व". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 53–56. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20218.

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Abstract:
वर्त मान स्वरुप म ें सामाजिक स ंरचना एव ं ला ेक शिल्प कला म ें का ंक ेर रियासत कालीन य ुग म ें जनजातीय समाज की आर्थि क स ंरचना म ें ला ेक शिल्प कला एव ं शिल्प व्यवसाय म ें जनजातीया ें की वास्तविक भ ूमिका का एव ं शिल्प कला का उद ्भव व जन्म स े ज ुड ़ी क ुछ किवद ंतिया ें का े प ्रस्त ुत करन े का छा ेटा सा प ्रयास किया गया ह ै। इस शा ेध पत्र क े माध्यम स े शिल्पकला म ें रियासती जनजातीया ें की प ्रम ुख भ ूमिका व हर शिल्पकला किस प ्रकार इनकी समाजिकता एव ं स ंस्क ृति की परिचायक ह ै एव ं अपन े भावा ें का े बिना कह े सरलता स े कला क े माध्यम स े वर्ण न करना ज ैस े इन अब ुझमाडि ़या ें की विरासतीय कला ह ै। इस शिल्पकला क े माध्यम स े इनकी आर्थि कता का परिचय भी करान े का सहज प ्रयास किया गया ह ै।
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3

ख ुट, डिश्वर नाथ. "बस्तर का नलवंश एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 47–52. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20217.

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Abstract:
सभ्यता का विकास पाषाण काल स े प ्रार ंभ हा ेता ह ै। इस काल म ें बस्तर म े रहन े वाल े मानव भी पत्थर क े न ुकील े आ ैजार बनाकर नदी नाल े आ ैर ग ुफाआ ें म ें रहत े थ े। इसका प ्रमाण इन्द ्रावती आ ैर नार ंगी नदी के किनार े उपलब्ध उपकरणों स े हा ेता है। व ैदिक युग म ें बस्तर दक्षिणापथ म ें शामिल था। रामायण काल म ें दण्डकारण्य का े उल्ल ेख मिलता ह ै। मा ैर्य व ंश क े महान शासक अशा ेक न े कलि ंग (उड ़ीसा) पर आक्रमण किया था, इस य ुद्ध म ें दण्डकारण्य क े स ैनिका ें न े कलि ंग का साथ दिया था। कलि ंग विजय क े बाद भी दण्डकारण्य का राज्य अशा ेक प ्राप्त नही ं कर सका। वाकाटक शासक रूद ्रस ेन प ्रथम क े समय दण्डकारण्य म ें सम ुद ्रग ुप्त न े आक्रमण किया। उसन े दक्षिणापथ क े 12 राजाआ ें का े परास्त किया था। सम ुद ्रग ुप्त न े 35र्0 इ . म ें दक्षिण का ेसल क े राजा मह ेन्द ्र (जा े वाकाटक का करद साम ंत था) तथा महाका ंतार क े राजा व्याघ ्रराज का े पराजित किया था। बस्तर म ें नलव ंश का साम ्राज्य 29र्0 इ 0 स े 95र्0 इ 0 तक माना जाता ह ै ।
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निशा, प. ंवार. "ज ैव विविधता एवं संरक्षण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.882969.

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Abstract:
पृथ्वी अपन े म ें असीम संभावनाए ं एकत्रित किये ह ुए है । प ्रकृति के अन ेकान ेक विविधताओ ं की कल्पना कर ही इस बात का पता लगाया जा सकता ह ै कि संभावनाए ं पक्ष की ह ै या विपक्ष की तात्पर्य प ृथ्वी पर अथाह कृषि भूमि, जल वृक्ष, जीव-जन्त ु तथा खाद ्य पदार्थ थे, परन्त ु मानव के अनियंत्रित उपभोग के कारण ये सीमित हा े गये ह ै । पर वास्तव में हम अपन े प्रयासों से इन संपदाओं का उचित प ्रब ंध कर इसे भविष्य के लिए उपयोगी बना सकत े ह ै । जैव विविधता किसी दिये गये पारिस्थितिकी त ंत्र बायोम, या एक प ूर े ग ृह में जीवन क े रूपों की विभिन्नता का परिणाम है । ज ैव विविधता किसी जैविक त ंत्र के स्वास्थ्य का घोतक है ।
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मिश्रा, आ. ंनद म. ुर्ति, प्रीति मिश्रा та शारदा द ेवा ंगन. "भतरा जनजाति में जन्म संस्कार का मानवशास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 39–43. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20215.

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Abstract:
स ंस्कार शब्द का अर्थ ह ै श ुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर का े त्याग कर द ुसर े शरीर म ें जन्म ल ेता है ता े उसक े प ुर्व जन्म क े प ्रभाव उसक े साथ जात े ह ैं। स ंस्कारा े क े दा े रूप हा ेत े ह ैं - एक आंतरिक रूप आ ैर द ूसरा बाह्य रूप। बाह ्य रूप का नाम रीतिरिवाज ह ै जा े आंतरिक रूप की रक्षा करता है। स ंस्कार का अभिप्राय उन धार्मि क क ृत्या ें स े ह ै जा े किसी व्यक्ति का े अपन े सम ुदाय का प ुर्ण रूप स े योग्य सदस्य बनान े क े उदद ्ेश्य स े उसक े शरीर मन मस्तिष्क का े पवित्र करन े क े लिए किए जात े ह ै। सभी समाज क े अपन े विश ेष रीतिविाज हा ेत े ह ै, जिसक े कारण इनकी अपनी विश ेष पहचान ह ै, कि ंत ु वर्त मान क े आध ुनिक य ुग स े र्कोइ भी समाज अछ ुता नही ं ह ै जिसक े कारण उनके रीतिरिवाजों क े म ुल स्वरूप म ें कही ं न कहीं परिवर्त न अवश्य ह ुआ ह ै। वर्त मान अध् ययन का उदद े्श्य भतरा जनजाति क े जन्म स ंस्कार का व ृहद अध्ययन करना है। वर्त मान अध्ययन क े लिए बस्तर जिल े क े 4 ग ्रामा ें का चयन कर द ैव निर्द शन विधि क े माध्यम स े प ्रतिष्ठित व्यतियों का चयन कर सम ुह चर्चा क े माध्यम से तथ्यों का स ंकलन किया गया ह ै। प ्रस्त ुत अध्ययन स े यह निष्कर्ष निकला कि भतरा जनजाति अपन े संस्कारों क े प ्रति अति स ंवेदनशील ह ै कि ंत ु उनक े रीतिरिवाजा ें म ें आध ुनिकीकरण का प ्रभाव हा ेने लगा ह ै। भतरा जनजाति को चाहिए की आन े वाली पीढ ़ी को अपन े स ंस्कारा ें क े महत्व का े समझान े का प ्रयास कर ें ।
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डा, ॅ. नीरज राव. "स ंगीत क े प्रचार-प्रसार म ें स ंचार साधना ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1. https://doi.org/10.5281/zenodo.886994.

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Abstract:
मनुष्य को आदिकाल से ही संगीत मना ेरंजन एव ं आमोद-प्रमोद का साधन रहा ह ै। आदिकाल से ही मानव ने अपने मना ेरंजन क े साधन क े लिये विभिन्न प्रकार क े प ्रया ेग किये जैसे-जैसे मानव अपनी सभ्यता का विकास करता गया व ैसे-व ैसे उसकी समझ आ ैर सूझ-बूझ ने नृत्य, गायन आ ैर वादन की ओर आकर्षि त किया। मानव ने सभ्यता और संस्कृति को समझकर अपने का े प ्रकृति क े साथ तालमेल करते ह ुए संगीत का े सीखा। हमारे पा ैराणिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख ह ै कि माँ पार्वती की गायन मुद्रा को देखकर भगवान षंकर ने क्रमषः पाँच राग हिंडा ेल, दीपक, श्री, मेघ, का ैषिक आदि रागों की रचना की एवं संगीत की उत्पत्ति भगवान षिव क े ताण्डव तथा माता पार्वती के लक्ष्य नृत्य से मानी र्गइ । इस प ्रकार ताण्डव के ‘‘ता’’’, आ ैर लस्य क े ‘‘ल‘‘ इन दा े षब्दों से ताल का निर्मा ण हुआ। भगवान षिव से संगीत विद्या माता सरस्वती, सरस्वती से नारद, नारद से हनुमान एवं अन्य देवताओं आदि को प ्राप्त ह ुआ। धीरे-धीरे इस कला का प्रचार-प ्रसार धरती पर मनुष्य ला ेक में ह ुआ। भारत में आजादी से पूर्व संगीत राजाआ ें, महाराजाओं, नवाबा ें क े यहाँ षाोभायमान था। सम्भ ्रान्त समाज में गायन-वादन अथवा नृत्य की कल्पना करना भी संभव नहीं था। भारत के दो महान संगीत सुधारक एवं प ्रचारक स्वर्गी य पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे एव ं प ं. विष्ण ु दिगम्बर पलुस्कर जी ने संगीत प ्रचार-प्रसार क े लिये अथक परिश्रम एवं प ्रयास किया तथा सम्प ूर्ण भारतवर्ष में संगीत क े प ्रचार एवं प ्रसार में अपना अतुलनीय या ेगदान दिया। पं. विष्ण ु नारायण भातखंडे का े ही यह श्र ेय जाता ह ै कि उन्होंने प ्रथम प ्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू से उच्च षिक्षा जगत में संगीत का षिक्षण कार्य प ्रारंभ कराया और विष्वविद्यालयों क े पाठ्यक्रम रूप में सम्मिलित हा े सका।
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सुरभि, त्रिपाठी. "''चित्रकला म ें र ंग'' (प्रागैतिहासिक काल स े वर्तमान काल तक के परिपेक्ष्य में)". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.890519.

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Abstract:
सुख-दुःख, उत्तेजना, भय, विश्राम, उल्लास आदि का पर्या य ही रंग ह ै। रंग प्रकृति के कण-कण में व्याप्त ह ै। घरा क े प ्रत्येक रंग का अपना एक सौदंर्य व नैसर्गिक गुण होता ह ै, परन्तु उसे किस प ्रकार प ्रयुक्त किया जाय यह कलाकार की क ुशलता एवं दक्षता पर निर्भर करता ह ै, एक प ्रकार से रंग ही मनुष्य की प ्रव ृत्ति की अभिव्यक्ति हैं, जिसे कलाकार अपने अनुभव के साथ प ्रस्तुत करता है। रंगा ें क े प ्रति मनुष्य का आकर्ष ण स्वाभाविक ही नहीं वरन् जन्मजात ह ै, इस प ्रकार रंग व्यक्ति विशेष की कलाक ृति का सबसे महत्वपूर्ण व सार्थ क तत्व ह ै। रंग व्यक्ति विश ेष की अभिव्यक्ति भी ह ै। हिन्दू धर्म में वर्ण (रंग) का अपना विशेष महत्व है- गा ेर वर्ग ब्राह्मण, लाल वर्ण क्षत्रीय क े लिए, पीला-वेश्य तथा श्याम वर्ण (काला) सूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया। जिसे हिन्दू धर्म में वर्ण भ ेद कहा गया ह ै इस प ्रकार रंग प ्राकृतिक भाव-भंगिमाओं का े व्यक्त करता ह ै जो अमुख से भिन्न ह ै, जो वस्तु में भ ेद प ैदा करता ह ै जो उसका अस्तित्व बन जाती है। रंग मना ेव ृत्ति भी ह ै, जिसका अपना स्वाभाविक गुण होता ह ै। रंग हमारे मना ेविकारा ें का े सीधे प ्रभावित करते ह ै ं। इसी निमित्त रोग-निदान क े लिए ‘कलर थ ेरपी’ का सहारा भी लिया जाता ह ै, जिससे विभिन्न रोगिया ें का े रोगमुक्त किया जाता ह ै। इस प ्रक्रिया के चिकित्सक-मनोव ैज्ञानिक होते है।
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वन्दना, अग्निहोत्री. "नदिया ें म ें प्रद ूषण और हम". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.883519.

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Abstract:
जल को बचाए रखना सभी की चिन्ता का विषय ह ै, व ैज्ञानिक राजन ेता, ब ुद्धिजीवी, रचनाकार सभी की चिन्ता है, जल कैस े बचे ? द ुनियाँ को अर्थात पृथ्वी को वृक्षों को, जंगलो को, पहाड ़ों को, हवा को, पानी को बचाना है। पानी का े बचाया जाना बह ुत जरूरी ह ै। पृथ्वी बच सकती ह ै, वृक्ष ज ंगल, पहाड ़ और मन ुष्य, पषु, पक्षी सब बच सकत े ह ै, यदि पानी को बचा लिया गया और पानी प ृथ्वी पर है ही कितना? पृथ्वी पर उपलब्ध सार े पानी का 97ण्4ः पानी सम ुद ्र का खारा जल है, जो पीन े लायक नही ह ै, 1ण्8ः जल ध ु्रवा ें पर बर्फ के रूप म ें विद्यमान है और पीन े लायक मीठा पानी क ेवल 0ण्8ः ह ै जो निर ंतर प्रद ूषित हा ेता जा रहा है। ‘जल ही जीवन है’, जल अमृतमय ह ै व ेदों में इसलिए जल की अभ्यर्थना की र्गइ ह ै। जल क े प ्रति कृतज्ञता तो हम व्यक्त कर रहे है, उनकी रक्षार्थ क्या कर रहे है ? सरस्वती तो पहले ही ल ुप्त हो गई थी, गंगा और यमुना भी महानगरा ें क े किनार े प्रद ूषित होती जा रही ह ै उनका मूल अस्तित्व ही खतर े में है, नर्म दा भी धीर े-धीर े प ्रद ूषित हो रही ह ै। कमोवेष सभी नदियाँ सिकुडती जा रही है। कभी लोग नदिया ें के साथ सामंजस्य से रहा करत े थे । जब मन ुष्य असभ्य था, तब नदियाँ स्वस्थ आ ैर स्वच्छ थी। आज जब मन ुष्य सभ्य हो गया ता े नदियाँ मलिन और विषाक्त हो गई है। उन दिनो नदियों में स्व ंय सर्फाइ करन े की क्षमता थी। परन्त ु बढ ़त े हुए प्रद ूषण के कारण नदी अपनी यह क्षमता खोती जा रही है। जल प्रद ूषण के विरूद्ध रण-भेरी बजान े का समय आ गया ह ै। उर्वरकों के अंधाधुध उपयोग से कृषि के लिए हानिकारक कीट तो नष्ट हो ही गए, साथ ही द ूसर े जीव भी समाप्त हो गए।
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प्रो., उषा महा ेबिया. "मध्यकालीन संगीत में नवाचार". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886100.

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Abstract:
भारत वर्ष में संगीत की परम्परा प ्राचीन काल से चली आ रही ह ै। प्रारभि ंक हिन्दू शासको ं ने अपने दरबार में संगीतकारो को आश्रय दिया किन्तु कट्टर मुसलमान शासको ं ने संगीत का े धार्मिक भावनाओ क े कारण ह ेय दृष्टि से देखा अर्था त् इस्लामी नियमानुसार संगीत प ्र ेम निष ेध ह ै किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से कुरान में भी मीठी आवाज की प्रशंसा की र्गइ ह ै। स्वयं खलीफा ने मध ुर कण्ठ की तारीफ की है, अबूमूसा असारी कुरान का पाठ बडे ही मधुर स्वर में किया करता था । इस प ्रकार संगीत निषिद्ध हा ेते हुये भी प ्रशंसा का पात्र बना रहा । भारत मंे मुसलमानो क े आगमन से संगीत में परिवर्तन आए आ ैर नये रागा े ं एवम वाद्य यत्रांे का विकास एवं उत्पत्ति हुई । दिल्ली के अनेक सुल्तानो मंे संगीत क े प ्रति तटस्थता की भावना रही, कुछ ने अपने दरबार में संगीतज्ञा े को आश्रय दिया तो कुछ ने निष ेधाज्ञा निकलवाकर प ूर्ण तयाः अवहेलना की सुल्तान बल्बन, जलालुद्दीन, अलाउद्दीन तथा मुहम्मद बिन तुगलक अपने दरबार में संगीत द्वारा मना ंेरजन करते थ े। सुल्तान मुबारक शाह संगीत प ्र ेमी था । मुहम्मद तुगलक ने दौलता बाद म ें ’’तखआबाद’’ नामक महल बनवाया था। जिसमें शाही मेहमानो का मना ेरंजन करने के लिए गाने वाली लड़कियां रखता था। हिन्दू संस्कृति क े संपर्क के आधार पर सूफी संतांे ने श्रद्धा आ ैर प ्रेम से आ ेतप ्रा ेत, भजन गीत, आ ैर कविताओ क े विकास एवम हिन्दू धर्म से मुसलमान जो बने व े भक्ति गीतो की भावनाआ े को त्याग नही सके। जिसक े फलस्वरूप मुसलमाना े में संगीत क े प ्रति अनुराग उत्पन्न हुआ ।
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विशाल, यादव. "बद्रीनाथ आर्य क े वाॅश र ंग पद्धति मंे प ्रया ेगधार्मि ता". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1. https://doi.org/10.5281/zenodo.892050.

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Abstract:
भारतीय आधुनिक कला की प्रारंभ 19वीं सदी के मध्य से मानी जाती है। जब अंग्र ेजी शासक ने यूरा ेपियन कला में भारतीय कलाकारा ें को प ्रशिक्षित करने के लिए मद्रास, कलकत्ता, मुंबई, लाहौर व लखनऊ में कला महाविद्यालय स्थापति करने का निर्ण य लिया। इन कला महाविद्यालया ें ने स्वाभाविक अंग्र ेजी पद्धति से चित्रण करने वाले अ ंग्र ेजी कलाकारा ें की नियुक्ति ह ुई। इसी दौरान जापान के कलाकार हिदिसा आ ैर र्ताइ कान कलकत्ता आए जिन्होंने वाॅश पद्धति का प्रषिक्षण भारत में सर्व प ्रथम अविन्द्रनाथ ठाकुर का े दिया और इसी प्रकार भारत में वाॅश पद्धति का जन्म ह ुआ। जब भारतीय वाॅश पद्धति की बात आती है ता े सबसे पहले बंगाल स्कूल का एक ऐसा वातावरण समाने आता है जिससे प ्रशिक्षित होकर कलाकार देश के सभी महत्वपूर्ण कला केन्द्रा ें में स्थापित हुए और वाॅश चित्रण का एक वातावरण प ूरे देश में सृजित ह ुआ। ए ेसे में ब ंगाल स्कूल के बाद लखनऊ वाॅश चित्रण के लिए दूसरे केन्द्र के रुप मे ं उभरा। यहां पर वाॅश का दूसरा विकसित रुप सामने आए जहा ं ब ंगाल म ें अपारदर्शी या अल्पदर्शी रंगा ें का प ्रयोग ह ुआ वहीं लखनऊ में इससे बचा गया। वाॅश चित्रकला की तकनीक प्रारंभ मूलतः अविन्दनाथ ठाकुर ने कलकत्ता में किया था। उनके कुछ विषय लखनऊ कला एवं शिल्प महाविद्यालय में नियुक्ति ह ुए इस प ्रकार वह तकनीक लखनऊ में आ ैर विकसित ह ुई तथा बाद में इन सारे कलाकारों ने इस माध्यम में काम करते ह ुए इसका विकास किया जिसमें आर्पित कुमार हालदार, अब्दूल रहमान चुगर्ताइ , एल0 एम0 सेन व बद्रीनाथ आर्य जैसे कलाकारों न े जलरंग से वाॅश पद्धति में प ्रया ेग करते रह े।
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प, ्रो. हर्ष वर्धन ठाकुर, та ्रो. रुपश्री दुबे प. "सितार क े प्रस्तुतिकरण म ें नवाचार का इतिहास". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886972.

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Abstract:
विभिन्न व ैदिक कालीन संगीत ग्र ंथ¨ं यथा ऋग्वेद, सामव ेद, षाखायण ब्राह्मण, षतपथ ब ्राह्मण आदि के अलावा रामायण, महाभारत से ल्¨कर प ुराण परंपरा तथा भरत क े नाट््य षाó एवं अभिनव भारती, संगीत रत्नाकर आदि समस्त ग्रंथ¨ं में तंत्र्ाी वाद्य¨ ं का वर्णन मिलता है। आगे चलकर संगीत दाम¨दर, आइने अकबरी, राग विब¨ध, संगीत पारिजात, राधाग¨विंद संगीत सार आदि, मध्यकालीन एवं 19वीं षती के ग्र ंथ¨ं में भी चार प्रकार क े वाद्य¨ं का वर्णन मिलता है। उल्ल्¨खनीय ह ै कि उपर¨क्त ग्र ंथ¨ं में वीणा का उल्ल्¨ख पाया जाता है जिससे यह कहा जा सकता ह ै कि प्राचीनकाल से ही वीणा वाद्य का भारतीय संगीत में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत वर्ष में मध्य युग तक गायन की संगति का प्रमाण संगीत रत्नाकर, चतुर्दण्डी प्रकाषिका, संगीत पारिजात आदि ग्रंथ¨ं में प्रस्तुत सामग्री के आधार पर स्पष्ट ह¨ जाता ह ै। कंठ का अनुगमन करने क े बाद भी वाद्य वादन में अपना अलग स्वतंत्र्ा अस्तित्व भी बनाये रखा ह ै। यही कारण ह ै कि 18वीं षताब्दी की विचित्र्ा वीणा, रुद्र वीणा, सुर-बहार, सुरसिंगार, सितार आदि वाद्य¨ं में स्वतंत्र्ा वादन की प्रथा अपना आकार ल्¨ने लगी। आगे चलकर सभी वाद्य¨ं क¨ पछाड़ते ह ुए सितार ने एक प्रमुख स्थान प्राप्त किया अ©र एकल वादन में बजाए जाने वाल्¨ वाद्य के रूप में अपार प्रतिष्ठा अर्जित की। इन द¨ स© वषर्¨ं की यात्र्ाा में सितार वाद्य का ना क ेवल प्राचीन स्वरूप ही बदला वरन उसकी वादन ष्©ली में भी पर्याप्त रूप से परिवर्तन दृष्टिग¨चर ह¨ते ह ैं। प्राचीन काल मे ं संगीत के षिवमत, ब ्रह्ममत तथा भरतमत जैसे विभिन्न सम्प्रदाय थ े। ये वे घराने थ्¨, जिनकी संगीत एवं नाट्य की अपनी विषिष्ट मान्यता थी। भरत, मत ंग, अभिनवगुप्ताचार्य अ©र षारंगदेव भरत संप्रदाय क े अनुयायी है ं। ये सम्प्रदाय ही आगे जाकर देषकाल एवं परिस्थिति क े अनुसार परिवर्तित ह¨ते गये, अ©र उत्तर भारत में घराना षब्द की व्युत्पत्ति मध्यकाल में ह¨ गई। जबकि दक्षिण में अभी भी सम्प्रदाय षब्द का प्रचलन ह ै। साधारणतः वर्ग, सम्प्रदाय, परिवार, कुटुम्ब, व ंष परम्परा, अ©र घर आदि के सामूहिक अर्थ क¨ घराना षब्द का पर्या य माना जाता ह ै। संगीत क े संदर्भ में कहा जा सकता ह ै कि किसी एक प्रतिष्ठित संगीतज्ञ की निरंतर तपष्चर्या से से प्राप्त सांगीतिक विष्¨षताअ¨ं एवं परंपराअ¨ं का जब उसके प ुत्र्ा, षिष्य¨ं, प©त्र्ा¨ं अ©र प्रषिष्य¨ं द्वारा निर्वहन किया जाता ह ै तब कम से कम तीन पीढ़ी क े बाद उसे एक घराना विष्¨ष की संज्ञा प्राप्त ह¨ती ह ै। सरल षब्द¨ं में यह कहा जा सकता ह ै कि घराना रीति अथवा ष्©ली का नवचारात्मक इतिहास ह¨ता ह ै।
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विपिन, कुमार. "विभिन्न शैली गत वर्ण विधान". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.889314.

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Abstract:
चित्र बनाते समय कलाकार इस बात का ध्यान रखता है कि विषयानुरूप कौन से रंग लगाने चाहिये। लघ ु चित्रों में प ्रयुक्त रंग अधिकांशतः चटकीले ह ै। राजस्थानी, जैन तथा पाल शैली क े चित्रा ें में अधिकांश खनिज रंगा े का प ्रयोग किया गया है। इसका कारण तत्कालीन रंगा े की अपलब्धि भी है । गहरे नीले, लाल आ ैर पीले रंगा े का प ्रयोग चित्रा ें में बह ुतायत से मिलता ह ै। राजस्थानी चित्रों की वर्णिका शा ेख आ ैर चटकीले रंगा े की ह ै। क्योंकि आवागमन क े साधन कम होने की वजह से ये चित्र वाह ्य प ्रभाव स े मुक्त है। मुगल शैली क े चित्रा ें में फारस की कोमल रंगा े वाली पद्वति दिखाई देती ह ै। राजस्थानी की आपेक्षा रंगा े म ें चटकीलापन कम ह ै। वस्त्रा ें आभूषणों में उचित रंगा े का प ्रया ेग किया गया ह ै। जामा, पटका, पाजामा और पगड़ी में भिन्न-भिन्न रंग प ्रया ेग किये गये है। पहाड़ी श ैली के चित्रा ें में मुगल, राजस्थानी श ैली आ ैर कशमीर श ैली का मिला-जुला प्रभाव ह ै। जिसका उल्लेख भारत की चित्रकला पुस्तक में राय कृष्ण दास ने किया ह ै। यही कारण ह ै कि इन चित्रों में रंगा े की कोमलता आ ैर रेखाओ का प ्रवाह अत्यन्त श्र ेष्ठ ह ै। रंगा े की कोमलता आ ैर आर्कषण में कागड़ा श ैली क े लघ ु चित्र सर्व श्रेष्ठ कह े जाते ह ै। व ृक्षों की हरीतिमा दूर तक फ ैली पीली पहाड़ी प्रदेश, उन पर बनी हुई श्वेत अट्टालिकाए ें, उड़ते ह ुये रंगीन पर्दे आ ैर इस परिवेश में विचरण करती, क्रीड़ा करती आकृतियाँ अद्भुत रा ेमा ंच उत्पन्न करती ह ै। आकृतिया ें रंग-बिरंगे परिधान लंहगे आ ैर पारदर्शी दुपट्टे हल्के रंग में अत्यन्त आकर्ष ण उत्पन्न करते ह ै।
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विनिता, वर्मा. "'शास्त्रीय नृत्य में नवीन प्रयोग': कथक एव ं हवेली स ंगीत के पद". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.885865.

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Abstract:
संगीत ंअर्थात् गायन, वादन और नृत्य अतिप्राचीन आ ैर ब्रह्मस्वरूप होने क े कारण अलौकिक ह ै । आद्यात्मिक संगीत जीवन का े पवित्र बनाकर आत्मोन्नति द्वारा मोक्ष की आ ेर ले जानेवाला मार्ग ह ै । नृत्य का आरंभ धर्म क े मूल भाव से ह ुआ है । मनीषियों ने इसे परमानंद का आधार निरूपित किया है । नृत्य आ ैर गान को हमारे यहांॅ, मोक्ष प्राप्ति का श्रेष्ठतम साधन बताया गया है । कथक नृत्य जिसका अन्य नाम ही ‘नटवरी नृत्य’ ह ै, इसका द्या ेतक ह ै कि कथक नृत्य अपनी अभिव्यक्ति क े लिए अधिकांशतः कृष्णचरित्र पर ही निर्भ र ह ै । यू ंता े कथक में परंपरागत अनेका ें पद, ठुमरी, भजन इत्यादि पर भाव प्रदर्शन किया ही जाता रहा ह ै कि ंतु कुछ वर्षो से कला क े हर क्षेत्र में नवीन प्रयोग द्वारा अपनी अपनी कला का एक अप ूर्व श्र ृंगार कला साधकों द्वारा किया जा रहा है जिसे कला (प्रशंसकों) द्वारा भी सहर्ष सराहा एवं स्वीकारा जा रहा है । कथक नृत्य ने भी शास्त्र की सीमा में रहते ह ुए भाव प्रदर्श न के क्षेत्र में नित नवीन प ्रयोग किये है । शास्त्रीय नृत्य में नवीन प्रयोग‘ सेमिनार क े विविधि विषयों में से एक है जिसे मैंने अपने विचार व्यक्त करने ह ेतु चुना ह ै । कथक में अभिनय क्षेत्र म ें किये जा रहे अनेक प ्रया ेग में से एक ह ै कथक में हव ेली संगीत क े पदों का समावेष । पुष्टिमार्गी य अष्टछाप भक्त कविया ें द्वारा रचित साहित्य में भावाभिनय की अनन्य संभावनाएं ह ै ं । ‘हवेली संगीत’ व ैसे तो कोई भी संगीत साधक इस शब्द से अनभिज्ञ ना होगा । गायन परंपरा में तो यह शब्द चिर परिचित ह ै ही, उसका काव्य साहित्य भी इतना अद्भूत एवं विशाल ह ै कि नृत्य परंपरा में उसका समाया ेजन कर कथक को प्रदर्शन हेतु विशाल साहित्य उपलब्ध की प्राप्ति कराई जा सकती ह ैं ।
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श्रीमति, स्वप्ना मराठे. "वर्तमान समयानुसार संगीत पाठ्यक्रम¨ ं म ें बदलाव की आवष्यकता". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886835.

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Abstract:
युग परिवर्तन सृष्टि का सम्बन्धित नियम है, जिसक¢ अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण भी बदलते रहते हैं। अतः युगानुकूल संगीत षिक्षा की पद्धति में भी परिवर्तन ह¨ना आष्चर्यजनक घटना नहीं है। भारतीय संस्कृति विष्व की उन संस्कृतिय¨ ं में से एक है जिसने सम्पूर्ण विष्व क¨ नई दिषा एवं सृजनात्मकता दी। ये व¨ धर¨हर ह ै जिसक¨ सुरक्षित रखने क¢ लिये हमारे संस्कृति प्रेमिय¨ ं ने अपने सम्पूर्ण जीवन की आहूति दी। संगीत मानव समाज की एक कलात्मक उपलब्धि ह ै। यह लयकारी सांस्कृतिक परम्पराअ¨ं का एक मूर्तिमान प्रतीक ह ै अ©र भावना की उत्कृष्ट कृति ह ै। अमूर्त भावनाअ¨ ं क¨ मूर्त रूप देने का माध्यम ही संगीत ह ै एवं मूर्ति रूप ह¨ने क¢ कारण संगीत ल¨क रुचि क¢ अनुरूप जन-जन में सर्व त्र विद्यमान ह ै। भारतीय संगीत क¨ पहले गुरू क ¢ द्वारा सुनने क¢ बाद ही सिखाये जाने की परम्परा थी यानी गुरू षिष्य परम्परा क¢ अंतर्गत ही संगीत कला हस्तान्तरित ह¨ती आई ह ै। यह परम्परा इतनी अनुषासित सुदृढ़ एवं य¨जनाबद्ध थी कि जिसक ¢ कारण उस समय छपाई, रिकार्डिंग आदि आध ुनिक साधन न ह¨ते ह ुये भी वह एक पीढी़ से दूसरी पीढ़ी तक ग्रहण करते ह ुये वर्तमान स्वरूप तक जा पह ुँची ह ै। इतिहास साक्षी है कि सामाजिक एवं राजनीतिक, परिस्थितियों का कला पर बह ुत प्रभाव पड़ता ह ै। कला आश्रय चाहती ह ै फलने-फ ूलने क ¢ लिये उसे स्वस्थ वातावरण एव ं आश्रय की आवष्यकता ह¨ती ह ै। संगीत षिक्षण पद्धति क ¢ संब ंध मे अधिकतर स्थान¨ ं पर व्यक्तिगत षिक्षण पद्धति, जिसे गुरू षिष्य परम्परा कहा जाता ह ै का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीनकाल में संगीत क ¢ क्रियात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता था। ब©द्धिक विव ेचन की आवष्यकता को उन्ह¨ ंने महत्व नहीं दिया परन्तु क्रियात्मक पक्ष क ¢ कायदे, मूल सिद्धान्त¨ं का उन्ह¨ंने उल्लंघन नहीं किया। मध्यकाल में ही संगीत षिक्षा का स्वरूप क्या रहा इसका अनुमान जहाँ तहाँ बिखरे ह ुए सांगीतिक उल्लेख ज¨ मिले ह ै ं उससे सिद्ध ह ुआ ह ै कि उस समय भी सभी क¨ राजाश्रय प्राप्त था एवं षिक्षण पद्धति गुरू षिष्य परम्परा क ¢ अन्तर्गत थी।
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भाग्यश्री, सहस्त्रब ुद्धे. "सिन े संगीत म ें शास्त्रीय राग यमन का प्रय¨ग - एक विचार". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886051.

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Abstract:
हिन्दुस्तानी संगीत राग पर आधारित ह ै। राग की परिभाषा अलग-अलग विद्वान¨ं ने अपनी-अपनी पद्धति से दी ह ै परन्तु सबका आशय ”य¨ऽयं ध्वनिविषेषस्तु स्वर वर्ण विभूषितः रंजक¨जन चित्तानां सः रागः कथित¨ बु ेधैः“ से ही संदर्भित रहा है। अतः यह कहा जा सकता ह ै कि भारतीय संगीत की आत्मा स्वर, वर्ण से युक्त रंजकता प ैदा करने वाली राग रचना में ही बसती ह ै। स्वर¨ं क ¢ बिल्ंिडग बाॅक्स पर राग का ढाँचा खड़ा ह¨ता है। मोटे त©र पर ये माना गया है कि एक सप्तक क¢ मूल 12 स्वर सा रे रे ग ग म म प ध ध नि नि राग क ¢ निर्माण में वही काम करते ह ैं ज¨ किसी बिल्डिंग क ¢ ढाँचे क¨ तैयार करने में नींव का कार्य ह¨ता ह ै। शास्त्रकार¨ं ने राग निर्माण क¢ पूर्व थाट रचना का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। दाक्षिणात्य पद्धति में 72 थाट¨ं की परिकल्पना की गयी। वहीं उत्तरी संगीत पद्धति ने प ं. भातखण्डे क ¢ नेतृत्व में दस थाट¨ ं की अवधारणा स्वीकार की। द¨न¨ं ही पद्धतिय¨ं में स्वर से स्प्तक, सप्तक से थाट एव ं थाट से राग निर्माण की निरंतरता क¨ स्वीकारा गया। इसी आधार पर जिन दस थाट¨ं क¨ उत्तरी पद्धति में मान्यता मिली व े क्रमशः कल्याण (यमन), बिलावल, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी, त¨ड़ी, माने गए। सिनेमा संगीत जा े जनप्रिय ह ै वह भी उक्त राग-रचना क ¢ सिद्धान्त से अलग नहीं रहा। भारतीय संगीत चाह े वह शास्त्रीय ह¨, सुगम ह¨, अथवा सिनेमा स ंगीत ह¨, स्वर रचना क¢ आधार पर गढ़े ह ुए राग¨ं की ही व्याख्या करता ह ै। जैसा कि इस आलेख में मेरा उद्देश्य सिनेमा संगीत में शास्त्रीय राग¨ ं का प्रय¨ग स्पष्ट करना ह ै तथापि असंख्य राग¨ं की गणना अनगिनत सिनेमा संगीत में ज¨ की गयी ह ै यहाँ प्रस्तुत करना असंभव ह ै। अतः थाट क्रम में पहला थाट कल्याण एवं उसका मूल आश्रय राग यमन लेकर कुछ फिल्मी गीत¨ ं का विश्लेषण मैंने इस आलेख में करने का प्रयास किया है।
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