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Journal articles on the topic 'कौशल-आधार'

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मण्, जमीलुर रहमान, та कुमार गुप्ता पंकज. "राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास". International Journal of Contemporary Research in Multidisciplinary 3, № 6 (2024): 197–200. https://doi.org/10.5281/zenodo.14774172.

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Abstract:
शिक्षा किसी भी राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण स्तंभ होती है। भारत में शिक्षा नीति समय-समय पर परिवर्तित होती रही है, जिससे नए कौशल विकास और व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जा सके। यह शोध पत्र राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास की भूमिका पर केंद्रित है। इसमें भारत में कौशल विकास की वर्तमान स्थिति, इसकी आवश्यकताओं, चुनौतियों तथा नई शिक्षा नीति 2020 में कौशल विकास को लेकर किए गए प्रयासों का विश्लेषण किया गया है। शोध के निष्कर्षों के आधार पर, यह अध्ययन यह दर्शाता है कि कौशल विकास को समाहित करने के लिए प्रभावी नीतिगत क्रियान्वयन की आवश्यकता है ताकि युवाओं को रोजगारोन्मुखी बनाया जा सके।
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2

न्यौपाने Nyaupane, केशवप्रसाद Keshab prasad. "पर्खालभित्रको राजधानीका दुई नियात्राको विधातात्त्विक विश्लेषण". Saraswati Sadan सरस्वती सदन 10, № 1-2 (2024): 19–26. http://dx.doi.org/10.3126/ss.v10i1-2.68612.

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Abstract:
प्रस्तुत लेख पर्खालभित्रको राजधानी नियात्रा सङ्ग्रहमा सङ्गृहीत आशाको लहरामा एक मुठी श्वास र रहस्यका पहाडहरूमा शीर्षकका प्रारम्भिक दुई नियात्राको विधातात्त्विक विश्लेषणसँग सम्बद्ध छ । यी नियात्रामा विधातत्त्वको संश्लेषण तथा समन्वयको स्थिति के कस्तो छ भन्ने प्राज्ञिक जिज्ञासाको तथ्यपरक समाधानमा यो अध्ययन केन्द्रित छ । यसका निम्ति नियात्रा सिद्धान्तलाई आधार बनाइएको छ । यसै सिद्धान्तका आधारमा सङ्कलित तथ्यको अध्ययन वर्णनात्मक तथा विश्लेषणात्मक ढाँचामा गरिएको छ । उद्देश्य, सहभागी, गतिशीलता, परिवेश, भाषाशैली आदि नियात्राका संरचक तत्त्व हुन् । यी तत्त्वहरूको कलात्मक विन्यासका कौशलमा नियात्राको सौन्दर्य निर्भर गर्छ । प्रस्तुत नियात्रामा विधातत्त्वहरूको संश्लेषणमा विशिष्ट कौशल प्रतिफलित भएको छ । तसर्थ यी नियात्राहरू विधातात्त्विक दृष्टिले उत्कृष्ट छन् भन्ने यस अध्ययनको निष्कर्ष रहेको छ ।
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3

Poudel पौडेल, Somanath सोमनाथ. "नेपाली विषयको वर्तमान माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्र‌ममा तहगत सक्षमता र सिकाइ उपलब्धिको तुलना". Okhaldhunga Journal 1, № 2 (2024): 94–102. http://dx.doi.org/10.3126/oj.v1i2.69581.

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Abstract:
यस लेखमा नेपाली विषयको वर्तमान माध्यमिक शिक्षा पाठ्‌यक्रमले तय गरेका कक्षा ९ र १० तथा कक्षा ११ र १२ को तहगत सक्षमता र सिकाइ उपलब्धिको भाषिक सिपका आधारमा तुलनात्मक अध्ययन गरिएको छ । यसमा तुलनात्मक तथा व्यतिरेकी भाषा विज्ञानको सैद्धान्तिक धरातलमा रही खास गरी व्यतिरेकी विश्लेषण गरिएको छ । यसमा गुणात्मक अनुसन्धानको ढाँचालाई प्रस्तुति र विश्लेषणका लागि अपनाइएको छ । यस अध्ययन‌मा नेपाली विषयको माध्यमिक शिक्षा पाठ्‌यक्रमलाई आधार सामग्रीका रूप‌मा उपयोग गरिएको छ भने द्वितीय स्रोतबाट सामग्री सङ्‌कलन गरिएको छ । यसमा विषयवस्तुलाई वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक साथै तुलनात्मक विधिबाट प्रस्तुति र विश्लेषण गरिएको छ । यस लेखमा कक्षा ९ र १० तथा कक्षा ११ र १२ को वर्तमान पाठ्‌यक्रम‌मा तय गरिएका तहगत सक्षमताका अन्तर्वस्तु धेरैजसो समान देखिन्छन् तर केही भिन्नताहरू पनि रहेका छन् । सक्षमताका अन्तर्वस्तुका भिन्नतालाई हेर्दा कक्षा ९ र १० मा भन्दा कक्षा ११ र १२ मा अभिव्यक्ति कौशल, सम्मानजनक भाषिक व्यवहार, समालोचनात्मक चिन्तन, राष्ट्रिय एवंम् मानवीय मूल्यअनुकूल लेख्य अभिव्यक्ति जस्ता केही विशिष्ट भाषिक सिप र कौशलहरू फरक देखिन्छन् । यस्तै सिकाइ उपलब्धिहरूको सन्दर्भमा कक्षा ९ मा प्रारम्भिक भाषिक सिप र कौशल विकास गर्न सिकाइ उपलब्धिहरू तय गरिएको देखिन्छ भने कक्षा १० मा तार्किक, सन्देशमूलक, विश्लेशणात्मक, समीक्षात्मक, समालोचनात्मक अभिव्यक्ति जस्ता विशिष्ट अभिव्यक्ति कौशललाई सिकाइ उपलब्धिकारूपमा राखिएको छ । यस्तै कक्षा ११ मा कक्षा १० कै भाषिक ज्ञान, सिप र कौशललाई सबल पार्दै लगिएको पाइन्छ भने कक्षा १२ मा विशिष्ट भाषिक सिप तथा कौशल विकास गर्नका निम्ति सिकाइ उपलब्धिहरू निर्धारण गरिएको देखिन्छ । यी भिन्नताहरू पाठ्यक्रमको लम्बीय स्तरणको मान्यताअनुरूप नै रहेको देखिन्छन् ।
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मनीष कुमार नामदेव. "उच्च शिक्षा के विशेष संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 21, № 2 (2024): 8–12. http://dx.doi.org/10.29070/q70nqz33.

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Abstract:
यह शोध पत्र नई शिक्षा नीति 2020 के लिए संदर्भित है, जो मुख्यतः शिक्षा नीति 2020 की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारत-केन्‍द्रित शिक्षा प्रणाली की परिकल्पना की गई है, जो इसकी परंपरा, संस्कृति, मूल्यों और लोकाचार में परिवर्तन लाने मे अपना बहुमूल्य योगदान देने को तत्पर है। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य बिना किसी भेद भाव के प्रत्येक व्यक्ति को बढ़ने और विकसित होने के लिए एक सामान अवसर प्रदान करना है तथा विद्यार्थियों में ज्ञान, कौशल, बुद्धि और आत्मविश्वास का सर्जन कर उनके दृष्टिकोणों का विकास करना है। इस शोधपत्र में शोधकर्ता द्वितीयक आंकड़ों के माध्यम से जो गुणात्मक स्तरों पर आधारित है नई शिक्षा नीति की वास्तविक मूक विशेषताओं को दर्शाना चाहता है। उपर्युक्त विश्लेषित तथ्यों के आधार पर शोधकर्ता, इस शोधपत्र के माध्यम से अनेक सुझावों को प्रस्तुत करता है, जो भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए आती आवश्यक है।
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शर्मा, गौरव, та डी पी मिश्रा. "उच्च शिक्षा के विशेष संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की एक महत्वपूर्ण अंतदृष्टि". Humanities and Development 18, № 1 (2018): 132–37. http://dx.doi.org/10.61410/had.v18i1.129.

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Abstract:
यह शोध पत्र नई शिक्षा नीति 2020 के लिए संदर्भित है जो मुख्यतः शिक्षा नीति 2020 की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारत केंद्रित शिक्षा प्रणाली की परिकल्पना की गई है जो इसकी परंपरा संस्श्ति मूल्यों और लोकाचार में परिवर्तन लाने में अपना बहुमूल्य योगदान देने को तत्पर है। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति को बढ़ने और विकसित होने के लिए एक समान अवसर प्रदान करना है तथा विद्यार्थियों में ज्ञान कौशल बुद्धि और आत्मविश्वास का सर्जन कर उनके श्ष्टिकोण का विकास करना है। इस शोधपत्र में शोधकर्ता द्वितीयक आंकड़ों के माध्यम से जो गुणात्मक स्तरों पर आधारित है नई शिक्षा नीति की वास्तविक विशेषताओं को दर्शा ना चाहता है। उपरोक्त विश्लेषक तथ्यों के आधार पर शोधकर्ता इस शोध पत्र के माध्यम से अनेक सुझावों को प्रस्तुत करता है जो भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए अति आवश्यक है।
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सिंकू, कुमार सिंह, та पाटिल डॉ.सुनीता. "राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में परिणाम-आधारित शिक्षा की प्रासंगिकता". International Journal of Advance and Applied Research 4, № 31 (2023): 33–35. https://doi.org/10.5281/zenodo.8365665.

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Abstract:
<strong>सार </strong> परिणाम-आधारित शिक्षा एक शैक्षिक प्रक्रिया है जो नौसिखियों की नियत प्रदर्शन क्षमताओं में माहिर होती है और उन्हें सिखाए जाने के बाद उनके परिणामों को पूरा करने के लिए ज्ञान को लागू करती है। परिणाम-आधारित शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक शक्तिशाली पाठ्यक्रम डिजाइन है जो किसी भी पाठ्यक्रम की प्रभावशीलता के अनुभवात्मक ज्ञान को पकड़ता है जिसे कोचिंग की प्रक्रिया के माध्यम से मापा जा सकता है - छात्रों को वास्तव में क्या सिखाया जा सकता है, यह जानने और मूल्यांकन करने के बाद, परिणाम-आधारित शिक्षा समाज के तात्कालिक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वातावरण के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक समझ, कौशल, दृष्टिकोण और मूल्यों के संदर्भ में विद्वान के सीखने के प्रभाव को लेना चाहती है। दूसरी ओर, परिणाम-आधारित शिक्षा विशिष्ट परिणामों पर निर्मित शिक्षा प्रणाली है। यह कौशल पर ध्यान केंद्रित करता है जो छात्रों को अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह हासिल करने के लिए तैयार करता है जो वे चाहते हैं।
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उपमन्यु, विभाकर. "प्राथमिक शिक्षा एवं ग्रामीण स्कूल का वर्तमान परिदृश्य". International Journal For Multidisciplinary Research 04, № 04 (2022): 139–46. http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2022.v04i04.013.

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Abstract:
प्रस्तुत शोध लेख विभिन्न साहित्य की समीक्षा के आधार पर प्रस्तुत किया गया है इस शोधपत्र में प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति का वर्णन किया गया है। प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में शिक्षा राष्ट्र की आधारशिला का कार्य करती है। विगत दशकों से भारत में प्राथमिक शिक्षा के पुनर्गठन और पुनरुद्धार के लिए सक्रियता बढ़ी है। किंतु दुर्भाग्यवश शिक्षा के मात्रात्मक प्रसार एवं प्रचार में उल्लेखनीय प्रगति के साथ-साथ शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर निम्न होता जा रहा है। देश के ज्यादातर शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों ने प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में तत्काल सुधार की आवश्यकता बल दिया, जो नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा दे सकें और भविष्य में बढ़ती कौशल आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। शिक्षा की गुणवत्ता को कायम रखने के लिए इन सभी उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करना होगा। प्राथमिक शिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन की वह नींव होती है जिस पर उसके संपूर्ण जीवन का भविष्य व्यतीत होता है। प्राथमिक शिक्षा ज्ञान का नियम है, इसमें ज्ञान और सूचना के प्रारंभिक तत्व शामिल हैं। जिन्हें बच्चों को परोसा और सिखाया जाता है। एक बच्चा बचपन के दौरान एक कोरे कागज की तरह होता है और इस दौरान इंसान का दिमाग अपने सुपर एक्टिव रूप में होता है। यह वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है पहले 5 वर्षों में बच्चों के सभी साइको मीटर, कौशल, संज्ञानात्मक व भावनात्मक, सामाजिक और सीखने के कौशल अपने सबसे अच्छे रूप में विकसित होते हैं। देश की एक बड़ी आबादी सरकारी स्कूलों के ही सहारे हैं। सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधार पा रहा है और न ही इनमें विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही है। निम्न मध्यम वर्ग और आर्थिक रूप से सामान्य स्थिति वाले लोगों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही शिक्षा प्राप्त करने का एकमात्र जरिया है फिर वह चाहे कैसे भी हों ? इन स्कूलों में न तो योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधाएं। इन स्कूलों में पढ़ाई लिखाई की असलियत स्वयंसेवी संगठन प्रथम की हर साल आने वाली रिपोर्ट बताती है, रिपोर्ट के मुताबिक कक्षा चार या पांच के बच्चे अपने से निकले कक्षा की किताबें तक नहीं पढ़ पाते।
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चंदेल, शिवेन्द्र सिंह. "महात्मा गांधी की शैक्षिक दृष्टि और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020ः एक समीक्षात्मक अध्ययन". International Journal of Science and Social Science Research 2, № 4 (2025): 109–18. https://doi.org/10.5281/zenodo.14914022.

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Abstract:
इस शोध पत्र में महात्मा गांधी की शैक्षिक दृष्टि का मूल आधार आत्मनिर्भरता, नैतिकता और व्यवहारिक शिक्षा था। वे शिक्षा को केवल सूचनात्मक ज्ञान तक सीमित रखने के पक्षधर नहीं थे, बल्कि इसे जीवन उपयोगी बनाने पर जोर देते थे। उन्होंने बुनियादी शिक्षा (नयी तालीम) की संकल्पना प्रस्तुत की, जिसमें श्रम आधारित शिक्षा को महत्व दिया गया। उनका मानना था कि शिक्षा केवल रोजगार के लिए नहीं, बल्कि समाज में एक सशक्त और जागरूक नागरिक के निर्माण के लिए होनी चाहिए। वे मातृभाषा में शिक्षा के समर्थक थे, ताकि बच्चे सहज रूप से ज्ञान अर्जित कर सकें।राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 शिक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। यह नीति समग्र और व्यावसायिक शिक्षा पर बल देती है, जिससे विद्यार्थियों में कौशल विकास हो सके। गांधीवादी दृष्टिकोण की तरह, यह नीति भी मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा देने की सिफारिश करती है और नैतिक मूल्यों को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर देती है। इसके अलावा, व्यावसायिक शिक्षा और कौशल-आधारित प्रशिक्षण को विद्यालयी शिक्षा में समाहित करने की पहल गांधी जी की शिक्षा संबंधी अवधारणा से मेल खाती है।हालांकि, आधुनिक तकनीकी युग में गांधीवादी शिक्षा को पूरी तरह लागू करना कठिन है। डिजिटल और तकनीकी शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के कारण श्रम-आधारित शिक्षा का दायरा सीमित होता जा रहा है। फिर भी, आत्मनिर्भरता, नैतिक शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान के सिद्धांत आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं।इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में गांधीवादी शिक्षा के कई मूल तत्वों को आधुनिक संदर्भ में पुनर्परिभाषित किया गया है। यदि इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो यह नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली को अधिक समावेशी और व्यावहारिक बना सकती है।
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Dr., Jaipal Singh Tomar, та संजय स्वरूप षटधर डॉ. "योगाधारित प्राचीन भारतीय शिक्षा की वर्तमान में प्रासंगिकता". International Educational Applied Research Journal 08, № 04 (2024): 16–21. https://doi.org/10.5281/zenodo.14405861.

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Abstract:
हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति योग पर आधारित थी। योग शिक्षा द्वारा व्यक्ति में ज्ञान, कौशल, मूल्यों, नैतिकता, विश्वास, सदाचार सडनशीनता आदि का विकास होता है। योग शिक्षा योग गुरु को मार्गदर्शन में प्रारम्भ होती हैं। यह शिक्षा व्यक्ति को सोचने समझने, महसूस करने या कार्य करने वो तरीकों पर रचनात्मक प्रभाव डालती हैं। योग शिक्षा गुणवत्ता एवं दक्षता में व्यापक सुधार लाया जा सकता है। दैशिक एवं वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए योग शिक्षा का विश्वस्तर पर प्रचार-प्रसार करना आवश्यक है। योग शिक्षा सामाजिक परिवर्तन एवं राष्ट्र विकास का सशक्त साधन है। योग शिक्षा विकास प्रक्रिया में एक आवश्यक उत्पाइक सामग्री का गठन करती हैं। इस प्राचीन शिक्षा को आधुनिक समाज एवं वैज्ञानिक व्यापक जप से स्वीकार करते हैं। कोई भी समाज एवं राष्ट्र स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों के माध्यम से ही विकास कर सकता है। स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों का विकास योग शिक्षा द्वारा ही संभव है। वैसे सम्पूर्ण विश्व को वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री स्वीकारने लगे हैं कि किसी भी समाज एवं राष्ट्र की प्रगति का आधार स्वस्थ एवं चरित्रवान नागरिक ही होते हैं।प्राचीन भारतीय शिक्षा सामाजिक-आर्थिक प्रगति हासिल करने आय वितरण में सुधार रोजगार के नये अवसर पैदा करने एवं मानसिक गरीबी के उन्मूलन में सहायक सिद्ध होती थी। यह वर्ग भेट, लिंग पूर्वाग्रह को भी दूर करती थी। यह केवल आध्यात्मिक विकास में ही सहायक नहीं होती थी बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक मुद्दों का ज्ञान जागजकता, सूचना, कौशल और मूल्यों का प्रसार कर उस प्रक्रिया को तेज करने और काम करने में सहायक भी होती थी। इस प्रकार प्राचीन भारतीय शिक्षा आत्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्र विकास की मूल पद्धति है, जो व्यक्ति की स्वयं एवं दुनिया की समझ में वृद्धि करती हैं। मुनष्य के जीवन वो हर पहलू में शिक्षा से एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखा गया है। शिक्षा समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने एवं नए मूल्यों की और निर्देशित करने का कार्य भी करती हैं। यह बुद्धि विकास में सहायता करती है। यह प्रगतिशील समाज एवं राष्ट्र नवनिर्माण विकास में सहायक है।
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विश्वकर्मा, रामकिशोर. "सागर जिले के सवर्ण एवं अनुसूचित जाति के छात्र-छात्राओं की संवेगाात्‍मक बुद्धि का अध्‍ययन". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 21, № 5 (2024): 788–96. https://doi.org/10.29070/25xwpx89.

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Abstract:
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि देश के लिए सुयोग्य नागरिक तैयार करना चाहे वह सामान्य जाति का हो या अनुसूचित जाति व जनजाति का। देश के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक हो गया है कि हम अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के स्तर को ऊँचा उठाये, समान अवसर दे, विशेष रूप से उन विद्यार्थियों को जो प्रतिभाशाली हैं ताकि अनुसूचित जाति के लोगों का सामाजिक, आर्थिक विकास अच्छी तरह से हो सके। किशोरावस्था में यदि विद्यार्थियों में हीन-ग्रन्थियों का निर्माण हो जाए तो वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पायेंगे। समाज का एक वर्ग योग्यता, सामथ्र्य और कौशल रखते हुए भी मात्र कुसमायोजन के कारण अलग-अलग रह जाएगा। कुसमायोजित विद्यार्थी किसी वर्ग विशेष में सीमित न होकर प्रत्येक स्तर पर दिखाई देते हैं। परन्तु अधिकतर ऐेसे विद्यार्थी अनुसूचित जाति वर्ग में अधिक दिखाई पड़ते हैं। सवर्ण वर्ग का विद्यार्थी उच्च वर्ग में होने तथा सहयोगियों की ईष्र्या के कारण समायोजन नहीं कर पाते हैं। सवर्ण वर्ग के विद्यार्थी अनुसूचित जाति वर्ग के विद्यार्थियों की अपेक्षा करते है व अपने साथ नहीं रखते। अतः वर्तमान में इन दोनों वर्गों के छात्र-छात्राओं की संवेगात्मक बुद्धि का तुलनात्मक अध्ययन एक जटिल समस्या है इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए शोधार्थी ने अपना शोध आधार बनाया।
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शर्मा, कविता. "विज्ञान शिक्षण में अधिगम प्रक्रिया के दौरान बहुमाध्यम दृष्टिकोण के उपयोग ,छात्रों की वैज्ञानिक योग्यता के प्रभाव का विश्लेषण". Journal of Ravishankar University (PART-A) 31, № 2 (2025): 100–110. https://doi.org/10.52228/jrua.2025-31-2-10.

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Abstract:
वर्तमान युग में विज्ञान का प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें दिखाई देता है आज विज्ञान के बिना समाज की कल्पना करना असम्भव है I हमारी संस्कृति में विज्ञान घुल-मिल गया है I विज्ञान की शिक्षा के प्रचार प्रसार से मानव की विचार धारा में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है I इस परिवर्तन ने व्यक्ति की आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को भी प्रभावित किया है I वैज्ञानिक योग्यता से हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार हुआ है वही कुछ नवीन समस्याएँ भी उत्त्पन्न हुई है I इन समस्याओं के समाधान के लिए विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है, जिससे व्यक्ति की बदलती हुई परिस्थितियों को अपने में समायोजित कर सके I विद्यालयीन परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को समझना प्रत्येक छात्र व विज्ञान शिक्षक के लिए आवश्यक हैI विज्ञान की प्रकृति के आधार पर विज्ञान को समझने में मदद मिलती है I इसकी प्रकृति ऐसी है जो स्वयं में प्रक्रिया, एकीकृत कौशल एवं उत्पाद को समाहित करती है I विज्ञान शिक्षण में अधिगम प्रक्रिया के दौरान बहुमाध्यम दृष्टिकोण का उपयोग छात्रों के सीखने को अधिक प्रभावी और रोचक बनाने के लिए किया जाता है। इस दृष्टिकोण में पाठ्यक्रम को विभिंन्न माध्यमों जैसे चित्र, वीडियो ,मॉडल, ऑडियो, प्रायोगिक उपकरण आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
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अकांक्षा, दुबे. "सांस्कृतिक अर्थशास्त्र : एक अध्ययन". International Journal of Humanities, Social Science, Business Management & Commerce 08, № 01 (2024): 321–26. https://doi.org/10.5281/zenodo.10731226.

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Abstract:
आचार्य कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र पंचम वेद की संख्या से अभिहित किया जाता है, जिसमें न केवल हिंदू सामाजिक जीवन के आदर्श, धर्म, दर्शन, ज्ञान विज्ञान, कला कौशल, लोक आचरण, मर्यादा आदि की शिक्षायें समाविष्ट है वरन भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों की सुगंध भी उसको हर ओर से व्याप्त किए हुए है। भारतीय धर्म संस्कृति के अक्षुण्ण स्वरूप को वेदों में प्रतिपादित किया गया है। पंचम वेद के रूप में आचार्य कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र में व्याप्त शिक्षाएं तत्कालीन संस्कृति को तो अभिव्यक्त करती ही हैं साथ ही वर्तमान समय में भी उसकी प्रासंगिकता को धारण करती हैं। उत्तर वैदिक काल में जब समाज के मध्य वैदिक मूल्यों का क्षरण होने लगा, जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव से समाज के समक्ष अनेकानेक धार्मिक संस्थाओं का स्वरूप प्रकट होने लगा, जिसकी परम परिणीति धार्मिक मूल्यों के आधार पर छोटे-छोटे राज्य तंत्रों के रूप में प्रकट हुई, जब एक समाज के धार्मिक मूल्य दूसरे समाज के धार्मिक मूल्यों से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लग गए, परिणामस्वरूप समस्त भारत की आंतरिक स्थिति डांवाडोल हो गई जिसका लाभ उठाकर बाह्य आक्रमणकारियों ने भारत पर अपना अधिकार जमाना प्रारंभ कर दिया तब भारतीय समाज को संगठनात्मक रूप देने के लिए तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य कौटिल्य ने चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार किया और उसी समय भारतीय इतिहास में आचार्य कौटिल्य का उदय हुआ, जिसने समाज के बीच नए युग की नींव रखी। तत्कालीन समय में समाज विकास और परिवर्तन की ऐसी संक्रांतियों से गुजर रहा था, जिनका सामना पुराने राजनीतिक ढांचे से किया जाना संभव नहीं था, जिसके लिए ठोस सांस्कृतिक मूल्यों की अवधारणा आवश्यक थी। ऐसे समय में आचार्य कौटिल्य ने अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर सांस्कृतिक अर्थसत्ता को प्रस्तुत किया। जिसने न केवल अर्थव्यवस्था का एक संतुलित ढांचा तैयार किया अपितु चिरकाल तक एक राजवंश के नेतृत्व में अखंड भारत का निर्माण किया। इसका आधार कौटिल्य का महान ग्रंथ अर्थशास्त्र था। जिसमें राजनीति के समस्त सांस्कृतिक आयाम सम्मिलित हैं। जो किसी समाज को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक होते हैं। जो उस काल के वेग से भी धूमिल नहीं किए जा सकते। आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्याप्त सांस्कृतिक नीतियां उस समय भी समाज को नई दिशा और दशा देने वाली थीं और वर्तमान में भी समाज को विकास, प्रगति, सौंदर्य, संस्कृति और सकारात्मक तथा स्वस्थ्य शासन देने में सक्षम हैं। जिसके आधार पर वर्तमान में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र को स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह अर्थशास्त्र राजनीति की अपेक्षा संस्कृति को महत्त्व देने वाला है। जो संस्कृति से जुड़कर विश्व को विकास की नई राह दिखा रहा है।
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सिंह, गीता. "भारतीय ज्ञान परंपरा एवं स्वदेशी ज्ञान की वैश्विक परिदृश्य में प्रासंगिकता एवं महत्व". SCHOLARLY RESEARCH JOURNAL FOR INTERDISCIPLINARY STUDIES 9, № 68 (2021): 16312–19. http://dx.doi.org/10.21922/srjis.v9i68.10029.

Full text
Abstract:
किसी भी देश की ज्ञान प्रणाली का मूल घटक उसका स्वदेशी ज्ञान होता है। यह शोध पत्र भारतीय ज्ञान परंपरा एवं स्वदेशी ज्ञान की वैश्विक परिदृश्य में प्रासंगिकता एवं महत्व को परिभाषित करके एक सिंहावलोकन प्रस्तुत करता है जो किसी संस्कृति या समाज के लिए अद्वितीय है और स्थानीय स्तर के निर्णय के लिए आधार बनाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा एवं स्वदेशी ज्ञान की विशेषताएं और प्रकार अन्य देशों में सफल स्वदेशी ज्ञान के पहलुओं के साथ सामाजिक विकास पर इसका प्रभाव डालता है। यह ज्ञान एक सांस्कृतिक परिसर का अभिन्न अंग है जिसमें भाषाए सामाजिक प्रणाली का वर्गीकरणए संसाधनों का उपयोगए प्रथाओंए सामाजिक संपर्कए अनुष्ठान और आध्यात्मिकता भी शामिल है। जिसे समय के साथ विकसित किया गया है। भारतीय ज्ञान परंपरा और स्वदेशी ज्ञान से तात्पर्य समाज द्वारा विकसित समझए कौशल और दर्शन से है जिसका अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ बातचीत का लंबा इतिहास रहा है। हालाँकि पहले स्वदेशी ज्ञान को विकास और संरक्षण के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर नज़रअंदाज किया गया थाए लेकिन स्वदेशी ज्ञान वर्तमान में एक पुनरुद्धार की ओर बढ़ रहा है और विकास परियोजनाओं में इसका समावेश आवश्यक माना जाता है। कई लोगों का मानना है कि स्वदेशी ज्ञान इस प्रकार एक शक्तिशाली आधार प्रदान कर सकता है जिससे संसाधनों के प्रबंधन के वैकल्पिक तरीके विकसित किए जा सकते हैं। भारतीय ज्ञानए परंपराए सभ्यता एवं सांस्कृतिक जीवन ने विश्व में अपनी गहरी छाप छोड़ी है भारतीय सभ्यता सदैव ही गतिशील रही है एवं इस भारतीय ज्ञान परंपरा और सभ्यता की परंपराओं को दुनिया ने अपनाया एवं लाभ उठाया है। भारतीय ज्ञान परंपरा एवं स्वदेशी ज्ञान एक गतिशील प्रणाली में अंतर्निहित है जिसमें आध्यात्मिकताए रिश्तेदारीए स्थानीय राजनीति और अन्य कारक एक साथ बंधे हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शोधकर्ताओं को संस्कृति के किसी अन्य पहलू की जांच करने के लिए तैयार रहना चाहिए जो स्वदेशी ज्ञान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रस्तुत शोध लेख भारतीय ज्ञान परंपरा एवं स्वदेशी ज्ञान को बनाए रखने और स्वदेशी ज्ञान की रक्षा करने उसके महत्वए विशेषताएं एवं सीमाओं के बारे में व्याख्या करने का प्रयास करता है।
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सुमन, पाल, та गोपाल कृष्ण ठाकुर डॉ. "शिक्षा और संस्कृति: भारतीय ज्ञान परंपरा और मुसहर समुदाय". Indian Journal of Modern Research and Reviews 2, № 10 (2024): 36–42. https://doi.org/10.5281/zenodo.14011201.

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Abstract:
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनः वैश्विक पहचान दिलाने हेतु कृत संकल्पित है। भारतीय ज्ञान परंपरा प्राचीनकाल से ही सम्पूर्ण विश्व को रास्ता दिखाया है। भारतवर्ष के विश्वगुरु कहलाने का आधार इसकी आर्ष-परम्परा रही है। हमारे देश के ऋषि<strong>,</strong> मुनि एवं आचार्यों ने भारत सहित पूरे विश्व को ज्ञान रूपी प्रकाश से हमेशा आलोकित किया है। भारतीय लोक परंपरा और संस्कृति के मूल तत्त्व भारतीय ज्ञान परंपरा को वैश्विक स्तर पर अद्वितीय बनाते हैं। भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में कई संस्कृतियाँ माला में मोती की तरह गुथी हुई हैं। एक अद्वितीय भौगोलिक अवसंरचना में भी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को बनाए रखकर ये विभिन्न संस्कृतियाँ न केवल भारतीय सौन्दर्य को निखारती हैं बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा को समृद्ध भी करती हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृति मुसहर समुदाय की है। मुसहर समुदाय की एक विशिष्ट जीवन संस्कृति है<strong>,</strong> जोकि मुसहर समुदाय को एक ख़ास पहचान दिलाती है। मुसहर समुदाय मुख्यतः नेपाल और भारत के तराई इलाकों में निवास करता है। इस समुदाय की सामाजिक-शैक्षिक स्थिति में आज़ादी के बाद से अब तक काफी सुधार हुआ है। वर्ष 1961<strong> </strong>में इनकी साक्षरता केवल 2 % थी<strong>,</strong> जो 2011 की जनगणना तक 22% हो गई है। अन्य समुदायों की तुलना में फिर भी वे बहुत पिछड़े हुए हैं। मुसहर समुदाय मुख्य समाज में हाशिये पर है। इस शोध पत्र में मुसहर समुदाय की जीवन जीने की परिपाटी अर्थात उनके अद्वितीय जीवन दर्शन और संस्कृति का अध्ययन किया गया है। इसके साथ ही साथ उनकी ज्ञान प्रणाली<strong>,</strong> जीवन कौशल विकास और सामाजिक-शैक्षिक समावेशन की स्थिति का भी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
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दुबे, अभिषेक, та नीता सिंह. "सतत और व्यापक मूल्यांकनः एक बुनियादी समझ". SCHOLARLY RESEARCH JOURNAL FOR HUMANITY SCIENCE AND ENGLISH LANGUAGE 9, № 47 (2021): 11578–82. http://dx.doi.org/10.21922/srjhsel.v9i47.7700.

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Abstract:
शिक्षा बच्चों के सर्वांगीण विकास का आधार होने के कारण प्रारम्भिक स्तर पर एक सार्वभौमिक आवश्यकता है। हमारे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का लक्ष्य बच्चों के लिये ऐसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना है, जिससे बच्चों में प्रजातांत्रिक मूल्यांे व व्यवहारों के प्रति कटिबद्धता, सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक व अन्य आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशीलता तथा सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता उत्पन्न हो। ‘‘निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’’ ने शिक्षा को एक ऐसी सतत गतिशील प्रक्रिया के रूप में देखा है, जो बच्चों को गरिमामय जिन्दगी उपलब्ध कराती है और जहाँ बच्चे ’भय’ और ‘तनाव’ से मुक्त होकर ज्ञान का सृजन करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि ऐसी बाल-केन्द्रित एवं बाल अनुकूल शिक्षा हो जो असमानता को दूर करने के साथ-साथ समान शैक्षिक अवसरों को उपलब्ध कराती हो। जाति, धर्म, मत या लिंग के भेदभाव के बिना सभी विद्यार्थियों की पहुंच गुणवत्तापरक शिक्षा तक हो, साथ ही शिक्षा विद्यार्थियों में जिज्ञासा, सृजनशीलता, वस्तुनिष्ठता जैसी योग्यताओं तथा मूल्यों का विकास करते हुए समस्या समाधान तथा निर्णय लेने के कौशल को विकसित करती हो। इन सरोकारों पर चिन्तन करते हुए ‘‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005’’ में शिक्षा के लक्ष्य के संबंध में ‘‘बच्चों को क्या पढ़ाया जाय और कैसे पढ़ाया जाय’’ की कसौटी पर व्यापक रूप से विचार किया गया है। इस दस्तावेज में प्रारम्भिक स्तर पर शिक्षा प्रक्रिया में ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ने, पढाई को रटन्त प्रणाली से मुक्त करने, पाठ्यचर्या को बच्चों के सर्वांगीण विकास का माध्यम बनाने, परीक्षा को लचीली और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ने और छात्रों में मानवीय मूल्यांे का विकास करने पर बल दिया गया है। यह समझ भी बनी कि सही मायने में बच्चों की शिक्षा तभी हो पायेगी जब उनके पास इसका अवसर होगा कि वे अखंड अनुभव की पूर्ण रचना कर सके व ज्ञान का सृजन कर सके। प्रारम्भिक शिक्षा का लक्ष्य बच्चों में वैज्ञानिक मनोवृति एवं तार्किक चिन्तन की प्रवृत्ति का विकास करना है ताकि उनमें संस्कृति, परंपरा तथा समुदाय के अंधानुकरण के स्थान पर मानवता के कल्याण, अन्य समुदायों की संस्कृति और परंपरा के प्रति सम्मान विकसित हो और वे गरीबी, लिंग भेद, जाति तथा सांप्रदायिक झुकाव आदि शोषण व अन्यायपूर्ण व्यवहारों से मुक्त हो सकें। शिक्षा का लक्ष्य वैयक्तिक विशिष्टता को सम्मान प्रदान करना भी है। प्रत्येक बच्चे में अपनी योग्यताएँ, क्षमताएँ और कौशल होते हैं जिनके संवर्द्धन से न केवल वैयक्तिक जीवन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि समुदाय का जीवन भी समृद्ध होगा। इन शैक्षिक लक्ष्यों की पूर्ति तभी संभव है जब छात्रों के विकास का मूल्यांकन करने के लिए वैध एवं विश्वसनीय पद्धति भी हो। ऐसा अनुभव रहा है कि विद्यालयों में मूल्यांकन का जोर शिक्षा के सरोकारों पर प्रतिपुष्टि प्राप्त करने के स्थान पर यह जानने में रहा है कि कौन-कौन से बच्चे पास या फेल हैं। इसके अतिरिक्त विद्यालयों में लागू मूल्यांकन की पद्धतियाँ शिक्षा के लक्ष्यों के संबंध में समग्र प्रतिपुष्टि (फीडबैक) नहीं प्रस्तुत करती हैं, वरन् केवल चुनिंदा आयामों पर बच्चे के शैक्षिक एवं अकादमिक प्रगति के बारे में ही जानकारी देती हैं। उक्त सीमित उद्देश्यों के दृष्टिगत भी अभी प्रचलित मूल्यांकन व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है।
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आचार्य Acharya, लक्ष्मी Laxmi. "नेपाली भाषा पाठ्यपुस्तकमा विषयवस्तुको समावेशिता {Content Inclusiveness in Nepali Language Textbook}". Bikasko Nimti Shiksha (विकासको निम्ति शिक्षा) 27, № 1 (2024): 103–16. http://dx.doi.org/10.3126/bns.v27i1.66455.

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Abstract:
भाषा पाठ्यपुस्तक भाषिक सिप सिकाइको आधारभूत सामग्री हो । विद्यार्थीहरूमा भाषिक सिप विकासका लागि पाठ्यपुस्तकमा प्रयुक्त विषयवस्तुमा विधागत विविधताको साथै समावेशिता आवश्यक ठानिन्छ । विषयवस्तुप्रति धारणा निर्माण गर्न पाठयपुस्तक महत्त्वपूर्ण सामग्रीका रूपमा रहेको हुन्छ । पाठ्यपुस्तकमा समाविष्ट विषयवस्तुको समावेशिताको अध्ययन गर्नु यस लेखको उद्देश्य रहेको छ । यो लेख गुणात्मक ढाँचामा व्याख्यात्मक विधिमा आधारित छ । कक्षा नौको भाषा पाठ्यपुस्तक नेपाली (२०७९) लाई प्राथमिक स्रोत बनाइएको छ । पुस्तकालयीय अध्ययन प्रक्रियाबाट सामग्री सङ्कलन गरी तयार पारिएको यस अध्ययनमा उक्त पाठ्यपुस्तकमा समाविष्ट विषयवस्तुलाई पाठ्यव्रmम अनुरूपता तथा समावेशिताका आधारमा अध्ययन विश्लेषण गरिएको छ । समग्र पाठ्यपुस्तकले पाठ्यक्रम अनुरूपतालाई मूल आधार मानेको देखिन्छ । पाठ्यपुस्तकमा पाठ्यवस्तुको वितरण भाषिक सिप केन्द्रित देखिन्छ । व्यावहारिक सिप वा व्यवहार कौशल विकासमा विषयवस्तुलाई उपयोग गर्न सकिने किसिमका समसामयिक, अद्यावधिक देखिन्छन् । अध्ययनीय पाठ्यपुस्तकमा भाषागत, जातिगत, लिङ्गगत, फरक क्षमताका सिकारुलाई सम्बोधन हुने गरी पाठ्यसामग्रीको व्यवस्थापनमा जोड दिनुपर्ने देखिन्छ । विषयवस्तुलाई पाठ्यव्रmम अनुरूपताका आधारमा विकास गर्न खोजिए पनि समयानुकूल समावेशिताको अवधारणालाई पाठ्यपुस्तकले पूर्णतः आत्मसात् गर्न सकेको छैन । पाठ्यपुस्तकले विधागत विविधतालाई समेट्दै सिकाइ र विद्यार्थीको जीवन्त अनुभवबिच तादात्म्यता सिर्जना गर्न समसामयिक जीवन अनुभवबाट पाठहरू राख्नुपर्ने देखिन्छ । शोध्य पाठ्यपुस्तकमा समाविष्ट विषयवस्तुहरू भाषागत, जातिगत विविधताका पाठहरूलाई समावेश गर्न आवश्यक देखिन्छ । नेपालको भाषिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विविधतालाई समावेशिताको आधारमा उपस्थित गराउन सकेमा प्रभावकारी हुने देखिन्छ । {Language textbooks are the basic materials of language skill learning. For the development of language skills in the students, it is considered necessary to include the diversity and inclusive in the subject matters used in the textbook. Textbooks are important material for creating an opinion about the subject matter. The purpose of this article is to study the inclusion of the contents included in the textbook. This article is based on explanatory methods in a qualitative design. The language textbook, Nepali (2079) of class 9 has been made the primary source. In this study, the materials collected from library study, the contents of the textbook have been analysed on the basis of curriculum conformity and inclusion. The entire textbook seems to have considered curriculum conformity as the main basis. In textbooks, the distribution of the contents seems to have centered on language skills. The contents used in the textbook for development of practical skills or behavioral skills appears to be contemporary and updated. In the textbooks of study, emphasis should be laid on the management of textbooks that address the learners of linguistic, racial, gender and different abilities. Although the content has been tried to be developed on the basis of curriculum conformity, the textbook has not been able to fully assimilate the concept of inclusiveness in accordance with time. Textbooks need to incorporate disciplinary diversity and draw lessons from contemporary life experiences to create a close relation between learning and student living experiences. The contents of the research textbooks need to be included in linguistic and ethnic diversity lessons. It would be effective if Nepal's linguistic, religious and cultural diversity could be presented on the basis of inclusivness.}
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प्रा., डॉ. सुरेखा प्रे. मंत्री. "राष्ट्रीय नई शिक्षा नीति 2020 और कौशल विकास". International Journal of Advance and Applied Research 10, № 1 (2022): 770 to 775. https://doi.org/10.5281/zenodo.7227760.

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Abstract:
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मौजूद राष्ट्रीय शिक्षा नीति के स्थान पर 29 जुलाई, 2020 को मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा अस्तित्व में आई। शिक्षा नीति में यह बदलाव कुल 34 वर्षो के अंतराल के बाद किया गया है, लेकिन बदलाव जरूरी था और समय की जरूरत के अनुसार यह पहले ही हो जाना चाहिए था। शिक्षा किसी भी देश और समाज के विकास की महत्वपूर्ण आधार होता है। शिक्षा के बलबूते ही किसी भी देश का विकास तेजी से किया जा सकता है। हालांकि समय के साथ-साथ हर चीजों में बदलाव आता है और उसके अनुसार शिक्षा में भी बदलाव किया जाना चाहिए क्योंकि पहले के समय में टेक्नोलॉजी का इतना विकास नहीं हुआ था। लेकिन अब दिन प्रतिदिन टेक्नोलॉजी का विकास होते जा रहा है, लोग मॉर्डन टेक्नोलॉजी की ओर कदम बढा रहे हैं। ऐसे में बालकों को न केवल किताबी ज्ञान बल्कि उन्हें व्यवहारिक ज्ञान और टेक्निकल ज्ञान भी दिया जाना चाहिए ताकि अपनी योग्यताओं को बढा सकें और उसके बलबूते पर अपने भविश्य को बेहतर बना सके।
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Tambe, Tina. "NEW EXPERIMENTS IN CLASSICAL DANCES." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 3, no. 1SE (2015): 1–3. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v3.i1se.2015.3427.

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Abstract:
Change is the law of life. No element existing in nature has remained untouched by this process. Living, eating, eating, ethics, beliefs, mentality, moral values ​​etc. and change is visible in every area of ​​social and cultural landscape. Natural changes are occurring naturally but in many other areas, these changes arise as a result of the creative tendency of humans, the main one being the "arts" field. Creating is the natural quality of human being and the pursuit of newness is its basic tendency. When this trend is used with dexterity, work skills, talent and beauty, we create a new and beautiful panoramic cover for creation, then we call it art. One of the Panchakalas under the Fine Arts is Sangeet Kala and one of the arts under the Sangeet is dance art. In Indian culture, dance has been considered as the medium of worship of God, it originated from God and its basis is believed to be religion and spirituality. The dance in the "Natya Veda", formed as the fifth Veda after taking into account the major elements of the four Vedas, attained a systematic, scriptural and normative form and it was from here that the rich tradition of classical dances began. Classical dances have been single-use since the beginning, they were used for worshiping God in temples and today in modern society, these dances have appeared in front of new observers on social theater with a new vision and new form. In these migrations from ancient times to modern times, these dances saw many ups and downs and changes and they had to wear many new clothes to appear in front of new viewers in new circumstances. This is an attempt to shed some light on this migration of new creation, new experiments and new trends of classical dances.&#x0D; परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति में विद्यमान कोई भी तत्व इस प्रक्रिया से अछूता नहीं रह पाया है। रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, मान्यताए, मानसिकता, नैतिक मूल्य आदि तथा सामाजिक व सांस्कृतिक परिदृश्य के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन दृश्यमान है। प्राकृतिक परिवर्तन तो नैसर्गिक रूप से होते रहते है परंतु अन्य कई क्षेत्रों में यह परिवर्तन मानव की सृजनात्मक प्रवृत्ति के फलस्वरूप उत्पन्न होते है जिसमें प्रमुख है “कला” क्षेत्र। सृजन करना मानव का नैसर्गिक गुण है तथा नवीनता की खोज उसकी मूल प्रवृत्ति। यही प्रवृत्ति जब निपुणता, कार्य कौशल, प्रतिभा व सौन्दर्यबोध से प्रयुक्त होकर सृजन को नित-नवीन नयनाभिराम आवरण पहनाती है तब उसे हम कला कहते है। ललित कलाओं के अंतर्गत आने वाली पंचकलाओं में से एक है संगीत कला तथा संगीत कला के अंतर्गत आने वाली कलाओं में से एक है नृत्य कला। भारतीय संस्कृति में नृत्य को ईश्वर की उपासना का माध्यम समझा गया है, यह ईश्वर से ही उत्पन्न हुआ है व इसका आधार धर्म व आध्यात्म ही माना गया है। चार वेदों के प्रमुख तत्वों को ग्रहण कर पंचम वेद के रूप में निर्मित “नाट्य वेद” में नृत्य को व्यवस्थित, शास्त्रोक्त व नियमबद्ध स्वरूप प्राप्त हुआ तथा यहीं से शास्त्रीय नृत्यों की समृद्ध परंपरा का आरंभ हुआ। शास्त्रीय नृत्य आरंभ से ही एकल प्रयोज्य रहे है, इनका प्रयोग मंदिरों में ईश्वर उपासना हेतु हुआ तथा आज आधुनिक समाज में ये नृत्य एक नयी दृष्टि व नवीन स्वरूप के साथ सामाजिक रंगमंच पर नए प्रेक्षकों के समक्ष उपस्थित हुये है। प्राचीन काल से आधुनिक काल के इस प्रवास में इन नृत्यों ने अनेक उतार चढाव व बदलाव देखे तथा समयानुरूप नवीन परिस्थितियों में नए दर्शको के समक्ष अवतरित होने हेतु इन्हें अनेक नवीन कलेवर धारण करने पडे। शास्त्रीय नृत्यों के नवीन सृजन, नवीन प्रयोग व नवीन प्रवृत्तियों के इस प्रवास पर कुछ प्रकाश डालने का यह एक प्रयास है।
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Tripathi, Harish. "Art and Culture in the Maurya Empire – Study of Stupas, Paintings, and Literature." RESEARCH HUB International Multidisciplinary Research Journal 10, no. 3 (2023): 13–19. http://dx.doi.org/10.53573/rhimrj.2023.v10n03.003.

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Abstract:
In this research paper, I have presented the study of art and culture – stupa, painting, and literature in the Mauryan Empire. The Maurya Empire (322 BCE – 185 BCE) was an important dynasty in Indian history. During the time of this empire, art and culture also progressed towards unprecedented progress. The Mauryan Empire made significant contributions in the fields of stupas, painting and literature. Based on ancient Indian literature, the construction of stupas was of particular importance during the time of the Maurya Empire. The Stupa was established as a place of worship and was recognized as the main symbol of Buddhism. The texture of metal and stones was updated in the stupa and paintings were also used in it. Here special care was taken for the high skill of painting and clothing marks. The construction of stupas also played the role of a kind of art-museum where unique creations of updated art and culture were stored. Most of the paintings of the Maurya Empire had a unique sthanakar. The paintings included images of members of the dynasty, statues of gods and goddesses, and descriptions of the lifestyle of the forest dwellers and the people, made in the ancient style. These paintings are found in places like Banswara, Bhojpuri, Nashik, and Sanchi. The importance of these paintings is that they describe the architectural and literary tradition of the Mauryan Empire. The paintings depict the culture and traditions of the Indian dynasty, reflecting the prestige of the social and religious lifestyle of that time.&#x0D; The contribution of the Maurya Empire was invaluable in the field of literature as well. Compositions of Dharmasutras, scriptures, and political poems are found during the Maurya period, which provide information about the society and culture of that time. Chanakya, the author of the epic "Arthashastra", was a political scholar and popular. These included lectures and advice on business, politics, and classical elements. The Maurya Empire made a deep impact in the field of art and culture and paved the way for the characteristics of its times. Stupas, paintings, and literature were symbols of their imperial power, religious influence, and social development. Their study tells us that along with politics, social life, and religion, art and culture have also played an important role in Indian history. The study of the art and culture of the Maurya Empire helps us to understand their ideology, political system, and social order and also helps us to identify the strategic and cultural identity of the Indian civilization.&#x0D; Abstract in Hindi Language:&#x0D; इस शोध पत्र में मैंने मौर्य साम्राज्य में कला और संस्कृति- स्तूप, चित्रकला, और साहित्य का अध्ययन के बारे प्रस्तुत किया है। मौर्य साम्राज्य (322 ईसा पूर्व - 185 ईसा पूर्व) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजवंश था। इस साम्राज्य के समय में कला और संस्कृति भी अपूर्व उन्नति की ओर बढ़ी। मौर्य साम्राज्य ने स्तूप, चित्रकला और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। प्राचीन भारतीय साहित्य के आधार पर, मौर्य साम्राज्य के समय में स्तूप का निर्माण विशेष महत्व रखा जाता था। स्तूप एक पूजा स्थल के रूप में स्थापित किया जाता था और इसे बौद्ध धर्म के प्रमुख चिह्न के रूप में मान्यता प्राप्त थी। स्तूप में धातु एवं पत्थरों की बनावट अद्यतन की गई और इसमें चित्रों का प्रयोग भी किया जाता था। यहां उच्च कौशल से बने गए चित्र और वस्त्रधारण चिह्नों का विशेष ध्यान रखा जाता था। स्तूपों का निर्माण एक प्रकार के कला-संग्रहालय की भूमिका भी निभाता था जहां अद्यतन की गई कला और संस्कृति की अद्वितीय रचनाएं संग्रहीत की जाती थीं। मौर्य साम्राज्य के अधिकांश चित्रकलाओं में अद्वितीय स्थानकार था। चित्रों में राजवंश के सदस्यों की छवियाँ, देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ, और प्राचीन शैली में बने वनवासी और जनता की जीवनशैली का वर्णन किया जाता था। ये चित्र बांसवाड़ा, भोजपुरी, नासिक, और सांची जैसे स्थानों में पाए जाते हैं। इन चित्रों की महत्वपूर्णता यह है कि इनसे मौर्य साम्राज्य की वास्तुकला और साहित्यिक परंपरा का वर्णन होता है। चित्रों में भारतीय राजवंश की संस्कृति और परंपराएँ दिखाई जाती हैं जो उस समय की समाजिक और धार्मिक जीवनशैली की प्रतिष्ठा को दर्शाती हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी मौर्य साम्राज्य का योगदान अमूल्य रहा। मौर्यकालीन धर्मसूत्रों, धर्मग्रंथों, और राजनीतिक काव्यों की रचनाएँ मिलती हैं जो उस समय की समाज और संस्कृति के बारे में जानकारी प्रदान करती हैं। महाकाव्य ’’अर्थशास्त्र’’ के लेखक चाणक्य राजनीतिक विद्वान और लोकप्रिय थे। इनमें व्यापार, नीति, और शास्त्रीय तत्वों के बारे में व्याख्यान और सलाह दी गई है। मौर्य साम्राज्य ने कला और संस्कृति के क्षेत्र में गहरा प्रभाव डाला और अपने समय की विशेषताओं को प्रशस्त किया। स्तूप, चित्रकला, और साहित्य उनकी साम्राज्यिक शक्ति, धार्मिक प्रभाव, और सामाजिक विकास का प्रतीक थे। इनका अध्ययन हमें यह बताता है कि भारतीय इतिहास में राजनीति, सामाजिक जीवन, और धर्म के साथ-साथ कला और संस्कृति की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मौर्य साम्राज्य की कला और संस्कृति का अध्ययन हमें उनकी विचारधारा, राजनीतिक प्रणाली, और सामाजिक व्यवस्था की समझ में मदद करता है और हमें भारतीय सभ्यता की सामरिक और सांस्कृतिक पहचान में भी मदद करता है।&#x0D; Keywords: स्तूप, चित्रकला, कला-संग्रहालय, साम्राज्यिक शक्ति, धार्मिक प्रभाव, और सामाजिक विकास
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घीसालाल, लोधा और अन्य. "अधिगम का द्वार - कौशल का आधार". 30 вересня 2022. https://doi.org/10.5281/zenodo.7127820.

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सिंह गुरुपंच, कुबेर. "भारतीय शिक्षा प्रणालीदृभूत, वर्तमान एवं भविष्य के सन्दर्भ में". International Journal of Reviews and Research in Social Sciences, 18 грудня 2023, 297–302. http://dx.doi.org/10.52711/2454-2687.2023.00050.

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Abstract:
प्रस्तुत अध्ययन भारतीय शिक्षा प्रणालीदृभूत, वर्तमान एवं भविष्य के सन्दर्भ में है यह द्वितीयक आकड़ों पर आधारित है इस अध्ययन में भारती शिक्षा प्रणाली के विभिन्न आयोगों के रिपोर्ट के आधार पर भूत, वर्तमान एवं भविष्य के बारे में विश्लेषण किया गया है। पहले की शिक्षा प्रणाली गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी लोग गुरुकुलों में जाकर अध्ययन करते थे वर्तमान में नयी शिक्षा प्रणाली में कौशल आधारित एवं रोजगार परख शिक्षा प्रणाली है एवं भविष्य में रोबोट एवं डिजिटल एवं मुख्य एवं ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली संचालित होगी।
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प्रीती सिंह та डाॅ रेखा शुक्ला. "उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों में परीक्षा चिंता स्तर के मध्य तुलनात्मक अध्ययन". International Journal of Advanced Research in Science, Communication and Technology, 21 липня 2024, 91–97. http://dx.doi.org/10.48175/ijarsct-19213.

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Abstract:
प्रस्तुत शोध-पत्र में उच्च शिक्षा में अध्ययनरत विद्यार्थियों के परीक्षा चिंता स्तर के मध्य तुलनात्मक अध्ययन करने के उद्देश्य से कानपुर नगर के विभिन्न स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों के प्रथम सेमेस्टर के विभिन्न पाठ्यक्रमों में अध्ययनरत 500 विद्यार्थियों को अध्ययन में शामिल किया गया। इसमें 250 छात्र व 250 छात्राओं को स्तरीकृत यादृच्छिक विधि से चयन कर अध्ययन में शामिल किया गया। तत्पश्चात उन पर मधु अग्रवाल एवं वर्षा कौशल द्वारा निर्मित परीक्षा चिंता मापनी प्रशासित की गयी। प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण में पाया गया कि 500 विद्यार्थियों में 26 प्रतिशत अर्थात् 130 विद्यार्थी निम्न परीक्षा चिंता स्तर 47.4 प्रतिशत अर्थात् 237 विद्यार्थी औसत परीक्षा चिंता स्तर तथा 26.6 प्रतिशत अर्थात् 133 विद्यार्थी उच्च परीक्षा चिंता स्तर रखते है। जब लिंग के आधार पर छात्र-छात्राओं में परीक्षा चिंता स्तर का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तो टी-परीक्षण का मान 1.69 प्राप्त हुआ जो 0.05 स्तर पर सार्थक अन्तर को व्यक्त नहीं करता अर्था्त हम कह सकते है कि ‘छात्र-छात्राओं के परीक्षा चिंता स्तर में कोई सार्थक अन्तर नहीं है।
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देवांगन, दिनेश कुमार. "नैतिकता और मूल्य पर आधारित शिक्षा". Gurukul International Multidisciplinary Research Journal, 20 грудня 2025. https://doi.org/10.69758/gimrj/2412iv02v12p0023.

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Abstract:
वर्तमान समय में मूल्य शिक्षा का महत्व कई गुना बढ़ गया है। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि नैतिक शिक्षा एक बालक के प्रारंभिक शिक्षा से आरंभ होकर उसके जीवन के हर मोड़ पर वह नैतिक मूल्य के साथ-साथ नैतिकता को भी आत्मसात करें। राष्ट्र, विकास के किसी भी स्तर पर रहे चाहे वह विकासशील हो या विकसित, सभी में राष्ट्र की समृद्धि एवं गौरव का आधार शिक्षा है, जो सतत् एवं सामंजस्यपूर्ण विकास द्वारा हमारी क्षमताओं को उत्कृष्ट बनाती है। विद्यार्थियों के सर्वांगिण विकास पर नैतिक शिक्षा का महत्व सदैव रहा है। आज समाज में कई विसंगतियां देखने को मिलती है जहां पर असुरक्षा, भय, हिंसा, अविश्वास कई तरह की अवांक्षित गतिविधियों में लिप्त व्यक्तियों की तादात् बढ़ती जा रही है, वहां पर हमें नियमित व व्यवस्थित तरीके से बच्चों में समायोजन की क्षमता विकसित की जाए, साथ ही यह प्रयास भी जारी रखा जाए की विद्यार्थियों का आचरण इन मूल्यों के अनुरूप आत्म-अनुशासित व आत्म-संयमित रहें। शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास करती है। विद्यार्थियों के ज्ञान एवं कला कौशल में वृद्धि करती है, जिससे एक सभ्य सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण हो सकें। प्रस्तुत शोध में नैतिकता और मूल्य आधारित शिक्षा पर एक व्यापक प्रकाश डाला गया है।
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Rawat, Devki, та Bindu Singh. "बिजनौर जनपद के स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि का अध्ययन". ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts 4, № 2 (2023). https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v4.i2.2023.5334.

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Abstract:
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत के शैक्षिक ढांचे में व्यापक सुधार लाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। यह नीति बहु-प्रविष्टि और बहु-निकास प्रणाली को लागू करके उच्च शिक्षा को अधिक लचीला और समावेशी बनाने पर बल देती है। इस नीति के संदर्भ में, स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत किशोरवय विद्यार्थियों की बहु-प्रविष्टि का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल उनके शैक्षिक सफर को अधिक अनुकूल बनाता है, बल्कि उनके कौशल विकास और करियर निर्माण को भी सशक्त करता है। बहु-प्रविष्टि प्रणाली विद्यार्थियों को उनके व्यक्तिगत, आर्थिक, और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी शिक्षा को जारी रखने या किसी विशिष्ट चरण पर रोकने की सुविधा प्रदान करती है। इस प्रणाली के तहत, विद्यार्थी अपनी स्नातक शिक्षा को एक से चार वर्षों के भीतर विभिन्न स्तरों पर पूर्ण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर सर्टिफिकेट, दो वर्षों के पश्चात डिप्लोमा, तीन वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री, और चार वर्षों में शोध कार्य सहित स्नातक की उपाधि प्राप्त करने का प्रावधान है। इससे उन विद्यार्थियों को लाभ होगा जो किसी कारणवश अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए बाध्य होते हैं, क्योंकि वे अपनी पढ़ाई को पुनः उसी स्तर से आरंभ कर सकते हैं जहाँ उन्होंने छोड़ा था। महाविद्यालयों में किशोरवय विद्यार्थियों के लिए यह प्रणाली अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इस आयु वर्ग के कई छात्र आर्थिक कठिनाइयों, व्यक्तिगत जिम्मेदारियों, या अन्य कारणों से अपनी पढ़ाई में निरंतरता बनाए रखने में असमर्थ होते हैं। बहु-प्रविष्टि प्रणाली उन्हें शिक्षा के प्रति पुनः जुड़ाव का अवसर प्रदान करती है, जिससे वे बिना किसी शैक्षिक व्यवधान के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। यह लचीलापन विद्यार्थियों को विभिन्न कौशल पाठ्यक्रमों और रोजगार के अवसरों के साथ अपनी शिक्षा को संतुलित करने की सुविधा भी देता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत बहु-प्रविष्टि प्रणाली को प्रभावी बनाने के लिए शैक्षणिक क्रेडिट बैंक की अवधारणा को भी लागू किया गया है। यह एक डिजिटल डेटाबेस है, जिसमें विद्यार्थियों के अर्जित किए गए क्रेडिट संग्रहीत किए जाते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग करके वे अपनी शिक्षा को पुनः आरंभ कर सकते हैं। यह पहल छात्रों को विभिन्न विषयों में लचीलापन और विविधता प्रदान करती है, जिससे वे अपने रुचि और करियर की आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रमों का चयन कर सकते हैं। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बहु-प्रविष्टि प्रणाली न केवल किशोरवय विद्यार्थियों को उनकी शिक्षा पूरी करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने में भी मदद करती है। यह नीति पारंपरिक शिक्षा प्रणाली की कठोरता को समाप्त करके उसे अधिक समावेशी और लचीला बनाती है, जिससे विद्यार्थी अपनी क्षमता के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर सकें। शोध अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष - बिजनौर जनपद के स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि में लैगिंक आधार पर सार्थक अन्तर नहीं पाया गया, बिजनौर जनपद के स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि में क्षेत्रीय आधार पर सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
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Rawat, Devki, та Bindu Singh. "स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि का अध्ययन : राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के सन्दर्भ में". ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts 5, № 1 (2024). https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v5.i1.2024.5333.

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Abstract:
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत के शैक्षिक ढांचे में व्यापक सुधार लाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। यह नीति बहु-प्रविष्टि और बहु-निकास प्रणाली को लागू करके उच्च शिक्षा को अधिक लचीला और समावेशी बनाने पर बल देती है। इस नीति के संदर्भ में, स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत किशोरवय विद्यार्थियों की बहु-प्रविष्टि का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल उनके शैक्षिक सफर को अधिक अनुकूल बनाता है, बल्कि उनके कौशल विकास और करियर निर्माण को भी सशक्त करता है। बहु-प्रविष्टि प्रणाली विद्यार्थियों को उनके व्यक्तिगत, आर्थिक, और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी शिक्षा को जारी रखने या किसी विशिष्ट चरण पर रोकने की सुविधा प्रदान करती है। इस प्रणाली के तहत, विद्यार्थी अपनी स्नातक शिक्षा को एक से चार वर्षों के भीतर विभिन्न स्तरों पर पूर्ण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर सर्टिफिकेट, दो वर्षों के पश्चात डिप्लोमा, तीन वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री, और चार वर्षों में शोध कार्य सहित स्नातक की उपाधि प्राप्त करने का प्रावधान है। इससे उन विद्यार्थियों को लाभ होगा जो किसी कारणवश अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए बाध्य होते हैं, क्योंकि वे अपनी पढ़ाई को पुनः उसी स्तर से आरंभ कर सकते हैं जहाँ उन्होंने छोड़ा था। महाविद्यालयों में किशोरवय विद्यार्थियों के लिए यह प्रणाली अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इस आयु वर्ग के कई छात्र आर्थिक कठिनाइयों, व्यक्तिगत जिम्मेदारियों, या अन्य कारणों से अपनी पढ़ाई में निरंतरता बनाए रखने में असमर्थ होते हैं। बहु-प्रविष्टि प्रणाली उन्हें शिक्षा के प्रति पुनः जुड़ाव का अवसर प्रदान करती है, जिससे वे बिना किसी शैक्षिक व्यवधान के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। यह लचीलापन विद्यार्थियों को विभिन्न कौशल पाठ्यक्रमों और रोजगार के अवसरों के साथ अपनी शिक्षा को संतुलित करने की सुविधा भी देता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत बहु-प्रविष्टि प्रणाली को प्रभावी बनाने के लिए शैक्षणिक क्रेडिट बैंक की अवधारणा को भी लागू किया गया है। यह एक डिजिटल डेटाबेस है, जिसमें विद्यार्थियों के अर्जित किए गए क्रेडिट संग्रहीत किए जाते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग करके वे अपनी शिक्षा को पुनः आरंभ कर सकते हैं। यह पहल छात्रों को विभिन्न विषयों में लचीलापन और विविधता प्रदान करती है, जिससे वे अपने रुचि और करियर की आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रमों का चयन कर सकते हैं। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बहु-प्रविष्टि प्रणाली न केवल किशोरवय विद्यार्थियों को उनकी शिक्षा पूरी करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने में भी मदद करती है। यह नीति पारंपरिक शिक्षा प्रणाली की कठोरता को समाप्त करके उसे अधिक समावेशी और लचीला बनाती है, जिससे विद्यार्थी अपनी क्षमता के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर सकें। शोध अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष - बिजनौर जनपद के स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि में लैगिंक आधार पर सार्थक अन्तर नहीं पाया गया, बिजनौर जनपद के स्नातक स्तर के महाविद्यालयों में अध्ययनरत् किशोरवय विद्यार्थिंयों की बहु प्रविष्टि में क्षेत्रीय आधार पर सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
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डॉ. राधेश्याम साहू. "भारत के आर्थिक विकास में रेल परिवहन का योगदान". International Education and Research Journal 10, № 7 (2024). http://dx.doi.org/10.21276/ierj24054133723769.

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Abstract:
भारतीय रेलवे को भारत की जीवन रेखा माना जाता है, भारतीय रेल बड़े पैमाने पर माल की आवाजाही के साथ-साथ लंबी दूरी की यात्रा के लिए परिवहन का एक आदर्श एवं महत्वपूर्ण साधन भी है। आज की प्रौद्योगिकी की दुनिया में वैश्विक स्तर पर हो रहे तकनीकी बदलाव को अपनाना और उन्हें लागू करके उपभोक्ताओं को समय की आवश्यकता के साथ-साथ आधुनिक मांग भी है। भारतीय रेलवे के संदर्भ में यह व्यापक रूप से ज्ञात है, और सार्वभौमिक रूप से मान्यता प्राप्त भी है कि वैश्विक रेल शिखरों में भारतीय रेलवे का एक अद्वितीय स्थान है। भारतीय रेल परिवहन न केवल आर्थिक विकास के आधार - मॉडल के रूप में काम करती है, बल्कि यह विभिन्न सामाजिक और राष्ट्रीय उद्देश्यों को पूरा करने के उपकरणों के रूप में भी काम कर रही है। भारतीय रेलवे अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के साथ-साथ आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ रही है। चूंकि भारतीय रेल, परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन है, इसलिए भारत के आर्थिक विकास को गति प्रदान करने में यह महत्वपूर्ण स्थान है। भारत में रेल परिवहन का एक महत्वपूर्ण कार्य मानव सभ्यता को विकसित करना भी है क्योंकि इस परिवहन के माध्यम से जन-समुदाय विशाल क्षेत्रों में अंतर्निहित निश्चितताओं से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, और इसके साथ ही साथ अपने कौशल और दक्षता को विकसित करते हैं। आर्थिक लाभ प्राप्त करने के अवसर भी सृजित होते हैं। भारतीय रेल परिवहन का समाज के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण स्थान है, जो समाज के जीवन स्तर को उच्च बनाए रखने के लिए और भारतीय अर्थव्यवस्था के संचालन और आर्थिक विकास के लिए परिवहन व्यवस्था की रीढ़ के रूप में काम करके एक अद्वितीय पहचान बना रहा है।
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-, Akash Deep, та Seema Panwar -. "आत्मनिर्भर भारत निर्माण में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की प्रासंगिकता". International Journal For Multidisciplinary Research 6, № 1 (2024). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i01.12300.

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Abstract:
प्रस्तुत शोध पत्र में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के द्वारा दिये गये ‘‘आत्मनिर्भर भारत निर्माण में विचारों का अध्ययन’’ किया गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की योजनाएं सम्पूर्ण भारतवर्ष के लोगों के विकास के लिए स्थापित की गई हैं, एवं भारत सरकार इनके अम्ल के लिए दृढ़ संकल्पित है। सभी योजनाएँ बहुआयामी उद्देश्य के लिए भारत के स्वर्णिम एवं विकास हेतु अग्रसर है और इन योजनाओं की जानकारी प्रत्येक वर्ग के युवकों, विशेष समुदाय के लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है ताकि इनका लाभ उठाकर प्रत्येक समाज को विकास की ओर अग्रसारित किया जा सके उनकी योजनाओं के माध्यम से भारत के युवा बेरोजगार को उपलब्ध कराने, स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण देने, आवास उपलब्ध कराने, समुचित वर्ग को बिजली व्यवस्था उपलब्ध कराने, शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने, व्यापक विकास के अवसरों को बढ़ाने एवं तमाम अन्य योजनाओं के द्वारा सबको लाभांवित किया जाता है। इन योजनाओं का मुख्य उद्देश्य विकास कौशल, विकास एवं अन्य उपायों के माध्यम से आजीविका के अवसरों में वृद्धि कर शहरी और ग्रामीण गरीबी को कम करना है। कोई भी नीति निर्धारक संगठन या सरकार जो गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएँ लाना चाहती हैं एवं मानव कल्याण के मार्ग में प्रशस्त होना चाहती हैं उसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म-मानववाद एवं अंत्योदय के विचार भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आधार हैं। वर्तमान भाजपा सरकार की आर्थिक एवं मानव कल्याणकारी नीतियाँ इस दिशा में अत्यंत प्रभावकारी हैं। जिसमें भविष्य की झलक दिखाई देती है। जिससे मानव कल्याण के लिए एक रचनात्मक एवं प्रगतिशील परिस्थितियां उत्पन्न की जा सकें अपितु मानव कल्याण के स्थायी विकास को सकारात्मक दिशा मिल सके।
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Sirola, Sagar, та Gagan Deep Singh. "श्री गुरु नानक देव जी के आर्थिक एवं नैतिक आदर्शों का शैक्षिक आचरण, वाणिज्यिक नैतिकता एवं युवा उद्यमिता के विकास पर प्रभाव का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन : राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के विशेष सन्दर्भ में". International Journal For Multidisciplinary Research 7, № 3 (2025). https://doi.org/10.36948/ijfmr.2025.v07i03.47412.

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Abstract:
यह शोध प्रपत्र श्री गुरु नानक देव जी के आर्थिक एवं नैतिक आदर्शों का शैक्षिक आचरण, वाणिज्यिक नैतिकता एवं युवा उद्यमिता के विकास पर प्रभाव का विश्लेषण राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के आलोक में प्रस्तुत करता है। गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ—“नाम जपो”, “कीरत करो”, “वंड छको”—न केवल आध्यात्मिक साधना का मार्गदर्शन करती हैं, अपितु शिक्षा, व्यवसाय एवं समाज में नैतिकता, सेवा तथा सामाजिक उत्तरदायित्व का ठोस आधार भी स्थापित करती हैं। इस सन्दर्भ में प्रस्तुत शोध अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह विश्लेषित करना है कि श्री गुरु नानक देव के आर्थिक एवं नैतिक आदर्श वर्तमान समय में शिक्षक, शिक्षार्थियों एवं युवा उद्यमियों के आचरण, सोच व व्यवहार को किस प्रकार प्रभावित करते हैं तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के सन्दर्भ में इन आदर्शों की प्रासंगिकता कितनी है। इसके अतिरिक्त वे मूल्य-आधारित शिक्षा, वाणिज्यिक नैतिकता एवं उद्यमशीलता के विकास में किस प्रकार सहायक हो सकते हैं। प्रस्तुत शोध अध्ययन हेतु परिपूर्ण किए गए सर्वेक्षण के परिणामों के अनुसार, अधिकांश उत्तरदाताओं का यह मत है कि नैतिक मूल्य शिक्षा का अनिवार्य अंग होना चाहिए तथा श्री गुरु नानक देव जी के विचार वर्तमान समय में भी चरित्र निर्माण, ईमानदार व्यापार व सामाजिक उत्तरदायित्वयुक्त उद्यमिता के लिए अत्यन्त प्रेरणादायक हैं। वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी मूल्य-आधारित शिक्षा, कौशल विकास एवं उद्यमिता को प्राथमिकता दी गई है, जो श्री गुरु नानक देव जी के आदर्शों से गहनतापूर्वक जुड़ी हुई हैं। निष्कर्षतः, यह शोध अध्ययन इंगित करता है कि नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं उद्यमशीलता का समन्वय भारतीय युवाओं में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम है तथा श्री गुरु नानक देव जी के सिद्धान्त वर्तमान समय के सामाजिक, शैक्षिक एवं व्यावसायिक सन्दर्भ में अत्यन्त व्यावहारिक एवं आवश्यक हैं।
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अग्रवाल, नागेश्वर, та मोनिका सतनामी. "नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रभाव (उच्च शिक्षा के विशेष संदर्भ में)". International Journal of Advances in Social Sciences, 16 грудня 2023, 246–53. http://dx.doi.org/10.52711/2454-2679.2023.00040.

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Abstract:
नई शिक्षा नीति 2020 भारत की शिक्षा नीति है जिसे भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया। सन 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारत-केन्द्रित शिक्षा प्रणाली की परिकल्पना की गई है, जो इसकी परंपरा, संस्कृति, मूल्यों और लोकाचार में परिवर्तन लाने में अपना बहुमूल्य योगदान देने को तत्पर है। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य बिना किसी भेद भाव के प्रत्येक व्यक्ति को बढ़ने और विकसित होने के लिए एक सामान अवसर प्रदान करना है तथा विद्यार्थियों में ज्ञान, कौशल, बुद्धि और आत्मविश्वास का सर्जन कर उनके दृष्टिकोणों का विकास करना है। इस शोधपत्र में शोधकर्ता द्वितीयक आंकड़ों के माध्यम से जो गुणात्मक स्तरों पर आधारित है नई शिक्षा नीति की वास्तविक मूक विशेषताओं को दर्शाना चाहता है। उपर्युक्त विश्लेषित तथ्यों के आधार पर शोधकर्ता, इस शोधपत्र के माध्यम से अनेक सुझावों को प्रस्तुत करता है, जो भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए आती आवश्यक है। नरेंद्र मोदी सरकार ने भारतीय परिवेश के अनुरूप नई शिक्षा नीति बनाई थी, उस पर अमल चल रहा है। इसमें सांस्कृतिक चेतना के साथ आधुनिक विकास को महत्व दिया गया। नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत की यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में बड़ा योगदान देगी। बहुविषयक शिक्षा और अनुसंधान विश्वविद्यालय देश के युवाओं के लिए नए अवसर का सृजन करेगी। यह अंतर अनुशासनात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देने के साथ भारत को अनुसंधान एवं विकास का वैश्विक हब बनाने में सहायक होगी। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली के लिए एक नई कल्पना का सूत्रपात किया है। यह एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण से जुड़ी दृष्टि को रेखांकित करने वाली है।
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-, प्रेरणा सिकरवार, सुधा सिलावट - та त्रिपत कौर चावला -. "ICT का विद्यार्थियों के सामाजिक व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव का अध्ययन". International Journal on Science and Technology 16, № 1 (2025). https://doi.org/10.71097/ijsat.v16.i1.2426.

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Abstract:
आज के डिजिटल युग में ICT (जैसे स्मार्टफोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया) ने शिक्षा और सामाजिक जीवन के कई पहलुओं में बदलाव लाया है। इससे विद्यार्थियों के संवाद कौशल, सहयोग की भावना, और पारस्परिक संबंधों पर गहरा असर पड़ा है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह समझना है कि ICT का विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक व्यवहार पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ता है। साथ ही, यह पता लगाना भी उद्देश्य है कि ICT के उपयोग से विद्यार्थियों के आत्मविश्वास, निर्णय लेने की क्षमता और मानसिक स्थिति में कैसे बदलाव आए हैं। यह अध्ययन 20-30 वर्षों के शोध पत्रों और साहित्य का गहन अध्ययन करके किया गया है, जिसमें गूगल स्कॉलर, ResearchGate, PubMed, और अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का सहारा लिया गया है। इसके अलावा, Dimension.ai डेटा एनालिटिक्स प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से पिछले 25 वर्षों में इस क्षेत्र में किए गए अध्ययनों का विश्लेषण किया गया है। शोध में यह पाया गया कि "भारत में विद्यार्थियों के सामाजिक व्यवहार पर ICT के उपयोग का प्रभाव" से संबंधित 140,900 परिणाम मिले हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन किए गए हैं। इनमें प्रमुख रूप से शिक्षा, मानव समाज, और मानसिक स्वास्थ्य पर हुए शोध शामिल हैं। वहीं, "भारत में विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर ICT के उपयोग का प्रभाव" से संबंधित 95,315 परिणाम प्राप्त हुए हैं। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि ICT के माध्यम से विद्यार्थियों के मानसिक और सामाजिक जीवन में व्यापक बदलाव आ रहे हैं। इस अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर, यह सुझाव दिया गया है कि ICT के उपयोग को संतुलित और सकारात्मक दिशा में निर्देशित करना चाहिए, ताकि विद्यार्थियों का मानसिक और सामाजिक विकास संतुलित तरीके से हो सके। साथ ही, यह अध्ययन शिक्षकों, अभिभावकों और विद्यार्थियों को ICT के प्रभावों से अवगत कराने और इसके उचित उपयोग के लिए प्रेरित करने में सहायक होगा।
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-, Dr Ashish Mishra, та Mrs Sangita Chouhan -. "महिला सशक्तिकरण पर डिजिटलीकरण का प्रभाव". International Journal For Multidisciplinary Research 5, № 5 (2023). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2023.v05i05.6403.

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Abstract:
संक्षेपिका: यह महत्वपूर्ण है कि कोई भी महिला, डिजिटलकरण के अवसर का लाभ उठाने एवं अपने लक्ष्य का पीछा करने से हतोत्साहित न हो। डिजिटल परिवर्तन महिलाओं के लिए एक छलांग लगाने का अवसर और एक अधिक समावेशी डिजिटल वातावरण बनाने का अवसर प्रस्तुत करता है, आवश्यक यह है कि प्रयासों को बढ़ाया जाए और इसका लाभ उठाया जाए। डिजिटल क्षेत्र में लैंगिक अंतर को दूर करने के लिए बेहतर कानूनों की दिशा में G20 की पहल एक महत्वपूर्ण और समयबद्ध कदम का प्रतिनिधित्व करती है। इन नीतियों को विकसित करने और निगरानी करने के लिए, एक ठोस साक्ष्य आधार आवश्यक है जो दर्शाता है कि डिजिटल परिवर्तन सें महिलाएं किस तरह आगे बढ़ रही हैं। वैश्वीकरण के युग में, महिलाओं के दैनिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालने के अतिरिक्त, महिला सशक्तिकरण किसी भी समुदाय की सामान्य उन्नति के लिए आवश्यक है। भारत और दुनिया भर में महिलाओं के लिए इन अवसरों से रोजगार और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में कई अलग-अलग प्रकार के उपयोगी परिवर्तन लाए गए हैं। अध्ययन द्वारा यह समझने का प्रयास करता है कि उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करने में महिलाओं को बुनियादी इंटरनेट का उपयोग और प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। महिलाएं अब दैनिक स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सूचनाएं समाचार के द्वारा जानकारी प्राप्त कर सकती हैं, मोबाइल प्रौद्योगिकी के विकास के लिए धन्यवाद, जिसने दुनिया को अपनी उंगलियों पर सुलभ बना दिया है। महिलाएं शिक्षा के माध्यम से उन्हें प्रौद्योगिकी का उपयोग करने में सक्षम बनाने के अलावा आर्थिक रूप से अधिक स्वतंत्र बन सकती हैं। इस उद्देश्य के लिए, महिलाओं को एवं स्मार्टफोन का उपयोग कौशल सीखने, ऑनलाइन वित्तीय लेनदेन में संलग्न होने और दुनिया के रुझानों से अवगत कराने में मदद मिलेगी। नए डिजिटल उपकरण समावेशी वैश्विक आर्थिक विकास के एक नए स्रोत सशक्त कर रहे हैं। महिला सशक्तिकरण और आर्थिक विकास का गहरा संबंध है। एक दिशा में अकेले विकास ही पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता को कम करने में प्रमुख भूमिका निभा सकता है, दूसरी दिशा में, महिलाओं को सशक्त बनाने से विकास को लाभ मिल सकता है।
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-, Ajay Kumar Patel, Dhirendra Ojha - та Jai Kant Gupta -. "पेपर मिल्स में श्रमिकों की शोषणात्मक स्थिति का अध्ययन म.प्र. के विशेष संदर्भ में।". International Journal For Multidisciplinary Research 6, № 2 (2024). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i02.17802.

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Abstract:
सारांश म.प्र. में श्रमिकों की स्थिति सामान है। ये किसी भी संगठित और निजी संस्थाओं में देखने को मिल सकती है। म.प्र. में राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दो ही पेपर मिल्स कार्यरत् हैं। इन्हीं मिलों में कार्य करने वाले तिहाडी़ असंगठित श्रमिक एवं अनुबंध आधारित श्रमिकों की शोषणात्मक स्थिति का अध्ययन कर विषय विषय को जानने की कोशिश है। अगर हम म.प्र. में श्रमिकों का पंजीयन देखें तो लगभग 1 लाख 80 हजार के आसपास है जो किसी न किसी संस्था में कार्यरत् है। वहीं अगर भारतवर्ष में श्रमिकों की संख्या का अध्ययन करें तो भारत की कुल आबादी का लगभग 42 प्रतिशत से 45 प्रतिषत श्रमिकों की संख्या है। भारत में श्रम बाजार विषाल है अनौपचारिक और असंगठित प्रकृति के उद्यमों और प्रतिष्ठानों में श्रमिक काम करते है। इसमें तिहाडी़ श्रमिक भी शामिल है। जिन्हे निजीकरण और उदारीकरण के समय में परिवर्तन किया गया है। श्रम बाजार के परिपेक्ष्य नए है, परंतु उनके शोषण की स्थिति में परिवर्तन ज्यों का त्यों बना हुआ है, इसी कारण आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होन पर भी श्रमिकों स्थिति में ज्यादा कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ। शोधकर्ताओं द्वारा पेपर मिल्स में कार्य करने वाले श्रमिकों की शोषणात्मक स्थिति का ही शोध पत्र प्रस्तुत किया गया है जिसमें ओरिएंट पेपर मिल अमलई (शहडोल) एवं अखबारी कागज मिल नेपानगर (बुरहानपुर) के द्वितीय आंकड़ों की जानकारी के आधार पर श्रम शोषण की स्थितियों का विष्लेषण किया गया है। तिहाडी़ कमजोर सामाजिक वर्ग के मजदूर अधिक पीड़ित है। स्थानीय ओरिएंट पेपर मिल के श्रमिकों की शोषणात्मक स्थिति के लिए अनुबंध आधारित व्यवस्था एवं दैनिक मजदूरी व्यवस्था उत्तरदायी है। मुख्य शब्दः अनुबंध आधारित व्यवस्था, असंगठित श्रमिक, असंगठित सामाजिक वर्ग नीति 2008। प्रस्तावनाः- प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की स्थिति पर प्रकाश डालना है। शोध का पद्धतिशास्त्र, गुणात्मक तथा स्तरित दैव निदर्शन से पूरा किया गया एवं संदर्भित किया गया है। श्रमिक एक विशुद्ध सामाजिक व्यक्तिगत अवधारणा है। जिसका प्रयोग सामाजिक रूप से जो व्यक्ति उपेक्षा, शोषण और उत्पीड़न का शिकार हुआ है। श्रमिक शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्ति के लिए किया जा रहा है जिन्हे अमानवीय व्यवहार, अन्याय, भेदभाव, दुराचार ऊॅंच-नीच की भावना कार्य की प्रधानता न देना सामाजिक निर्योग्यताओं, सामाजिक प्रताड़ना राजनीतिक एवं आर्थिक वचंनाओं और असुविधाओं का लम्बे समय में गुजरना पड़ रहा है। इन्हीं क्रियाओं को श्रमिकों का शोषण वर्तमान समय में पेपर मिल्स में किया जा रहा है। श्रमिकों का शोषणात्मक स्थिति में उनको प्रताड़ना जैसे कि कम मजदूरी देना, यातनाएं देना ही शामिल नहीं है बल्कि, उनको मानसिक प्रताड़ना भी शामिल है। जिनसे उनका मानसिक विकास नहीं हो पाता है। हम जानते हैं कि श्रमिक श्रम बेचता है अपने आपको नहीं, श्रमिक अपना श्रम यानी कौशल आर्थिक लाभ के लिए बेचता है अपने आपको नहीं यानी उसका अपने कौशल पर उसका स्वामित्व रहता है। श्रम शब्द को परिभाषित करते हुए प्रो. मार्शल कहते है कि श्रम का अभिप्राय मानसिक या शारीरिक से लिया जाता है, जो पूर्णतया या आंशिक रूप से आनंद की प्राप्ति के लिए न होकर लाभ प्राप्ति के लिए किया जाता है। श्रमिकों की आजीविका उनकी शारीरिक श्रम पर आधारित होती है। खासतौर पर तिहाड़ी श्रमिको की जिन्हे घण्टों के आधार पर मजदूरी दी जाती है, ऐसे वर्ग को श्रमिक की श्रेणी में रखा गया है। हमारे भारतीय संविधान में श्रमिको का विशेषाधिकार प्राप्त हैं। कुछ जनसंख्या के आधार पर आरक्षण प्राप्त है। किन्तु ये आरक्षण का लाभ आज भी सभी वंचित व्यक्ति को शत-प्रतिशत नहीं मिल पा रहा है और न ही सरकार इस पर समीक्षा करती है। आज जिन श्रमिकों के वंशज श्रमिक थे वर्तमान में भी वे श्रमिक का कार्य करने के लिए मजबूर है। इनकी सामाजिक निर्योगिताओं एवं आर्थिक, शैक्षणिक, पिछड़ापन दूर करने तथा इन्हे विशेष सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा राजनैतिक सुरक्षा प्रदान की गई है। गरीबी, गंदगी, बीमारी और अशिक्षा का शिकार ये वर्ग समाज से बहिष्कृत और नागारिक अधिकारों से वंचित रहा है। हालांकि औद्योगिक क्षेत्रों में सरकार ध्यान दे रही है जिससे इनकी आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। शोषणः- शोधकर्ता द्वारा पेपर मिल्स में कार्यरत् श्रमिकों का शोषणात्मक स्थिति का अध्ययन शोध पत्र में किया गया है। शोषण का तात्पर्य उन सभी प्रकार के उत्पीड़न से है जो समाज के उच्च एवं सम्पन्न वर्गों से अपना रक्षा कर पाने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। सामान्यतः शोषण की श्रेणी में अमानवीय व्यवहार कार्य को महत्व न देना मजदूरी के लिए परेषान करना, लालफीता -शाही, ऊंच-नींच की भावना, भेदभाव, अन्याय हिंसा संम्बधी, दुर्घटनाएं आदि से है। जिसमें श्रमिकों को मानसिक पीडा़ होती है जिससे उनकी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति बदल सी जाती है। जिससे श्रमिकों की कार्य करने की क्षमता अवरुद्ध होती है जिसका असर उनके भविष्य पर भी पड़ता है। कभी-कभी तो श्रमिक वर्ग इतने शोषित होते हैं कि ये आत्मघाती कदम उठा लेते हैं एवं इनकी मौत भी हो जाती है। शोषण निवारण अधिनियम 1989 के अन्तर्गत श्रमिक वर्ग के विरुद्ध उच्च एवं सम्पन्न वर्गों द्वारा अस्पृष्यता के भेदभाव सहित किये गये 27 प्रकार के अपराधों कों सम्मिलित किया गया है। ऐसे सभी शोषण जिनको जिला श्रम कल्याण प्रकोष्ठ में भारतीय दण्ड विधान संहिता, नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम-1955, तथा शोषण निवारण अधिनियम 1989 के अन्तर्गत पंजीबद्ध किये गये हैं। ये सभी शोषण की श्रेणी में आते हैं।
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-, ब्रिज मोहन सिंह, та सुमन कुमारी -. "माध्यमिक शिक्षा में मूल्यांकन पद्धतियों का छात्रों के शिक्षा पर प्रभाव: एक तुलनात्मक अध्ययन". International Journal For Multidisciplinary Research 6, № 1 (2024). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i01.14023.

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Abstract:
संक्षेप यह शोध पत्र उन विभिन्न मूल्यांकन विधियों के प्रभाव का अध्ययन करता है जो उच्चतर शिक्षा सेटिंग में छात्रों के शिक्षा पर पड़ते हैं। तुलनात्मक विश्लेषण के एक उपाय के माध्यम से, अध्ययन विभिन्न मूल्यांकन तकनीकों के प्रभावकारिता का मूल्यांकन करता है, जिनमें पारंपरिक परीक्षाएँ, प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन, पोर्टफोलियो, और प्रोजेक्ट-आधारित मूल्यांकन शामिल हैं। इसका उद्देश्य प्रत्येक विधि के साथ हाई स्कूल शिक्षा संदर्भ में, उनकी मजबूतियों, कमजोरियों, और उपयुक्तता की पहचान करना है, जबकि छात्रों के संगठन, प्रेरणा, और शैक्षिक उत्कृष्टता पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। यह शोध एक व्यापक साहित्य समीक्षा के साथ शुरू होता है, जो उच्चतर शिक्षा में मौजूदा मूल्यांकन विधियों का एक विस्तृत अवलोकन प्रदान करती है। यह उन वैज्ञानिक सिद्धांतों को हाइलाइट करता है जो इन अभ्यासों को निर्देशित करते हैं और इनके प्रभाव पर पिछले शोध फिंडिंग्स को समाकित करता है। इस आधार पर, अध्ययन प्रत्येक मूल्यांकन विधि के नूनांतों में गहराई से गुहार लगाता है। पारंपरिक परीक्षाएँ, जो आमतौर पर प्रयोग की जाती हैं, अपने संवेदनशील विचार को मापने की सीमित क्षमता के लिए आलोचना की जाती हैं। प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन छात्रों की क्षमताओं का एक अधिक सत्यापन करता है, लेकिन मानकीकरण और वस्तुनिष्ठता की कमी हो सकती है। पोर्टफोलियो छात्र की प्रगति और विकास का एक पूर्णांक दृश्य प्रदान करते हैं, लेकिन उनके कार्यान्वयन को निर्देशित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि संवेदनशीलता और निष्पक्षता की समस्याएँ हो सकती हैं। प्रोजेक्ट-आधारित मूल्यांकन सहयोगी शिक्षा और वास्तविक समस्या-समाधान की कौशलों को बढ़ावा देते हैं, लेकिन सावधानीपूर्वक योजना और संसाधनों की आवश्यकता होती है। यह शोध विभिन्न हाइ स्कूल शिक्षा के विभिन्न स्तरों के विविध हितधारकों से डेटा एकत्र करता है। इस बहुपक्षीय दृष्टिकोण का उपयोग करके, विभिन्न दृष्टिकोणों और अनुभवों की सम्पूर्ण समझ होती है। नमूना चयन मानकों को विभिन्न शैक्षिक संदर्भों के प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देता है, जिससे परिणाम विभिन्न सेटिंग में लागू और संबंधित होते हैं। नतीजे उन्होंने प्रत्येक मूल्यांकन विधि की मजबूतियों, कमजोरियों, और उपयुक्तता के बारे में ज्ञानदान किया है। पारंपरिक परीक्षाएँ ज्ञान की महत्वपूर्ण गुणधर्मों का मूल्यांकन करने में अपनी कुशलता के लिए उत्कृष्ट हैं, लेकिन उच्च-क्रम सोचने के कौशल को पर्याप्त रूप से मापने में सक्षम नहीं हो सकती हैं। प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन वास्तविक कौशलों और लागू करने में अधिक सत्यापन में अद्वितीय हैं, लेकिन विभिन्न मूल्यांकनकर्ताओं के बीच निष्पक्षता और स्थिरता की कमी हो सकती है। पोर्टफोलियो छात्र के विकास का एक समग्र दृश्य प्रदान करते हैं, लेकिन विश्वसनीयता और मूल्यांकन मानकों में अंतर हो सकता है। प्रोजेक्ट-आधारित मूल्यांकन सहयोगी शिक्षा और वास्तविक समस्या-समाधान कौशलों को बढ़ावा देते हैं, लेकिन सावधानीपूर्वक योजना और संसाधनों की आवश्यकता होती है। यह शोध शिक्षकों, नीति निर्माताओं, और पाठ्यक्रम विकसकों के लिए मूल्यवान अवलोकन प्रदान करता है ताकि उच्चतर शिक्षा में मूल्यांकन के अभ्यास को सुधारा जा सके। प्रत्येक मूल्यांकन विधि की मजबूतियों और सीमाओं को समझकर और उनके छात्र संगठन, प्रेरणा, और शैक्षिक उत्कृष्टता पर उनके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, हितधारक योजनाएँ बना सकते हैं। अंततः, लक्ष्य यह है कि एक समावेशी और समर्थनशील शिक्षा वातावरण बनाया जाए, जो छात्र सफलता और समग्र विकास को प्रोत्साहित करता है।
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Yadav, Preeti. "अनामिका के काव्य में संवेदनाओं का स्वरूप". ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts 5, № 6 (2024). https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v5.i6.2024.5465.

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Abstract:
सम्वेदना का सीधा सम्बन्ध चेतना से है जो कवि को इस जगत से जोड़ती हुई दोनों की विशेषता को भी बनाये रखती है द्य साहित्य में सम्वेदना तत्व की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से की जाती है द्य कवि इस अभिव्यक्ति के लिए अभिव्यंजना कौशल का सहारा लेता है द्य इस प्रकार कहा जाता जा सकता है कि कवि काव्य-सम्वेदना की अभिव्यक्ति में परांगत है जिसकी काव्य-सम्वेदना का आधार तत्कालीन सामाजिक परिवेश है जिसको अनुभूत कर वह स्व और पर को अभिव्यक्त करता है द्य अनामिका की काव्य-सम्वेदना को रूप और दिशा देने में बिहार का प्राकृतिक सौन्दर्य मानवीय सुख-दुःख टालस्टाय की लोकमंगल की भावना से प्रभावित जीवन दृष्टि, जीवन-शक्ति सम्बन्ध सिध्दांत, स्त्रीवादी चेतना को प्रतक्ष्य-अप्रतक्ष्य रूप से प्रभावित किया है द्य कसी भी वस्तु भाव या स्थिति का हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है और उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे ही सम्वेदना कहतें हैं द्य इस बात को दुसरे ढ़ंग से भी समझा जा सकता है द्य यह दुनिया कितनी बड़ी है और कितनी भरी-पूरी है द्य इसके इतने सारे रंग और रूप है द्य इतने सारे पदार्थ हैं, इतने वस्तूवें हैं द्य प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक घटना हमपर किसी न किसी रूप में असर डालती है, जैसे पानी में कंकड़ फेकने से तरंग उठती है वैसे ही हम जब कुछ देखतें-सुनते हैं या जब हमें कुछ होता है तो हम भी प्रतिक्रिया करतें हैं द्य हमारा ह्रदय प्रभावित होता है और तब इस प्रभाव की अनुरूप भाव उत्पन्न होता है द्य वस्तूवों का ह्रदय पर पड़ने वाला यही प्रभाव और उससे उत्पन्न प्रतिक्रिया ही सम्वेदना कहलाती है द्य सम्वेदना के भिन्न-भिन्न रूपों में बात करने से पहली बात जो हम हमेशा ध्यान में रखें वह यह कि कोई भी बात हवा में नहीं हो सकती है द्य कहने का अर्थ है कि जब हम किसी कवी के बारे में बात कर रहे हैं तो उसकी कविता को सामने रखना पड़ेगा द्य कविता के एक-एक शब्द को पढ़ना समझना पड़ेगा द्य अनामिका बिहार प्रान्त के हैं अतः उनकी कविता पर बिहार प्रान्त का असर स्वतः ही देखा जा सकता है द्य अपने इन्द्रियों के द्वारा दूसरे के प्रति अपनी निजी अनुभव या ज्ञान को सम्वेदना कहतें हैं द्य हिंदी ज्ञान कोष के अनुसार सम्वेदना का अर्थ है-मन में होने वाला बोध या अनुभव या अनुभूति होता है द्य किसी के शोक, दुःख, हानि, कष्ट आदि को देखकर मन में उत्पन्न होने वाला दुःख या सहानुभूति हीं संवेदना कहलाता है द्य दूसरों की वेदना से उत्पन्न वेदना द्य सम्वेदना का अर्थ ज्ञानइन्द्रियों के द्वारा प्राप्त अनुभव या ज्ञान है किन्तु आजकल सामान्यतः इसका प्रयोग सहानुभूति के अर्थ में अधिक होने लगा है द्य मनोविज्ञान में अब भी इस शब्द का प्रयोग इसके मूल अर्थ में ही किया जाता है और उस अर्थ में यह किसी बाह्य उत्तेजक के प्रति शरीर अंग की सर्वप्रथम सचेतन प्रतिक्रिया होती है द्य इसी के बदले में व्यक्ति अपने परिवेश के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करता है द्य सम्वेदना के लिए किसी उत्तेजक का होना आवश्यक माना जाता है द्य उससे सम्बन्धित गुण ही मानव में सम्वेदना जाग्रत करतें हैं
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Omprakash, Kashyap. "बहुजन साहित्य की रूपरेखा ('बहुजन साहित्य की प्रस्तावना' के बहाने)". आखरमाला, 8 серпня 2016. https://doi.org/10.5281/zenodo.7265169.

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Abstract:
फारवर्ड प्रेस के&nbsp;वेब संस्करण की घोषणा हो चुकी थी. वह समयानुसार काम भी करने लगा था. बावजूद इसके &lsquo;फारवर्ड प्रेस&rsquo; द्वारा जून&mdash;2016 के बाद &lsquo;प्रिंट संस्करण&rsquo; के बंद होने की घोषणा मन में आशंका पैदा करने वाली थी. ऐसे में &lsquo;एफपी बुक्स&rsquo; की पहली खेप का आगमन बड़ा ही आह्लादकारी है. अपनी प्रतिबद्धता और वायदे पर खरा उतरने के लिए फारवर्ड प्रेस(अब एफपी बुक्स) के संपादक-द्वय आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन चिर प्रशंसा के पात्र हैं. पत्रिका अपनी रीति-नीति में आरंभ से ही स्पष्ट रही है. हिंदी में बहुजन साहित्य की अवधारणा को बीच-बहस उतारने तथा तत्संबंधी प्रश्नों को लेकर उत्तेजक एवं महत्त्वपूर्ण बहसों की शुरुआत का श्रेय इसी पत्रिका को जाता है. तीन पुस्तकों की शृंखला में एक का शीर्षक &lsquo;बहुजन साहित्य की प्रस्तावना&rsquo; है. पुस्तक-सामग्री का अधिकांश हिस्सा इसी पत्रिका के विभिन्न अंकों में प्रकाशित हो चुका है. बावजूद इसके विषयगत आलेखों को एक स्थान पर ले आना समीचीन था. यह कार्य समय रहते हुआ, इसके लिए भी संपादक द्वय प्रशंसा के पात्र हैं. पुस्तकाकार रचना पत्रिकायी कलेवर से कहीं अधिक प्रभावी, आकर्षक तथा दूरगामी महत्त्व रखती है. यदि &lsquo;एफपी बुक्स&rsquo; की शृंखला पांच वर्ष भी सफलतापूर्वक चली; और प्रकाशकगण इन पुस्तकाकार संस्करणों की, पत्रिका-संस्करण की अपेक्षा आधी प्रतियां भी बेचने में सफल रहे तो यह न केवल बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी विकसित करने में मददगार होगी, बल्कि तब तक ब्राह्मणवाद को चुनौती देने में सक्षम समानांतर जनसंस्कृति के पक्ष में पुख्ता सोच तैयार हो चुकी होगी. पुस्तक में लेखों को तीन खंडों में संयोजित किया गया है&mdash;ओबीसी साहित्य विमर्श, आदिवासी साहित्य विमर्श तथा बहुजन साहित्य विमर्श. उनके माध्यम से हम &lsquo;ओबीसी साहित्य विमर्श&rsquo; से &lsquo;बहुजन साहित्य विमर्श&rsquo; तक की यात्रा को भी समझ सकते हैं. हालांकि वह अभी अपने आरंभिक पड़ाव पर ही है. पुस्तक की सामग्री विचारोत्तेजक है. विशेषकर कंवल भारती, प्रेमकुमार&nbsp;मणि के लेख, जो सोचने को विवश करते हैं. यहां दो आलेखों का संदर्भ प्रासंगिक है. पहला सुप्रिसिद्ध भाषाविद् डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का आलेख. &lsquo;ओबीसी&rsquo; साहित्यकारों के बारे में उनका अध्ययन विशद् है. वे इस धारा के प्रथम प्रस्तावक माने जाते हैं. ब्राह्मणवादियों के लिए जाति का मुद्दा ईश्वर और धर्म से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है. इसलिए ईश्वर और धर्म के नाम पर अलग-अलग मत रखने वाले ब्राह्मणवादियों में जाति के नाम पर अटूट एकता दिखती है. पिछले ढाई-तीन हजार वर्षों में धर्म ने तरह-तरह के बदलाव देखे हैं. इस कारण इसे जीवन-शैली भी माना जाता है. लेकिन इस बीच जाति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. लोगों की अशिक्षा का लाभ उठा, संस्कृति की मनमानी व्याख्या करते आए ब्राह्मण पहले भी शिखर पर थे, आज भी शिखर पर हैं. इस मनुवादी षड्यंत्र को डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह गंभीरता से सामने लाते हैं. अपने लेख के माध्यम से वे बहुजन साहित्य की आवश्यकता को भी रेखांकित करते हैं.&nbsp; दूसरा आलेख वरिष्ठ लेखक-समालोचक&nbsp; डॉ. चौथीराम यादव का है, जिसमें वे पिछड़े वर्ग के लेखकों के अवदान की याद दिलाते हैं. दोनों विद्वान दलित साहित्य के विकास में पिछड़ी जातियों के साहित्यकारों की भूमिका को चिह्नित करते हैं. यह चिह्नन तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर अपनी पहचान बना चुके दलित साहित्यकारों को यथारूप स्वीकार नहीं है. स्वीकार हो भी क्यों! जिस समय जातीय असमानता का सर्वाधिक शिकार रहे दलित-लेखक साहित्य की समानांतर धारा को स्थापित करने के लिए सतत संघर्ष कर रहे थे, पिछड़े वर्ग के लेखक विचित्र-से ऊहापोह में थे. द्विज लेखक उन्हें ईमानदारी से स्वीकारने को तैयार नहीं थे; और दलितों के साथ जाना उन्हें स्वयं अस्वीकार था. अपनी प्रतिभा, लगन और निरंतर संघर्ष द्वारा दलित लेखकों ने तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर परिवर्तनकामी साहित्य को खड़ा करने में सफलता प्राप्त की है. अपनी उपलब्धि पर गर्व करने का अधिकार उन्हें है. इसीलिए कबीर, फुले, पेरियार आदि जो दलित साहित्य में पहले से ही सम्मानित स्थान रखते हैं, को &lsquo;ओबीसी&rsquo; के नाम पर झटक लेना उन्हें स्वीकार नहीं है. कमोबेश यही मानसिकता आदिवासी पृष्ठभूमि के साहित्यकारों की भी है. बात सही है. दलित साहित्य दमन के विरुद्ध चेतना का साहित्य है. इसमें उन वर्गों की चेतना अभिव्यक्त होती है, जिन्हें इतिहास के दौर में सर्वाधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है. पुस्तक के कुछ लेखों में बहुजन साहित्य को लेकर स्वागत का भाव है, तो कुछ को पढ़कर लगता है कि दलित साहित्यकार बहुजन साहित्य की धारा में पूरी तरह समाहित होने के बजाए उसमें बड़े भाई की भूमिका को बनाए रखना चाहते हैं. साहित्य में बहुजन विमर्श की नवागंतुक धारा जो अभी केवल प्रस्तावना तक सीमित है, जिसकी रूपरेखा तक अस्पष्ट है&mdash;को लेकर स्थापित साहित्यकारों का दुराव अस्वाभाविक नहीं है. अच्छी बात यह है कि &lsquo;ओबीसी साहित्य&rsquo; को लेकर दलित और आदिवासी साहित्यकारों के जितने भी किंतु-परंतु हैं, &lsquo;बहुजन साहित्य&rsquo; के अपेक्षाकृत बड़े कैनवास में उनका समाधान दिखने लगता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जैसे-जैसे बहुजन साहित्य की रूपरेखा स्पष्ट होगी, एक-दूसरे के प्रति समझ में इजाफा होगा&mdash;अंतर्विरोधों का समाहार स्वतः होता जाएगा. हालांकि बहुजन साहित्यकारों के कुछ घटकों के समक्ष पहचान का जो संकट अभी है, वह आगे भी बना रह सकता है. दरअसल बहुजन साहित्यकारों में जिन घटकों के सम्मिलन की परिकल्पना हम करते हैं, उनमें दलित, स्त्री-अस्मितावादी, आदिवासी साहित्य-धारा काफी परिपक्व हो चुकी है. जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के साहित्य को लेकर इन्हीं जातियों के साहित्यकार किंतु-परंतु में उलझे हुए हैं. बहुजन साहित्य के एक अन्य घटक आदिमजाति साहित्य के समक्ष भी यही दुविधा बनी हुई है. यह सच है कि दलित साहित्यकार जिन्हें अपना मूल प्रेरणास्रोत मानते हैं, उनमें से कई पिछड़ी जातियों से आए हैं. यह भी सच है कि दलितों पर अतीत में जो अत्याचार हुए, उनमें चाहे-अनचाहे पिछड़ी जातियों का भी हाथ रहा है. मगर अतीत की अप्रिय घटनाओं के आधार पर मन में गांठ पाल लेने से अच्छा है, भविष्य पर ध्यान दिया जाए. जातिवाद की पृष्ठभूमि की समझ इस संकल्प को आसान बना सकती है. &lsquo;मनुस्मृति&rsquo; को मुख्यतः धर्म-ग्रंथ माना जाता है. इस ग्रंथ को लेकर यह अधूरी समझ है. वह केवल सामाजिक ऊंच-नीच को बढ़ावा देने वाली कृति ग्रंथ नहीं है, असल में वह समस्त संसाधनों पर मुट्ठी-भर लोगों के एकाधिकार की जन्मदाता है. वह ब्राह्मणों को पृथ्वी के समस्त संसाधनों का स्वामी घोषित करती है(सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किझ्ज्जिगतीगतम्&mdash;मनु. 1/100). उस दौर में जब अर्थव्यवस्था खेती और पशु-संपदा पर आधारित थी. एक ओर संसार को माया कहना, उसे प्रपंचमय बताना, उससे दूर भागने का उपदेश देना और दूसरी तरफ समस्त संसाधन ब्राह्मणों के नाम घोषित करना&mdash;उस व्यवस्था के विरोधाभासों को दर्शाता है. जिसके कारण समाज सहस्राब्दियों तक कमजोर और देश बरसों-बरस गुलाम बना रहा. यह काम सोची-समझी नीति के तहत हुआ. इस तरह किया गया कि ब्राह्मण संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श तथा जीवन की समस्त गतिविधियों का केंद्र बना रहे. आखिर ऐसा क्यों हुआ? मनुस्मृति की आलोचना आर्थिक वैषम्य को बढ़ावा देने वाले ग्रंथ के रूप में क्यों नहीं की गई? दरअसल &lsquo;मनुस्मृति&rsquo; आलोचना की शुरूआत उन वर्गो की ओर से हुई जो कम से कम में गुजारा करने, संतोष को परम धन मानते आए थे. जिनके लिए सामाजिक समानता आर्थिक समानता से अधिक मूल्यवान थी. उन्हें लगता था कि सामाजिक समानता का लक्ष्य प्राप्त होने के उपरांत आर्थिक समानता का मार्ग स्वत: प्रशस्त: हो जाएगा. बहरहाल, मनु का नाम लेकर किसी अनाम-धूर्त्त ब्राह्मण द्वारा लिखी गई उस पुस्तक के माध्यम से&nbsp; न्याय भावना का गला घोंटते हुए समस्त संसाधनों को ब्राह्मणों के नाम कर दिया गया. उस स्थिति में बाकी वर्गों को उनका आश्रित होना ही था. &lsquo;मनुवादी व्यवस्था&rsquo; क्षत्रियों को दूसरे स्थान पर रख उन्हें संसाधनों की रखवाली का काम सौंपती है. क्षत्रियों का काम शक्ति-प्रबंधन से जुड़ा है. जिसके पास शक्ति है उसे निर्णय लेने का सलीका न हो तो भी समाज उसकी बातों को आदेश की तरह लेता है. क्षत्रियों ने भी अपने हित को देखते हुए मनुस्मृति के विधान कि ब्राह्मण समस्त संपदा का स्वामी और वे संरक्षक हैं, का अतिक्रमण करना आरंभ कर दिया था. यह विरोध आमने-सामने का नहीं था. मनुस्मृति से कमोबेश दोनों के स्वार्थ जुड़े थे. इसलिए प्रकट में दोनों ही उसका गुणगान करते थे. किंतु आंतरिक स्तर पर संघर्ष हमेशा बना रहता था. कुछ ऐसी घटनाएं भी रहीं जो उस संघर्ष को एकदम धरातल पर ले आती हैं. परशुराम-सहस्रार्जुन युद्ध, विश्वामित्र-वशिष्ठ जैसे संघर्षों की लंबी गाथा है. महाभारत से लेकर देवासुर संग्रामों तक, जिन्हें ब्राह्मण धर्मयुद्ध कहकर प्रचारित करते रहे हैं, वास्तव में संपत्ति और संसाधनों के बंटवारे की खातिर हुए युद्ध थे. महाभारत के कौरव-पांडव परस्पर चचेरे भाई थे, जबकि देवता, दानव, दैत्य आदि तो एक ही पिता की संतान थे. उनकी माएं जरूर अलग-अलग थीं. इतिहास लेखन से बचने वाले ब्राह्मणों ने, निहित स्वार्थ के लिए संपत्ति के बंटवारे की खातिर हुए संघर्षों का जानबूझकर मिथकीकरण किया है. परिणामस्वरूप इतिहास का सच समय की गहरी पर्तों में विलीन होता चला गया. यहां समुद्र मंथन की प्रतीक कथा का भी संज्ञान ले सकते हैं. उसमें असुरों को वासुकि नाग के फन की ओर खड़ा किया जाता है. देवता पूंछ संभालते हैं. नाग का फन न केवल भारी होता है. बल्कि सारा विष उसी ओर रहता है. इस तरह असुरों को आरंभ से ही कठिन चुनौती के लिए तैयार किया जाता रहा है. वे गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करते आए हैं. समय के साथ आवश्यकताएं बढ़ीं तो हर नई जरूरत के नाम पर एक नई जाति समाज से जुड़ती चली गई. उन जातियों का न तो अपने श्रम पर अधिकार था, न ही श्रमोत्पाद पर. नतीजा यह हुआ कि अपने श्रम-कौशल पर पूरे समाज का भरण-पोषण करने वाले बहुजन, अल्पसंख्यक अभिजनों के बंधुआ बनकर रह गए. दासत्वबोध उनके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा बन गया. गिरबी दिमाग या तो नियति को कोसता; अथवा &lsquo;स्वामी-सर्वेसर्वा&rsquo;(बॉस इज आलवेज राइट) की भावना के साथ गर्दन झुकाए काम करता रहता था. मार्क्स ने यही बातें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के माध्यम से कही हैं. इसलिए ब्राह्मणवादियों को वामपंथ और मार्क्स फूटी आंख नहीं सुहाते. आगे चलकर कर्मकांडों में वृद्धि हुई. यायावर ऋषियों के स्थान पर परंपराबद्ध पुरोहित वर्ग छाने लगा. जब तक कर्मकांड आश्रम-केंद्रित रहे, वर्ण-व्यवस्था में कम ही सही, अंतरण की संभावना बनी रही. सत्यकाम जाबाल, मतंग, कर्दम, महीदास, रैक्व, विश्वामित्र आदि ने अपनी प्रतिभा के आधार पर उच्च वर्गों में अंतरण किया. यहां गिनाए गए नामों में पहले पांच ऋषि शूद्र वर्ग से आए थे. ब्राह्मण-ग्रंथों में उनके नाम इसलिए बचे रहे क्योंकि वे मानसिक रूप से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अपनाकर उसके प्रवक्ता बन चुके थे. अजित केशकंबलि, कौत्स, पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल भी शूद्र और अपने समय के प्रखरतम दार्शनिक थे. वे ब्राह्मणों के बौद्धिक वर्चस्व को चुनौती देते थे. वेदों को &lsquo;धूर्त्त-भांड और निशाचरों&rsquo; की कृति बताकर उनका मखौल उड़ाते थे. इसलिए उनके नाम ब्राह्मण-ग्रंथों से पूरी तरह गायब हैं. सिवाय कौत्स के. कौत्स को वे नहीं मिटा पाए. क्योंकि स्वयं यास्क ने &lsquo;निरुक्त&rsquo; के पंद्रहवें अध्याय में उसका उल्लेख किया है. पाणिनी शिष्य, अपने समय का महान वैयाकरणाचार्य कौत्स वैदिक ऋचाओं को &lsquo;निरर्थक&rsquo; मानता था, &lsquo;यदि तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषण किया जाए, तो वैदिक ऋचाएं अर्थविहीन काव्य हैं&rsquo;(निरुक्त पंद्रहवां अध्याय). कालांतर में यज्ञादि कर्मकांड आश्रमों से निकलकर गृहस्थों की जीवनचर्या का हिस्सा बनने लगे तब स्वार्थी और कूपमंडूक पुरोहित वर्ग ने जन्म लिया. उससे पहले यज्ञादि कर्मकांड मुख्यतः ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों तक सीमित थे. पुरोहित वर्ग द्वारा उनका विस्तार समाज के दूसरे वर्गों तक होने लगा. अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए उसने निकृष्ट समझे जाने वाले कार्यों में लगी जातियों को अस्पृश्य घोषित कर दिया. खुद को ऊंचा दिखाने के लिए ब्राह्मण पुरोहितों ने अस्पृश्यों से दूरी बनानी शुरू कर दी. अस्पृश्य होने के कारण ब्राह्मण उनके घरों में प्रवेश नहीं कर सकता था. परिणामस्वरूप अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों से काम कराने की जिम्मेदारी निम्न और मंझोली जातियों पर आ गई. वे स्वयं ब्राह्मणवाद की शिकार थीं. परंतु परिवर्तनकारी चेतना के अभाव में वे अपने शोषकों को ही अपना पालक और मुक्तिदाता मान बैठी थीं. धीरे-धीरे यही उनका संस्कार बनता गया. जब यह व्यवस्था जम गई और ब्राह्मणों का काम आसानी से होने लगा, तब उन्होंने खुद को अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रखना शुरू कर दिया. लेकिन यह लोक चलन, यानी महज दिखावे के लिए था. पर्दे के पीछे जारकर्म चलता ही रहता था. आगे चलकर इसी ने सैकड़ों मिश्रित वर्णों और जातियों को जन्म दिया. जातीय उत्पीड़न का निरंतर शिकार रहे अछूतों ने भी कालांतर में अस्पृश्यता को अपनी नियति मान लिया. समय-समय पर जन्मे महापुरुषों ने उनकी चेतना को जगाने की कोशिश भी. परंतु आमूल परिवर्तनकारी दौर सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं आ सका. <strong>व्यवस्था</strong>&nbsp;के प्रति नासमझी उसकी मनमानियों को बढ़ावा देकर उन्हें चिर-जीवी बनाती है. निरंकुशता लंबी चले तो लोग हालात से समझौता कर उनके आगे समर्पण कर देते हैं. मुक्ति की चाहत जगे भी तो व्यवस्था से अनुकूलित मानस पहले उन्हीं हथियारों को आजमाता है, जो उसकी दुर्दशा का कारण रहे हैं. पाब्लो फ्रेरा के अनुसार उत्पीड़न के कारणों की अपर्याप्त समझ की वजह से, &lsquo;उत्पीड़ित अपनी मुक्ति उत्पीड़क की भूमिका में आने देखता है&rsquo;(उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र). जाहिर है, दुर्दशा के कारणों के प्रति आधी-अधूरी समझ परिवर्तनकामी आंदोलनों को उनके लक्ष्यों से दूर रखती है. लोग अपनी दुरावस्था के कारणों को समझ न सकें, इसमें धर्म की बड़ी भूमिका होती है. जैसे विकट विपन्नता के लिए आर्थिक असमानता और संसाधनों पर कुछ लोगों के एकाधिकार के बजाय पूर्व जन्म के कर्मों को दोषी ठहराना, स्वर्ग-नर्क की अभिकल्पना, पूजा-पाखंड को संस्कार और माला फेरने, नाम रटने को ज्ञान-साधना की संज्ञा देना आदि. ये सब ब्राह्मणों के वर्चस्ववादी षड्यंत्र का हथियार बने हैं. दुरावस्था के कारणों की आधी-अधूरी समझ ने कई जनांदोलनों को भटकाया है. उदाहरण के लिए वर्ण-व्यवस्था से त्रस्त लोगों ने मुक्ति की चाहत में मनु को गालियां दीं, मनुस्मृति को जलाया, असमानता थोपने के लिए हिंदू धर्म को कोसा, परंतु उन लोगों से दूरी बनाए रहे, जो भिन्न जातीय स्तर पर होने के बावजूद उसके उतने ही शिकार थे, जितने वे. न ही संसाधनों पर एकाधिकार के तथाकथित धर्म-विधान को उन्होंने सीधी चुनौती दी. जबकि क्षत्रियों ने, जैसा कि हमने पहले भी संकेत किया है, इस व्यवस्था को वहीं तक स्वीकारा जहां तक उनके वर्गीय हित सधते हों. कभी बातचीत तो कभी संघर्ष के माध्यम से वे ब्राह्मणों के एकाधिकार को निरंतर चुनौती देते रहे. अपने बौद्धिक चातुर्य के भरोसे शूद्रों का ही एक वर्ग संसाधनों में हिस्सेदारी कर, तथाकथित सवर्ण समूहों का हिस्सा बन गया. जाति-व्यवस्था के रहस्य को समझने के लिए उसकी चर्चा यहां प्रासंगिक है. समय के साथ समाज की जरूरतें बढ़ती गईं. लगातार चुनौतियों से गुजरते हुए उनके शिल्प में सुधार हुआ. अपने उत्पाद को अधिक दाम पर बेचने की समझ भी पैदा हुई. आजीवक कर्मकांडों का निषेध करते थे. बुद्ध ने भी उसी नीति को आगे बढ़ाया था. उसके फलस्वरूप जाति-संबंधी बंधन शिथिल पड़ने लगे. यज्ञ-बलियों में कमी से पशुधन की बचत हुई तो समृद्धि रफ्तार पकड़ने लगी. आजीवकों और बुद्ध के प्रभाव से जाति-प्रथा कमजोर पड़ रही थी. सामाजिक आचार-विचार और शुचिता संबंधी नियम भी ढीले पड़े थे. फलस्वरूप विभिन्न जाति-समुदायों के लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने लगे. शिल्पकारों ने भी संगठन की ताकत को समझा और सामूहिक पद्धति को अपनाया. अपने श्रम-कौशल द्वारा आजीविका चलाने के कारण वे आजीवक कहलाते थे. वही उनका धर्म था. मक्खलि गोसाल, पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि उनके मार्गदर्शक और आचार्य थे. बौद्ध धर्म के उदय के बाद आजीवकों का एक हिस्सा उसकी ओर आकर्षित हुआ था, लेकिन संगठन और व्यापार के प्रति उनकी निष्ठा ज्यों की त्यों बनी रही. अपने श्रम-कौशल के बल पर शिल्पकार समूहों ने सफलता की ऐसी कहानी लिखी कि कुछ ही अर्से में उसका व्यापार दूर-दराज के देशों तक फैल गया. उनकी प्रगति को ग्रहण चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में लगा. ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि अपनी शिल्पकला और व्यापार-कौशल से समस्त विश्व को चकित कर देने वाले उन शिल्पकार संगठनों ने राज्य की सत्ता को कभी चुनौती दी हो. अथवा अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण राज्य के लिए खतरा बने हों. बावजूद इसके चाणक्य को शिल्पकार संगठनों से आपत्ति थी. वह मजबूत केंद्र का समर्थक था. नहीं चाहता था कि राज्य के समानांतर यहां तक कि उसके आसपास भी दूसरी कोई सत्ता हो. राजभवनों में पलने वाले षड्यंत्रों के बारे में उसे पूरी जानकारी थी. लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था में शिल्पकार संगठनों का योगदान इतना अधिक था कि उनके विरुद्ध सीधी कार्रवाही का साहस चाणक्य में भी नहीं था. उसने शिल्पकार समूहों की निगरानी करना शुरू कर दिया था. नतीजा यह हुआ कि आजीवक समुदाय जिसकी संख्या कभी बुद्ध के शिष्यों से भी अधिक थी; तथा जिसके स्थापक मक्खलि गोशाल तथा पूर्ण कस्सप को महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध से पहले ही बुद्धत्व प्राप्त हो चुका था&mdash;धीरे-धीरे बिखरने लगा. इससे उस वर्ग को लाभ पहुंचा जिसका उत्पादन में सीधा योगदान न था, जो केवल लाभार्जन की कामना के साथ व्यापार करता था. अवसर अनुकूल देख उसने भेंट-पूजा, दानादि देकर पुरोहितों और अधिकारियों को खुश करना शुरू कर दिया. फलस्वरूप वे राज्य के कृपापात्र कहलाने लगे. बुद्ध के समय व्यापारिक संगठनों में काम मिल-जुलकर किया जाता था. धीरे-धीरे वैश्य &lsquo;श्रेष्ठि&rsquo; संगठन का पर्याय बनने लगे. विशेष अवसरों पर उन्हें राज्य की ओर से आमंत्रित किया जाने लगा. भेंट-सौगात के बदले राज्य की ओर से निर्बाध व्यापार की सुविधा मिलने लगी. परिणाम अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में&nbsp; दलाल-तंत्र के रूप में सामने आया. जिससे व्यापार के नाम पर उन वस्तुओं के मूल्य-निर्धारण का अधिकार मिल गया, जिसके निर्माण में किसी दूसरे के श्रम-कौशल का योगदान था. धर्म के क्षेत्र में यह काम बहुत पहले शुरू हो चुका था. वहां &lsquo;भक्त&rsquo; और &lsquo;भगवान&rsquo; के बीच &lsquo;मध्यस्थ&rsquo; की भूमिका पुरोहित निभाता था. श्रेष्ठि वर्ग को बढ़ावा मिलने से शिल्पकार समूह अर्थव्यवस्था के केंद्र से हटने लगे. उत्पादों की बिक्री के लिए श्रेष्ठि-वर्ग पर उनकी निर्भरता बढ़ती चली गई. यह काम मनुस्मृति लिखे जाने के आसपास या उससे कुछ ही समय पहले हुआ. दूसरे शब्दों में जब तक देश की राजनीतिक शक्ति विकेंद्रित थी, अर्थसत्ता भी विकेंद्रित रही. सत्ता के उस केंद्रीकरण के दौर में ही महाभारत को उसका वर्तमान रूप मिला. गीता की रचना हुई. चातुर्वर्ण्य व्यवस्था &nbsp;को समर्थन देते हुए ब्राह्मणों ने पुरुष सूक्त की रचना की. स्मृति-ग्रंथ, गीता, पुराणादि वर्ण व्यवस्था समर्थित ग्रंथों की रचना इसी दौर में संपन्न हुई. याद दिला दें कि वर्ण-विभाजन का विचार आर्य अपने पैत्रिक देश पर्शिया से साथ लाए थे. वहां समाज को चार वर्णों(<em>Pishtras</em>) में बांटा गया था. उनके नाम थेᅳ&lsquo;अथर्वा&rsquo; या पुजारी(<em>Athravas or Priest</em>), रथेस्थस्स या योद्धा(<em>Rathaesthas or Warrior</em>) वास्त्रय श्युआंत्स(<em>Vastrya Fshuyants</em>) अथवा उपार्जक तथा हाउटिस(<em>Huitis or Manual Workers</em>) यानी मेहनतकश मजदूर. भारत में आकर ये क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बन कहलाने लगे. शिल्पकार संगठन स्वयं को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते थे. बावजूद इसके राज्य के समानांतर हैसियत वाले शिल्पकार वर्गों के आर्थिक संगठनों का भय ब्राह्मणों के दिमाग में इतना था कि उन्होंने &lsquo;मनुस्मृति&rsquo; के सहारे शूद्र शिल्पकर्मियों से उनके सारे संसाधन, उनके आर्थिक अधिकार छीन लिए. शूद्रों के लिए निर्धारित किया गया कि उनका काम केवल सेवा करना है. अपने लिए कुछ अपेक्षा करना नहीं. वे अपने अवदान के बदले कोई अपेक्षा न रखें. इसके लिए गीता के माध्यम से निष्काम कर्म की अवधारणा को प्रचारित किया.&nbsp; उन्हें बताया गया कि केवल कर्म पर उनका अधिकार है. फल पर नहीं. शूद्रों से यहां तक कहा गया कि यदि उनमें धन-संचय का सामर्थ्य है, तो भी वैसी धृष्टता न करें. इसके बावजूद यदि कोई शूद्र धनार्जन में सफल हो जाए तो ब्राह्मण को अधिकार दिया गया कि वह शूद्र द्वारा अर्जित धन को उसके मालिक (जमींदार/सामंत/सम्राट आदि) की मदद से छीन ले. चैतरफा दबाव का नतीजा यह हुआ कि शूद्रों की सेवाएं मुफ्त हो गईं. बेगार लेने के लिए शूद्र को जीवित रखना था, इसलिए विशेष अवसरों यानी शादी-विवाह, पर्व-उत्सवों तथा नई फसल के अवसर पर उनको भेंट-सौगात दी जाने लगी, जिसका स्वरूप भीखनुमा होता था. शूद्र इस छलनीति को समझ न पाए इसके लिए उसके पढ़ने-लिखने पर पाबंदी लगा दी गई. लेकिन यह पाबंदी केवल वैदिक साहित्य को तर्कसम्मत ढंग से पढ़ने, अपने विवेक के अनुसार उसका अर्थ निकालने की थी. ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से अध्ययन-अध्यापन करने पर नहीं. महीदास, सत्यकाम जाबाल शूद्र होकर भी वेदपाठी कहलाए गए, क्योंकि वे ब्राह्मणवाद के श्रेष्ठत्व को स्वीकार कर, उसके आगे समर्पित हो चुके थे. <strong>इस</strong>&nbsp;विस्तृत वर्णन का एक ही उद्देश्य है, बहुजन वर्ग की आंतरिक एकता के सूत्रों की खोज करना. &lsquo;बहुजन साहित्य की प्रस्तावना&rsquo; से बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी का आधार स्पष्ट नहीं होता. यह कार्य भविष्य पर छोड़ दिया गया है. यदि यह मान लिया जाए कि बहुजन समूह मेहनतकश जातियों और शिल्पकार समूहों का बेहद सक्रिय और कर्मशील समूह रहा है तो उससे न केवल बहुजन साहित्य की अवधारणा स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है, बल्कि उसके सहारे हम इतिहास के कई बिखरे सूत्रों को भी सहेज सकते हैं. इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि वर्ण-व्यवस्था द्वारा संसाधनों से वंचित कर दिए जाने के बावजूद शिल्पकार समूह पूरी तरह हताश नहीं हुए थे. बल्कि अपने श्रम, शिल्प-कौशल तथा संगठन सामर्थ्य के दम उन्होंने खुद को इतना सुदृढ़ और व्यापक बना लिया था कि राज्य के लिए उनकी उपेक्षा कर पाना पूर्णतः असंभव था. समानकर्मा शिल्पकारों द्वारा संगठन बनाना उन दिनों सामान्य प्रक्रिया थी. लोग अलग-अलग काम करने के बजाए संगठित व्यापार ज्यादा पसंद करते थे. काष्ठकार, धातुकर्मी, स्वर्णकार, चर्मकार, पत्थर-तराश, हाथी-दांत के आभूषण-निर्माता, जलयंत्र निर्माता, बांसकर्मी, कास्सकार(पीतलकर्मी), बुनकर, कुंभकार, स्वर्णकार, तैलिक, रंगरेज, टोकरी बनाने वाले, अनाज व्यापारी, मत्स्यपालक, किसान, छापाकार, मालाकार, कसाई, नाई, पशुपालक, व्यापारी और व्यापारिक काफिले, दुरुह मार्गों पर व्यापारिक काफिलों की रक्षा करने वाले सैनिक, चोर-लुटेरे, महाजन&mdash;बुद्धकालीन भारत में 27 प्रकार के सहयोगी संगठनों का उल्लेख जातक कथाओं के जरिये प्राप्त होता है. इसका उल्लेख डॉ. रमेश मजूमदार ने &lsquo;कोआॅपरेटिव्स लाइफ इन एन्शियंट इंडिया&rsquo; में विस्तार से किया है. उन दिनों वे आजीवक कहलाते थे. ब्राह्मण धर्म में उनकी कोई आस्था न थी. बाद के दिनों में उन्हें शूद्र घोषित कर दिया गया. चाणक्य ने तो क्षत्रियों के संघ का भी उल्लेख किया है. ये संगठन अपने आप में पूर्णतः स्वायत्त थे. उनके आंतरिक मामलों में दखल देने का अधिकार राज्य को भी नहीं था. चूंकि वे राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थे, इसलिए राजा भी उनके साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाते थे. वे अपनी आजीविका को ही अपना धर्म, अपना ईश्वर मानने वाले थे. जिस दौर के भारत को &lsquo;सोने की चिड़िया&rsquo; के रूप में याद किया जाता है, वह इन संगठनों का सबसे सक्रिय कार्यकाल था. इससे हम राज्य की अर्थव्यवस्था में उनके महती योगदान का अनुमान लगा सकते हैं. उपर्युक्त वर्णन से कुछ बातें साफ हो जाती हैं. पहली संगठन, एकता की ताकत. दूसरी समान-धर्मा संगठनों के साथ एकता की जरूरत, तीसरी धार्मिक मिथ्याडंबरों के बजाय तर्कसम्मत ढंग से निर्णय लेने की कला और चौथी चुनौतियों से भागने के बजाय परिस्थितियों के साथ संघर्ष करते हुए रास्ता निकालने की कोशिश करना. जाति-आधारित विषमता आज की समस्या नहीं है. सहस्राब्दियों से वह अस्तित्व में है. उसके विरोध में समय-समय पर आंदोलन छेड़े गए हैं. परंतु समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई है. इसका पहला कारण तो यही है कि ज्योतिबा फुले से पहले जाति-विरोधी आंदोलनों की बागडोर मुख्यतः सवर्णों के हाथों में रही है. हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास जैसे संत कवि शूद्र या अतिशूद्र जातियों से आए थे. जाति के विरोध में संत कवियों ने लगातार लिखा भी. परंतु वे संतोष को परमधन मानने वाले, दैन्य का महिमामंडन करने वाले संत थे. हालांकि रैदास ने &lsquo;बेगमपुरा&rsquo; तथा कबीर ने &lsquo;अमरपुरी&rsquo; के रूप में समानता पर आधारित समाज की कल्पना की थी. तो भी आर्थिक असमानता और संसाधनों पर द्विज वर्गों के एकाधिकार को लेकर उन्हें बहुत ज्यादा शिकायत न थी. उसे लेकर उनका दृष्टिकोण नियतिवादी था. बावजूद इसके संतकवियों का अपने समाज पर प्रभाव था. अपनी सीमाओं के भीतर उन्होंने ब्राह्मणवाद पर जोरदार प्रहार किया था. संतकवियों की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख द्विज वर्गों के कवि भी उनकी ओर आकर्पित हुए. वे अपने साथ वर्गीय संस्कार भी लाए थे. उन्होंने संत-कवियों की मौलिक अध्यात्म चेतना का धार्मिकीकरण किया. परिणामस्वरूप संतकाव्य की क्रांतिधर्मिता भक्तिकाव्य में सिमटने लगी. तुलसी के आते-आते तो सबकुछ परंपरावादी हो गया. जाति और वर्ण पुनः प्रधान हो गए. उन्नीसवीं शताब्दी तक राजनीति पर धर्म का प्रभाव बना रहा. चूंकि धर्म की नींव जाति-व्यवस्था पर टिकी थी, इसलिए जाति के बहिष्कार को लेकर कोई बड़ा आंदोलन उनीसवीं शती से पहले के इतिहास से नदारद है. जाति और हिंदू धर्म के गठजोड़ को इससे भी समझा जा सकता है कि बौद्ध धर्म से लेकर संत कवियों, सुधारवादी आंदोलनों, ज्योतिराव फुले और डॉ. अंबेडकर सहित जिसने भी जाति के पर कतरने की कोशिश की&mdash;प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में उसने धर्म पर भी प्रहार किया. यह आवश्यक था. क्योंकि हिंदू धर्म और जाति-व्यवसथा में नाभि-नाल का संबंध है. दोनों एक-दूसरे को बल प्रदान करते हैं. जाति पर सवाल उठाया जाता है तो धर्म आड़े आ जाता है और धर्म पर सवाल उठाते ही जाति बीच में अड़ जाती है. बुद्ध ने जाति का बहिष्कार किया था, लेकिन उनके बाद बौद्ध धर्म की बागडोर उन लोगों के हाथ में आ गई जो जन्मना सवर्ण थे. उन्हें बुद्ध के धर्म से कोई परेशानी न थी. परेशानी &nbsp;उनके जाति-विरोध से थी. सो उन्होंने धर्म को सहारा लिया. अपना जीवन और समय उन्हें दिया. परंतु जाति के सवाल पर वे सब ठेठ परंपरावादी निकले. अवसर मिलते ही उन्होंने बौद्ध दर्शन के क्रांतिकारी विचारों को धीरे-धीरे जाति-धर्म की ब्राह्मणवादी व्यवस्था से जोड़ने का काम शुरू कर दिया. बुद्ध को अवतार घोषित कहना, यह कहना कि &lsquo;बुद्ध या तो ब्राह्मण के घर जन्म लेते हैं, अथवा क्षत्रिय के&rsquo;, ब्राह्मणवादियों की तर्कसम्मत निष्कर्षों से पलायन की मानसिकता को दर्शाता है. बौद्ध लेखकों ने प्रथम &nbsp;शास्ता के निर्वाण प्राप्ति के तुरंत बाद अपनी जातिवादी मानसिकता को थोपना आरंभ कर दिया था. इसके लिए उन्होंने बुद्ध को भी नहीं बख्शा, जो आजीवन संघ और समानता का उपदेश देते रहते थे. असल में वह बुद्ध के जीवन-दर्शन की पश्चगामी व्याख्या थी. उन संगठनों की एक कमी खुद को केवल और केवल व्यवसाय तक सीमित रहना था. ज्ञान की शक्ति से अनभिज्ञ रहना तथा ज्ञानार्जन को ब्राह्मणों का विशेषाधिकार मानकर उसकी ओर से उदासीन बन जाना भी, उनकी कमजोरी थी. महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर सफल रहे तो इसलिए कि उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बौद्धिक क्षेत्र में चुनौती दी थी. दोनों ने जीवन के आर्थिक पक्ष पर जोर दिया. उसके फलस्वरूप सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर समानता की मांग होने लगी. बहुजन साहित्य की अवधारणा विकसित करने में समाज के पुराने अनुभव बहुत काम के सिद्ध हो सकते हैं. क्योंकि जो जो बंधु बहुजन साहित्य को तथाकथित मुख्य धारा के साहित्य के समानांतर देखना चाहते हैं, उनसे सबसे पहले यही सवाल होगा इसकी मूल अवधारणा या सैद्धांतिकी को लेकर उनका अपना सोच क्या है. उसमें जाति की क्या भूमिका होगी? क्या जाति का सहारा लेकर शुरू हुआ आंदोलन उसके बिना चार कदम भी चल पाएगा? यदि ऐसा नहीं हो सकता तो बाकी साहित्य और बहुजन साहित्य में क्या अंतर होगा? इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सचाई है. मजबूरी में ही सही, बहुजन साहित्यकारों को इस आंदोलन से जोड़ने का तुरंतिया आधार जाति ही है. बावजूद इसके वैकल्पिक साहित्य और संस्कृति की आधारशिला रखने के लिए जाति जैसी विष-बेलि पर भरोसा नहीं किया जा सकता. उससे व्यक्ति की बड़ी और स्थायी पहचान नहीं बनती. मार्क्स के दर्शन में जब &lsquo;सर्वहारा&rsquo; का नाम लेते हैं तो बेमेलकारी औद्योगिक अर्थव्यवस्था में उपेक्षित, तिरष्कृत, चारों तरफ से छले गए, शोषित व्यक्ति की तस्वीर हमारे मनस् में उभरने लगती है. जाति की मार उससे कहीं ज्यादा घातक है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था भी सर्वहारा को यह अधिकार देती है कि वह पूंजी के दम पर अपनी स्थिति बदलकर पूंजीवादी तबके में शामिल हो सके. जाति न केवल व्यक्ति, बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी इस अधिकार से वंचित रखती है. इसलिए जाति की बैशाखी के सहारे बड़ा और परिवर्तनकारी आंदोलन नहीं चलाया जा सकता. इस मामले में &lsquo;बहुजन&rsquo; सार्थक शब्द है. इससे लोकतंत्र की ध्वनि निकलती है. इसलिए बहुजन साहित्य के नाम पर ऐसा साहित्य स्वीकार्य हो सकता है, जो लोगों में लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति चेतना जगाए. वैसे भी साहित्यपन की कसौटी रचना में अंतर्निहित सर्वहित का भाव है. यह मनुष्य की सीमा है कि सिक्के के दूसरे पक्ष को देखने के लिए पहले को आंखों से ओझल करना ही पड़ता है. ऐसे में उदारमना लेखक केवल इतना कर सकता है कि लिखते समय अपने सोच का दायरा यथासंभव व्यापक रख सके. इस दृष्टि से देखें तो हिंदी का अधिकांश साहित्य ब्राह्मणवादियों द्वारा ब्राह्मणवाद के समर्थन में लिखा गया साहित्य है. वह एक प्रकार का स्तुति-लेखन है, जो येन-केन-प्रकारेण द्विज-हितों का पोषण करता है. संख्याबल के आधार पर ब्राह्मणवाद से लाभान्वित लोगों की संख्या कुल जनसंख्या के पांचवे हिस्से भी कम हैं. जाहिर है, जिसे साहित्य की मुख्यधारा कहा जाता है, वह अल्पसंख्यकों सत्तानशीनों द्वारा अल्पसंख्यक अभिजनों की स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त किया गया लेखन है. सामाजिक स्तरीकरण को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. तुलसी, सूर, वाल्मीकि, कालीदास आदि इस धारा के प्रतिनिधि रचनाकार कहे जा सकते हैं. कहने को उनके साहित्य में स्त्री, अल्पसंख्यक, दलित, गरीब-अमीर सब आते हैं. परंतु उनका उपयोग द्विज चरित्रों के महिमा-मंडन के लिए किया जाता है, ताकि सामाजिक भेदभाव वाली व्यवस्था के प्रति लोगों का मूक समर्थन बना रहे. इस प्रकार वे आसमानताकारी व्यवस्था को खाद-पानी देने का काम करते हैं, ताकि वह निर्बंध फल-फूल सके. ब्राह्मणवादी कह सकते हैं कि जब उनके साहित्य में स्त्री, अल्पसंख्यक, दलित, गरीब-अमीर सब हैं, तब साहित्य की नई धारा की जरूरत और उसका औचित्य क्या है? वे यह भी कह सकते हैं भारत में उसके समानांतर क्या उसके दूर-दूर तक कोई ऐसी साहित्य धारा नजर नहीं आती जो उसको चुनौती देने में सक्षम हो, तो उससे मुख्यधारा का साहित्य मानने में गुरेज क्यों हो? उन्हें समझाने के लिए, बशर्ते वे समझना चाहें तो कहा जा सकता है कि किसी रचना के साहित्य होने की पहली शर्त यह है कि वह हाशिया नहीं छोड़ती. यदि कुछ हाशिये पर&nbsp; है तो उसे प्राथमिकता के साथ केंद्र में लाकर विमर्श में सम्मिलित करने की कोशिश करती है. यदि वे अपने साहित्य को मुख्यधारा का साहित्य मानते हैं तो इसका यह अर्थ भी है कि साहित्य में उनके चाहे-अनचाहे ऐसी धाराएं भी मौजूद हैं, जो उपेक्षित या हाशिये की हैं. और ऐसा होने से उन्हें कोई शिकायत भी नहीं है. यदि कभी बराबर में लाने की कोशिश हुई भी तो उपकार भाव से. मानो वही उनके तारणहार हों. यह सोच ही ब्राह्मणवादी ग्रंथों को साहित्य के गौरव से बेदखल करने के लिए पर्याप्त है. बीती दो सहस्राब्दियों के बीच. ब्राह्मणवादी साहित्य द्वारा विरोधी विचारधाराओं से समन्वय या संवाद की संभावना तो दूर, उसकी कोशिश तो उन्हें नकारने और मिटाने की रही है. दलित, पिछड़े, आदिवासी, आदिम जनजातियां आदि जिन जाति-समूहों को केंद्र में रखकर बहुजन साहित्य की अभिकल्पना की गई है, वे सभी किसी न किसी श्रम-प्रधान जीविका से जुड़े हैं. उनकी पहचान उनके श्रम-कौशल से होती आई है. मगर जाति-वर्ण संबंधी असमानता और संसाधनों के अभाव में उन्हें उत्पीड़न एवं अनेकानेक वंचनाओं के शिकार होना पड़ा है. बहुजन साहित्य यदि जातियों की सीमा में खुद को कैद रखता है तो उसके स्वयं भी छोटे-छोटे गुटों में बंट जाने की संभावना निरंतर बनी रहेगी. इसलिए वह स्वाभाविक रूप से श्रम-संस्कृति का सम्मान करेगा. फलस्वरूप विभिन्न जातियों के बीच स्तरीकरण में कमी आएगी. उसकी यात्रा सर्वजनोन्मुखी साहित्य में ढलने की होगी. कुल मिलाकर बहुजन साहित्य का वास्तविक ध्येय जाति उच्छेद ही होगा. इस तरह बहुजन साहित्य का संघर्ष सभी प्रकार की असमानता, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक से होना चाहिए. तथाकथित सवर्ण जो भारतीय समाज के अभिजन चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, बहुजन साहित्य में दखल देते हैं तो उनका स्वागत किया जाएगा. बशर्ते वे समानता और श्रम-संस्कृति के विचार का समर्थन करते हों. श्रम-संस्कृति को महत्त्व देने का आशय ज्ञान की मौलिक धाराओं से कट जाना नहीं है. बहुजन साहित्य ज्ञान के लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए उसकी विभिन्न धाराओं का खुले मन से स्वागत करेगा. परंतु ज्ञान और श्रम को लेकर जिस प्रकार की दूरी ब्राह्मणवादी परंपरा रही है, बहुजन साहित्य में उसके लिए कोई स्थान न होगा, न होना चाहिए. परिशिष्ट &lsquo;दलित साहित्य&rsquo; हो या &lsquo;ओबीसी साहित्य&rsquo; अथवा उसका नया नामरूप &lsquo;बहुजन साहित्य&rsquo; हो, ये सब समाज और संस्कृति के बजाय चाहे-अनचाहे राजनीति से ज्यादा अनुप्रेत हैं. इसके दो कारण हैं. पहला यह कि भागम-भाग के इस दौर में हर कोई त्वरित परिवर्तन की चाहत रखता है. यह काम उसको राजनीति के माध्यम से आसान लगता है. लेकिन राजनीति की विशेषता है कि उसका कोई न कोई सत्ताकेंद्र होता है. जो भी उसके नजदीक या प्रभाव में आता है, दूरस्थ वर्गों को वह खुद से हीन समझने लगता है. यदि उसपर समाज और संस्कृति का अनुशासन न हो तो वह बहुत जल्दी शक्तिशाली समूहों के वर्चस्व में ढल जाता है. दलित और पिछड़े दोनों ही वर्ग इसके शिकार रहे हैं. 1930 में बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश की तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों ने मिलकर &lsquo;त्रिवेणी संघ&rsquo; की स्थापना की थी. उसके सदस्यगण बरास्ते राजनीति द्विज वर्गों के बराबर में आना चाहते थे. उन्हें आरंभिक सफलता भी मिली. परंतु पर्याप्त सामाजिक चेतना के अभाव में वह प्रयोग, महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद अंततः असफल सिद्ध हुआ. कारण लोगों के दिमाग में मौजूद जाति की विषबेलि. इसके बावजूद परिवर्तनकामी समाजों में राजनीति का अलग महत्त्च होता है. प्राचीनकाल से लेकर आज तक समाज, संस्कृति और राजनीति सभी पर द्विज वर्गों का अधिपत्य रहा है. दलित और बहुजन दोनों ने ही समाज में जो हैसियत प्राप्त की है, या जिसका वे सपना देखते हैं, उसके लिए उन्हें समाज और संस्कृति दोनों से संघर्ष करना पड़ा है. दोनों ही दलित और पिछड़ों के शोषण का माध्यम बनते आए हैं. उनके दैन्य का कारण भी समाज और संस्कृति के निर्माण में उनकी भूमिका की निरंतर उपेक्षा, उसे कमतर आंका जाना है. इस मामले में स्वतंत्र भारत की राजनीति उनके लिए अधिक मददगार रही है. इसलिए साहित्य में राजनीति को महत्त्व देना या राजनीति के माध्यम से अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक हैसियत ऊपर उठाना अभी तक के उनके संघर्ष की मूल प्रेरणा रहा है. दलित साहित्य भी इसी त्रासदी से गुजर रहा है. समाज और संस्कृति को राजनीति की अपेक्षा कम महत्त्व देने के कारण दलितों में भी शासक वर्ग का उदय होने लगा है. &lsquo;बीसवीं शती अंबेडकर की होगी&rsquo; जैसे नारे इसी मानसिकता की देन है. नारेबाज प्रायः ऐसे राज्य का सपना देखते हैं, जिसमें वर्तमान मनुवादी शक्तियांे का पराभव हो चुका होगा. लेकिन मनुवादी शक्तियों का पराभव &lsquo;मनुवाद&rsquo; या &lsquo;ब्राह्मणवाद&rsquo; का पराभव नहीं नहीं है. &lsquo;मनुवाद&rsquo; विचार से अधिक आज एक मानसिकता है. मनुवादी शक्तियों का पराभव हो परंतु मनुवाद नए चेहरे-मोहरों के रूप में बना रहे यह न तो अंबेडकर का सपना था, न ही आज के लिए सुधी समाजचेता का सपना हो सकता है. मनुवाद का पराभव बिना जाति के पराभव के असंभव है. फुले और अंबेडकर दोनों यह जानते थे. इसलिए अपनी-अपनी तरह से दोनों ने ही जाति का विरोध किया था. डॉ. अंबेडकर की पुस्तक &lsquo;जाति का उच्छेद&rsquo; इस सवाल को बार-बार उठाती है. दलित साहित्य ने लोगों को इतना आत्मविश्वास तो दिया है कि जो दलित दो-तीन दशक पहले तक जाति को छिपाने में ही अपनी भलाई समझता थे, अब अपने नाम के साथ खुलकर &lsquo;बाल्मीकि&rsquo;, &lsquo;जाटव&rsquo; आदि जाति-सूचक शब्द लगाने लगे हैं. &lsquo;जाति के उच्छेद&rsquo; की दिशा में ऐसा आत्मविश्वास आवश्यक है. यहां मुझे पाब्लो फ्रेरा याद आते हैं. उन्होंने कहा था कि उत्पीड़ित वर्ग अपनी सफलता अनुत्पीड़क वर्ग की अवस्था में आने में देखता है. इसलिए जो शिखर पर है, उसपर ढेर सारे लोगों की निगाहें होती हैं. इसलिए शिखर पर अस्थिरता का मामला बना रहता है. जो लोग शिखर पर पहुंचने का हौसला नहीं रखते, वे शिखर के आसपास मंडराते रहते हैं. प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा है. इसके लिए आवश्यक है कि साहित्य और राजनीति के बीच न्यूनतम दूरी हो. बहुजन साहित्य राजनीति से प्रेरणाएं, राजनीति की प्रेरणा बनने की कोशिश करेगा, परंतु सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप या सहयोग से खुद को दूर रखेगा. साहित्य की एक शर्त मानवीय अस्मिताओं के बीच समानता और समरसता का वातावरण उत्पन्न करना है. इसके लिए उसकी दृष्टि हमेशा उपेक्षित एवं निचले वर्गों की ओर होती है. ब्राह्मणवादी साहित्य प्रायः सत्ताकेंद्रित रहा है. यह बात अलग है कि उसके द्वारा मनोनीत सत्ताकेंद्र कभी राजनीति तो कभी धर्म की ओर झुकते रहे हैं. इसलिए ब्राह्मणवादी रचनाकारों के लेखन को मुख्यधारा का साहित्य नहीं कहा जा सकता. बजाय इसके उसे इस देश के अभिजन समूहों का वर्चस्वकारी साहित्य कहना उपयुक्त होगा. यह मान लेना चाहिए कि अस्मितावादी आंदोलन चाहे वे दलित आंदोलन हों या पिछड़े वर्गों का संघर्ष या कोई और, कोई भी जाति के दुर्ग को भेदने में असफल रहा है. याद करें भारत में जितनी जातियां हैं उससे कहीं अधिक उपजातियां भी हैं. सवर्ण में जहां गोत्रों की व्यवस्था है, वहीं तरह-तरह के भेद भी हैं. कुछ समय पहले तक ब्राह्मणों में ही दर्जनों उपजातियां थीं. उनके बीच इतना अंतर था कि तथाकथित उच्च श्रेणी का ब्राह्मण निचली श्रेणी के ब्राह्मणों के साथ रोटी-बेटी का संबंध तो दूर, बराबर में बैठकर भोजन करना पसंद नहीं करता था. इसलिए यह कहना कि जातिवाद देश में आज भी उतना ही है जितना पहले था, बड़ी भूल है. इसका श्रेय देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और निचले वर्गों द्वारा शिक्षा प्राप्त कर, द्विजों के लिए चुनौती देने की अवस्था में आना रहा है. <strong>ओमप्रकाश</strong>&nbsp;<strong>कश्यप</strong> &nbsp;
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