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Journal articles on the topic 'पुनर्जीवन'

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1

देवकत्ते, शिवाजी रामराव, та रावसाहेब पिराजी इंगळे डॉ. "महात्मा गांधीजी आणि अस्पृश्यता निर्मूलन एक अभ्यास". उदयगिरी - बहुभाषिक इतिहास संशोधन पत्रिका 01, № 04 (2023): 392–96. https://doi.org/10.5281/zenodo.10129733.

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Abstract:
गांधीजींनी अस्पृश्यतेच्या प्रश्नांवर अनेक लेख लिहिले. धर्म, वर्ण, जात आणि अस्पृश्यता यासंबंधीचे गांधीजींचे विचार हे त्यांचे निरिक्षण, अभ्यास आणि चिंतनातून विकसित होते गेले. त्यांचा उद्देश सवर्ण हिंदुचे मतपरिवर्तन करण्याचा होता. गांधीजी एका बाजूला अस्पृश्यांच्या प्रति सवर्ण हिंदूंनी आपला दृष्टीकोन बदलला पाहिजे असे सांगत, तर दुसऱ्या बाजूला सवर्ण हिंदूंच्या दृष्टिकोनात बदल होईपर्यंत अस्पृश्यांना संयम पाळण्यास सांगत होते. गांधींनी अस्पृश्यता आणि चातुर्वर्ण्य याबाबत सांगितलेली मते यांच्याकडे जर आजच्या परिस्थितीच्या दृष्टीने पाहिले तर चातुर्वर्ण्य व्यवस्था आणि अस्पृश्यता अतार्किक आणि अवैज्ञानिक विभा
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गैरे Gairhe, शंकरप्रसाद Shankarprasad. "तोदा उपन्यासमा अभिघात {Trauma in 'Toda's' novel}". Prāgyik Prabāha 11, № 1 (2023): 138–50. http://dx.doi.org/10.3126/pp.v11i1.55608.

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Abstract:
प्रस्तुत अनुसन्धानमूलक लेख ‘तोदा’ उपन्यासको विश्लेषणमा केन्द्रित रहेको छ । ‘तोदा’ उमा सुवेदीको पहिलो उपन्यास हो । प्रस्तुत उपन्यासमा माओवादी द्वन्द्वबाट प्रभावित भई विदेसिएका युवतीहरूले इजरायलमा केयरगिभरको काम गर्नुपरेको विषयलाई प्रस्तुत गरिएको छ । उनीहरूले नेपालमा र इजरायलमा रोजगारीका सन्दर्भमा भोग्नुपरेका अनेक भय, त्रास, भौतिक तथा मानसिक पीडाहरू यसमा अभिव्यक्त छ । बलात्कार, प्रेमको नाममा पाएको धोका, लोग्नेका अन्य स्त्रीप्रतिका आशक्ति र नाजायज सम्बन्ध र आफूप्रतिका बेवास्ता जस्ता घटना, आफन्तहरूले आर्थिक हिनामिना गरिदिएर उत्पन्न पीडालाई उपन्यासमा अभिव्यक्त गरिएको छ । त्यसैगरी जर्मनेली यहुदीहरूम
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3

चन्द्रप्रभा, कण्डवाल. "पौड़ी जनपद में खोह नदी की पारिस्थितिकी तंत्र का विश्लेषणात्मक अध्ययन". RECENT RESEARCHES IN SOCIAL SCIENCES & HUMANITIES 11, № 2 (2024): 63–67. https://doi.org/10.5281/zenodo.13337219.

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Abstract:
षिवालिक श्रेणी से निकलने वाली खोह नदी का उद्गम स्थल उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जनपद मंे स्थित द्वारीखाल नामक स्थान पर लंगूरगाड़ व सिलगाड नामक नदियों के मिलन से हुआ है। इसका क्षेत्रफल कोटद्वार तक 23,600 कि0मी0 है। कोटद्वार से 10 किमी0 आगे बढ़ते हुए यह कोटद्वार भाबर के सनेह में कोलू नदी से मिल जाती है। यहां के पारिस्थितिकी में लगभग सभी प्रकार के जीव-जन्तु, पषु-पक्षी तथा वनस्पतियां पायी जाती है। इसका कारण नदी के आस-पास के क्षेत्र की अनुकूल जलवायु हंै। पारिस्थितिक जीवमण्डल के अध्ययन के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है तथा जलीय पारिस्थितिकी तंत्र मानव आबादी के लिए महत्वपूर्ण संसाधन प्रदान करता ह
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4

सन्तोष, कुमार, та यादव मन्तोष. "भारतीय लोक कला और समकालीन कला प्रथाओं का संगमः एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण". RECENT RESEARCHES IN SOCIAL SCIENCES & HUMANITIES 12, № 1 (2025): 132–36. https://doi.org/10.5281/zenodo.15290571.

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Abstract:
भारतीय लोक कला और समकालीन कला प्रथाओं का संगम एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है, जहाँ पारंपरिक शैलियों को नए संदर्भों में प्रस्तुत किया जा रहा है। लोक कला, जो प्राचीन समय से ही भारतीय समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं का अभिन्न अंग रही है, आज समकालीन कलाकारों के नवाचारों और तकनीकी प्रयोगों के माध्यम से नए स्वरूप में उभर रही है। जामिनी रॉय, के.जी. सुब्रह्मण्यम, मनजीत बावा, जगदीश स्वामीनाथन, जयश्री बर्मन और भवानी दास, डाॅ़ लक्ष्मण प्रसाद जैसे कलाकारों ने लोक कला की जड़ों को संजोते हुए आधुनिक दृष्टिकोण से उसे समृद्ध किया है। इन कलाकारों ने पारंपरिक कलाओं को समकालीन कला
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भारती, शबनम. "भारत में रोजगार और आजीविका को पुनर्जीवित करना: कोविड-19 से पहले और बाद में". International Journal of Financial Management and Economics 7, № 1 (2024): 26–32. http://dx.doi.org/10.33545/26179210.2024.v7.i1.254.

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6

सिंह, रमाकान्त, та प्रो एम पी सिंह. "राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना : एक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य". Humanities and Development 18, № 1 (2018): 5–9. http://dx.doi.org/10.61410/had.v18i1.97.

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Abstract:
स्वतंत्रता से पूर्व स्थापित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मूल रुप से भारतीय संस्कृति के सरंक्षण से जुड़ी रही है। हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान तथा उसके गौरवशाली परम्पराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास संघ के द्वारा अपनी स्थापना काल से ही किया जा रहा है। बौद्धिकता के साथ समाज सेवा से जुडे हुए विभिन्न कार्याे में इसकी सहभागिता इसे आम जनमानस के मध्य एक लोकप्रिय संगठन के रुप में स्थापित करता है। राजनीतिक संरक्षण एवं प्रतिद्वन्द्विता से मुक्त राष्ट्रीय स्वयं संघ अपने अनुषंगी संगठनों के माध्यम से सांस्कृतिक , नैतिक एवं आर्थिक उत्थान के साथ राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित करने का कार्य कर रही है। अपनी स्थापना के
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डॉ.सुवर्णा, अंकुशराव वाघुले. "स्वामी दयानंद सरस्वती : आर्य समाज व शैक्षणिक तत्त्वज्ञान". International Journal of Advance and Applied Research S6, № 7 (2025): 306–11. https://doi.org/10.5281/zenodo.14792744.

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Abstract:
एकोणिसाव्या शतकात भारतातील सामाजिक व धार्मिक सुधारणा चळवळी घडून येत असताना.त्यामध्ये आर्य समाजाने महत्त्वपूर्ण योगदान दिले आहे. सामाजिक,धार्मिक शैक्षणिक सुधारणा होत असताना स्वदेश, स्वधर्म याविषयीच्या अस्मितेला संजीवनी देण्याचे कार्य आर्य समाजाने केले. पाश्चिमात्त्य धर्मविचार, आचार व ज्ञान हेच केवळ सर्वश्रेष्ठ नसून भारतीय संस्कृती आणि तिचे तत्त्वज्ञानही श्रेष्ठ आहे हे भारतीयांना आणि परीक्षकांना आर्य समाजाने पटवून देण्याचा प्रयत्न केला आणि त्यामध्ये ते बऱ्यापैकी यशस्वी ठरले. हिंदू धर्मातील अनिष्ट चालीरीतींवर हल्ला करत असताना हिंदू धर्माला आधुनिक स्वरूपामध्ये पुनर्जीवित करण्याचा प्रयत्न आर्य समाज
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Kumar, Manoj. "Vijaydan Detha : Pioneer of the renaissance of Rajasthani folk tales." Shodhaamrit 02, no. 01 (2025): 12–19. https://doi.org/10.71037/shodhaamrit.v2i1.01.

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Abstract:
यह शोधपत्र राजस्थान की लोककथाओं के पुनरुद्धार में विजयदान देथा की परिवर्तनकारी भूमिका का परीक्षण करता है, जिसमें पारंपरिक मौखिक कथाओं का दस्तावेजीकरण और पुनर्व्याख्या शामिल है। 'बातां री फुलवारी' जैसे प्रमुख ग्रंथों और देथा एवं सिंह के सहयोगी कार्यों के साथ-साथ गुप्ता, शर्मा, राव एवं अन्य विद्वानों के विश्लेषणों पर आधारित यह अध्ययन इस बात की पड़ताल करता है कि देथा की अभिनव विधियाँ किस प्रकार मौखिक और लिखित परंपराओं के बीच सेतु का कार्य करती हैं। गुणात्मक सामग्री विश्लेषण पद्धति का उपयोग करते हुए, शोध उनके कथा रणनीतियों, विषयगत पुनर्संयोजनों, और शैलीगत अनुकूलनों की जांच करता है, जिन्होंने क्षीण
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Kishor, Kumar Kumar. "ग्रामीण विकास के लिए सहकारी समितियों का सशक्तीकरण (कृषि क्षेत्र के विशेष सन्दर्भ  में)". बहुरि नहीं आवना 26, № 2 (2024): 32–36. https://doi.org/10.5281/zenodo.15408620.

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Abstract:
 हमारे देश में सहकारी आन्दोलन का इतिहास काफी पुराना रहा है लेकिन आजादी के 75 वर्ष बीतने के बाद भी अभी इसमें काफी बिखराव दिखाई पड़ता है, ऐसा प्रतीत होता है कि देश में सहकारी आन्दोलन कई हिस्सों में बटा हुआ है। सहकारी समितियां समाज के साझा हितों के लिए निर्मित एक प्रकार की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाली संस्थाएं होती हैं, इनका प्रमुख उद्देश्य अपने समुदाय के सामाजिक-आर्थिक हितों और उनके उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना है। देखा जाय तो सहकारी समितियों ने ग्रामीण विकास के लिए एक आर्थिक माॅडल विकसित करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसे हम लिज्जत, अमूल, इफ्को जैसी एक सफल सहकारी समिति क
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पासवान, अनिलेश कुमार. "भारत रूस वैश्विक साझेदारी : अतीत से वर्तमान तक". INTERNATIONAL JOURNAL OF SCIENTIFIC RESEARCH IN ENGINEERING AND MANAGEMENT 09, № 07 (2025): 1–9. https://doi.org/10.55041/ijsrem51505.

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Abstract:
भारत और रूस के मध्य संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में गहरी रणनीतिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परंपराएँ निहित हैं। भारत की स्वतंत्रता के बाद, विशेष रूप से नेहरू युग से प्रारंभ होकर सोवियत संघ और भारत के बीच जो मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए, वे समय के साथ-साथ केवल कूटनीतिक औपचारिकताओं तक सीमित न रहकर, बहुआयामी रणनीतिक साझेदारी में परिवर्तित हो गए। 1971 की भारत-सोवियत मैत्री संधि ने इन संबंधों को एक नया आयाम दिया, जिसने शीत युद्ध के समय भारत को वैश्विक स्तर पर एक सुरक्षित और सशक्त स्थिति प्रदान की। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने भारत के औद्योगिक विकास, रक्षा क्षेत्र और अंतरिक्ष कार्यक्रमों में महत
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चट्टोराज, सुमिता. "गोदान : यथार्थ-चेतना का उन्मेष". Remarking An Analisation 9, № 2 (2024): H1 — H10. https://doi.org/10.5281/zenodo.12670628.

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Abstract:
This paper has been published in Peer-reviewed International Journal "Remarking An Analisation"                URL : https://www.socialresearchfoundation.com/new/publish-journal.php?editID=9220 Publisher : Social Research Foundation, Kanpur (SRF International)  Abstract :  प्रेमचंद ने ‘गोदान’ उपन्यास में किसान-जीवन के विषाद को व्यक्त किया है। इसमें होरी की मृत्यु और गोबर का शहर में गमन उपन्यास की कथा को मानो समापन नहीं वरन् प्रारंभ करता है। इसमें उपन्यासकार ने उपन्यास को औपन्यासिक तत्वों
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DR., SATENDER, та ASHOK KUMAR MR. "ब्रिटिशकालीन हरियाणा में सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन : एक अध्ययन". 25 червня 2021. https://doi.org/10.5281/zenodo.5034378.

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Abstract:
प्रस्तुत शोध पत्र में ब्रिटिश भारत में हुए सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों पर प्रकाश डाला गया है। ब्रिटिश शासन काल में पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त लोगों ने सामाजिक रचना, धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं को तर्क की कसौटी पर कसना प्रारम्भ कर दिया। इससे भारत में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ। भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न प्रबुद्ध भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक सुधारकों, सुधारवादी, ब्रिटिश गवर्नर जनरलों एवं आधुनिक शिक्षा के प्रसार ने किया। भारत में समाज और धर्म हमेशा एक दूसरे से जुडे रहे हैं और यहाँ की समाजिक परम्पराएं और रुढियां का आधार धार्मिक व्याख्या है। अतः सामजिक परिव
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चैधरी, उमा. "परंपरागत शिल्प और कौशल में उद्यमिता और व्यावसायिक शिक्षा". Gurukul International Multidisciplinary Research Journal, 20 грудня 2024. https://doi.org/10.69758/gimrj/2412iv02v12p0019.

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Abstract:
भारत की सांस्कृतिक धरोहर में परंपरागत शिल्प और कौशल का अत्यधिक महत्व है। ये शिल्प न केवल भारतीय समाज के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा रहे हैं, बल्कि ये कला, संस्कृति और आर्थिक जीवनशैली के महत्वपूर्ण घटक भी हैं। हालांकि, बदलते समय के साथ इन शिल्पों की प्रासंगिकता को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है। इस समस्या से निपटने और इन शिल्पों को पुनर्जीवित करने के लिए उद्यमिता और व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना अत्यंत आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में, शिल्पों में न केवल नए डिजाइनों और तकनीकों का समावेश किया जा सकता है, बल्कि इन शिल्पों को आर्थिक दृष्टिकोण से भी सशक्त किया जा सकता है।
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कुमार, आकाश. "भारतेन्दु युग के नाटक : आधुनिक रंगमंच का उत्थान". Shodhshauryam International Scientific Refereed Research, 10 серпня 2021, 56–60. https://doi.org/10.32628/shisrrj214429.

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Abstract:
भारतेन्दु-युग पुनर्जागरण का युग था। सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करने के इस युग में सामाजिकता की भावना पर बल दिया गया। खंड-खंड बँटे इस समाज को एक सूत्र में पिरोने की बात की गई। विभिन्न समाजसुधारक संगठनों में यह पद्धति देखी जा सकती है (आर्य समाज, प्रार्थना समाज आदि) । इसलिए इस युग में अगर नाटक की विधा ने जोड़ पकड़ा तो आश्चर्य की बात नहीं हैं। भारतेंदु मण्डली के लेखकों ने विभिन्न नाटकों का अनुवाद हिंदी में किया, स्वयं नाटकों की रचना की और इससे आगे बढ़कर उनका मंचन भी किया। यह तत्कालीन समय की जरूरत भी थी और नाटक विधा के साथ तर्कसंगत न्याय भी। भारतेंदु युग के लेखकों ने राष्ट्रीय रंगमंच निर्मित करन
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Yadav, Prabhu. "बिहार की कृषि: किसान, आजीविका और भूमि उपयोग". International Journal For Multidisciplinary Research 7, № 3 (2025). https://doi.org/10.36948/ijfmr.2025.v07i03.46046.

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Abstract:
सार बिहार की अर्थव्यवस्था पर कृषि का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। यहाँ की उर्वरा मिट्टी, नदियों का जल स्रोत, और अनुकूल जलवायु ने वर्षों तक राज्य को कृषि प्रधान बनाए रखा है। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में बिहार की कृषि प्रणाली में कई सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय परिवर्तन आए हैं, जिनका सीधा असर किसानों की आजीविका और भूमि के उपयोग पर पड़ा है। आज कई कारणों से बिहार के किसान विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जैसे कि सीमित और विभाजित कृषि भूमि, सिंचाई की कमी, बीज और उर्वरक की बढ़ती कीमतें, तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव। बिहार में कृषि आधारित समृद्धि को पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक है कि हम बहु-स्
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Singh, Avantika, та Annu Thakran. "राजस्थान जल संचयन की ज्ञान परंपरा:कल आज और कल". ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts 4, № 1 (2023). http://dx.doi.org/10.29121/shodhkosh.v4.i1.2023.2735.

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Abstract:
“जल संरक्षण का सदा, मानव करो प्रयास वर्ना कभी भविष्य में नहीं बुझेगी प्यास”। जल हमारे दैनिक जीवन की आवश्यकताओं में प्राथमिक स्थान पर है जिसके बिना जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। स्थानीय लोगों ने समय अनुसार परिस्थितिक तंत्र के साथ सामजस्य करते हुए भौगोलिक-प्रकृति के अनुसार जल संचयन के तरीके विकसित किये, जो अपने में स्थानीय वैज्ञानिक ज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ऐसा ही एक उदाहरण हैं, भारत का राजस्थान राज्य जो शुष्क, अर्धशुष्क क्षेत्र रहा है लेकिन थार मरूस्थल होने के बावजूद भी यहां के लोगों ने जल की हर एक बूंद का बहुत ही व्यवस्थित उपयोग करने वाली व्यवस्था विकसित की है। समकालीन समय में जल संकट को
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