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हालदार, मौमिता. "बौद्धधर्मस्य प्रचार: प्रसार: च इत्येकमध्ययनम्". International Journal of Sanskrit Research 10, № 4 (2024): 35–36. http://dx.doi.org/10.22271/23947519.2024.v10.i4a.2416.

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प्रा., डॉ. संजय गंगाराम सूरेवाड. "बौद्धिकसंपदाअधिकार : एकसमाजशास्त्रीयअभ्यास". International Journal of Advance and Applied Research S6, № 12A (2025): 168–72. https://doi.org/10.5281/zenodo.14905283.

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Abstract:
एक विसाव्या शतक हे ज्ञान आधारित प्रगतीची युग आहे आज प्रत्येक क्षेत्रात डेटा माहिती ज्ञानाचा बोलबाला आहे आज कृषी उद्योग व्यापार राजकारण समाजकारण प्रशासन माहितीच्या आधारावर प्रगती करीत आहे आर्थिक सामाजिक विकासासाठी ज्ञानाचा शोध आणि त्याचा विकास करणे त्यासाठी प्रसार प्रचार करणे आवश्यक आहे आज ज्ञान निर्मिती अज्ञान प्रसारण आणि त्याचा आर्थिक फायद्यासाठी वापर जग करीत आहे हे करण्यासाठी त्याची नोंदणी बौद्धिक संपदा म्हणून करणे आवश्यक आहे.
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3

YADAV, PUSHPENDRA. "डिजिटल पेडागाजी: अर्थपूर्ण अधिगम को समृद्ध करने की दिशा में एक नवाचार (Digital Pedagogy: Arthapurna Adhigam ko Samridha Karne ki Disha men Ek Navachar)". Prathmik Shikshak NCERT 46, № 4 (2022): 110–21. https://doi.org/10.5281/zenodo.10444235.

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Abstract:
भारत में कोविड-19 महामारी के बाद सामान्य होते हालातों में शिक्षा व्यवस्था में डिजिटल उपकरणों और तकनीकों का चलन काफी बढ़ा है। इसके साथ ही नवाचार के रूप में डिजिटल पेडागॉजी की अवधारणा हम सब के सामने आई है। हालाँकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि महामारी के समय में अचानक से पूरी शिक्षा व्यवस्था के ऑनलाइन प्रकार में परिवर्तित हो जाने के कारण शिक्षा के अलग-अलग स्तरों पर काफी सारी समस्याएं प्रकाश में आई हैं। निश्चित रूप से इन समस्याओं को डिजिटल पेडागॉजी के सफल उपयोग द्वारा कम किया जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने भी आधिकारिक रूप से भारतीय शिक्षा प्रणाली में (प्राथमिक से परास्नातक) में डिजिटल पेडागॉजी के रोल को भली प्रकार से समझा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और केन्द्रीय बजट 2022-23 में इसके प्रचार-प्रसार और क्रियान्वयन के लिए विशेष प्रावधान भी किये गए हैं। वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में जिस प्रकार से डिजिटल उपकरणों और तकनीकों का चलन तेजी से बढ़ रहा है ऐसे में डिजिटल पेडागॉजी शैक्षिक दृष्टिकोण से सावधानीपूर्वक और सही डिजिटल उपकरणों और तकनीकों के चुनाव करने एवं अन्य लाभकारी शैक्षणिक तकनीकों (गंभीर चिंतन, सहयोगात्मक अधिगम एवं व्यक्तिगत अधिगम इत्यादि) के मिश्रण (blend) के साथ शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को सशक्त करने में शिक्षकों की सहायता करती है। डिजिटल पेडागॉजी डिजिटल उपकरणों और तकनीकों का शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में समझदारीपूर्वक प्रयोग करने पर बल देती है और इन उपकरणों का अधिगम पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है? इस बात की निगरानी भी करती है। यह एक ऐसा नवाचार है जिसे शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में उपयोग में लाया जाए तो इससे शिक्षक, विद्यार्थी और सम्पूर्ण कक्षा को नए अधिगम अनुभव प्राप्त होते हैं। जहाँ सीखने के लिए नई संभावनाएं उत्पन्न होती हैं जिसमें अधिगम सिर्फ विद्यार्थियों या शिक्षकों तक सीमित न रह कर सामूहिक (Collaborative) होता है। इस लेख में शोधकर्ता ने कोविड-19 महामारी के बाद से प्रचलित डिजिटल पेडागॉजी शैक्षणिक नवाचार को सरल शब्दों में समझाने और वर्तमान में इसकी आवश्यकता और प्रासंगिकता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
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विद्या. "स ंगीत क े प्रचार प्रसार में स ंचार साधना ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886694.

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Abstract:
आज जिस प्रकार संगीत सर्व -सुलभ ह ुआ है। उसका मूल कारण संचार साधनों की भ ूमिका ह ै। आज संगीत षिक्षार्थियों का एक विषाल वर्ग संगीत क े प्रति आकर्षित ह ुआ ह ै। हर समुदाय, जाति आ ैर वर्ग क े विद्यार्थी का े संगीत का े निकटता से जानने आ ैर समझने का सुअवसर मिला है। जबकि पहले जन साधारण का े संगीत सुनने का अवसर दुर्लभ था। कुछ मीडिया, दूरदर्ष न आ ैर इलेक्ट्राॅनिक के संसाधन भी आज उपलब्ध ह ै, जिनक े कारण जनसाधारण में संगीत के प्रति जागरूकता बढ़ी ह ै। आधुनिक काल में मीडिया अपने विविध रूपों से सूचना प्रदान कर रहा ह ै ए ेसे में विद्यार्थि या ें में भी संचार क े क्षेत्र में कार्य करने का आकर्षण बढ़ा ह ै। स ंगीत के क्ष ेत्र में मीडिया का मुख्य ध्येय आज स ंगीत के प्रचार-प्रसार की स्थिति को समझना ह ै। स्वातंन्न्या ेत्तर युग संगीत क े प्रचार-प्रसार की दृष्टि से संगीत का स्वर्ण युग कहा जा सकता ह ै। जिसका श्रेय इस काल में स्थापित मीडिया को जाता है। सैद्धा ंतिक संगीत का सम्पूर्ण शास्त्र हमें प ूर्वकाल से पाण्डुलिपिया ें क े रूप में प्राप्त होती आयी ह ैं। इस ज्ञान को सैद्धांतिक रूप में विद्वाना ें, संगीतज्ञा ें एव ं विद्यार्थि या ें का े मुद्रित माध्यमों (प्रि ंट मीडिया) क े द्वारा सम्भव हो पायी। प्रकाषन की सुविधा की प्राप्ति होते ही विविध संगीत ग्रंथों, प ुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचार पत्रा ें आदि में शास्त्रीय संगीत से सम्बन्धित लेख छपने लगे आ ैर जनसाधारण भी इसके शास्त्र से अवगत हा ेने लगा। पहले चल कला क े एक बार प्रदर्षन क े पष्चात् उसे दोबारा सुनने या देखने की का ेई सुविधा नहीं थी परन्तु आधुनिक युग में ह ुए तकनीकी विकास ने जन्म दिया इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों (इलेक्ट्राॅनिक मीडिया) को।
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गा, ैरव यादव. "स ंगीत क े प्रचार प्रसार में स ंचार साधना ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886968.

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Abstract:
बीसवीं शताब्दी क े पूर्वा द्र्ध को व ैज्ञानिक क्रांति क े अभ्युदय का समय कहा जा सकता है, जहाँ व ैज्ञानिक अविष्कारों क े अ ंतर्गत कुछ ऐसे उपकरणों का अविष्कार ह ुआ जिन्होंने संगीत क े प्रचार-प्रसार का े तीव्रता प्रदान की। संचार साधनों क े प्रारंभिक दौर में संगीत क े क्षेत्र में एक वैज्ञानिक अविष्कार का विश ेष महत्व ह ै ,जिसने भारतीय संगीत के क्षेत्र में ही नहीं वरन् विश्व में क्रांति ला दी यह था रेडिया े का आगमन। भारत में इसकी स्थापना सन् १९२७ ई. में र्ह ुइ । सन् १९३६ ई. में इ ंडियन स्टेट ब ्रॉडकास्टिंग स ेवा का नाम बदलकर आकाशवाणी कर दिया गया। उस समय आकाशवाणी एक सशक्त माध्यम था शास्त्रीय संगीत का े जन-जन तक पहुँचाने क े लिये। यद्यपि प्रसारण सुनने में साफ न था किन्तु रसिक श्रोताओं का े घर में ही ब ैठकर सुनने का एक साधन मिल गया था जा े कि किसी चमत्कार से कम न था। साथ ही कम समय में परंपरागत श ुद्धता क े साथ आलापतान और ब ंदिशों को अपने सम्पूर्ण असरदारी के साथ प्रस्तुत करने के प्रयासों ने आकाशवाणी का े एक सशक्त संचार साधन क े रूप में स्थापित करके प्रतिष्ठित किया । घरानेदार कलाकारों का े उनक े उस्ताद अन्य घरानो की गायकी से दूर रखते थे। ताकि उनकी अपनी घरानेदार गायकी को न दूसरे घराने वाले सुन सक े आ ैर न उनकी छाप उनकी अपनी गायकी पर पडे़ । इन कलाकारों का े अपनी सीमाओ ं से बाहर निकालने का महत्वपूर्ण कार्य आकाशवाणी ने किया। यूँ तो घराने वस्तुतः एक प्रकार के औपचारिक संगीत शिक्षा क े क ेंद्र थे साथ ही घरानो की संगीत शिक्षा पूर्ण रूपेण व्यक्तिगत एवं गुरु की इच्छानुसार ही होती थी परन्तु आकाशवाणी तथा प्रसिद्ध गायका ें - वादकांे क े रिकार्डो ं क े बनने के कारण शास्त्रीय संगीत घरानांे के सीमित दायरों से निकलकर इन संचार साधनांे क े माध्यम से सर्व साधारण को सुलभ होने लगा।
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शर्मा, शशिकांत निशांत. "हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के उपाय". Sahitya Samhita 10, № 7 (2024): 6–11. https://doi.org/10.5281/zenodo.13190382.

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Abstract:
<em>यह </em><em>लेख </em><em>हिंदी </em><em>भाषा </em><em>के </em><em>प्रचार-</em><em>प्रसार </em><em>के </em><em>लिए </em><em>विभिन्न </em><em>उपायों </em><em>का </em><em>विश्लेषण </em><em>करता </em><em>है, </em><em>जिसे </em><em>भारत </em><em>में </em><em>सांस्कृतिक </em><em>और </em><em>आधिकारिक </em><em>दर्जा </em><em>प्राप्त </em><em>है। </em><em>वैश्वीकरण </em><em>और </em><em>तकनीकी </em><em>प्रगति </em><em>के </em><em>प्रभाव </em><em>के </em><em>साथ, </em><em>हिंदी </em><em>भाषा </em><em>का </em><em>संरक्षण </em><em>और </em><em>प्रोत्साहन </em><em>आवश्यक </em><em>हो </em><em>गया </em><em>है। </em><em>प्रमुख </em><em>रणनीतियों </em><em>में </em><em>शिक्षा </em><em>प्रणाली </em><em>में </em><em>सुधार </em><em>शामिल </em><em>है, </em><em>जिसमें </em><em>हिंदी </em><em>को </em><em>सभी </em><em>स्तरों </em><em>की </em><em>शिक्षा </em><em>में </em><em>अनिवार्य </em><em>विषय </em><em>के </em><em>रूप </em><em>में </em><em>शामिल </em><em>किया </em><em>जाना </em><em>चाहिए। </em><em>डिजिटल </em><em>प्लेटफार्मों </em><em>का </em><em>उपयोग </em><em>करके </em><em>ब्लॉग, </em><em>वेबसाइट </em><em>और </em><em>सोशल </em><em>मीडिया </em><em>पर </em><em>हिंदी </em><em>सामग्री </em><em>का </em><em>निर्माण </em><em>एक </em><em>आधुनिक </em><em>दृष्टिकोण </em><em>के </em><em>रूप </em><em>में </em><em>रेखांकित </em><em>किया </em><em>गया </em><em>है। </em><em>साहित्यिक </em><em>और </em><em>सांस्कृतिक </em><em>कार्यक्रमों </em><em>का </em><em>आयोजन, </em><em>जैसे </em><em>साहित्यिक </em><em>महोत्सव </em><em>और </em><em>पुस्तक </em><em>मेले, </em><em>भी </em><em>भाषा </em><em>की </em><em>पहुँच </em><em>को </em><em>बढ़ा </em><em>सकते </em><em>हैं। </em><em>हिंदी </em><em>फिल्म </em><em>और </em><em>संगीत </em><em>उद्योग </em><em>का </em><em>प्रोत्साहन, </em><em>सरकारी </em><em>और </em><em>निजी </em><em>संगठनों </em><em>की </em><em>सक्रिय </em><em>भूमिका, </em><em>पुस्तकालयों </em><em>का </em><em>समृद्धिकरण, </em><em>और </em><em>हिंदी </em><em>में </em><em>शोध </em><em>और </em><em>अनुवाद </em><em>कार्य </em><em>भी </em><em>महत्वपूर्ण </em><em>हैं। </em><em>इन </em><em>उपायों </em><em>के </em><em>माध्यम </em><em>से, </em><em>हिंदी </em><em>भाषा </em><em>को </em><em>न </em><em>केवल </em><em>भारत </em><em>में </em><em>बल्कि </em><em>वैश्विक </em><em>स्तर </em><em>पर </em><em>भी </em><em>लोकप्रिय </em><em>बनाया </em><em>जा </em><em>सकता </em><em>है। </em><em>हिंदी </em><em>हमारी </em><em>सांस्कृतिक </em><em>धरोहर </em><em>है </em><em>और </em><em>इसे </em><em>संरक्षित </em><em>और </em><em>प्रोत्साहित </em><em>करना </em><em>हमारी </em><em>जिम्मेदारी </em><em>है।</em>
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मानन्धर Manandhar, मदनरत्न Madanratna. "थेरवाद बुद्धधर्मका आधारभूत पक्षहरू". Journal of Buddhist Studies (T.U.) 1, № 1 (2024): 144–58. https://doi.org/10.3126/jbuddhists.v1i1.75102.

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Abstract:
विश्वमा प्रचलित धर्महरूमा बुद्धधर्म एउटा प्रमुख धर्म मानिन्छ । यो धर्मको प्रभाव आज विश्वभरी विस्तार भएको छ । वर्तमान नेपालको दक्षिण पश्चिम तराईमा ई.पू. ६२३ मा जन्मिएका राजकुमार सिद्धार्थ नै बुद्धत्व ज्ञान प्राप्त गरी बुद्ध बनेका हुन् । करिब ४५ वर्षसम्म बोधिज्ञानको प्रचार प्रसार गरी ८० वर्षको उमेरमा देहत्याग गरेका उनको शिक्षाका अनुयायी भिक्षुहरू अर्थात् धर्मका अनुयायीहरू पछि विभिन्न खेमामा विभक्त भए । ती मध्ये थेरवाद परम्परालाई प्राचीनतम मानिन्छ । यस परम्परामा प्रचलित र विद्यमान जीवनोपयोगी, कल्याणकारी शिक्षा, तरिका एवं चर्याले बहुजनलाई हित, सुख र कल्याण गर्नमा मद्दत मिल्दछ भन्ने मान्यता रही आएको पाइन्छ । बुद्धकै समयमा नेपाल भित्रिएको भनि मान्यता पाएको उक्त थेरवाद परम्पराबारेमा प्रकाश पार्नु नै यस अनुसन्धानात्मक लेखको उद्देश्य रहेको छ र उक्त धर्मबारे जान्न उत्सुक अनुसन्धानकर्ता, विद्यार्थी एवं सर्वसाधारणका लागि उपयोगी हुने देखिन्छ । बुद्धवचन सङ्ग्रहित पालि त्रिपिटकमा मात्र आधारित रहेर तयार गरिएको यस लेखमा विभिन्न विद्वानहरूबाट विभिन्न समयमा लेखिएका वा अनुवाद गरिएका बुद्धधर्म सम्बन्धी प्रकाशित लेखहरूको पनि सहयोग लिइएको छ ।
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Ahmed, Mo Gulfaraz. "The Sufi Silsila and the Influence of Hinduism on Sufism." RESEARCH REVIEW International Journal of Multidisciplinary 7, no. 1 (2022): 129–33. http://dx.doi.org/10.31305/rrijm.2022.v07.i01.019.

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Abstract:
India has been a Hindu nation from the very beginning. The Brahmins were considered to belong to the upper caste in Hinduism and the practices followed by the Muslims were opposite to those of the Hindus. After the Arab invasion of India, Islam was widely propagated by those who migrated to India. Sufis have the most important contribution in the propagation of Islam in India. Sufism or Islamic mysticism developed from the core ideas of Islam. Sufi saints tried to bring harmony in the society and a harmonious trend was established by them. Thus, the universality of Sufism is accepted in all hands. The present article attempts to trace the origins of Sufism, the Sufi silsila in India and the influence of Hinduism and other religions on Sufism. It has been observed that through Sufism, the philosophies of mystical traditions belonging to other religions such as Christianity, Judaism, Hinduism and Buddhism were shared by the Sufis among the people of India, which suggests that the Sufis had their own He was very generous in his views.&#x0D; Abstract in Hindi Language:&#x0D; भारत प्रारम्भ से ही हिन्दू राष्ट्र रहा है। ब्राह्मणों को हिंदू धर्म में उच्च जाति से संबंधित माना जाता था और मुसलमानों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रथाएं हिंदुओं के विपरीत थीं। भारत में अरब आक्रमण के पश्चात् भारत में प्रवास करने वालों द्वारा इस्लाम का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार किया गया। भात में इस्लाम के प्रचार-प्रसार में सूफियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान हैं। सूफीवाद या इस्लामी रहस्यवाद का विकास इस्लाम के मूल विचारों से हुआ है। सूफी संतों ंने समाज में सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की और उनके द्वारा एक सामंजस्यपूर्ण प्रवृत्ति स्थापित की गई। इस प्रकार सूफीवाद की सार्वभौमिकता सभी हाथों में स्वीकार की जाती है। वर्तमान आलेख सूफीवाद की उत्पत्ति, भारत में सूफी सिलसिला और सूफीवाद पर हिंदू एवं अन्य धर्मों का प्रभाव का पता लगाने का प्रयास करता है। यह देखा गया है कि सूफीवाद के माध्यम से, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म जैसे अन्य धर्मों से संबंधित रहस्यमय परंपराओं के दर्शन को सूफियों द्वारा भारत के लोगों के बीच साझा किया गया था, जिससे पता चलता है कि सूफी अपने विचारों में बहुत उदार थे।&#x0D; Keywords: सिलसिला, सूफीवाद, हिंदू धर्म, इस्लाम, रहस्यवाद
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मिमध, नागर. "''संगीत के प्रचार - प्रसार मेंसंचार साधनों की भमूमका''". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886057.

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Abstract:
आधमुनक काल मेंमानि जीिन सेसंबंमधत हर क्षेत्र को नख सेमशख तक प्रभामित करनेिालेसंचार माध्यमों को ममहमा–मंमित करना, सरूज को मदया मदखानेजैसा होगा | यह िह माध्यम हैमजसनेिैश्वीकरण ि आधमुनक मिचार धारा सेलबरेज समाज के सार्थ ही परुातन मिचारधारा, मान्यताओंि रीमत- ररिाजों सेसराबोर समाज को भी तह तक प्रभामित मकया है| िततमान समय में संचार माध्यमों की, मिशेषकर मीमिया की पह चं और प्रभाि को देखतेह ए ही एक फ्रे ज़ “मीमिया स्टेट” का जन्म ह आ है| मिशेषकर मिश्व के “ग्लोबल मिलेज” की पररकल्पना को प्राप्त करनेमेंसबसेमहत्िपणूतहार्थ, इन्हीं सचं ार माध्यमों का है, इन्हीं की बदौलत हम कोसों दरू की क्या, मिश्व केदरूस्र्थ छोर की खबरों, घटनाओंका उसी पल अिलोकन कर सकतेहै| जहां तक संगीत का सम्बन्ध है, यह सितमिमदत हैमक अनेकों यगुों, कालों, ि पररमस्तमर्थयों का सामना करतेह ए यह अपनेिततमान स्िरुप को प्राप्त ह आ है| समय की इसी सतत प्रिामहत धारा मेंकभी यह संक्रममत ह आ, तो कभी पल्लमित ि सशोमभत ु | इसी धारा क्रम में आधमुनक संचार माध्यम भी इसेगहरेतक प्रभामित कर रहेहै|
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बोंपिलवार, ज्ञानेश्वर रामदास. "महाराष्ट्राच्या लोकसंगीतातील लोकनाट्य: तमाशा". International Journal of Advance and Applied Research 11, № 5 (2024): 294–96. https://doi.org/10.5281/zenodo.12705161.

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Abstract:
&nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp;&nbsp; महाराष्ट्र हे संत, महात्मे, महर्षी, नायक, नायिका आणि साहित्य आणि कलेचे माहेरघर असलेले &nbsp;राज्य आहे. येथील ग्रामीण भागातील अज्ञानी, अंधश्रद्धाळू, गरीब, आजारी समाजाला पुढे आणण्यासाठी समाजसुधारकांबरोबरच गायक,वादक कलाकार, कवी, संगीतकार यांनी परिश्रम घेतले आहेत. आपल्या कलेतून त्यांनी मनोरंजन, प्रबोधन, जागृती, देशभक्ती आणि राष्ट्रीय एकात्मता वाढवून समाजाला नवी दिशा दाखवली. प्रस्तुत शोधपत्रात उदिष्टे, व्याप्ती व मर्यादा, संशोधन कार्यपद्धती, तमाशाचा अर्थ, उगम, त्यातील पात्र, प्रकार या संदर्भात विस्तृत विवेचन केले आहे . <strong>उद्दिष्टे: १) </strong>तमाशा या लोकनाट्याची व त्या मधील गीतांची माहिती विद्यार्थ्यापर्यंत पोहचविणे. <strong>2) </strong>तमाशा या लोप पावत&nbsp; चाललेल्या लोकनाट्याचा व त्यामधील गीतांचा प्रचार-प्रसार&nbsp; करणे. <strong>व्याप्ती व मर्यादा: </strong>तमाशा हा महाराष्ट्राच्या लोकसंगीतातील गायन, वादन, नृत्य व नाट्याचा प्रकार&nbsp; असला तरी त्याचा आस्वाद महाराष्ट्राबाहेरील इतर राज्यातील संगीतप्रेमी सुद्धा घेवू शकतात.
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Bajpai, Neeta. "महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के विविध रूप : एक विवेवचन". RESEARCH EXPRESSION 6, № 8 (2023): 68–77. https://doi.org/10.61703/vol-6vyt8_8.

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Abstract:
महिलाओं के प्रति हिंसा एकवैश्विक परिघटना है जो न केवल लगभग सार्वभौम है बल्कि समसामयिक रुप से नॉर्वे स्वीडन डेनमार्क के अत्यधिक उन्नत समाजोंसे लेकर रवाण्डा बुरूण्डी कांगो जायरे जैसे विकासशील और विकसित समाजो तक यह एक महत्वपूर्णसमस्या बनी हुई है । एक सनातन समस्या भी है अर्थात प्राचीन काल से लेकर आधुनिक कालतक की समस्या बनी हुई है। पुनर्जागरण के पश्चात महिला अधिकारों के विस्तार के साथ महिलाओंके प्रति सम्मान में यद्यपि वृद्धि हुई है लेकिन महिलाओं के प्रति हिंसा की समस्याबनी हुई है। तकनीकी के विकास और प्रसार के साथ महिलाओं के प्रति हिंसा की रिपोर्टिंगऔर गणना में यद्यपि वृद्धि हुई है तथापि हिंसा में बहुत अधिक कमी दृष्टिगोचर नहीं है। महिलाओं के प्रति हिंसा के कुछ प्रतिरूप जैसे घरेलू हिंसा बलात्कार आदि प्राचीन कालसे बने हुए हैं किंतु देश काल परिस्थिति के अनुसार तथा तकनीकी के प्रभाव के कारण महिलाओंके प्रति हिंसा के नवीन रूप भी सामने आए हैं । साइबर अपराध,ऑनलाइन टीजिंग लैंगिक हिंसाके नए रूप हैं। हिंसक राजनीतिक आंदोलनो, गृह युद्धो, गुरिल्ला युद्धो, आतंकवाद जनितहिंसा मे महिलाओं को संपत्ति के रूप में इस्तेमाल करना, विरोधी समूह की महिलाओं केसाथ सामूहिक बलात्कार उनकी हत्या और उनको एक सामग्री के रूप में इस्तेमाल करना आदिसामयिक दुनिया मे महिलाओं के प्रति हिंसा के अन्य महत्वपूर्ण रूप हैं जिनसे महिलाओंकी बहुत बड़ी आबादी प्रभावित होती है । शीत युद्ध काल और उसके बाद होने वाले क्षेत्रीयसंघर्षों जैसे वियतनाम युद्ध ईरान इराक युद्ध और वर्तमान समय में चल रहे यूक्रेन युद्धआदि में महिलाओं को आसान निशाना बनाया जाता है । विशेषकर उनके साथ बलात्कार की घटनाएंबहुत ही आम है जो कि बहुत ही जघन्य अपराध है । इस प्रकार महिलाओं के प्रति हिंसा केनवीन रूप सामने आए हैं जिनका विवेचन आवश्यक है । यद्यपि इन सभी में सबसे प्रमुख सामान्यकारण जो सनातन काल से लेकर के आधुनिक काल तक बना हुआ है वह है पितृसत्तावाद और पितृसत्तावादसे बनने वाली मूल्य व्यवस्था । पितृसत्तावादी मूल्य व्यवस्था के कारण ही युद्ध मेंमहिलाओं को आसान निशाना बनाया जा सकता है और उनके साथ लैंगिक हिंसा की जाती है । इसीप्रकार घरेलू हिंसा के लगभग सभी रूप पितृसत्तावादी और पुरुषवादी सोच का परिणाम होतेहैं । इसलिए लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए शिक्षा के प्रसार और सामाजिक मूल्य प्रणालीमें पितृसत्तावादी प्रभाव की निरंतर कमी आवश्यक है। जनजातीय समाजों में और स्कैंडिनेवियाके अत्यधिक आधुनिक समाजों में जहां लैंगिक हिंसा बहुत कम है वहां पितृसत्तावाद का प्रभावभी बहुत कम है। पितृसत्तावाद का प्रभाव औरउसके प्रसार को रोकना और आधुनिई शिक्षाका प्रसार करना लैंगिक हिंसा को रोकने के लिएसर्वाधिक आवश्यक है ।
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डॉ., (श्रीमती) आशा खरे. "संगीत के प्रचार प्रसार में संचार साधनों की भूममका". International Journal of Research – Granthaalayah Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.884612.

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Abstract:
जममनी के सप्रुवसद्ध विद्वान हीगल नेसंगीत को लवलत कला की श्रेणी मेंरखा है। भारतीय संगीत को चारों िेदों का सार कहा गया है। भारत मेंसंगीत की सगणु उपासना हुई है, उसेिीणा िावदनी के रूप मेंसाकार पजूा गया है। सा विद्या या विमक्तु येसंगीत ही है। िैवदक काल मेंसंगीत की बागडोर ब्राह्मणों केहाथ मेंथी। इस काल मेंसंगीत धावममक िातािरण मेंपनपा। समद्रुगप्तु स्ियं िीणा िादक थे। इस काल मेंसंगीत का विकास राजाश्रय मेंहोनेलगा थाA शास्त्रीय ि लोक संगीत का प्रचार भी हुआ। संस्कृत के महाकवि एिं नाटककार कावलदास एिं भास नेइस काल मेंमहत्िपणूम ग्रंथ वलखे। गप्तुकाल केपश्चात राजपतूों का शासन रहा । भारतीय संगीत जो एकता के सत्रू मेंबँधा हुआ था िह दो धाराओंमेंविभक्त होनेलगा उत्तर भारत का संगीत एिं दविण भारत का संगीत। संगीत के महत्िपणूम ग्रंथ वलखेगये। मवुस्लम प्रिेश यगु मेंशारंगदिे नेसंगीत रत्नाकार नामक संगीत का प्रवसद्ध ग्रंथ वलखा। इस काल मेंअमीर खसुरो नेसंगीत के िेत्र मेंनई क्ांवत लाई। िाद्ययंत्रों की उत्पवत्त, गायन शैवलयां - ख्याल, कव्िाली, गज़ल, का प्रचलन हुआ। मगुल काल मेंभवक्त संगीत का जोर रहा। ध्रपुद-धमार गायन प्रचवलत रहा। मगुल काल मेंअकबर के शासनकाल को संगीत का स्िणमयगु कहा गया है। इस काल मेंसगं ीतज्ञों एिं कलाकारों को राजाश्रय प्राप्त था, अत: कला का खबू विकास हुआ।
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कौल, अविनाश कुमार. "भक्ति आंदोलन, सामाजिक संरचना, जाति प्रथा, धार्मिक सहिष्णुता एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण". International Journal of Science and Social Science Research 2, № 3 (2024): 149–51. https://doi.org/10.5281/zenodo.14210186.

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Abstract:
भक्ति आंदोलन ने मध्यकालीन भारत की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक परिवेश में गहरा प्रभाव डाला। यह आंदोलन उस समय उभरा जब सामाजिक असमानता, जाति प्रथा और धार्मिक कट्टरता अपने चरम पर थीं। भक्ति संतों जैसे कबीर, तुलसीदास, मीराबाई और गुरु नानक ने धर्म के जटिल रीति-रिवाजों और जाति आधारित विभाजन के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने समानता, सद्भाव और भाईचारे के मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। भक्ति आंदोलन ने निम्न जातियों और महिलाओं को सामाजिक और धार्मिक रूप से सशक्त होने का अवसर प्रदान किया। इस आंदोलन ने जाति आधारित भेदभाव को चुनौती दी और सभी मनुष्यों की समानता पर जोर दिया। भक्ति संतों की वाणी में सामाजिक समरसता और आत्मीयता की झलक थी, जो जातीय और सांस्कृतिक बंधनों को शिथिल करती थी। इसके परिणामस्वरूप समाज में धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक एकता का प्रसार हुआ। भक्ति आंदोलन ने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक बदलाव किए। इसने भारतीय समाज को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया जो समानता और भक्ति पर आधारित था। यह शोध पत्र भक्ति आंदोलन के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों का विश्लेषण करते हुए, भारतीय समाज में इसके दीर्घकालिक योगदान को रेखांकित करता है।
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AWASTHI, SUDHIR KUMAR. "भारतीय ज्ञान परंपरा के संवर्धन में महायोगी गोरक्षनाथ का अवदान". शोध धारा SPECIAL (1 квітня 2024): 90–94. https://doi.org/10.5281/zenodo.15347497.

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Abstract:
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम् संस्कृति है और उतना ही पुराना है भारतीय ज्ञान-परंपरा का इतिहास। कल्याणकारी होने के कारण सदियों तक संघर्षों से जूझते हुए भी प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की गौरवमयी परंपरा समस्त जगत् को आज भी आलोकित कर रही है। हमारी भारतीय चिंतन परंपरा विश्व की एकमात्र ऐसी चिंतन परंपरा है जिसके मूल्य आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। आध्यात्मिक मूल्यों से सुसज्जित भारतीय ज्ञान-परंपरा के विकास में ऐसे विभिन्न उन्नायकों का योगदान निहित है जिन्होंने विपरीत समय में इसकी मूल चेतना को अक्षुण्ण बनाये रखने के स्तुत्य प्रयास किये है। इतिहास में महायोगी गोरक्षनाथ ऐसे ही महाउन्नायक हुए जिन्होंने भारतीय ज्ञान-परंपरा को न केवल समृद्ध किया बल्कि उसे नई दिशा भी प्रदान की। नौ नाथों की परंपरा में गोरखनाथ सर्वाधिक महत्त्व रखते हैं। उन्होंने सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य स्वीकार किया। वज्रयानी सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई, जिसे गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पूर्ण गौरव प्रदान किया। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। उन्होंने नाथ पंथी साधना प्रक्रिया के प्रसार हेतु संस्कृत तथा तत्कालीन जनभाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर भारतीय ज्ञान-परम्परा की निर्मल स्रोतस्विनी को गति प्रदान की। प्रस्तुत शोध आलेख भारतीय ज्ञान-परंपरा के संवर्धन में महायोगी गोरखनाथ के अवदान को रेखांकित करने का ही एक विनम्र प्रयास है।
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शर्मा, रेखा, та एस के वशिष्ठ. "उत्तरी भारत में 600 ई. से 1200 ई. तक के सामाजिक और धार्मिक परिवर्तनों का अध्ययन". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 22, № 2 (2025): 105–10. https://doi.org/10.29070/qza2wr44.

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Abstract:
यह अध्ययन 600 ई. से 1200 ई. तक उत्तरी भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की खोज करता है, जिसमें समाज, धर्म और अर्थव्यवस्था के परस्पर संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस अवधि में कई राजवंशों का उत्थान और पतन, जाति संरचनाओं का विकास, भक्ति और तांत्रिक परंपराओं का प्रसार और कृषि विस्तार और व्यापार नेटवर्क के कारण महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव हुए। अध्ययन उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को समझने के लिए ऐतिहासिक ग्रंथों, शिलालेखों और पुरातात्विक खोजों की आलोचनात्मक जांच करता है। धार्मिक आंदोलनों, मंदिर अर्थव्यवस्थाओं और विदेशी संबंधों के प्रभाव की भूमिका का विश्लेषण समाज पर उनके प्रभाव का आकलन करने के लिए किया जाता है। एक व्यापक अवलोकन प्रदान करके, इस शोध का उद्देश्य इस प्रारंभिक अवधि के दौरान उत्तरी भारतीय समाज के परिवर्तन में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करना है।
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डॉ., सुरेश चौधरी रणवीर सिंह. "बौद्ध धर्म के पालि साहित्य का वर्णन". International Educational Applied Research Journal 09, № 04 (2025): 89–96. https://doi.org/10.5281/zenodo.15546252.

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Abstract:
प्राचीन भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व का विशेष महत्व है। एक और जहाँ लौह युग की शुरूआत के साथ भौतिक जीवन तथा सामाजिक संगठन में आये परिवर्तनों ने तथाकथित द्वितीय शहरी क्रांति की शुरूआत की यहाँ प्राचीन जनजातीय संस्थाओं की समाप्ति के साथ-साथ नवीन धार्मिक-सामाजिक सिद्धांतों की भी शुरूआत हुई जिन्होंने वेद, ग्रहस तथा ग्राहमणवाद को चुनौती दी। इन्हीं धर्मों में, बौद्धधर्म की शुरूआत महात्मा बुद्ध ने की, जिन्होंने जनभाषा पालि में समाज तथा संस्कृति को एक नई व्याख्या विश्व समाज के सामने प्रस्तुत की। गौतम बुद्ध का जन्म 567 ई०पू० में, कपिलवस्तु के निकट लुम्बनी जो कि नेपाल में हैं, एक शाक्य क्षत्रिय परिवार में हुआ। उनके पिता कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा थे, साथ ही शाक्य संघ के प्रधान भी थे। यचपन से ही गौतम बुद्ध साधु स्वभाव के थे। उन्नतीस वर्ष की गृहत्याग कर वे निर्माण की तलाश में निकल पड़े। पैतिस वर्ष आयु में की आयु में उन्हें बोधगया में निर्माण की प्राप्ति हुई तथा अस्सी वर्ष की आयु में कुशी नारा में लगभग 483 ई०पू० में उन्हें महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। लगभग पचास वर्ष तक उन्होंने दक्षिणी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में मगध तथा कौशल राज्यों के साथ-साथ अन्य राज्यों में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का पालि भाषा में प्रचार प्रसार किया। महात्मा युद्ध में ना केवल लोगों के बीच प्रेम, अहिंसा, सत्य का प्रचार प्रसार किया बल्कि इस कार्य हेतु भिक्षु एवं भिक्षुणीयों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित भी किया, जिससे बौद्ध धर्म के सन्देश को आगे पहुंचाया जा सके।
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Ranga, Reena. "समकालीन हिंदी कविता में वैश्वीकरण और व्यवसायीकरण". ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts 6, № 1 (2025): 122–25. https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v6.i1.2025.5657.

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Abstract:
यह शोध पत्र समकालीन हिंदी कविता पर वैश्वीकरण और व्यावसायिकता के प्रभाव का विश्लेषण करता है। वैश्विक संस्कृति के प्रसार और बाजार आधारित विचारधाराओं के प्रभाव ने हिंदी काव्य-प्रकटीकरण में परिवर्तन और प्रतिरोधकृदोनों को जन्म दिया है। कुछ कवि उपभोक्तावाद, सांस्कृतिक क्षरण और पूंजीवादी शोषण जैसे विषयों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हैं, जबकि अन्य कवि वैश्वीकृत संसार में पहचान और आत्मीयता की दुविधाओं को अभिव्यक्त करते हैं। यह अध्ययन समकालीन हिंदी की चयनित कविताओं की विषयवस्तु, भाषा और शिल्प का विश्लेषण करता है, ताकि यह समझा जा सके कि कवि स्थानीय और वैश्विक संदर्भों के संगम पर कैसे संवाद करते हैं। मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और अनामिका की कविताएँ इस वैश्वीकरण के दौर में बदलते काव्य परिदृश्य की प्रमुख अंतर्दृष्टियाँ प्रदान करती हैं।
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Dr., Jaipal Singh Tomar, та संजय स्वरूप षटधर डॉ. "योगाधारित प्राचीन भारतीय शिक्षा की वर्तमान में प्रासंगिकता". International Educational Applied Research Journal 08, № 04 (2024): 16–21. https://doi.org/10.5281/zenodo.14405861.

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Abstract:
हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति योग पर आधारित थी। योग शिक्षा द्वारा व्यक्ति में ज्ञान, कौशल, मूल्यों, नैतिकता, विश्वास, सदाचार सडनशीनता आदि का विकास होता है। योग शिक्षा योग गुरु को मार्गदर्शन में प्रारम्भ होती हैं। यह शिक्षा व्यक्ति को सोचने समझने, महसूस करने या कार्य करने वो तरीकों पर रचनात्मक प्रभाव डालती हैं। योग शिक्षा गुणवत्ता एवं दक्षता में व्यापक सुधार लाया जा सकता है। दैशिक एवं वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए योग शिक्षा का विश्वस्तर पर प्रचार-प्रसार करना आवश्यक है। योग शिक्षा सामाजिक परिवर्तन एवं राष्ट्र विकास का सशक्त साधन है। योग शिक्षा विकास प्रक्रिया में एक आवश्यक उत्पाइक सामग्री का गठन करती हैं। इस प्राचीन शिक्षा को आधुनिक समाज एवं वैज्ञानिक व्यापक जप से स्वीकार करते हैं। कोई भी समाज एवं राष्ट्र स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों के माध्यम से ही विकास कर सकता है। स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों का विकास योग शिक्षा द्वारा ही संभव है। वैसे सम्पूर्ण विश्व को वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री स्वीकारने लगे हैं कि किसी भी समाज एवं राष्ट्र की प्रगति का आधार स्वस्थ एवं चरित्रवान नागरिक ही होते हैं।प्राचीन भारतीय शिक्षा सामाजिक-आर्थिक प्रगति हासिल करने आय वितरण में सुधार रोजगार के नये अवसर पैदा करने एवं मानसिक गरीबी के उन्मूलन में सहायक सिद्ध होती थी। यह वर्ग भेट, लिंग पूर्वाग्रह को भी दूर करती थी। यह केवल आध्यात्मिक विकास में ही सहायक नहीं होती थी बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक मुद्दों का ज्ञान जागजकता, सूचना, कौशल और मूल्यों का प्रसार कर उस प्रक्रिया को तेज करने और काम करने में सहायक भी होती थी। इस प्रकार प्राचीन भारतीय शिक्षा आत्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्र विकास की मूल पद्धति है, जो व्यक्ति की स्वयं एवं दुनिया की समझ में वृद्धि करती हैं। मुनष्य के जीवन वो हर पहलू में शिक्षा से एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखा गया है। शिक्षा समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने एवं नए मूल्यों की और निर्देशित करने का कार्य भी करती हैं। यह बुद्धि विकास में सहायता करती है। यह प्रगतिशील समाज एवं राष्ट्र नवनिर्माण विकास में सहायक है।
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निकिता, निकिता. "कथक नृत्य के प्रचार-प्रसार में विविध आयोजनों की भूमिका". Oriental Renaissance: Innovative, educational, natural and social sciences 4, № 22 (2024): 97–103. https://doi.org/10.5281/zenodo.13765663.

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Abstract:
भारतीय शास्त्रीय संगीत (गीत, वाद्य एवं नृत्य) अपने शास्त्रीय सिद्धान्तों को संरक्षित करने में सक्षम है। संगीत के विभिन्न प्रचलित, अप्रचलित एवं बहुप्रचलित तथ्यों को अनेकों ग्रन्थों के माध्यम से पुनः पुनः उजागर करता है और तर्क भी देता है। जो क्रमशः कला की शास्त्रीयता को पूर्ण रूप से प्रमाणिक करता है।कथक नृत्य भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसने अपने आकर्षक ताल-मेल, गति, और भावनात्मकता के लिए विख्यात है। इस नृत्य की साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्य उसे दुनियाभर में एक अद्वितीय कला रूप में स्थापित करते हैं। कथक नृत्य के प्रचार-प्रसार में विविध आयोजनों की भूमिका विशेष महत्व रखती है, क्योंकि ये आयोजन न केवल इस नृत्य की प्रस्तुति को बढ़ाते हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति और कला को विश्व स्तर पर प्रस्तुत करते हैं।
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मुन्नेश, कुमार. "प्राथमिक शिक्षा में उपचारात्मक शिक्षणः एक अध्ययन". RECENT EDUCATIONAL & PSYCHOLOGICAL RESEARCHES 12, № 4 (2023): 27–31. https://doi.org/10.5281/zenodo.10445148.

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Abstract:
अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने सम्बन्धी संवैधानिक प्रतिबद्वता के अनुसरण में प्राथमिक शिक्षा का प्रसार एवं गुणवत्ता स्वंतत्रता प्राप्ति से ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मुख्य विशेषता रही है। प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पठन-पाठन की प्रक्रिया के स्वरूप पर निर्भर करती है इस सन्दर्भ में कक्षा-कक्ष पारस्परिक अन्तःक्रिया की गुणवत्ता सुधारने और बालकेन्द्रित, क्रिया प्रधान तथा रोचक बनाने के अनेक कार्यकलापों उपचारात्मक शिक्षण भी शामिल है। इस शिक्षण में विद्यार्थी की सहभागिता, सक्रियता अधिक होती है और बालकेन्द्रित शिक्षा के उद्देश्य विकास के सभी पहलुओं से सम्बन्धित दक्षताओं का विकास होता है। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य उपचारात्मक शिक्षण के प्रति जागरूकता लाना है।
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Masatkar, Ashih. "INTERNET'S CONTRIBUTION IN PROMOTION OF MUSIC." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 3, no. 1SE (2015): 1–4. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v3.i1se.2015.3459.

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Abstract:
In modern times, internet has become a medium of propagation that has tied the whole world into one thread.In the common language, the Internet is called the Network of Networks, on this network information is exchanged as electrical signals. Internet is a means of sharing information. Assistance of any person to diagnose a problem is possible through it. Through very fast, we can send information from one place to another.&#x0D; आधुनिक समय में इन्टरनेंट एक ऐसा प्रचार-प्रसार का माध्यम बना हुआ है जिसने संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांध दिया है।सामान्य भाषा में इंटरनेट को नेटवर्क आॅफ नेटवक्र्स कहा जाता है इस नेटवर्क पर सूचनाओं का आदान - प्रदान विद्युत संकेतों के रूप में किया जाता है। इंटरनेट सूचनाओं का आदान - प्रदान करने का साधन है। किसी समस्या के निदान हेतु कहीं भी किसी भी व्यक्ति की सहायता इसके माध्यम से संभव है। अति तीव्र माध्यम से हम जानकारियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेज सकते है।
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डा, ॅ. स्मिता सहस्त्रब ुद्धे. "स ंगीत क े प्रचार प्रसार में स ंचार साधन¨ ं की भूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.884794.

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Abstract:
संगीत जीवन क¢ ताने-बाने का वह धागा है जिसक¢ बिना जीवन सत् अ©र चित् का अंश ह¨कर भी आनंद रहित रहता ह ै तथा नीरस प्रतीत ह¨ेता ह ै। संगीत में ए ेसी दिव्य शक्ति ह ै कि उसक ¢ गीत क ¢ अर्थ अ©र शब्द¨ं क¨ समझे बिना भी प्रत्येक व्यक्ति उसस े गहरा सम्बन्ध महसूस करता ह ै। ”संगीत“ एक चित्ताकर्शक विद्या ज¨ मन क¨ आकर्षि त करती ह ै। गीत क ¢ शब्द न समझ पाने पर भी ध ुन पसंद आने पर ल¨ग उस गीत क¨ गाते ह ैं, क्य¨ ंकि भारतीय संगीत-कला भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अ ंग है एवं भारत क ¢ निवासिय¨ं की जीवनशैली का प्रमाण ह ैं। ”संगीत“ मानव समाज की कलात्मक उपलब्धिय¨ ं अ©र सांस्कृतिक परम्पराअ¨ं का मूर्तमान प्रतीक ह ै। यह आदिकाल से ही जनजीवन क ¢ लिये आत्मिक उल्लास अ©र सुखानुभूतिय¨ ं की ललित अभिव्यक्ति का मध ुरतम माध्यम रहा ह ै। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परिवर्तनशीलता एवं विकास का अनुपम उदाहरण रहा ह ै। परिवर्तन¨ ं में स्वयं क¨ समाहित करने की इस कला में अद्वितीय शक्ति रही ह ै। इस विकास क ¢ क्रम में नवीन प्रय¨ग ह ुए परंतु विकास की धारा कहीं टूटी नहीं है, जैसे फल पकता है अ©र उसका बीज उसी क¢ अन्दर रहता है उसी तरह शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाअ¨ ं क¢ मूल का भी कभी विच्छेद नहीं ह ुआ, परन्तु डार्विन क ¢ सिद्धान्त ”सरवाईवल आॅफ फिटेस“ या य¨ग्यतम् की अतिजीवितता क¢ अनुसार परिवर्तन ह¨ना समय की माँग है। स्वयं क¨ समष्टि में पचा लेने की शक्ति क ¢ आधार पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत नव विन्यास ग्रहण करता गया। भारत क ¢ इतिहास में कलाअ¨ं की दृष्टि से युगांतकारी परिवर्तन ह¨ते रह े है। साहित्य, संगीत चित्रकला जैसी संवेदनशील कलाएं युग की समाप्ति तक अपने अस्तित्व क¨ बनाए रखने क ¢ लिये विभिन्न विधाअ¨ं में बँटती चली गयीं। आज क¢ इस व ैज्ञानिक युग में विज्ञान का प्रभाव जीवन क ¢ प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिग¨चर ह¨ रहा है। आध ुनिकतम व ैज्ञानिक उपकरण¨ं क¢ माध्यम से आज हम अपनी इस पारम्परिक सांगीतिक धर¨हर क¨ सुरक्षित रख पाने में सफल व सक्षम ह¨ सक¢ ह ैं।
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डॉ., आशिष गंगाधर उजवणे. "भारतीय राजनीति में विज्ञापन की भूमिका : विश्लेषणात्मक समीक्षा". International Journal of Advance and Applied Research 10, № 4 (2023): 300–304. https://doi.org/10.5281/zenodo.7919502.

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Abstract:
&nbsp;भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है । मतदाता द्वारा चुने गए लोग इस देश का शासन चलाते हैं । इसके लिए विभिन्न संचार के माध्यम से चुनाव प्रचार और प्रसार किया जाता है। इस कार्य के लिए विज्ञापन एक प्रभावी माध्यम है। विज्ञापन वस्तु, सेवाओं और विचारों को बेचने के लिए किया जाता है। वह व्यक्ति जो वस्तु और सेवाओं का क्रय करता है, जो उपभोक्ता कहलाता है। राजनीतिक विज्ञापन जिन मतदाताओं को संदेश भेजता है उन्हें&nbsp; भारत में वोटर के तौर पर देखा जाता है। मतलब यहाँ जनता उपभोक्ता नहीं बल्कि मतदाता कहलाता है। क्या राजनीतिक दल के विकास के विज्ञापन लोगों के दिमाग को वोट में बदलने में सक्षम हैं? क्या विज्ञापन लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करते हैं? राजनीतिक विज्ञापन के विभिन्न रूप और प्रकार क्या हैं? और क्या भूमिका हैं ? इस शोध पत्र में आदि की विश्लेषणात्मक समीक्षा की गई है। अंततः इस शोध निबंध का विषय है &quot;भारतीय राजनीति में विज्ञापन की भूमिका : विश्लेषणात्मक समीक्षा&quot;।
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पाटील, श्री. योगेश नि., та डॉ. अनिल म. चौधरी. "सार्वजनिक ग्रंथालयातील माहिती प्रसार: एक अभ्यास". International Journal of Advance and Applied Research 12, № 1 (2024): 309–14. https://doi.org/10.5281/zenodo.14505969.

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Abstract:
सार्वजनिक ग्रंथालय माहिती प्रसार करण्यात समाजात अत्यंत महत्त्वाची भूमिका बजावतात. ग्रंथालय हे केवळ माहितीचे संकलन करणारे ठिकाणी नसून समाजातील विविध गटांसाठी ज्ञान प्रसारणाचे केंद्र बनले आहेत. तंत्रज्ञानाच्या प्रगती सोबत ग्रंथालयांची सेवा देखील अद्यावत होत आहे. मोबाईल ग्रंथालय सेवा हे एक त्याचे उदाहरण मानले जाईल. ग्रामीण आणि दुर्गम क्षेत्रामध्ये लोकांना माहिती प्रसारित करण्यासाठी मोबाईल ग्रंथालयाचा वापर देखील वाढला आहे. प्रत्येक ग्रंथालयात सर्वच साहित्य ग्रंथालयांना उपलब्ध करणे शक्य नसल्यामुळे विशिष्ट विषयाला आधारित मोबाईल ग्रंथालय विशिष्ट काळासाठी अनेक ठिकाणी सेवा देत असतात. मोबाईल ग्रंथालयांमुळे सार्वजनिक ग्रंथालयांना मर्यादित आर्थिक पुरवठ्यामुळे येणाऱ्या समस्यांवर मात करता येते. साक्षरता शिक्षणाचा प्रसार सामाजिक व सामुदायिक प्रभाव अशा अनेक फायदे घेता येतात. ग्रामीण भागात येणाऱ्या मोबाईल ग्रंथालयाचे प्रत्यक्ष निरीक्षण करून संशोधन केले गेले. ग्रामीण भागात व दुर्गम भागात नागरिकांनी सकारात्मक प्रतिसाद दिला आहे विशेषता कृषीविषयक साहित्य सर्वच ग्रंथालयांमध्ये उपलब्ध होत नसल्यामुळे मोबाईल ग्रंथालयाचा फायदा त्यांना झालेला दिसतो.
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आषीष, मसतकर. "स ंगीत क े प्रचार म ें इन्टरन ेट का योगदान". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.886802.

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Abstract:
आधुनिक समय में इन्टरनेंट एक ए ेसा प्रचार-प्रसार का माध्यम बना ह ुआ ह ै जिसने संप ूर्ण विश्व का े एक सूत्र में बा ंध दिया ह ै। सामान्य भाषा में इ ंटरनेट का े नेटवर्क आॅफ नेटवक्र्स कहा जाता ह ै इस नेटवर्क पर सूचनाओं का आदान - प ्रदान विद्युत संकेता ें क े रूप में किया जाता ह ै। इंटरनेट सूचनाआ ें का आदान - प्रदान करने का साधन है। किसी समस्या के निदान हेतु कहीं भी किसी भी व्यक्ति की सहायता इसके माध्यम से संभव ह ै। अति तीव्र माध्यम से हम जानकारियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेज सकते ह ै। इ ंटरनेट क े माध्यम से किए जाने वाले कार्य -  सूचनाओं का आदान - प ्रदान  खरीददारी, संगीत क े परिप ्रेक्ष्य में  संगीत सुनना एवं डाउनलोड करना  विडिया े देखना एवं सुनना  संगीत शिक्षण संब ंधी जानकारियाँ खोजना।  समारोह आदि का सीधा प्रसारण देखना।  संगीत शिक्षण आॅन र्लाइ न हेतु आवेदन।  संगीत सीखने ह ेतु इंटरनेट का प ्रयोग।  अन्य किसी के सीखने ह ेतु विडिया े आदि अपलोड करना।  किसी अन्य कम्प्यूटर से फाइल एक्सेस करना।  डा ॅक्यूमेंट्स का आदान - प्रदान करना। यह कार्य सहभागिता तथा आपसी अनुमति क े पश्चात् ही संभव हा े सकता ह ै। विद्यार्थी , शोधार्थी , व ैज्ञानिक, चिकित्सक, सरकारी संस्थान बड़ी कम्पनियाँ, सभी उपभोक्ता, ब ैंकि ंग संस्थान मना ेरंजन, उद्या ेग, समाज सेवी, अभिनेता, लेखक, पाठक, संगीतज्ञ आदि इन नेटवर्कों में प ्रत्येक नेटवर्क आ ैर प ्रत्येक कम्प्युटर कुछ निश्चित नियमों क े अनुसार परस्पर सूचनाओं का विनिमय करते ह ैं। हर एक सर्व र, छा ेटे बड़े कम्प्युटरा ें का े नेटवर्क और सर्वर को आपस में जोड़कर ही इन्टरनेट का दुनियाभर में फ ैले करोड़ांे कम्प्युटरा ें द्वारा जुड़ाव हो पाता ह ै।
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माथनकर, सरला. "महिला स्वरोजगार समूहों के माध्यम से महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण का विश्लेषण: सैद्धांतिक शोध पत्र का खाका". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 21, № 7 (2024): 105–11. https://doi.org/10.29070/wjmert58.

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Abstract:
यह शोध पत्र महिला स्वरोजगार समूहों के माध्यम से महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के प्रभाव और चुनौतियों का विश्लेषण करता है। स्वरोजगार समूहों ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, आय के स्रोत बढ़ाने, और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह अध्ययन सैद्धांतिक ढांचे पर आधारित है और स्वरोजगार समूहों के संगठनात्मक ढांचे, कार्यप्रणाली, और उनके आर्थिक और सामाजिक प्रभाव को समझने पर केंद्रित है। शोध में यह स्पष्ट किया गया है कि महिला स्वरोजगार समूह न केवल वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देते हैं, बल्कि महिलाओं को नेतृत्व और सामुदायिक विकास में सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर भी प्रदान करते हैं। अध्ययन यह भी दर्शाता है कि इन समूहों के माध्यम से महिलाएं शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ अपने परिवार और समुदाय की आर्थिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव ला रही हैं। यह शोध पत्र महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ाने के लिए नीतिगत सुझाव भी प्रस्तुत करता है, जैसे कि प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रम, डिजिटल साक्षरता का प्रचार-प्रसार, और सरकारी व वित्तीय संस्थानों से सहयोग। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि महिला स्वरोजगार समूहों को मजबूत करने के लिए समाज में जागरूकता फैलाने और प्रौद्योगिकी का उपयोग बढ़ाने की आवश्यकता है। यह अध्ययन सैद्धांतिक दृष्टिकोण से यह दर्शाता है कि स्वरोजगार समूह केवल आर्थिक विकास का साधन नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक बदलाव और सामुदायिक सशक्तिकरण के लिए भी एक प्रभावशाली उपकरण हैं। इस शोध से संबंधित भविष्य के अनुसंधान के लिए संभावित क्षेत्रों की पहचान की गई है, जो महिला स्वरोजगार समूहों की दीर्घकालिक स्थिरता और उनके प्रभाव को समझने में सहायक हो सकते हैं।
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क ु मार, डॉ प्रप्रयेि. "औपनिवेशिक भारत में शिक्षा का प्रसार और उसका सांस्कृतिक प्रभाव". INTERNATIONAL JOURNAL OF SCIENTIFIC RESEARCH IN ENGINEERING AND MANAGEMENT 09, № 05 (2025): 1–8. https://doi.org/10.55041/ijsrem42018.

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Abstract:
"औपनिवेशिक भारत में शिक्षा का प्रसार और उसका साांस्कृनतक प्रभाव" विषय पर यह शोध भारत के उपनििेशी काल के उस पररिततिशील दौर की पड़ताल करता है जब शशक्षा के िल ज्ञाि प्राप्तत का माध्यम ि रहकर राजिीनतक, सामाप्जक और साांस्कृनतक विमशत का उपकरण बि गई थी। ब्रिटिश उपनििेशिाटदयों िे जब भारत में आधुनिक शशक्षा व्यिस्था लागूकी, तो उसका उद्देश्य भारतीय समाज को अपिेप्रशासनिक ढाांचेके अिुकूल प्रशशक्षक्षत करिा था। प्रारांभ में यह शशक्षा सीशमत िगों तक ही शसमिी रही, खासकर उच्च जानतयों और सांपन्ि तबकों के बीच। लेककि धीरे-धीरे यह शशक्षा जिसामान्य में भी प्रसाररत हुई और इसी प्रसार िे भारतीय समाज में गहरे साांस्कृनतक पररितित को जन्म टदया। यह शोध इस बात को रेखाांककत करता है कक औपनििेशशक शशक्षा प्रणाली िे एक ओर भारतीय भाषाओां, परांपरागत ज्ञाि और मूल्यों को पीछे धकेला, िहीां दसू री ओर आधुनिक िैज्ञानिक सोच, आलोचिात्मक दृप्टि और राटरिादी चेतिा को भी जन्म टदया। यह दोधारी प्रकिया थी, प्जसमें भारतीय समाज िे जहाां एक ओर औपनििेशशक मािशसकता को आत्मसात ककया, िहीां दसू री ओर उसी शशक्षा िे स्ितांत्रता सांग्राम के िेताओां और विचारकों को प्रेररत ककया। बाल गांगाधर नतलक, महात्मा गाांधी, रिीांद्रिाथ ठाकुर, आांबेडकर जैसेअिेक िेताओां िेऔपनििेशशक शशक्षा के प्रभािों का विश्लेषण कर उसे भारतीय समाज के टहत में मोड़िे की कोशशश की। शोध का महत्ि इस बात में है कक यह शशक्षा को के िल औपनििेशशक नियांत्रण का माध्यम ि मािकर उसे साांस्कृनतक सांघषत और सामाप्जक जागरण का एक मांच मािता है। यह अध्ययि दशातता है कक कैसे औपनििेशशक शशक्षा के माध्यम से ििजागरण, सामाप्जक सुधार आांदोलि और राटरिाद िे आकार शलया। प्रमुख निटकषत यह बताते हैंकक यद्यवप औपनििेशशक शशक्षा का आरांशभक उद्देश्य भारतीय मािस को नियांत्रण में रखिा था, परांतुदीघकत ाल में यही शशक्षा भारतीय जिमािस में प्रश्ि पूछिे, परांपराओां की समीक्षा करिेऔर आधुनिक मूल्यों को अपिािेकी चेतिा का स्रोत बिी। इस प्रकार, यह शोध औपनििेशशक
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Dr., Akhilesh Kumar Sharma Shastri. "Bharat mein Uchch Shiksha ki samasya evam samadhan." Research Discourse VII, no. V (2017): 32–34. https://doi.org/10.5281/zenodo.15605291.

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Abstract:
शिक्षा मानव जीवन की आधारशिला है। जन्म के समय असहाय और अनुभवहीन एवं अविकसित बालक धीरे-धीरे शिक्षा के प्रभाव से उन्नतिशील प्राणी बन जाता है। मनुष्य आदिकाल से जो कुछ भी अनुभव करता, सीखता एवं ग्रहण करता चला आ रहा है, यह शिक्षा ही है। नई बातों को सीखने के फलस्वरुप जीवन में जो परिवर्तन हुए है उन्ही के कारण आज मनुष्य जाति संस्कृति एवं सभ्यता की ऊँची चोटी पर पहुँच गई है। अतः शिक्षा मनुष्य में परिवर्तन करने वाली प्रक्रिया है। यह वह प्रक्रिया है जो मनुष्य के मस्तिष्क, व्यवहार तथा आचरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर देती है। यदि शिक्षा को व्यक्ति के सर्वागीण प्रगति का श्रेष्ठतम में साधन कहा जाय तो अहनुचित न होगा। यदि हम भारत की उच्च शिक्षा के अतीत को देखे तो ज्ञात होता है कि वैदिक युग में हमारी उच्च शिक्षा अपने चरम उत्कर्ष पर थी। उस समय भारतीय धर्म, दर्शन, ज्ञान और विज्ञान के शाश्वत ग्रंथ वेदों की रचना हुई थी। इसकी महानता में बौद्ध युग में और अधिक वृद्धि हुई। जब नालन्दा, तक्षशिला, बल्लभी और विक्रमशिला जैसे अनेक जग प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों ने भारत को विश्वगुरु होने की ख्याति प्रदान की थी। मौर्य सम्राट अशोक महान ने अपने पुत्रए वं पुत्री को बौद्ध धर्म की शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार करने के लिए विदेशों में भेजा था।
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कुसुमाकर, अरूणा. "ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि का बदलते स्वरूप का प्रभाव- एक अध्ययन". HARIDRA 1, № 01 (2021): 50–52. http://dx.doi.org/10.54903/haridra.v1i01.7810.

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Abstract:
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आज भी पारम्परिरक कृषि अधिकांशतः देशीय आदानों पर निर्भर करती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश को विकास की आवश्यकता अनुभव हुई तो योजनाबद्ध विकास मॉडल में कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई। जिला मुख्यालय से लेकर गावों तक आधुनिक कृषि तकनीकि के प्रचार-प्रसार के लिए कृषि विभाग ने अपने विस्तार कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आधुनिक कृषि तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया।
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हुररामोव, शुक्रुल्लो. "देशी छात्रों के हिंदी अध्ययन का केंद्र: केंद्रीय हिंदी संस्थान". Oriental Renaissance: Innovative, educational, natural and social sciences 4, № 22 (2024): 132–33. https://doi.org/10.5281/zenodo.13765739.

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Abstract:
केंद्रीय हिंदी संस्थान&nbsp;भारत सरकार&nbsp;के&nbsp;मानव संसाधन विकास मंत्रालय&nbsp;के अधीन उच्चतर शैक्षणिक केंद्र है । इसका मुख्यालय उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर आगरा, भारत में स्थित है । इसके आठ केंद्र-&nbsp;दिल्ली,&nbsp;हैदराबाद,&nbsp;गुवाहाटी,&nbsp;शिलांग,&nbsp;मैसूर,&nbsp;दीमापुर,&nbsp;भुवनेश्वर&nbsp;तथा&nbsp;अहमदाबाद&nbsp;हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान की स्थापना सन्&nbsp;1960&nbsp;में भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा&nbsp;उत्तर प्रदेश&nbsp;के&nbsp;आगरा&nbsp;शहर में की गई।संस्थान का मुख्य कार्य&nbsp;हिंदी भाषा&nbsp;से संबंधित क्षैक्षणिक कार्यक्रम चलाना, शोध कार्य संपन्न करना एवं हिन्दी के प्रचार प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाना है। प्रारंभ में संस्थान का प्रमुख कार्य अहिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए योग्य, सक्षम एवं प्रभावकारी हिंदी अध्यापकों को ट्रेनिंग कॉलेज और स्कूली स्तरों पर पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित करना था। परंतु बाद में हिंदी के शैक्षिक प्रचार-प्रसार और विकास को ध्यान में रखते हुए संस्थान ने अपने कार्य क्षेत्रों और प्रकार्यों को विस्तृत किया, जिसके अंतर्गत हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण, हिंदी भाषा-परक शोध, भाषाविज्ञान तथा तुलनात्मक साहित्य आदि विषयों से संबंधित मूलभूत वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यक्रमों को संचालित करना प्रारंभ किया तथा विविध स्तरीय पाठ्यक्रमों, शैक्षिक सामग्री, अध्यापक निर्देशिकाएँ इत्यादि तैयार करने का कार्य भी प्रारंभ किया।
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डॉ. नरेश कुमार та डॉ. प्रीति सिंह. "भारतीय ज्ञान परम्परा के विकास में गुरु गोबिंद सिंह जी के विद्या दरबार का प्रदेय". International Journal of Multidisciplinary Research in Arts, Science and Technology 3, № 1 (2025): 35–44. https://doi.org/10.61778/ijmrast.v3i1.107.

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Abstract:
भारतीय ज्ञान परम्परा सहस्राब्दियों से चली आ रही वह सतत बौद्धिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जिसके मूल में लोक और शास्त्र का अद्वितीय समन्वय रहा है। यह परम्परा केवल ज्ञानार्जन की साधना नहीं, अपितु यह जीवन के समग्र अनुशीलन की प्रक्रिया है। इस दीर्घ यात्रा में विभिन्न युगों में अनेक मनीषियों, संतों, आचार्यों एवं गुरुओं ने अपने विशिष्ट योगदान से इस परम्परा को समृद्ध करने का कार्य किया। उसी प्रकार दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का विद्या दरबार भारतीय ज्ञान परम्परा के पुनरुत्थान का एक सशक्त केन्द्र बनकर उदित हुआ। गुरु गोबिंद सिंह जी के विद्या दरबार की स्थापना केवल एक धार्मिक कार्य नहीं, अपितु यह भारतीय बौद्धिक चेतना को पुनः जागृत करने का प्रयास था। गुरु जी ने उस कालखण्ड में जब ज्ञान के स्रोत विस्मृत हो रहे और धर्म-संस्कार बाह्याचारों में बंधने लगे थे, तब अपने विद्या दरबार के माध्यम से भारतीय ज्ञान परम्परा की गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित किया। यह दरबार ज्ञान का एक ऐसा केंद्र था, जहाँ वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य, नीति-साहित्य, योग-दर्शन, न्याय-विचार और भक्ति-आन्दोलन की परम्पराएँ एक साथ संगठित होती थीं। गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं अनेक भाषाओं में काव्य रचना की और अपने दरबारी कवियों को भी ज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु प्रेरित किया। संस्कृत, ब्रज, फारसी, पंजाबी, हिंदी और अरबी जैसी भाषाएँ उनके दरबार में ज्ञान-प्रवाह की वाहिका बनकर प्रस्तुत होती थीं। इस प्रकार उनका दरबार एक सांस्कृतिक संगम था, जहाँ भाषाओं, विचारों, परम्पराओं और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों में कोई भेद नहीं था, बल्कि समरसता और सह-अस्तित्व की भावना प्रमुख थी। गुरु गोबिंद सिंह जी का विद्या दरबार भारतीय ज्ञान परंपरा के लोकमंगलकारी एवं समावेशी स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। यह भारतीय परंपरा की उस उदारता का प्रतीक है, जो ज्ञान को केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं रखती, अपितु उसे जीवन के प्रत्येक क्षण में अनुभूत करती है।
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कुमार, प्रवीण, та मंजू सोलंकी. "गठबंधन सरकार तथा प्रधानमंत्री की भूमिका की प्रासंगिकता". Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education 21, № 5 (2024): 873–81. https://doi.org/10.29070/gt284n31.

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Abstract:
गठबंधन सरकारें सरकार का सबसे व्यापक रूप होने के बावजूद, गठबंधन राजनीति के कई पहलुओं को अभी भी कम समझा जाता है। यह गठबंधन के भीतर प्रधान मंत्री पार्टी की भूमिका से संबंधित प्रश्नों के लिए विशेष रूप से सच है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधान मंत्री होने के नाते पार्टी पर काफी प्रभाव है, लेकिन प्रधान मंत्री के प्रभाव को आकार देने वाले कारकों के बारे में वास्तव में बहुत कम सबूत मौजूद हैं। यह पेपर गठबंधन में प्रधान मंत्री पार्टी के प्रभाव को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह दृष्टिकोण प्रधान मंत्री पार्टी के पार्टी घोषणापत्र और चुनाव के बाद पहले सरकारी भाषण के बीच मुद्दे के ओवरलैप की सीमा पर केंद्रित है। यह दृष्टिकोण वास्तव में प्रधान मंत्री पार्टी के प्रभाव को आकार देने वाले कारकों का विश्लेषण करना संभव बनाता है। नतीजों से पता चलता है कि पीएम पार्टी अपने गठबंधन सहयोगियों के मुद्दे पर जोर देने से विवश है, लेकिन तब कम जब उसके पास विघटन शक्ति होती है और तब और भी अधिक जब पीएम पार्टी की सीट हिस्सेदारी को नियंत्रित करते समय उसके पास कई गठबंधन सहयोगी होते हैं। इस प्रकार, पेपर गठबंधन समझौते का अध्ययन करने के लिए एक नया दृष्टिकोण और प्रधान मंत्री पद धारण करने से आने वाले प्रभाव को आकार देने वाले कारकों पर नए साक्ष्य प्रदान करता है।
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KASHYAP, POOJA. "संगीत के प्रचार तथा प्रसार में रेडियो तथा टी वी की भूमिका". Swar Sindhu 1, № 1 (2013): 51–52. http://dx.doi.org/10.33913/ss.v01i01a11.

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डा, ॅ. किन्श ुक श्रीवास्तव, та गुप्ता सुयंका. "स ंगीत क े प्रचार- प्रसार में स ंचार माध्यमा ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.885855.

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Abstract:
नाटक और रंगमंच सम्भवतः मनुष्य जाति का पहला आ ैर सदिया ें तक एकमात्र सशक्त एवं जीवन्त जन-माध्यम रहा है। बदलते ह ुए समय आ ैर समाज क े साथ-साथ इसके स्वरूप एवं सरोकार भी लगातार बदलते रह े। प ्राचीन काल में शास्त्रीय रंगमंच राज्याश्रित था आ ैर लोक-रंगमंच जनाश्रित। मध्यकाल में, मुसलमान-मुगल शासकों ने कलाओं क े लगभग सभी रूपों का खूब विकास आ ैर विस्तार किया। समय आ ैर समाज क े परिवर्तन से अभिव्यक्ति माध्यम आ ैर साहित्य एवं कलाओं क े स्वरूप भी बदलते ह ै ं। आध ुनिक काल में विज्ञान ने अभूतप ूर्व प ्रगति की। नए-नए आविष्कार हुए। प्रि ंटिंग प ्रेस ने साहित्य को जन-सुलभ बनाने और सूचना-संचार क े माध्यम क े रूप में अपार सफलता प ्राप्त की। अखबारों ने अफवाहों का े प ्रामाणिक सूचनाओं में बदल दिया आ ैर हमारे स्वतंत्रता-संग्राम में जनान्दोलन प ैदा करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पि ्रंटिंग प ्रेस के बाद कैमरा या फिल्म-विज्ञान का बह ुत बड़ा चमत्कार सिद्ध ह ुआ। बीसवीं सदी क े पहले दशक क े मूक-फिल्मों क े दौर में कथा-फिल्मों क े निर्मा ण क े साथ ही सिनेमा का नाटक से गहरा रिश्ता जुड़ा। अधिकांश आरंभिक फिल्में अनेक पारसी नाटकों का लगभग ज्यों-का-त्यों फिल्मांकन भर थी। चा ैथे दशक तक की कई फिल्में या तो नाटकों पर आधारित थीं या पारसी थियेटर की अतिनाटकीयता-अतिरंजना से प्रभावित थी ं।
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डा, ॅ. नीरज राव. "स ंगीत क े प्रचार-प्रसार म ें स ंचार साधना ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1. https://doi.org/10.5281/zenodo.886994.

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Abstract:
मनुष्य को आदिकाल से ही संगीत मना ेरंजन एव ं आमोद-प्रमोद का साधन रहा ह ै। आदिकाल से ही मानव ने अपने मना ेरंजन क े साधन क े लिये विभिन्न प्रकार क े प ्रया ेग किये जैसे-जैसे मानव अपनी सभ्यता का विकास करता गया व ैसे-व ैसे उसकी समझ आ ैर सूझ-बूझ ने नृत्य, गायन आ ैर वादन की ओर आकर्षि त किया। मानव ने सभ्यता और संस्कृति को समझकर अपने का े प ्रकृति क े साथ तालमेल करते ह ुए संगीत का े सीखा। हमारे पा ैराणिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख ह ै कि माँ पार्वती की गायन मुद्रा को देखकर भगवान षंकर ने क्रमषः पाँच राग हिंडा ेल, दीपक, श्री, मेघ, का ैषिक आदि रागों की रचना की एवं संगीत की उत्पत्ति भगवान षिव क े ताण्डव तथा माता पार्वती के लक्ष्य नृत्य से मानी र्गइ । इस प ्रकार ताण्डव के ‘‘ता’’’, आ ैर लस्य क े ‘‘ल‘‘ इन दा े षब्दों से ताल का निर्मा ण हुआ। भगवान षिव से संगीत विद्या माता सरस्वती, सरस्वती से नारद, नारद से हनुमान एवं अन्य देवताओं आदि को प ्राप्त ह ुआ। धीरे-धीरे इस कला का प्रचार-प ्रसार धरती पर मनुष्य ला ेक में ह ुआ। भारत में आजादी से पूर्व संगीत राजाआ ें, महाराजाओं, नवाबा ें क े यहाँ षाोभायमान था। सम्भ ्रान्त समाज में गायन-वादन अथवा नृत्य की कल्पना करना भी संभव नहीं था। भारत के दो महान संगीत सुधारक एवं प ्रचारक स्वर्गी य पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे एव ं प ं. विष्ण ु दिगम्बर पलुस्कर जी ने संगीत प ्रचार-प्रसार क े लिये अथक परिश्रम एवं प ्रयास किया तथा सम्प ूर्ण भारतवर्ष में संगीत क े प ्रचार एवं प ्रसार में अपना अतुलनीय या ेगदान दिया। पं. विष्ण ु नारायण भातखंडे का े ही यह श्र ेय जाता ह ै कि उन्होंने प ्रथम प ्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू से उच्च षिक्षा जगत में संगीत का षिक्षण कार्य प ्रारंभ कराया और विष्वविद्यालयों क े पाठ्यक्रम रूप में सम्मिलित हा े सका।
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वानखेडे, व्ही. एस. &. मानवते यु. एच. "बुद्धाचे राजकीय विचार : एक अभ्यास". International Journal of Classified Research Techniques & Advances 4, № 3 (2025): 116–20. https://doi.org/10.5281/zenodo.15287135.

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Abstract:
<em>बुद्धांनी असा संदेश दिला की सर्व मानव हे समान आहेत जन्मावरून कोणी उच्च किंवा नीच होत नाही. स्वातंत्र्य, समता, बंधुता, न्याय या लोकशाही तत्वाचा प्रचार प्रसार केल्याचे पाहायला मिळते. या संशोधन लेखांमध्ये बुद्धाच्या स्वातंत्र्य, समता, बंधुता, न्याय या विचारांचा शोध घेण्याचा प्रयत्न केला आहे . बुद्धांनी चक्रवर्ती राजा संबंधी&nbsp; विचार, राज्याच्या उत्पत्तीचा सिद्धांत,लोकनियुक्त महासमंत ,दहा राजधम्म, भिक्षू संघामध्ये असलेली समानता&nbsp; त्यांची कार्यपद्धतीचा&nbsp; उल्लेख त्रिपिटक साहित्यामध्ये आपल्याला पाहायला मिळते.</em>
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सिद्दीकी, शाहेदा बानो. "सोशल मीडिया और भारत में डिजिटल सक्रियता : एक समाजशास्त्रीय अध्ययन". International Journal of Classified Research Techniques & Advances 5, № 1 (2025): 49–54. https://doi.org/10.5281/zenodo.15476084.

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Abstract:
यह शोध पत्र भारत में डिजिटल सक्रियता की प्रवृत्तियों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करता है और यह जानने का प्रयास करता है कि कैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने जनसंगठनों के स्वरूप, संगठन और संदेश प्रसार की विधियों को बदला है। साथ ही यह भी समझा जाएगा कि डिजिटल सक्रियता ने सामाजिक परिवर्तन में किस हद तक योगदान दिया है।
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Pokhrel, Kabi Prasad. "वेद, विज्ञान र हिन्दु दर्शनको चर्चा". Interdisciplinary Research in Education 8, № 2 (2023): 61–67. http://dx.doi.org/10.3126/ire.v8i2.60211.

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Abstract:
यो लेख वेदका सारभूत सन्देश तथा पूर्वीय दर्शनको विविधता, व्यापकता र वैज्ञानिक विकासको आधारशीला एवं ब्रह्माण्ड ज्ञानको मूल आधारको रुपमा हिन्द दर्शनलाइ चर्चा गर्नमा केन्द्रित छ । ज्ञानको प्रकाशको उपमाले परिचित हन्द दर्शनको आर्दश स्थल काशी तथा वेदको ज्ञानको पृष्ठभूमिमा विश्व समुदायलाई पूर्वीय दर्शन र पश्चिमा विज्ञान तथा प्रविधिको ज्ञानलाई वैदिक शास्त्रले प्रदान गरेको दार्शनिक आधार एवं वैज्ञानिकताको चर्चा गर्ने उद्देश्यमा केन्द्रित यो आलेख स्थापित हिन्दु मान्यता र परम्परामा आर्जित ज्ञान र उपलब्ध वैदिक शास्त्र, श्रुति एवं स्मृतिको विषयवस्तु विश्लेषण गर्न व्याख्यात्मक विधिको प्रयोग गरिएको छ । लेखको खोजी तथा विश्लेषणले हिन्दु धर्मका आदर्श पुरुष स्वामी विवेकानन्द, परहंश रामानुज र शंकराचार्यले गरेको पश्चिमी संसारमा हिन्द धर्मको प्रचार प्रसार, सर्वपल्लवी राधाकृष्णन्ले पूर्वीर्य दर्शनको श्रेष्ठताको व्याख्यामा दिएको योगदान तथा श्रीमद्भागवद गीताको सन्देशलाई सामाजिक रुपान्तरणका लागि शिक्षाको विकासलाइ आफ्रनो कर्म क्षेत्र बनाउने मदन मोहन मालवीयजस्ता पुरुषहरुको जीवन आनुभविक शिक्षाबाट प्रेरित भई हिन्दु धर्म, ज्ञानको सागर वैदिक शास्त्र र पूर्वीय दर्शनको श्रेष्टतालाइ विश्वव्यापी बनाउन ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोगलाई थप उजागर गर्न जोड दिएको छ ।
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गायकवाड, डॉ. रोहित. "मध्ययुगीन संतकवियों में सामाजिक उत्प्रेरक - संत कबीर". International Journal of Advance and Applied Research 5, № 44 (2024): 157–61. https://doi.org/10.5281/zenodo.14710396.

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Abstract:
<strong>सारांश:-</strong> भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ। धीरे-धीरे लोकभाषाएं भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। तत्कालीन युग में लोकभाषाओं में ही सभी संतों ने साहित्य सृजन किया। क्योंकि लोकभाषाएँ जनमानस की भाषाऐं थी। परिणामतः भक्ति-साहित्य की बाढ़ सी आ गयी। केवल वैष्णव ही नहीं अपितु शैव, शाक्त धर्मों के साथ-साथ बौद्ध, जैन संप्रदायों में भी भक्ति को प्रभावित किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने साधारण 1318 से 1643 इ.स. तक भक्तिकाल का निर्धारण किया। सामाजिक क्षेत्र का विचार करें तो समाज, वर्ण, वर्ग, जाँति, धर्मों में विभाजीत था। सामाजिक व्यवस्था पर धर्म और धर्माचारों का प्रभाव था। हिंदू समाज में भी वर्णाश्रम का उचित पालन नहीं हो रहा था। परिणामतः समाज में जातियों-उपजातियों की संख्या में वृद्धि हो गयी, उनके पारस्परिक व्यवहार में अपतत्व का अभाव निर्माण हो गया। समाज में अनिष्ट रीति-रिवाज, बाह्याडंबर, कुप्रथाऐं, अंधश्रद्धाऐं प्रचलित थी। भारतीय मुस्लिम समाज की अवस्था भी हिंदुओं से अधिक भिन्न नहीं थी।
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प्रो., डॉ. साताप्पा शामराव सावंत. "दलित आत्मकथाओं में चित्रित हाशिए के समाज की समस्याए". International Journal of Humanities, Social Science, Business Management & Commerce 08, № 01 (2024): 202–6. https://doi.org/10.5281/zenodo.10500450.

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Abstract:
दलित आत्मकथा विश्व साहित्य की अत्यंत महनीय उपलब्धि कही जा सकती है। भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अथक प्रयासों से सदियों से वाणी विहीन, वंचित समाज व्यवस्था को अपना स्वतंत्र मंच प्राप्त हुआ। दलित साहित्य का प्रचार-प्रसार सभी भारतीय भाषाओं में हो चुका है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा &ldquo;मी कसा झालो&ldquo; शीर्षक से लिखी थी। जो विश्व दलित साहित्य की नींव बन गई। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर दलित साहित्य के निर्माता तथा उन्नायक रहे है।
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एन्, श्राव्या. "हिंदी भाषा और डिजिटल युग: अवसर और चुनौतियाँ". INTERNATIONAL JOURNAL OF SCIENTIFIC RESEARCH IN ENGINEERING AND MANAGEMENT 09, № 04 (2025): 1–9. https://doi.org/10.55041/ijsrem44869.

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Abstract:
संक्षेप डिजिटल युग ने हिंदी भाषा के विकास के लिए नए अवसर और चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं। यह शोध "हिंदी भाषा और डिजिटल युग: अवसर और चुनौतियाँ" पर आधारित है, जिसमें हिंदी भाषा के डिजिटल माध्यमों में प्रसार, उसके प्रभाव और इससे संबंधित समस्याओं का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन में यह पाया गया कि इंटरनेट, सोशल मीडिया, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ने हिंदी भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया है। हिंदी ब्लॉगिंग, यूट्यूब चैनल, और डिजिटल समाचार पत्रिकाएँ इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, डिजिटल शिक्षण प्लेटफ़ॉर्म और मोबाइल एप्लिकेशन ने हिंदी को वैश्विक स्तर पर सुलभ बनाया है। हालांकि, इस डिजिटल बदलाव के साथ कुछ चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं। अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव, "हिंग्लिश" का प्रचलन, तकनीकी संसाधनों की कमी, और हिंदी कंटेंट की प्रमाणिकता पर सवाल उठाए गए हैं। इसके बावजूद, हिंदी के डिजिटल विस्तार के लिए तकनीकी नवाचार और भाषा संरक्षण की आवश्यकता है। यह शोध डिजिटल युग में हिंदी भाषा के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश प्रदान करता है और इसके प्रभावी उपयोग के लिए संभावित समाधानों की ओर इशारा करता है।
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Misra, Vijay Prasad. "प्राचीन तथा मध्यकालीन नेपाल–तिब्बत–चीन सम्बन्ध". Historical Journal 16, № 1 (2025): 168–83. https://doi.org/10.3126/hj.v16i1.76381.

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Abstract:
बुद्धको जन्मस्थल, हिमालपारी जाने सहज बाटोको उपलब्धता, विवाहवारी तथा नेपाली कला र संस्कृतिको प्रसारले गर्दा नेपालको तिब्बत र चीनसँगको किराँतकालदेखि मध्यकालसम्म एक आपसमा सम्बन्ध प्रगाढ रहेको पाइन्छ । बुद्धधर्मका अनुयायी भृकु्टी तिब्बत गएर गरेका योगदानहरूले नेपालको तिब्बतसँग धार्मिक, साँस्कृतिक, आर्थिक तथा परिवारिक सम्बन्धहरू प्रगाढ भएको पाइएको छ । त्यसैगरी नरेन्द्रदेवलाई नेपालको राजगद्धीमा स्थापित गर्न तिब्बतले शैन्य सहयोग गरेको तथा स्वयं नरेन्द्रदेवले हर्षबध्दर्नलाई कोशेली पुर्याउन गरेको चिनीयाँ टोलीको संरक्षणका लागि चीनको पक्षमा नेपाली सेना पठाएर गरेको सैनिक सहयोगका कारणले चीनसँगसमेत सौगात आदान प्रदान गर्ने प्रणाली बसाएर नेपालको सम्बन्ध चीनसम्म विस्तार गरी राजनीतिक, कूटनीतिक, व्यापारिक, धार्मिक र साँस्कृतिक सम्बन्धहरु स्थापित गर्न सफल भएका थिए । मध्यकालमा अरनिकोले चीनमा गएर आफ्नो कलाको प्रसार गरेकाले पनि नेपालको तिब्बत र चीनसँगको सम्बन्ध धर्म, संस्कृति र व्यापारको दृष्टिले महत्वपूर्ण रहेको थियो । मुद्राका कारण मध्यकालको अन्तिमतिर केही विवाद भए पनि समग्रमा तीनदेशबीचको आपसी सम्बन्धले नेपालले समेत आर्थिक, धार्मिक र राजनीतिक फाइदाहरु प्रशस्त लिन सकेको थियो । ऐतिहासक, गुणात्मक र वर्णनात्मक विधिहरू अपनाएर तिब्बत र चीनसँग नेपालको प्राचीन र मध्यकालको सम्बन्धको खोजविन गर्नु यस अनुसन्धानको उद्देश्य रहेको छ । आधुनिककालमा समेत प्राचीन तथा मध्यकालीन सम्बन्धले सकारात्मक असर परिरहेको छ ।
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स©म्या, सिंह. "शिक्षण एवं प्रदर्शन में इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ ं की भूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.884809.

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Abstract:
ैदिक अवधारणा क े आधार पर नाद का निर्मा ण सर्वप्रथम ईश्वर की अभिव्यक्ति है। आदिम काल स े ही अ¨ऽमकार क¨ ब्रह्मनाद माना गया। आज का संगीत मनुष्य क े प्रयत्न¨ं स े अपने वर्तमान रूप में परिणित ह ुआ ह ै। परिवर्तन प्रकृति का नियम ह ै अ©र यही परिवर्तन हमारे शास्त्र्ाीय संगीत में भी दिखता ह ै जिसने कहीं सकारात्मक त¨ कहीं नकारात्मक छाप छ¨ड़ी ह ै। इसी क्रम में संगीत शिक्षण एवं प्रदर्श न में इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ं की भूमिका बह ुत अहम रही है ं। स्वतन्त्र्ाता के बाद अब राष्ट्रीय संरक्षण पाकर भारतीय शास्त्र्ाीय संगीत प्रदीप्त ह¨ गया, भारतीय संगीत ने एक नवीन करवट ली, जिसके फलस्वरूप रियासती राजाअ¨ं के संरक्षण में पनप रहा संगीत अब राष्ट्रीय संरक्षण में आ गया। जहाँ आज शास्त्र्ाीय संगीत विद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर एक अहम विषय क े रूप में पढ़ाया एवं सिखाया जा रहा ह ै वही शास्त्र्ाीय संगीत का प्रचार-प्रसार मंच प्रस्तुतिय¨ं के माध्यम से ह¨ रहा ह ै। शिक्षण संस्थान¨ं में संगीत का शिक्षण करने क े लिए आज कई प्रकार के इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ं का प्रय¨ग किया जाने लगा है चाहे व¨ संगीत की क¨ई भी विधा गायन, वादन या नृत्य।
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Vinod, Kumar. "SAHITYIK VIDHAON KA DRISHY SHRVY MADHYAMON MEN RUPANTARAN." आगमित 04 (December 15, 2015): 92. https://doi.org/10.5281/zenodo.8205681.

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Abstract:
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रचार प्रसार कर साथ ही&nbsp;साहित्यिक विधाओं का दृश्य श्रव्य माध्यमों में रूपांतरण का प्रचलन भी बढ़ा। साहित्य अपने मूल रूप यानी मुद्रण रूप में रहता है तो उसकी अपनी विशेषता होती है, परंतु जब साहित्य का&nbsp;रूपांतरण या कायांतरण दृश्य श्रव्य माध्यमों मे किया जाता है तो उसकी संरचना परिवर्तित हो जाती है।&nbsp;साहित्यिक कृति अपनी आत्मा को सुरक्षित रखते हुए नया शरीर धारण कर लेती है। वर्णित घटनाओं को दृश्य योजना में परिवर्तित करना पहली आवश्यकता है।&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;
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डॉ, संदीप मनोहरराव राऊत. "संत गाडगे बाबा यांचे कीर्तनाच्या माध्यमातून समाजप्रबोधन". International Journal of Advance and Applied Research S6, № 18 (2025): 282–87. https://doi.org/10.5281/zenodo.15250579.

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Abstract:
संतांनी समाजप्रबोधनाकरीता व लोक शिक्षणाच्या प्रचार व प्रसाराकरीता एक प्रभावी माध्यम म्हणून कीर्तन या प्रकारचा उपयोग केला आहे. समाजात सदाचरणी वृत्ती वाढवावी, सुनीती मार्गाने सर्वांनी वाटचाल करावी, आदर्श जीवनाचे संस्कार करावे, यासाठी कीर्तनाची नितांत आवश्यकता वाटते. ईश्वर भक्ती आणि चरित्र संपन्नता या दोन प्रमुख उद्दिष्टांसाठी कीर्तनसंस्था पूर्णपणे राबली. कीर्तनाचे विविध संप्रदाय आहेत. संप्रदाय भिन्न असले, पद्धती भिन्न असल्या तरी सर्वांचं उद्दिष्ट एकच आणि ते म्हणजे सदाचाराचा प्रचार मनोरंजनासह करणे, हे होय! श्रीमंत भगवानराव प्रतिनिधी म्हणतात, "कीर्तन कशासाठी? समाजातील स्त्री-पुरूष सुधारणेसाठी ! आपला समाज, आपले राष्ट्र पुढे जाणे, त्याला आर्थिक, औद्योगिक, कृषिकर्म विषयक आणि राजकीय स्वातंत्र्य मिळावे, खऱ्या धर्माचा प्रसार तरूण पिढीमध्ये व्हावा, यासाठी कीर्तन आहे. कीर्तन ही जनता जनार्दनाची सेवा आहे. अज्ञानांना ज्ञानी करून राष्ट्रकार्य करावे यासाठी कीर्तन आहे." (दादर कीर्तन संम्मेलन ८ व ९ जुन १९२४, अध्यक्षीय भाषण). असे कीर्तनाचे महत्त्व आहे. लोकजागृती आणि लोकशिक्षण करण्यासाठी कीर्तन हा पारंपरिक प्रकार आहे. बाबांनी आपल्या कार्याच्या व विचारांच्या प्रचाराकरीता कीर्तन या प्रभावी माध्यमाचा उपयोग केला. गाडगेबाबांनी समाजातील मागासलेल्या व दुर्बल घटकांमध्ये असलेले दोष दूर करण्याचा प्रयत्न वा मागनि केला. त्यांचा संपूर्ण उपदेश हा वस्तुस्थितीवर आधारल होता. सर्वसामान्य व दुर्बल समाजाच्या देवाविषयीच्या भोळसर कल्पना, जन्म, मृत्यू, मोक्ष वा विषयीच्या निराधार कल्पना, अंधश्रद्धा, आकलन न झालेल्या आध्यात्मिक कल्पना त्यांच्यामध्ये निर्माण होऊन त्यामुळे त्यांचे अधःपतन होऊन समाजात विकृती निर्माण झाली होती. अज्ञान, दारिद्र्य, अंधश्रद्धा यामुळे स्वतंत्र विचार करण्याची शक्ती तर्कशुद्ध रितीने निर्णय घेण्याची क्षमता गंजून गेली होती. अशा या समाजाच्या विचारशक्ती नवचैतन्य निर्माण करण्याचा प्रयत्न बाबांनी कीर्तनाच्या माध्यमातून केला आहे.
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बनसोड, प्रा.मंगला. "मधुमेहाचा प्रसार आणि व्यवस्थापन:भारतीय संदर्भ". International Journal of Advance and Applied Research 6, № 21 (2025): 134–37. https://doi.org/10.5281/zenodo.15255236.

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Abstract:
<strong>सारांश</strong><strong>: </strong> मधुमेह हा आजच्या घडीला जागतिक तसेच भारतीय आरोग्य व्यवस्थेसमोरील एक गंभीर आणि वेगाने वाढणारा चयापचय विकार आहे. प्रस्तुत संशोधनात भारतातील मधुमेहाचा प्रसार, त्यामागील कारणे, तसेच त्यावर आधारित व्यवस्थापनाचे उपाय यांचा अभ्यास करण्यात आला आहे. संशोधनासाठी दुय्यम माहितीचा आधार घेतला असून ICMR, NFHS, WHO यांसारख्या प्रतिष्ठित संस्थांच्या अहवालांचा विश्लेषण करण्यात आला आहे. शहरी भागात मधुमेहाचे प्रमाण ग्रामीण भागाच्या तुलनेत दुप्पट (16.4% विरुद्ध 8.9%) असल्याचे दिसून आले. या वाढीमागे शहरीकरण, आहारातील बदल, शारीरिक निष्क्रियता आणि मानसिक ताण या घटकांचे विशेष योगदान आहे. ग्रामीण भागात तुलनेने शारीरिक श्रम जास्त असले तरी आहारातील आधुनिक बदल आणि आरोग्य सुविधांचा अभाव यामुळे मधुमेह वाढत आहे. सरकारच्या विविध योजना (NPCDCS) आणि धोरणांचा आढावा घेतल्यावर असे दिसून आले की आरोग्य शिक्षण, आहार सुधारणा, नियमित तपासण्या व औषधांवरील सवलती या बाबतीत अधिक प्रभावी प्रयत्नांची गरज आहे. या संशोधनातून भारतात मधुमेहाच्या नियंत्रणासाठी व्यापक धोरणांची आवश्यकता अधोरेखित झाली असून, शहरी व ग्रामीण विभागांमध्ये भिन्न गरजांनुसार उपाययोजना राबविण्याची शिफारस करण्यात आली आहे.
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Yadav, Gaurav. "ROLE OF COMMUNICATION TOOLS IN THE PROMOTION OF MUSIC." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 3, no. 1SE (2015): 1–3. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v3.i1se.2015.3475.

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Abstract:
The first half of the twentieth century can be termed as the heyday of the scientific revolution, where some of the instruments were invented under the scientific inventions that accelerated the propagation of music. A scientific invention in the field of music in the early stages of communication means special importance, which revolutionized the world not only in the field of Indian music but it was the advent of radio. It was established in India in 1926 AD. In 1937, the name of the Indian State Broadcasting Service was changed to All India Radio.&#x0D; बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध को वैज्ञानिक क्रांति के अभ्युदय का समय कहा जा सकता है, जहाँ वैज्ञानिक अविष्कारों के अंतर्गत कुछ ऐसे उपकरणों का अविष्कार हुआ जिन्होंने संगीत के प्रचार-प्रसार को तीव्रता प्रदान की। संचार साधनों के प्रारंभिक दौर में संगीत के क्षेत्र में एक वैज्ञानिक अविष्कार का विशेष महत्व है ,जिसने भारतीय संगीत के क्षेत्र में ही नहीं वरन् विश्व में क्रांति ला दी यह था रेडियो का आगमन। भारत में इसकी स्थापना सन् १९२७ ई. में हुई। सन् १९३६ ई. में इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सेवा का नाम बदलकर आकाशवाणी कर दिया गया।
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त्रिपाठी, योगेन्द्र प्रसाद. "आधुनिक भारतीय परिवेश में परम्परा एवं परिवर्तन". Humanities and Development 16, № 1-2 (2021): 52–57. http://dx.doi.org/10.61410/had.v16i1-2.11.

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Abstract:
परिवर्तन की प्रक्रिया से दुनिया का कोई समाज अछूत नहीं रहा है, भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी समय के साथ अनेकानेक परिवर्तन हुए है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में छः दशक के पश्चात् कृषि के साथ उद्योगों में क्रान्ति देखी जा सकती है। आत्मनिर्भता, उत्पादकता, उद्यमशीलता में उत्तरोत्तर वृद्धि देखी जा सकती है। गाँव एव नगर के बीच दूरी कम होना, गाँव से एक बड़े वर्ग का पलायन तथा नगर और गाँव की संस्कृति का एक-दूसरे के साथ प्रसार कहीं न कहीं प्राचीन परम्परा में परिवर्तन को दृष्टिगत करता है। शिक्षा नीति मे परिवर्तन, रोजगार में वृद्धि, स्वास्थ्य की दिशा, बेहतर प्रयास, स्त्री-पुरूष असमानता जैसे विचारों में परिवर्तन कहीं न कही आधुनिक विचारों की देन कही जा सकती है। भारतीय समाज में अभी तक जो भी परिवर्तन हुए है, उनकी गति एवं दिशा में विविधता देखी जा सकती है। जीवन के विभिन्न रूपों में आधुनिकता का प्रभाव देखा जा सकता है, किन्तु आज भी अधिकांश परम्परागत आदर्शों का भी अनुपालन किया जा रहा है जिसकी वर्तमान समाज में कोई प्रासंगिता नहीं दिखाई पड़ती है।
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मन्जू, रानी, та धीरज बाकोलिया डॉ. "वैश्वीकरण और नारी आत्मनिर्भरता: एक विश्लेषण". SIDDHATNA'S INTERNATIONAL JOURNAL OF ADVANCED RESEARCH IN ARTS & HUMANITIES 1, № 5 (2024): 42–47. https://doi.org/10.5281/zenodo.11654621.

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Abstract:
20वीं शताब्दी की एक प्रमुख घटना है - वैश्वीकरण। इसके अंतर्गत आतंकवाद, पर्यावरण, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि विषयों के साथ-साथ नारी विमर्श जैसे ज्वलंत विषय का भी अध्ययन किया जा रहा है। नारी विमर्श सिर्फ एक देश की सीमाओं तक की सीमित नहीं है बल्कि वैश्विक स्तर पर नारी सशक्तिकरण के लिए प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। पाश्चात्य देशों में नारी स्वतंत्रता के लिए अनेक आंदोलन हुए। संचार साधनों, पूंजीवाद तथा बाजारीकरण ने जहां नारी को आत्मनिर्भर तो बनाया परंतु उसके अस्तित्व पर आज भी प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं।&nbsp;संवैधानिक व सामाजिक अधिकार स्त्री को पुरुष के समान ही प्राप्त है परंतु आज भी नारी को अपने जीवन पर अधिकार प्राप्त नहीं है वह अपने जीवन का निर्णय स्वयं नहीं ले सकती है। नारी की स्वतंत्रता आज भी अधूरी ही दिखाई देती है। एक नारी के बिना ना तो घर परिवार चलता है और ना ही सृष्टि का संचालन होता है फिर भी घर परिवार और समाज द्वारा वह हाशिए की तरफ ही धकेली जाती है। सामाजिक जीवन मूल्यों का महत्व स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान होता है परंतु फिर भी पुरुष प्रधान समाज पुरुष को तो स्वतंत्र रखता है और स्त्री को बेडियो में जकड़े रहता है। समाज की परंपरागत मान्यताएं अपने आप नहीं बदलती इन्हें बदलने के लिए आवाज उठानी पड़ती है इनके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है पर आज भी नारी का सबसे बड़ा दुश्मन उसका डर है। अपने इसी डर को खत्म कर अपने विवेक व साहस से ही नारी को समाज के इन परंपरागत बंधनों से छुटकारा मिल पाएगा । वैश्वीकरण से सूचना क्रांति, शिक्षा का प्रचार प्रसार और रोजगार के नए क्षेत्र का सृजन हो रहा है जिनके फलस्वरूप आज नारी स्वयं को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र अनुभव कर रही है। अभी भी उसे अपनी हिम्मत और हौसलों के साथ पुरुष प्रधान समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनानी है तभी वह उन्नति के शिखर को छू सकेगी।&nbsp;
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Dalip, Kumar. "भारत पर अरबों व तुर्को के आक्रमणों के प्रभाव". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 7 (2017): 136–39. https://doi.org/10.5281/zenodo.835525.

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Abstract:
भारत पर शताब्दियों से अनेक विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। विदेशी आक्रमणकारी, शक, हुण, कुषाण, पार्थियन, आदि के रूप में भारत आए । 712 ई. में मोहम्मद-बिन-कासिम ने भारत पर आक्रमण किया । परन्तु प्राचीन काल में आक्रमणकारियों और पूर्व मध्यकालीन आक्रमणकारियों में यह मतभेद था कि प्राचीन काल के आक्रमणकारी भारतीय समाज में समाहित कर लिए गए परन्तु तुर्क आक्रमणकारियों ने अपने प्रभाव को बनाए रखा । तुर्को ने अपने प्रभाव से धर्म ही नहीं बल्कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय परिवर्तनों को जन्म दिया । इस रूप में ये आक्रमण पहले के आक्रमणों से अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए।1 अरब व तुर्क आक्रमणों के प्रभाव:- भारत में अरबों व तुर्को के आक्रमणों के प्रभाव को दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. तत्कालीन प्रभाव 2. दुरगामी प्रभाव 1. तत्कालीन प्रभाव - इन प्रभावों से हमारा अभिप्राय है कि मोहम्मद-बिन-कासिम, गजनवी तथा गौरी के आक्रमणों के उस समय भारत पर क्या प्रभाव पड़े । उदाहरण के लिए इन हमलों में व्यापक जन-धन की हानि हुई, कला और साहित्य को आघात पहुंचा । संक्षेप में अरब व तुर्कों के आक्रमणों के निम्नलिखित तत्कालीन प्रभाव पड़े । (1) इस्लाम का प्रसार - अरबों व तुर्को में नया धार्मिक जोश था और उन्होंने इस्लाम को फैलाने के लिए ही भारत पर आक्रमण किया था । उतरी भारत पर अधिकार करने के बाद उन्होंने इस्लाम का बड़ी तेजी से प्रसार करना शुरू कर दिया था । आक्रमणकारियों ने अनेक लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया उन्होंने मंदिरों एवं मूर्तियों को तोड़कर हिन्दुओं के भ्रम को दूर कर दिया । इसके प्रभाव में आकर भी अनेक हिन्दुओं ने इस्लाम धर्म में दीक्षा ली । इसके अतिरिक्त अनेक लोगों ने अत्यचारों से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम धर्म ग्रहण किया । आक्रमणकारियों के साथ अनेक मौलवी भारत आए। उन्होंने भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार किया । कारण चाहे कुछ भी हो भारत में दिन-प्रतिदिन इस्लाम का प्रसार बढ़ती गया ।2 (2) जन-धन की हानि - गजनवी ने भारत पर 1000 से 1025ई. में अनेक बार आक्रमण किए जिनमें वह सभी में विजयी रहा । महमूद के इन आक्रमणों का उद्देश्य धन प्राप्त करना था। नगरकोट, कन्नौज, मथुरा और सोमनाथ से वह अपार सम्पदा ले जाने में सफल रहा । इस लूट का वर्णन ऊतबी ने भी किया है।3 गौरी के आक्रमणों का सीधा लक्ष्य धन प्राप्त करना नहीं था यद्यपि उसके अभियानों में, कत्लेआम जैसी घटनाएँ देखने में मिलती है । अनेक लोगों को उसने मौत के घाट उतार दिया। अनेक मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया । नालन्दा और विक्रमशीला के मठों को आग लगवा दी । दोनों आक्रमणकारियों में भारत को जन-धन की हानि उठानी पड़ी।4 (3) भारतीयों की कमजोरी का रहस्योद्घाटन - अरबों के द्वारा सिन्ध पर आक्रमण के पश्चात् भारतीयों की आंतरिक कमजोरी की पोल-खुल गई । उस समय देश राजनीतिक दृष्टि से अस्थिर ओर छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था और जो एक-दूसरे से लड़ते रहते थे । इस प्रकार वे एक-एक करके विदेशी आक्रमण का आसानी से शिकार हो सकते थे । सिन्ध पर अरबों के आक्रमण ने भारत की इस कमजोरी का रहस्योद्घाटन किया ।5 (4) भारतीय समाज की दुर्बलता का प्रदर्शन - महमूद के आक्रमणों ने भारतीय समाज की दुर्बलता का पर्दाफाश कर दिया। भारत का राजनीतिक संगठन इतना कमजोर हो चुका था कि यह महमूद के आक्रमणों का सामना करने में अक्षम हुआ। भारतीय समाज की यह कमजोरी कि भगवान उनकी रक्षा करेंगे सोमनाथ के मंदिर में उबरकर सामने आई । सामन्तवादी प्रणाली पर खड़ा समाज भारतीयों को आपस में जोड़ने में असफल रहा । (5) भारतीयों की राजनीतिक दुर्बलता - तुर्क आक्रमणों के समय भारत की राजनीतिक दुर्बलता स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई । महमूद ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए लेकिन एक भी आक्रमण में भारतीयों ने उसका मिलकर सामना नहीं किया । गौरी के आक्रमणों के समय भी भारतीय शासकों में यही क्षेत्रीयवाद की भावना थी परिणामस्वरूप तुर्को ने उनकी इस आपसी फूट का लाभ उठाया और भारत विजयी कर डाला।6 (6) कमजोर युद्ध नीति - तुर्क आक्रमण के समय भारतीयों की कमजोर युद्धनीति का पर्दाफाश हुआ । भारतीय शासक सेना में अधिकांश हाथियों का प्रयोग करते थे जबकि तुर्को के पास अश्व सेना अधिक थी । अश्व हाथियों की तुलना में अधिक तेजी व फुर्ती के साथ मुड़ सकता है । इसके अतिरिक्त भारतीयों का सैन्य संगठन कमजोर था ।7 तुर्को के पास भारतीयों की तुलना में कम सेना थी लेकिन वह नियोजित ढंग से बंटी हुई थी । मुहम्मद गौरी ने तराईन के दूसरे युद्ध में कम सेना होने पर भी युद्ध नीति का ठीक ढंग से संचालन करके व अपनी सेना का नियोजित ढंग से बांट कर विजय प्राप्त की । (7) कला एवं साहित्य को आघात - गजनवी के आक्रमणों में भारतीय मन्दिरों एवं मूर्तियों को तोड़ने की विशेषता उभरकर सामने आई । थानेश्वर, नगरकोट, मथुरा, कन्नौज, सोमनाथ में इमारतों, धर्मस्थलों और मन्दिरों को तोड़ा । ये भव्य कला के नमूने और मर्तियाँ सदा के लिए नष्ट हो गए । महमूद ने केवल मन्दिरों और मूर्तियों को ही नहीं तोड़ा बल्कि वह अनेक उच्चकोटि के कलाकारों और शिल्पकारों को अपने साथ गजनी ले गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया । उसके कृत्यों से भारतीय स्थापत्य कला पर बुरा असर पड़ा ।8 गौरी के आक्रमणों में मन्दिरों पर हमले तो दिखाई नहीं देते परन्तु गौरी के सेनापतियों द्वारा इस प्रकार का नुकसान पहुँचाया गया । उदारहण के लिए बख्तियार खिलजी ने नालन्दा बौद्ध विहार को आग लगवा दी । इस विहार में अनेक अमूल्य पुस्तकें और पाण्डुलिपियाँ जल गई ।9 (8) भारत में तुर्क सता की स्थापना - तुर्क आक्रमणों से भारत में तुर्क सता की स्थापना हुई । यह तुर्क आक्रमण का सबसे व्यापक तत्कालीन प्रभाव था । गौरी ने पंजाब पर अधिकार करके भारत के अन्दरूनी भागों पर भी कब्जा कर लिया । तराईन के दूसरे युद्ध के बाद तो उसने दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, मथुरा और गुजरात पर अधिकार कर लिया । मुहम्मद गौरी के गुलामों ने भारत के अनेक क्षेत्रों को विजित किया । इस प्रकार 1206 ई. में गौरी की मृत्यु के समय भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी ।10 2. दूरगामी प्रभाव - महमूद गजनवी और गौर के सफलतापूर्वक अभियान में भारत में तुर्क शासन की शुरुआत की । इस नए राजनीतिक तत्व के प्रवेश से मूलभूत ढांचे में बदलाव न होने के बावजूद भी तुर्को के आक्रमणों ने भारतीय समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में नए तत्वों को पैदा किया । इन नए तत्वों के दूरगामी प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। (1) भारत में शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता की स्थापना - पूर्व मध्य काल में हर्ष की मृत्यु के बाद केन्द्रीय सत्ता कमजोर हो गई थी । राजपूत शासक सामन्तों पर निर्भर होते थे । तुर्क शासन की स्थापना पर केन्द्र पुनः शक्तिशाली होकर उभरा । अब सुल्तान सत्ता का सर्वेसर्वा बन गया ।11 सुल्तान प्रभुत्व सम्पन्न और स्वतन्त्र राजा था । दिल्ली के सुल्तान की शक्ति पहले के भारतीय राजाओं से भिन्न और अधिक थी । इस प्रकार छोटे-छोटे भारतीय राजाओं के स्थान पर शक्तिशाली सल्तन्त की स्थापना हुई । (2) सामन्ती प्रथा का पतन - तुर्को के आक्रमण के बाद राजपूत कालीन सामन्ती व्यवस्था का पतन हो गया । तुर्क शासकों ने मुख्य राजपूत सरदारों को उनके पद से हटा दिया । सामन्तों को अब किसी क्षेत्र विशेष पर शासन करने का अधिकार नहीं था । सारा अधिकार सुलतान के हाथ में केन्द्रित था । इससे इस काल में राजनीतिक और आर्थिक एकीकरण हुआ । यद्यपि सुलतानों ने राजपूत सरदारों का पूरी तरह उन्मूलन नहीं किया बल्कि उन्हें अपने अधीन कर लिया ।12 कर प्रणाली की शुरुआत इस्लामिक प्रथा के अनुसार हुई । गैर मुसलमानों से जजिया नामक कर लिया जाता था । (3) नई स्थापत्य कला का उदय - तुर्क आक्रमण के प्रभाव से भारतीय स्थापत्य कला में नस तत्वों का समावेश हुआ । तुर्क अपने साथ इस कला के फारसी तत्व लेकर आए । फारसी कला के भारतीय कला में मिल जाने से एक नई कला का उदय हुआ । इस कला की अपनी ही कुछ विशेषताएं थी। ‘अढ़ाई के दिल का झोपड़ा’ नामक मस्जिद का निर्माण इसी कला से हुआ । इस नई स्थापत्य कला में चूना मिश्रित नए मसलों का प्रयोग भवनों के निर्माण में हुआ । इस नई तकनीकी से इमारतों में दृढ़ता आई ।13 (4) जाति प्रथा पर प्रभाव - तुर्को के आगमन से भारतीय समाज व्यवस्था को भी प्रभावित किया । विशेषतौर पर इस्लामी समाज में एकता की भावना की गहरी छाप मौजूद थी। उसमें हिन्दू समाज की भान्ति भेदभाव नहीं था । भारत में सल्तनत की स्थापना हो जाने पर भेदभाव और जातिवाद में कुछ हद तक गिरावट आई । अनेक लोगों ने इस्लाम धर्म अपना लिया । हिन्दुओं ने जाति-प्रथा के नियम ओर कठोर कर दिए । (5) शिक्षा और भाषा का प्रभाव - तुर्को के आगमन से शिक्षा के क्षेत्र में एक नई प्रणाली की शुरुआत हुई जिसे मदरसा प्रणाली कहते हैं । यह शिक्षा प्रणाली भारतीय प्रणाली से भिन्न थी । यह शिक्षा मस्जिदों में दी जाती थी । इस्लाम में शिक्षक विद्यार्थी के घर जाकर भी शिक्षा प्रदान कर सकता था । तुर्को के आगमन से भारत में फारसी भाषा का उदय हुआ। तुर्क शासकों ने अपने राजकार्यों में इस भाषा को प्राथमिकता दी। सैनिकों सन्धियों और विद्वानों ने इस भाषा को भारत के अनेक स्थानों पर पहुँचाया । इस प्रकार देखते ही देखते भारतीय समाज का स्वरूप बदलने लगा ।14
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