Academic literature on the topic 'प्रार्थना समाज'

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Journal articles on the topic "प्रार्थना समाज"

1

चा ैहान, ज. ुवान सि ंह. "प ्रवासी जनजातीय श्रमिका ें की प ्रवास स्थल पर काय र् एव ं दशाआ ें का समाज शास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 8, № 03-04 (2019): 38–44. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20196.

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Abstract:
भारत म ें प ्रवास की प ्रक्रिया काफी लम्ब े समय स े किसी न किसी व्यवसाय या रा ेजगार की प ्राप्ति ह ेत ु गतिशील रही ह ै आ ैर यह प ्रक्रिया आज भी ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाय म ें गतिशील दिखाइ र् द े रही ं ह ै। प ्रवास की इस गतिशीलता का े रा ेकन े क े लिए क ेन्द ्र तथा राज्य सरकार न े मनर ेगा क े तहत ् प ्रधानम ंत्री सड ़क या ेजना, स्वण र् ग ्राम स्वरा ेजगार या ेजना ज ैसी सरकारी या ेजनाआ े ं का े लाग ू किया ह ै, ल ेकिन फिर ग ्रामीण जनजातीय ला ेगा े ं क े आथि र्क विकास म े ं उसका असर नही ं दिखाइ र् द े रहा ह ै। ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाया ें म े ं निवास करन े वाल े अधिका ंश अशिक्षित हा ेन े क े कारण शासकीय या ेजनाआ ें का लाभ नही ं ल े पा रह े ह ै। प ्रवास करन े का प ्रम ुख कारण अपन े म ूल स्थान पर रा ेजगार व आय क े स ंसाधन न हा ेन े व क ृषि आय म ें कमी क े करण द ूसर े स्थान या शहरी क्ष ेत्रा ें की आ ेर रा ेजगार की तलाश म ें प ्रवास कर रह े ह ैं। ग ्रामीण जनजातीय परिवारा ें स े हा ेन े वाल े प ्रवास की प ्रक्रिया का े द ेखत े ह ुए शा ेधाथी र् न े अपन े शा ेध अध्ययन ह ेत ु अलीराजप ुर जिल े का चयन किया ह ै, जिस परिवार स े सदस्य प ्रवासी मजद ूरी जात े रहत े या जा रह े ह ै ं। इस प ्रकार स े ग ्रामीण जनजातीय परिवारा े ं स े प ्रवासी मजद ूरी करन े वाल े 300 जनजातीय परिवारा े ं का चयन सा ैद ्द ेश्यप ूण र् निदश र्न पद्धति द्वारा किया गया ह ै जिसम ें यह पाया गया कि 14.3 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि ठ ेक ेदार क े द्वारा रहन े की व्यवस्था न करन े क े कारण किराय े स े रहन े वाल े पाय े गय े, 53.7 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर रहन े ह ेत ु ठ ेक ेदार द्वारा कच्च े भवन व झा ेपड ़ी की व्यवस्था की जाती ह ै जिसम ें पानी, जलाऊ लकड ़ी स ुविध् ाए ं रहती ह ै तथा 32.0 प ्रतिशत उत्तरदाताआ े ं का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर ठ ेक ेदार द्वारा रहन े की स ुविधाए ं उपलब्ध नही ं कराइ र् जाती ह ै जिसक े कारण उन्ह ें रा ेजी-रा ेटी व दिहाड ़ी मजद ूरी पान े ह ेत ु शहरा ें म ें सड ़क किनार े ता े कही ं सम ुद ्र किनारा ें पर मलिन बस्ती क े रूप म े ं स्वय ं झा ेपडि ़या बनाकर बिना बिजली, पानी, लकड ़ी तथा शा ैचालय आदि ब ुनियादी स ुविधाआ े ं स े व ंचित जीवन-यापन कर रह े ह ै ं। अस ंगठित क्ष ेत्र म ें मजद ूरी काय र् करन े वाल े प ्रवासी श्रमिका ें का े प ्रवास स्थल पर श्रम का ूनन आ ैर प ्रवासी अन्तरा र्ज्यीय अधि् ानियमा ें स े व ंचित रखा जा रहा ह ै।
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2

अर्च, ना परमार. "पर्यावरण संरक्षण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.883529.

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Abstract:
मानव शरीर प ंच तत्वों- प ्रथ्वी, जल, वाय ु, अग्नि आ ैर आकाश स े ही बना ह ै। य े सभी तत्व पर्या वरण के धोतक है। प ्रकृति मे मानव को अन ेक महत्वप ूर्ण प्राकृतिक सम्पदायें भी ह ै। जिसका उपयोग मन ुष्य अपन े द ैनिक जीवन में करता आया है ज ैसे- नदियाँ, पहाड ़, मैदान, सम ुद ्र, प ेड ़-पौधे, वनस्पति इत्यादि। प्रथ्वी पर प्राकृतिक संसाथनों का दोहन करन े से प्राकृतिक संसाथनो के भण्डार तीव्र गति से घटत े जा रह े है, जिससे पर्यावरण में असन्त ुलन बढ ़ रहा है। उसके परिणाम स्वरूप जल की कमी, आ ेजा ेन परत में छेद का पाया जाना, वना ें की अत्यधिक कर्टाइ से वना ें की कमी आना, सम ुद ्रों का जल स्तर बढना, ग्लेशियरों का पिघलना, र ेगिस्ताना ें का बढना आदि हा े रही ह ै, जिसस े जल, वायु, अन्न, प्रकृति सब प्रदूषण का शिकार हो रहे है। आ ैर समूची मानव आदि के साथ पशु-पक्षी, वन्य-प ्रजाती व प ्रकृति भी प ्रभावित हो रह े ह ै। वनो की अत्यधिक कटाई से प्रथ्वी के मौसम में निरन्तर बदलाव आ रहा है। तापमान में व ृद्धि हो रही ह ै। “नासा क े जेम र्सइ न े 1960 से 1987 तक के तापमान के विश्लेषण से भू-मंडल के औसत तापमान मे ं 0.5 डिग्री सेल्सियस से 0.7 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की बात कही है।“(1) वैज्ञानिका े द्वारा बार-बार चेतावनी दी जा रही ह ै एव ं हम आय े दिन भीषण समुद ्री त ूफानो-सुनामी, हायन, उहा ेर, कैटरीना को प ्रत्यक्ष रूप स े द ेख रह े है।आये दिन भूकंपा े का सामना कर रहे है। प्राचीन काल से ही हमार े द ेश में नदियों, पहाड ़ांे, प ेड ़-पौधों यहाँ तक की पशु-पक्षियों को प ूजन े की परम्परा रही है। हमार े पर्व त्यौहारो में भी श्रृंगार एव ं आंन्दोत्सव के रूप मे ं प्रकृति-पूजन पर ंपरा ह ै। इन उत्सवो क े माध्यम स े जान े अनजान े ही हमें प्रकृति से प्रेम पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण जागरूकता के संद ेश दिये जात े रहे ह ै। इन उत्सवों में संगीत यान े गायन/वादन, न ृत्य भी पर ंपरा रही है जिनके द्वारा जन-जन अपना आंनद उल्लास प्रकट करके प ्रकृति के प्रति आभार प ्रकट किया करत े थे।
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3

दिवाकर, सिंह ता ेमर. "कार्बन टेªडिंग एंव कार्बन क्रेडिट जलवायु परिवर्तन समस्या समाधान म ें सहायक". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.803452.

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Abstract:
जलवायु परिवर्त न की समस्या के लिए न तो विकसित द ेष आ ैर न ही विकासषील द ेष जिम्मेदारी लेन े का े त ैयार ह ैं। क्या ेंकि र्कोइ विकास से समझौता नहीं करना चाहता है। इसी कारण यह समस्या ओर द्यातक बनती जा रही ह ै। अभी हाल ही में ग ्रीन हाऊस ग ैसा ें के कारण विष्व के समक्ष समस्याएॅ उभकर सामन े आई हैं। 1) ओजोन परत म ें छिद ्र:- धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की परत हमें सूर्य से निकलन े वाली पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं। परन्त ु हवाई ईधन और र ेफ्रिजर ेषन उद्योग स े उत्सर्जित होन े वाली क्लोरा े फ्लोरो कार्बन गैस से धरती के वातावरण में विद्यमान ओजोन की सुरक्षा छतरी में छिद ्र हा े गए हैं। 2) समुद ्र स्तर में वृद्वि:- वैष्विक तपन के फलस्वरूप हिम पिघल रहे ह ैं जिसके कारण सम ुद ्र के जल स्तर में त ेजी से व ृद्वि हो रही है। 3) भूजल का विषैला होना:- सम ुद ्र का जल स्तर बढ ़न े से तटवर्ती क्षेत्रा ें क े भूजल के खारा होन े का खतरा बढ ़ गया है। 4) ध्रवो ं की बर्फ का पिघलना:- वैष्विक तपन के कारण पृथ्वी के ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। इसस े समुद ्र क े जल स्तर में व ृद्वि हो रही ह ै। 5) वन क्षेत्रो ं का सिक ुड ़ना:- बदलत े मा ैसम आ ैद्या ेगीकरण और शहरीकरण ज ंगलों की कटाई से वन क्षेत्र काफी सीमित होता जा रहा है। 6) लुप्त प्राय जीव:- उपर्यु क्त समस्याआ ें के कारण धरती पर जैवविविधता संकीर्ण होती जा रही है। अंद ेषा है कि वैष्विक तपन के दुष्प्रभाव स े धरती पर विद्यमान पा ैधों की 56 हजार प्रजातियों और जीवों की 37000 नस्लें लुप्त प ्राय हा ेती जा रही ह ैं।
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वन्दना, अग्निहोत्री. "नदिया ें म ें प्रद ूषण और हम". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.883519.

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Abstract:
जल को बचाए रखना सभी की चिन्ता का विषय ह ै, व ैज्ञानिक राजन ेता, ब ुद्धिजीवी, रचनाकार सभी की चिन्ता है, जल कैस े बचे ? द ुनियाँ को अर्थात पृथ्वी को वृक्षों को, जंगलो को, पहाड ़ों को, हवा को, पानी को बचाना है। पानी का े बचाया जाना बह ुत जरूरी ह ै। पृथ्वी बच सकती ह ै, वृक्ष ज ंगल, पहाड ़ और मन ुष्य, पषु, पक्षी सब बच सकत े ह ै, यदि पानी को बचा लिया गया और पानी प ृथ्वी पर है ही कितना? पृथ्वी पर उपलब्ध सार े पानी का 97ण्4ः पानी सम ुद ्र का खारा जल है, जो पीन े लायक नही ह ै, 1ण्8ः जल ध ु्रवा ें पर बर्फ के रूप म ें विद्यमान है और पीन े लायक मीठा पानी क ेवल 0ण्8ः ह ै जो निर ंतर प्रद ूषित हा ेता जा रहा है। ‘जल ही जीवन है’, जल अमृतमय ह ै व ेदों में इसलिए जल की अभ्यर्थना की र्गइ ह ै। जल क े प ्रति कृतज्ञता तो हम व्यक्त कर रहे है, उनकी रक्षार्थ क्या कर रहे है ? सरस्वती तो पहले ही ल ुप्त हो गई थी, गंगा और यमुना भी महानगरा ें क े किनार े प्रद ूषित होती जा रही ह ै उनका मूल अस्तित्व ही खतर े में है, नर्म दा भी धीर े-धीर े प ्रद ूषित हो रही ह ै। कमोवेष सभी नदियाँ सिकुडती जा रही है। कभी लोग नदिया ें के साथ सामंजस्य से रहा करत े थे । जब मन ुष्य असभ्य था, तब नदियाँ स्वस्थ आ ैर स्वच्छ थी। आज जब मन ुष्य सभ्य हो गया ता े नदियाँ मलिन और विषाक्त हो गई है। उन दिनो नदियों में स्व ंय सर्फाइ करन े की क्षमता थी। परन्त ु बढ ़त े हुए प्रद ूषण के कारण नदी अपनी यह क्षमता खोती जा रही है। जल प्रद ूषण के विरूद्ध रण-भेरी बजान े का समय आ गया ह ै। उर्वरकों के अंधाधुध उपयोग से कृषि के लिए हानिकारक कीट तो नष्ट हो ही गए, साथ ही द ूसर े जीव भी समाप्त हो गए।
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प, ूर्णेन्द ु. शर्मा. "पर्यावरण संरक्षण सब का दायित्व". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.883541.

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Abstract:
सृष्टि के प्रारम्भ से वर्त मान युग तक मन ुष्य न े विकास की लम्बी यात्रा तय की है। किन्त ु इस यात्रा में वह जीवन के शाश्वत सत्य को पीछ े छोड ़कर अकेला आगे निकल आया है जिसके परिणाम में पर्यावरण की प्रलयंकारी समस्याओं न े जन्म ले लिया ह ै आ ैर विश्व समुदाय विगत र्कइ दशकों से इनसे जूझता हुआ आग े बढ ़न े का प्रयास कर रहा है। 1972 में इसकी गम्भीरता को द ेखत े हुए स्टाॅकहोम मे ं संयुक्त राष्ट ª सम्म ेलन आयोजित किया गया जिसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी न े पर्यावरण संरक्षण एव ं मानव जाति के कल्याण हेत ु दिय े गये अपन े वक्तव्य म ें कहा कि, ’’मन ुष्य तब तक सभ्य एव ं सच्चा मानव नहीं हो सकता जब तक कि वह सम्पूर्ण मानव सभ्यता एवम् सम्पूर्ण स ृष्टि का े मित्रभाव से न द ेखे। अपन े वक्तव्य में पर्यावरण संरक्षण ह ेत ु व ैदिक परम्परा एवम् भारतीय जीवन पद्धति की श्रेष्ठता को र ेखांकित किया। इसके पश्चात ् 1992 से पृथ्वी सम्मेलनो ं का आयोजन पर्यावरणीय समस्याओं के निवारण ह ेत ु प्रारम्भ किया गया। प्रम ुख पर्यावरणीय समस्याएँ ज ैव विविधता का नष्ट होना, ग्लोबल वार्मि ंग, ग्लेशियर पिघलना, सम ुद ्री सतह का बढ ़ना, तीव्र जलवायु परिवर्त न, ओजा ेन लेयर समस्या, जल, वाय ु, ध्वनि, मृदा, प्रद ूषण,वनों का क्षरण, अम्लीय वर्षा, एव ं अवशिष्ट पदार्थो का प ्रब ंधन मानव स्वास्थ्य आदि हैं। जिनके निवारण हेत ु इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि विकास के लिये पर्या वरण मित्र तकनीकों को अपनाया जाये तथा (सस्ट ेन ेबल ड ेव्हलपम ेंट) सुनिश्चित किया जाये। इसमें विश्व के प्रसिद्ध एवम् विशिष्ट व्यक्ति जन-जागरूकता फैलान े म ें सहयोग द े सकत े ह ैं।
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