Academic literature on the topic 'राजनीतिक प्रतिनिधित्व'

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Journal articles on the topic "राजनीतिक प्रतिनिधित्व"

1

डा, ॅ. अनीता भाना. "भा ेजन क े प्राकृतिक रंगा े का मानव जीवन में महत्व". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.890603.

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Abstract:
रंगा े क े बिना जीवन की कल्पना असंभव ह ै। जीवन को जीवन्त बनाने में रंगा े का अपना योगदान ह ै । नीला आसमान, धूसर धरती, रंग बिरंगे फल-फ ूल, पशु पक्षिया ें व हरे भरे पेडा ें द्वार्रा इ श्वर ने प्रकृति मे जा े रंग संया ेजन किया ह ै इसकी सुंदरता के आगे विज्ञान की प ्रगति व तकनीक की चकाचा ैंध फीकी ही ह ै। भा ेजन हर प्राणी की प्राथमिक आवश्यकता ह ै इसे भी प्रकृति नें लाल पीले नारंगी, नीले जामुनी हरे, काले जैसे विविध रंगा े से नवाजा ह ै आ ैर उसे अधिक सुंदर, ग्राहय तथा मनमोहक बनाया ह ै। पपीते व आम का पीला रंग,तरब ूज, चेरी का लाल रंग, पालक गिलकी का हरा रंग हा े या जामुन का जामुनी रंग ये न क ेवल भोजन को आकर्ष क बल्कि मनुष्य क े तनाव, अवसाद व पीड़ा का े भी शांत कर उसे मानसिक रूप से स्वस्थ बनाते ह ै। भोज्य पदार्थो का रंग उसकी गुणवत्ता तथा विकास की अवस्था का भी परिचायक होता ह ै। गेह ूं का चमकदार गेहूँआ रंग यदि भूरे या स्लेटी म े बदला ह ै तो जरूर उस पर मौसम का कुप्रभाव पडा है। हरा आम कच्चा ह ै पीला आम पका ह ुआ है व भ ूरा रंग उसक े अधिक पके या सड े होने का संक ेत देते ह ै। प्रकृति ने जा े रंग विविध भोज्य पदार्थों का े दिये ह ै उनका पा ैष्टिक व चिकित्सकीय महत्व भी ह ै।
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2

क, े. राजलक्ष्मी. "चित्रकला म े र ंगा ें का सौन्दर्य". International Journal of Research – Granthaalayah Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.890599.

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Abstract:
नीला आकाश, चारा ें तरफ फैली हरियाली रंग-बिरंगे फ ूल एवं सु ंदर-सु ंदर पश ु-पक्षी। ईश्वर की अद्भुत कृति एवं सु ंदर रंग संया ेजन। ऐसा प्रतीत होता ह ै कि मानो भगवान चित्रकार क े रूप में इस संसार रूपी कैनवास पर अपने रंगा ें एव ं रेखाओं क े माध्यम से एक सु ंदर चित्रण कर दिया ह ैं। अगर चित्रण में यदि रंगा ें का समावेश न हा े तो क्या तब भी तब भी यह संसार इतना ही सुंदर दिख ेगा? संभवतः नहीं। मनुष्य अपने नेत्रा ें क े माध्यम से जो कुछ भी देखता उनमें रंगा ें का समावेश होता ही ह ै, अतः यह कहना सर्व था गलत नही ं होगा कि जीवन में रंगा ें का स्थान सर्वोपरि है आ ैर यही रंग हमें अपने सा ैन्दर्य व आकर्ष ण के माध्यम से रसास्वादन या आनंदानुभूति के शीर्ष तक ले जाते ह ैं, क्या ेंकि आनन्द भाव सम्प ूर्ण सृष्टि का सार है आ ैर हृदयगत् भावनाओं की अन्तिम परिणति भी। चित्रकला अर्थात् रंगा ें क े माध्यम से प ्रदर्शित होने वाली कला से ह ै, क्या ंेकि रंग एव ं प ्रकाश ही हमारे दृष्टिज्ञान के सरलतम तत्व ह ैं। चित्रकला में रंग एवं रंगा ें के पारस्परिक संब ंध से सा ैंदर्य की सृष्टि हा ेती ह ैं। रंग दर्श क का े, चाहे वह एक कलाकार हा े या साधारण मानव, बरबस ही अपनी ओर आकर्षि त कर लेता है ।रंग का मानवीय भावनाआ ें एवं विचारा ें से गहरा संबंध ह ैं। हम जैसा सा ेचते ह ै व ैसा ही व्यवहार भी करते ह ै ं। उसी तरह हमारे विचार एवं जैसी हमारी भावनायें होंगी, हमारा आकर्षण भी इसी प ्रकार रंगा ें पर क ेन्द्रीत होगा। यदि कलाकार बहुत प्रसन्न ह ैं तो वह चटख एवं चमकदार रंगा ें का प ्रया ेग करेगा आ ैर यदि वह दुखी हो तो उदासीन, मटमैले व धु ंधले रंगा ें का व्यवहार करेगा। यह भाव मन क े भीतर से आता ह ैं। अतः यह कहा जा सकता है कि रंगा े का मनुष्य के मन पर प्रभाव पड़ता ह ै। हर रंग अपने में एक भाव समाहित किए ह ुए रहता है ं। जैसे - श्व ेत रंग हमारे अ ंदर शांति, पवित्रता, शुद्धता एवं स्वच्छता जैसे विचार उत्पन्न करता ह ैं। उसी तरह लाल रंग उत्तेजना, क्रोध व वीरता जैसे भाव उत्पन्न करता है ं। नीला रंग सुखद अनुभूति देता है ता े हरा रंग हृदय का े शीतलता प्रदान करता है। इसी तरह रसों के लिए भी रंगा ें का निर्देश ह ुआ ह ैं। जैसे - श्र ृंगार क े लिए श्यामवर्ण, हास्य के लिए श्व ेत, करूण रस क े लिए काला, रौद्र रस के लिए लाल, वीर रस के लिए गा ैर वर्ण , भयानक रस के लिए काला एवं वीभत्स रस के लिए नीला, अद्भुत रस के लिए पीला तथा शान्त रस के लिए श्वेत रंग माना गया है ं।
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3

स, ुधा शाक्य. "वर्तमान पर्यावरणीय समस्याएं एव ं सुझाव". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.883040.

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Abstract:
भारत में प ्राचीन काल से ही प्रकृति एव ं पर्यावरण का अट ूट संब ंध रहा है, और धार्मिक ग ्रंथा ें में प्रकृति को जा े स्थान प्राप्त है वह अत ुलनीय है। प्रक ृति की सुरक्षा के लिये हमारी संस्कृति में अन ेक प्रयास किये गये, सामान्य जन को प्रकृति से जोड ़े रखन े के लिये उसकी रक्षा, प ूजन, विधान, संस्कार आदि को धर्म से जोड ़ा गया। गा ै एव ं अन्य जानवरो ं का प ूजन व ंश रक्षा के लिये तथा विभिन्न नदियों, प ेड ़ों, पर्व तों का प ूजन उसकी सुरक्षा और अस्तित्व को बनान े क े लिये अति आवश्यक हा े गया था। पर ंत ु जैसे समय व्यतीत होता गया व्यक्तियों की विचारधारा, सोच, अभिव ृत्ति, आस्था, भावों में परिवर्त न होता गया और व्यक्ति धीर े-धीर े स्वार्थी हा ेता चला गया। प्रकृति को दा ेहन एव ं क्षरण करता चला गया जिसका परिणाम आज हमार े सामन े है। हमारा परिव ेश जिसमे व्यक्ति, प ेड ़-पौधे एव ं जीव-जंत ु निवास करत े हैं, पर्यावरण तो कहलाता ह ै पर ंत ु आज जो स्थिति उसकी है वह बहुत चिंतनीय एव ं व्यथित करन े वाली है। जिस पर्यावरण म ें रहकर व्यक्ति अपना स्वास्थ्य संवर्धन करता था वही आज उसके लिये अभिशाप हो गया है। जिसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। हमन े स्वार्थवश स्वयं का विकास एव ं प्रगति करन े के लिये पर्यावरण क े साथ खिलवाड ़ किया ह ै और उसक े प्रद ूषित किया है। जिसका द ुष्प्रभाव आज व्यक्ति के जीवन में विभिन्न गंभीर बीमारियो, प ्राकृतिक आपदा, जलवायु, परिवर्त न आदि के रुप में परिलक्षित हो रहा है। चाणक्य न े पर्यावरण की महत्व को स्पष्ट करत े हुये कहा है कि किसी भी राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छता पर निर्भर करती ह ै। चरक स ंहिता में भी स्पष्ट उल्लेख है कि स्वास्थ्य जीवन के लिये शुद्ध वाय ु, जल और मिट ्टी आवश्यक कारक ह ैं। पर्या वरणीय असंत ुलन के कारण आज द ेश की गरीबी, ब ेरोजगारी, भुखमरी, गंभीर शारीरिक रोग जैसे एड ्स, कैंसर बगैरह उत्पन्न हो रहे ह ैं। राष्ट ªीय प ्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एम.एस.एस.ओ.) के सर्वेक्षण के अन ुसार वर्ष 2011-12 में द ेश में गरीबी र ेखा के नीचे रहन े वालों की स ंख्या 26 करोड ़ 94 लाख थी इसी प्रकार केन्द ्रीय स्वास्थ्य एव ं परिवार कल्याण मंत्रालय नई दिल्ली (2015) की रिपोर्ट के अन ुसार एच आई बी/एड ्स पीडि ़तों की संख्या महाराष्ट ª में 1 लाख 59 हजार 25 रोगी ह ैं आ ैर यह राज्य द ेश में एड ्स रोगियों की क ुल संख्या के आधार पर प्रथम स्थान पर ह ै। इसके बाद द ूसरा स्थान आंध्रप्रद ेश का है जहां 1 लाख 31 हजार 892 एड ्स रोगी है ं।
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डा, ॅ. अर्चना रानी. "वर्ण-सौन्दर्य द्वारा दर्शक स े संवाद करती भारतीय कला". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.888762.

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Abstract:
कला और सौन्दर्य-ये दा े शब्द कला जगत में एक ज ैसे होते हुए भी बह ुत विस्तृत ह ैं। स्थूल तैार पर हम कला आ ैर सा ैन्दर्य में का ेई अन्तर नहीं कर पाते। सा ैन्दर्य एक मानसिक अवस्था ह ै आ ैर वह देश-काल से मर्या दित है। इस सा ैन्दर्य रूपी व ृक्ष की दो शाखायें ह ैं-एक प्रकृति तथा दूसरी कला। कलागत सौन्दर्य पर दा े दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। पहली दृष्टि यह है जिसमें हम कलाकार को क ेन्द्र में रखकर विचार करते ह ै ं अर्थात् कलाकार की कल्पना में किस प ्रकार कोई कलाकृति आकार ग्रहण करती ह ै आ ैर वह किस रूप में दर्श कों क े सम्मुख प्रकट हा ेती ह ै। दूसरी दृष्टि में दर्श क का े क ेन्द्र में रखा जाता है, अर्थात् कलाकृति को निरख दर्शक क े मन में क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और उसके व्यक्तित्व अथवा सामाजिक जीवन में किस प ्रकार कितनी मात्रा में परिवर्तन करती ह ै। किसी भी कृति के रसास्वादन में वर्ण का विशेष महत्व है। वस्तुतः वर्ण स्पेस में प ्रकाश की श ृंखला है, अर्था त् प्रकाश का गुण ह ै।1 वर्णों द्वारा ही मानव-जीवन लय तथा रसमय होता ह ै। वर्णों का सुन्दर या ेजन ही कृति को मना ेरम रूप प्रदान करता है। भारतीय कला के छः अ ंगा ें में वर्ण भी कला क े महत्वप ूर्ण अंग क े रूप में वर्णि त है। ‘शिल्परत्न’, ‘कादम्बरी’, ‘नाट्यशास्त्र’ तथा ‘विष्णुधर्मोत्तर प ुराण’ आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्णों क े प ्रकार एवं महत्व का सविस्तार वर्ण न ह ै। वर्ण का स्रोत सूर्य ह ै। जिस प्रकार सूर्य सभी ऊर्जाओं का स्रोत ह ै उसी प्रकार वर्ण भी उसक े प्रकाश से ही उत्पन्न होते ह ै ं।2 माघ मास में या वर्षा ऋतु में आकाश में जो इन्द्रधनुष दिखाई देता है, उसमें सात वर्ण होते ह ै ं जा े वर्ण दर्शक को सूर्य क े प्रकाश के कारण ही दिखाई देते ह ै ं।3 अतः वर्ण का उत्पत्ति-स्रोत सूर्य का प ्रकाश ही ह ै। हमें भी अपने दैनिक जीवन में विभिन्न रंगा ें की जो आभा दिर्खाइ देती है, उसका अस्तित्व प ्रकाश द्वारा ही संभव ह ै। एक ब ंद अ ंध ेरे कमरे में रंगा ें का कोई अस्तित्व नहीं होता, क्या ेंकि अंध ेरा अंधा हा ेता है।
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भाग्यश्री, सहस्त्रब ुद्धे. "सिन े संगीत म ें शास्त्रीय राग यमन का प्रय¨ग - एक विचार". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886051.

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Abstract:
हिन्दुस्तानी संगीत राग पर आधारित ह ै। राग की परिभाषा अलग-अलग विद्वान¨ं ने अपनी-अपनी पद्धति से दी ह ै परन्तु सबका आशय ”य¨ऽयं ध्वनिविषेषस्तु स्वर वर्ण विभूषितः रंजक¨जन चित्तानां सः रागः कथित¨ बु ेधैः“ से ही संदर्भित रहा है। अतः यह कहा जा सकता ह ै कि भारतीय संगीत की आत्मा स्वर, वर्ण से युक्त रंजकता प ैदा करने वाली राग रचना में ही बसती ह ै। स्वर¨ं क ¢ बिल्ंिडग बाॅक्स पर राग का ढाँचा खड़ा ह¨ता है। मोटे त©र पर ये माना गया है कि एक सप्तक क¢ मूल 12 स्वर सा रे रे ग ग म म प ध ध नि नि राग क ¢ निर्माण में वही काम करते ह ैं ज¨ किसी बिल्डिंग क ¢ ढाँचे क¨ तैयार करने में नींव का कार्य ह¨ता ह ै। शास्त्रकार¨ं ने राग निर्माण क¢ पूर्व थाट रचना का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। दाक्षिणात्य पद्धति में 72 थाट¨ं की परिकल्पना की गयी। वहीं उत्तरी संगीत पद्धति ने प ं. भातखण्डे क ¢ नेतृत्व में दस थाट¨ ं की अवधारणा स्वीकार की। द¨न¨ं ही पद्धतिय¨ं में स्वर से स्प्तक, सप्तक से थाट एव ं थाट से राग निर्माण की निरंतरता क¨ स्वीकारा गया। इसी आधार पर जिन दस थाट¨ं क¨ उत्तरी पद्धति में मान्यता मिली व े क्रमशः कल्याण (यमन), बिलावल, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी, त¨ड़ी, माने गए। सिनेमा संगीत जा े जनप्रिय ह ै वह भी उक्त राग-रचना क ¢ सिद्धान्त से अलग नहीं रहा। भारतीय संगीत चाह े वह शास्त्रीय ह¨, सुगम ह¨, अथवा सिनेमा स ंगीत ह¨, स्वर रचना क¢ आधार पर गढ़े ह ुए राग¨ं की ही व्याख्या करता ह ै। जैसा कि इस आलेख में मेरा उद्देश्य सिनेमा संगीत में शास्त्रीय राग¨ ं का प्रय¨ग स्पष्ट करना ह ै तथापि असंख्य राग¨ं की गणना अनगिनत सिनेमा संगीत में ज¨ की गयी ह ै यहाँ प्रस्तुत करना असंभव ह ै। अतः थाट क्रम में पहला थाट कल्याण एवं उसका मूल आश्रय राग यमन लेकर कुछ फिल्मी गीत¨ ं का विश्लेषण मैंने इस आलेख में करने का प्रयास किया है।
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डा, ॅ. रेखा श्रीवास्तव. "स् ंाप्र ेषण में र ंगा ें की अठखेलियां". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.888788.

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Abstract:
व्यक्ति की अभिव्यक्ति बचपन से लेकर जवानी फिर अधेड़ अवस्था तक के सफर में, विभिन्न रूप लेती है। इस यात्रा में बह ुत सारे तत्व अपने विकास के दौरान घ ुसप ैठ करते ह ै ं आ ैर यह एक तरह का आभार है। जो सिर्फ मनुष्य के जीवन में ही नहीं घटता बल्कि कलाकार की अभिव्यक्ति में भी लक्षित हा ेता ह ै। जहा ं हर व्यक्ति अपनी विचार धाराओं क े अनुरूप खुद का े खोजता, व्यक्त करता ह ै। खुद क े मापदण्डा ें क े अनुसार अपनी मूल्य दृष्टि विकसित करता ह ै। परन्तु इस अवस्था तक पह ुचने क े लिय े , व्यक्ति का े लगातार अतिष्य का त्याग और हर रूप में मौज ूदा वक्त में जीना हा ेता ह ै। एक चित्रकार क े लिये कैनवास के तात्विक स ंया ेजन पर ख ुद को केन्द्रित करना सबसे जरूरी ह ै, यह रास्ता उसे ले जाएगा, जहा ं बारीकियों से परे वा े पूर्ण ता का स्वत्व निकालकर सफेद क ैनवास पर रख देता है।प का ेई भी कलाकार अपनी कृतिया ें में मूल मानवीय अनुभवों का े जैसे विकास, प्रेम, शत्रुता, व ैषम्य, शान्ति, रात्रि, दिन, सुख, दुख, प ्रसन्नता आदि के अनुभवा ें को, उन्ह ें व्यक्त करने वाली विभिन्न मनोंदशाओं, विविध वातावरणों का सृजन करने क े लिये रंगा ें, रेखाओं विभिन्न रूपाकारा ें का प्रया ेग करता है। जिसकी अनुभूति हमें आ ंख ख ुलते ही होने लगती ह ै। प ्रातःकाल आ ंख ख ुलते ही हम प ्रकृति के सानिध्य म ें आ जाते ह ै ं। सूरज की लालिमा हो या व ृक्षा ें की हरीतिमा, धरा से गगन तक सम्पूर्ण प ्रकृति अनगिनत रंगा ें से परिप ूर्ण है। संसार में ए ेसी का ेई वस्तु नहीं जिसका कोई रंग न हा े। यहा ं तक कि धूप, हवा, आ ैर पानी भी अपने नैसर्गिक रंगा ें से प ूर्ण ह ंै। किसी भी वस्तु का े हम उसके रूप के साथ साथ उसके रंग से ही पहचानते ह ैं। यही रंग मानवीय मन की अभिव्यक्ति का रूचिपूर्ण साधन ह ै। मनुष्य स्वभावतः हर क्षेत्र में रंग खोजा ह ै। उसकी दृष्टि वही ं जाती है जहां रंग होते ह ै ं। रंग सजीवता के प ्रतीक हा ेते ह ंै। निष्प ्राण वस्तुएं भी रंगा ें क े कारण सजीव हो उठती ह ंै। उल्लास, प्रसन्नता, प ्रेम, क्रा ेध, यहा ं तक कि नींद आ ैर सपने भी रंगा ें से प ृथक नहीं हा ेते ।
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प, ्रो. अर्चना भट्ट सक्सेना. "मालवी लोकगीता ें में स ंगीत". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886958.

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Abstract:
भारतीय लोक जीवन सदैव संगीत मय रहा ह ै। भारत वर्ष का का ेई अंचल का ेई जाति ए ेसी नही ं जिसके जीवन पर संगीत का प ्रभाव न पड़ा हो। भारतीय स ंगीत के लिए कहा जाता ह ै कि साहित्य से ब्रह्म का ज्ञान और संगीत से ब ्रह्न की प्राप्ति होती है। भारत में प ुरातन काल से विभिन्न पर्वो एवं अवसरा ें पर गायन, वादन व नृत्य की परंपरा रही है। लोकगीत प ्राचीन संस्कृति एव ं सम्पदा के अमिट वरदान ह ै जिसमें अनेकानेक संस्कृतिया ें की आत्माआ ें का एकीकरण हुआ है। लोक संगीत जन-जीवन की उल्लासमय अभिव्यक्ति ह ै। पद्म श्री ओंकारनाथ क े मतानुसार- ‘‘देवी संगीत क े विकास की प ृष्ठभूमि लोक संगीत ह ै। जिस देष या जाति का सम्व ेदनषील मानव जिस समय अपने हृदय क े भावों का े अभिव्यक्त करने क े लिए उन्मुख हुआ उसी अवसर पर स्वयंभू स्वर, लय, प ्रकृत्या उनके मुख से उद्भ ूत ह ुए आ ैर उन्ही ं स्वर, गीत आ ैर लय को नियम बद्ध कर उनका जो शास्त्रीय विकास किया गया वही देषी संगीत बना।‘‘ लोक गीतों में शब्द एव ं भाव-सा ैन्दर्य की अपेक्षा क ंठ से निसृत स्वर एवं भाव-ध्वनिया ें का विष ेष महत्व है। लोकगीतों की मौखिक परम्परा में जिन गीतों का अस्तित्व अधुनातनकाल पर्यन्त वि़द्यमान ह ै उसका कारण ही ह ै श्रवण रूचिर-स्वर लहरियों का आर्कषण- जिन गीतों की गायन श ैली अधिक सरल एवं मध ुर हा ेती ह ै उनका प ्रभाव जनमानस पर निरन्तर बना रहता है। संव ेदनषील मानव हृदय क े भाव सहजतः मुख स े अभिव्यक्ति होते ह ै। स्वर एव ं लयबद्ध हो जाने क े पष्चात् एक निष्चित ‘‘ध ुन क े साथ‘‘ गेय पद्धति में प ्रकट ये भाव ही गीत बनते ह ै। गीता ें क े मूल में होती हैं- लोक धुनें । ये लोक धुनें ही गीत को कर्ण प्रियता व मध ुरता स े ओतप ्रोत करता ह ै। इन लोक धुनों की संख्या मालवा अंचल में असीमित ह ै। ये लोकधुनें निसर्ग सिद्ध ह ै। इन्ही लोकधुनों में भारतीय संगीत क े अनेक राग छिप े ह ुए ह ै ं। शास्त्रीय संगीत एव ं विभिन्न राग रागिनिया ें का विकास लोक धुनों में व्याप्त स्वरों पर आधारित ह ै। मालवी एवं अत्य प्रा ंता े की लोकधुना ें का े लेकर शास्त्रीय संगीत क े क्रमिक विकास का अध्ययन करने में कुमार गंधर्व ने विष ेष प ्रयास किया ह ै। उनकी खोज के आधार पर यह निष्चित रूप से कहा जा सकता ह ै कि शास्त्रीय संगीत का विकास और सौदंर्य लोकधुनो ं से व्याप्त ह ै। ला ेकधुना ें में शास्त्रीय संगीत का ज्ञान होता ह ै। कुछ नई धुनें ए ेसी भी ह ैं जिनके द्वारा नवीन रागों का निर्माण किया जा सकता है।1
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