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Journal articles on the topic 'वास्तुकला का विकास'

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शिल्पा, मसूरकर. "स ंगीत म ें नवाचार फ्यूज ़न म्यूजिक". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.885869.

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Abstract:
भारत देश कला व संस्कृति का प ्रतीक माना जाता ह ै। भारतीय संगीत हमारे भारत की अमूल्य धरा ेहर क े रूप में अति प ्राचीन काल से ही सर्वोच्च स्थान पर विद्यमान है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही संगीत भी अस्तित्व में आया होगा, ऐसा माना गया ह ै, परंतु देखा जाये तो प ्रकृति क े रोम-रोम में ही संगीत बसता है, नदियों की बहती धारा, कल-कल की ध्वनि, हवा की सन्-सन् ध्वनि, पत्तों से टकराती हवा की ध्वनि व पत्तों पर गिरती बारिश के बूंदों क े टप्-टप् की ध्वनि, पक्षियों की चहचहाट आदि में संगीत को देखा, सुना, समझा व महसूस भी किया जा सकता ह ै। संगीत ही धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष का एकमात्र साधन है। भारत में पिछले र्कइ वर्षों से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थि क रूप से निरंतर परिवर्तन होते आये ह ैं जिसका प्रभाव निश्चित ही कला व संस्कृति पर भी पड़ता आया है। संगीत तो व ैदिक काल से ही मानव सभ्यता का अ ंग रहा है, तो इसमें भी परिवर्तन आना अपरिहार्य ह ै। भारतीय संगीत क े इतिहास क े अनुसार प्रत्येक काल में चाहे बा ैद्ध काल या जैन काल या रामायण व महाभारत काल या पा ैराणिक काल या गुप्त काल या मौर्य काल या राजप ूत काल या मुगल काल हा े, सभी कालों में संगीत की स्थिति व उसमें र्कइ बदलाव दिर्खाइ देते ह ै ं। चूंकि प ्रत्येक काल का राजा अपनी पसंद क े अनुरूप संगीत को मान देता था, इसके अलावा प ्रत्येक काल में संगीत क े ही अनेक ए ेसे विद्वान व संगीतज्ञ ह ुए जिन्होंने संगीत पर र्कइ ग्रंथ लिख े जैसे- भरतकृत नाट्यशास्त्र, शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर, मतंगकृत बृहद्देशी, अहोबलकृत संगीत पारिजात आदि। प ्रत्येक ग्र ंथ में संगीत क े नवीन-नवीन पारिभाषिक शब्दा ें क े साथ संगीत का स्वरूप भी बदलता रहा ह ै। जैसे- सर्व प्रथम जाति गायन था, फिर प ्रब ंध गायन, ध्र ुपद गायन, फिर ख्याल गायन प ्रचलित हुआ। उसी तरह ग्राम राग वर्गीकरण, मेल राग वर्गीकरण, फिर राग-रागिनी पद्धति, रागांग वर्गी करण और अंततः थाट राग वर्गीकरण पद्धति प ्रचार में आई जिसका श्रेय स्व. प ं. वि.ना. भातखण्डे जी को जाता ह ै।
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द्विजेश, उपाध् याय, та मकुेश चन्‍द र. पन डॉ0. "तबला एवंकथक नृत्य क अन् तर्सम्‍ बन् धों का ववकार्स : एक ववश् ल षणात् मक अ्‍ ययन (तबला एवंकथक नृत्य क चननांंक ववे ष र्सन् र्भम म)". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 4 (2017): 339–51. https://doi.org/10.5281/zenodo.573006.

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Abstract:
तबला एवांकथक नृत्य ोनन ताल ्रधाान ैं, इस कारण इनमेंसामांजस्य ्रधततत ैनता ै। ूरवव मेंनृत्य क साथ मृो ां की स ां त ैनतत थत ककन्तुबाो म नृत्य मेंजब ्ृां ािरकता ममत्कािरकता, रांजकता आको ूैलुओांका समाव श ैुआ तन ूखावज की ांभतर, खुलत व जनरोार स ां त इन ूैलुओांस सामांजस्य नै ब।ाा ूा। सस मेंकथक नृत्य क साथ स ां कत क कलए तबला वाद्य का ्रधयन ककया या कजस मृो ां (ूखावज) का ैत ूिरष्कृत एवां कवककसत प ू माना जाता ै। तबला वाद्य की स ां त, नृत्य क ल भ सभत ूैलुओांकन सैत प ू में्रधस्तुत करन मेंस ल साकबत ैु। कथक नृत्य की स ां कत में ूररब बाज, मुख्यत लखन व बनारस ररान का मैत् वूरणव यन ोान रैा ै। कथक नृत्य की स ां कत क कलए तबला वाोक द्वारा नृत्य क वणणों, वणव समरै , रमनाओांआको क अनुप ू ैत वणणों, वणव समैर , रमनाओांका कनमाव ण व मयन ककया या कजसका ूिरणाम यै ैुआ कक समय क साथ-साथ तबला वाोन सामग्रत का कवकास ैनता मला या कथक-नृत्य क वतव मान स् वप ू कन ो खन स यै त्‍ य भत जजा र ैनता ै। कक कथक-नृत्य एवांइसकी नृत्य सामग्रत(रमनाओ)ां क कवकास में तबला वाोन सामग्रत की भत मैत् वूरणव भरकमका रैत ै। इस आाार ूर ोनन ैत एक-ोरसर क ूररक कै जा सकत ैं स ां तत कवद्वान भत इस त्‍ य का समथव न करत ै। कक जैााँएक ओर तबल की रमनाओांका कथक नृत्य कन समृद्ध करन में यन ोान रैा ै।वैत ोरसरत ओर कथक की कवकभन् न ूोारात न भत तबला वाद्य क कवकास में अूनत मैत् वूरणव भरकमका कनभा। ै। त्‍ य क आाार ूर कथक नृत्य एवां तबला क ूुनप द्धार का काल 1700 शताब् ोत का जत् तराद्धव माना जाता ै। अत यै कैा जा सकता ै। कक तबला श।लत एवांकथक नृत्य का कवकास साथ-साथ ैुआ कथक नृत्य क साथ तबला स ां कत क कारण तबला वाोन सामग्रत(रमनाएाँ) एवांकथक नृत्य सामग्रत(रमनाएाँ) का कवकास एवांकवस्तार भत साथ-साथ ैनता मला या ्रधस्तत शना ु ूत्र का जद्द श् य तबला एवां कथक नृत्य की रमनाओांक अन् तसव ्‍ बन् ा क कवकास का अन् व षण ण एवां कवश् ल षण ण करना ै।
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3

राय, अजय क. ुमार. "जनसंख्या दबाव से आदिवासी क्षेत्रों का बदलता पारिस्थितिकी तंत्र एवं प्रभाव (बैतूल-छिन्दवाड़ा पठार के विशेष सन्दर्भ में)". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 31–38. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20214.

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Abstract:
जनजातीय पारिस्थितिकी म े ं वन, क ृषि म े ं स ंलग्नता, आवास, रहन-सहन का स्तर, स्वास्थ्य स ुविधाआ े ं का अध्ययन आवश्यक हा ेता ह ै। सामान्यतः धरातलीय पारिस्थ्तििकी का े वनस्पति आवरण क े स ंदर्भ म ें परिभाषित किया जाता ह ै। अध्ययना ें स े यह स्पष्ट ह ैं कि यदि किसी स्थान पर जनस ंख्या अधिक ह ैं आ ैर यदि उसकी व ृद्धि की गति भी तीव ्र ह ै ं ता े वहा ं पर अवस्थानात्मक स ुविधाआ ंे क े निर्मा ण क े परिणास्वरूप तथा विकासात्मक गतिविधिया ें क े कारण विद्यमान स ंसाधना ें पर दबाव निर ंतर बढ ़ता ही जाता ह ैं, प ्रस्त ुत अध् ययन म े ं शा ेधार्थी आदिवासी एव ं वन बाह ुल्य क्ष ेत्र ब ैत ूल-छि ंदवाड ़ा पठार म ें जनस ंख्या दबाव स े आदिवासी क्ष ेत्रा ें का बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र क े कारणा ें एव ं प ्रभावा ें का े जानन े का प ्रयास किया ह ै। अध्ययन ह ेत ु ब ैत ूल-छिन्दवाड ़ा पठार का चयन किया गया ह ै जा े कि आदिवासी बाह ुल्य व वनीय प ्रधान क्ष ेत्र ह ै। अध्ययन क े प ्रम ुख उद ्द ेश्य ह ै- अध्ययन क्ष ेत्र म ें जनस ंख्या व ृद्वि की प ्रव ृत्ति का आ ॅकलन एव वनीय स ंसाधना ें क े दा ेहन क े परिणामस्वरूप बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र एव ं आदिवासी स ंस्क ृति पर पड ़न े वाल े प ्रभाव का अध्ययन करना । वर्षा क े जल का नियमन, ताप, उष्णता तथा वाष्पा ेत्सर्ज न एव ं हवा क े व ेग आदि का े निय ंत्रित करन े म ें वन्य महत्वप ूर्ण भ ूमिका निभात े ह ै। वना ें क े विनाश स े ए ेसा द ुश्चक्र ्र चलता ह ै कि धीर े-धीर े वनस्पति आच्छादन समाप्त हा ेता जाता ह ै, म ृदा क्षय बढता ह ै आ ैर अन्ततः भा ैतिक पर्या वरण एव ं जलवाय ु म ें परिवर्त न हा ेत े ह ै। इस समग ्र परिप ्रेक्ष्य म ें वना ें की बह ुआयामी भ ूमिका का े द ेखत े ह ुए वन विनाश का े रा ेकन े की दिशा म ें ध्यान दिया जाना चाहिए।
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मिश्रा, आ. ंनद म. ुर्ति, प्रीति मिश्रा та शारदा द ेवा ंगन. "भतरा जनजाति में जन्म संस्कार का मानवशास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 39–43. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20215.

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Abstract:
स ंस्कार शब्द का अर्थ ह ै श ुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर का े त्याग कर द ुसर े शरीर म ें जन्म ल ेता है ता े उसक े प ुर्व जन्म क े प ्रभाव उसक े साथ जात े ह ैं। स ंस्कारा े क े दा े रूप हा ेत े ह ैं - एक आंतरिक रूप आ ैर द ूसरा बाह्य रूप। बाह ्य रूप का नाम रीतिरिवाज ह ै जा े आंतरिक रूप की रक्षा करता है। स ंस्कार का अभिप्राय उन धार्मि क क ृत्या ें स े ह ै जा े किसी व्यक्ति का े अपन े सम ुदाय का प ुर्ण रूप स े योग्य सदस्य बनान े क े उदद ्ेश्य स े उसक े शरीर मन मस्तिष्क का े पवित्र करन े क े लिए किए जात े ह ै। सभी समाज क े अपन े विश ेष रीतिविाज हा ेत े ह ै, जिसक े कारण इनकी अपनी विश ेष पहचान ह ै, कि ंत ु वर्त मान क े आध ुनिक य ुग स े र्कोइ भी समाज अछ ुता नही ं ह ै जिसक े कारण उनके रीतिरिवाजों क े म ुल स्वरूप म ें कही ं न कहीं परिवर्त न अवश्य ह ुआ ह ै। वर्त मान अध् ययन का उदद े्श्य भतरा जनजाति क े जन्म स ंस्कार का व ृहद अध्ययन करना है। वर्त मान अध्ययन क े लिए बस्तर जिल े क े 4 ग ्रामा ें का चयन कर द ैव निर्द शन विधि क े माध्यम स े प ्रतिष्ठित व्यतियों का चयन कर सम ुह चर्चा क े माध्यम से तथ्यों का स ंकलन किया गया ह ै। प ्रस्त ुत अध्ययन स े यह निष्कर्ष निकला कि भतरा जनजाति अपन े संस्कारों क े प ्रति अति स ंवेदनशील ह ै कि ंत ु उनक े रीतिरिवाजा ें म ें आध ुनिकीकरण का प ्रभाव हा ेने लगा ह ै। भतरा जनजाति को चाहिए की आन े वाली पीढ ़ी को अपन े स ंस्कारा ें क े महत्व का े समझान े का प ्रयास कर ें ।
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चा ैहान, ज. ुवान सि ंह. "प ्रवासी जनजातीय श्रमिका ें की प ्रवास स्थल पर काय र् एव ं दशाआ ें का समाज शास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 8, № 03-04 (2019): 38–44. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20196.

Full text
Abstract:
भारत म ें प ्रवास की प ्रक्रिया काफी लम्ब े समय स े किसी न किसी व्यवसाय या रा ेजगार की प ्राप्ति ह ेत ु गतिशील रही ह ै आ ैर यह प ्रक्रिया आज भी ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाय म ें गतिशील दिखाइ र् द े रही ं ह ै। प ्रवास की इस गतिशीलता का े रा ेकन े क े लिए क ेन्द ्र तथा राज्य सरकार न े मनर ेगा क े तहत ् प ्रधानम ंत्री सड ़क या ेजना, स्वण र् ग ्राम स्वरा ेजगार या ेजना ज ैसी सरकारी या ेजनाआ े ं का े लाग ू किया ह ै, ल ेकिन फिर ग ्रामीण जनजातीय ला ेगा े ं क े आथि र्क विकास म े ं उसका असर नही ं दिखाइ र् द े रहा ह ै। ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाया ें म े ं निवास करन े वाल े अधिका ंश अशिक्षित हा ेन े क े कारण शासकीय या ेजनाआ ें का लाभ नही ं ल े पा रह े ह ै। प ्रवास करन े का प ्रम ुख कारण अपन े म ूल स्थान पर रा ेजगार व आय क े स ंसाधन न हा ेन े व क ृषि आय म ें कमी क े करण द ूसर े स्थान या शहरी क्ष ेत्रा ें की आ ेर रा ेजगार की तलाश म ें प ्रवास कर रह े ह ैं। ग ्रामीण जनजातीय परिवारा ें स े हा ेन े वाल े प ्रवास की प ्रक्रिया का े द ेखत े ह ुए शा ेधाथी र् न े अपन े शा ेध अध्ययन ह ेत ु अलीराजप ुर जिल े का चयन किया ह ै, जिस परिवार स े सदस्य प ्रवासी मजद ूरी जात े रहत े या जा रह े ह ै ं। इस प ्रकार स े ग ्रामीण जनजातीय परिवारा े ं स े प ्रवासी मजद ूरी करन े वाल े 300 जनजातीय परिवारा े ं का चयन सा ैद ्द ेश्यप ूण र् निदश र्न पद्धति द्वारा किया गया ह ै जिसम ें यह पाया गया कि 14.3 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि ठ ेक ेदार क े द्वारा रहन े की व्यवस्था न करन े क े कारण किराय े स े रहन े वाल े पाय े गय े, 53.7 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर रहन े ह ेत ु ठ ेक ेदार द्वारा कच्च े भवन व झा ेपड ़ी की व्यवस्था की जाती ह ै जिसम ें पानी, जलाऊ लकड ़ी स ुविध् ाए ं रहती ह ै तथा 32.0 प ्रतिशत उत्तरदाताआ े ं का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर ठ ेक ेदार द्वारा रहन े की स ुविधाए ं उपलब्ध नही ं कराइ र् जाती ह ै जिसक े कारण उन्ह ें रा ेजी-रा ेटी व दिहाड ़ी मजद ूरी पान े ह ेत ु शहरा ें म ें सड ़क किनार े ता े कही ं सम ुद ्र किनारा ें पर मलिन बस्ती क े रूप म े ं स्वय ं झा ेपडि ़या बनाकर बिना बिजली, पानी, लकड ़ी तथा शा ैचालय आदि ब ुनियादी स ुविधाआ े ं स े व ंचित जीवन-यापन कर रह े ह ै ं। अस ंगठित क्ष ेत्र म ें मजद ूरी काय र् करन े वाल े प ्रवासी श्रमिका ें का े प ्रवास स्थल पर श्रम का ूनन आ ैर प ्रवासी अन्तरा र्ज्यीय अधि् ानियमा ें स े व ंचित रखा जा रहा ह ै।
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खापर्ड े, स. ुधा, та च. ेतन राम पट ेल. "कांकेर में रियासत कालीन जनजातीय समाज की परम्परागत लोक शिल्प कला का ऐतिहासिक महत्व". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 53–56. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20218.

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Abstract:
वर्त मान स्वरुप म ें सामाजिक स ंरचना एव ं ला ेक शिल्प कला म ें का ंक ेर रियासत कालीन य ुग म ें जनजातीय समाज की आर्थि क स ंरचना म ें ला ेक शिल्प कला एव ं शिल्प व्यवसाय म ें जनजातीया ें की वास्तविक भ ूमिका का एव ं शिल्प कला का उद ्भव व जन्म स े ज ुड ़ी क ुछ किवद ंतिया ें का े प ्रस्त ुत करन े का छा ेटा सा प ्रयास किया गया ह ै। इस शा ेध पत्र क े माध्यम स े शिल्पकला म ें रियासती जनजातीया ें की प ्रम ुख भ ूमिका व हर शिल्पकला किस प ्रकार इनकी समाजिकता एव ं स ंस्क ृति की परिचायक ह ै एव ं अपन े भावा ें का े बिना कह े सरलता स े कला क े माध्यम स े वर्ण न करना ज ैस े इन अब ुझमाडि ़या ें की विरासतीय कला ह ै। इस शिल्पकला क े माध्यम स े इनकी आर्थि कता का परिचय भी करान े का सहज प ्रयास किया गया ह ै।
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तिवारी, रोली, та चित्रल ेखा वमा. "व्हाट्सएप पर साझा की जाने वाली शैक्षणिक जानकारियो की प्रकृति का अध्ययन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 23–30. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20213.

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Abstract:
प्रस्त ुत अध्ययन म ें ”व्हाट ्सएप पर साझा की जान े वाली श ैक्षणिक जानकारिया े ं की प्रक ृति का अध्ययन छात्राध्यापका ें क े विश ेष स ंदर्भ म ें” किया गया। क ुल 200 छात्राध्यापकों (100 प ुरूष छात्राध्यापक ए ंव 100 महिला छात्राध्यापिकाआ े ं) का चयन सा ेद्द ेश्य न्यादश र् विधि द्वारा किया गया। शा ेध उपकरण क े रूप में आकड ़ें संग ्रहण करने क े लिय े स्मा र्टफोन म ें प्रय ुक्त व्हाट ्सएप म ैस े ंजर क े माध्यम स े स्क्रीनशा ॅट, छवि (इम ेज) प्रक्रिया का े लिया गया। सा ंख्यिकी विश्ल ेषण ह ेत ु प्रतिशत द्वारा परिकल्पनाओ ं की साथ र्कता की जा ंच की गयी। निष्कष र् म े ं यह पाया गया कि छात्राध्यापका े ं द्वारा श ैक्षणिक जानकारिया ँ सवा र्धिक रूप स े छवि (इम ेज) क े माध्यम स े साझा की जाती ह ैं। आकड ़ो ं क े आधार पर विस्त ृत विश्ल ेषण भी किया गया।
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साह ू, प. ्रवीण क. ुमार. "संत कबीर की पर्यावरणीय चेतना". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 57–59. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20219.

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Abstract:
स ंत कबीर भक्तिकालीन निर्ग ुण काव्यधारा अन्तर्ग त ज्ञानमार्गी शाखा क े प ्रवर्त क कवि मान े जात े ह ैं। उनकी वाणिया ें म ें जीवन म ूल्या ें की शाश्वत अभिव्यक्ति एव ं मानवतावाद की प ्रतिष्ठा र्ह ुइ ह ै। कबीर की ‘आ ंखन द ेखी’ स े क ुछ भी अछ ूता नही ं रहा ह ै। अपन े समय की प ्रत्य ेक विस ंगतिया ें पर उनकी स ूक्ष्म निरीक्षणी द ृष्टि अवश्य पड ़ी ह ै। ए ेस े म ें पर्या वरण स ंब ंधी समस्याआ ें की आ ेर उनका ध्यान नही गया हा े, यह स ंभव ही नही ह ै। कबीर क े काव्य म ें प ्रक ृति क े अन ेक उपादान उनकी कथन की प ुष्टि आ ैर उनक े विचारा ें का े प ्रमाणित करत े ह ुए परिलक्षित हा ेत े ह ैं। पर्या वरणीय जागरूकता आ ैर स ुरक्षा की द ृष्टि म ें कबीर का महत्त्वप ूर्ण या ेगदान यह ह ै कि उन्हा ेंन े सम ूची मानव जाति का े प ्रक ृति क े द्वारा किए गय े उपकारा ें क े बदल े म ें क ृतज्ञता व्यक्त करन े की शिक्षा दी ह ै। उनक े काव्य म ें कही ं व ृक्षा ें की पत्तिया ँ आ ैर फ ूल स ंसार की नश्वरता आ ैर मन ुष्य जीवन की क्षणिकता का बा ेध कराती ह ै ता े कही ं जल का आश्रय ग ्रहण कर परमात्मा स ंब ंधी रहस्यवादी भावनाआ ें का े उद ्घाटित करती ह ै। इस प ्रकार कह सकत े ह ैं कि कबीर की वाणिया ें म ें प ्रक ृति क े विविध रूपा ें की अभिव्यक्ति द ृष्टा ंता ें क े रूप म ें र्ह ुइ ह ै। इसी स े स ंत कबीर की पर्या वरणीय जागरूकता स्वतः सिद्ध हा े जाती ह ै।
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डा, ॅ. गीताली स. ेनगुप्ता. "र ंगा े का मना ेवैज्ञानिक प्रभाव". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.889241.

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Abstract:
रंगा ें क े प ्रति मानव का अनुराग आज से नहीं बल्कि सदिया ें से रहा ह ै। रंग प ्रकृति एव ं ईष्वर की सबसे बह ुमूल्य देन ह ै। रंग क े बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प ्रकृति द्वारा रचित अनगिनत वस्तुओं क े विविध रंग प ्र ेरणा क े स्त्रा ेत रह े ह ै ं। इन्ह ें देखकर मनुष्य ने उसे चित्रकलाओं, मूर्तिकलाओं, नाट्य एवं साहित्य में उकेरा है। रंगा ें से हमें निरन्तर ऊर्जा एवं चैतन्य शक्ति प ्राप्त होती है, निष्चित ही रंगविहीन जीवन नीरस, उदासीन एवं एकसार होता है। मनुष्य स्वभाव से सुन्दरता प ्रेमी है। अतः रंगा ें स े उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। पहले प्रकृति से फिर धीरे-धीरे व ैज्ञानिक अनुभवा ें से उसने विभिन्न रंगा ें का सृजन करना सीख लिया ह ै और अपने जीवन को रंगा ें स े सरा ेवार कर लिया। मार्डन सेन्चुरी एनसाइक्लोपीडिया क े टवस 6 के अनुसार- ”रंग प ्रकाश का ही एक गुण ह ै, जिन्हें आँखे देखती ह ै और ये विभिन्न आकार की प ्रकाष लहरों से बनते ह ै ं।“ मना ेवैज्ञानिकों ने रंगा ें का अध्ययन अपने दृष्टिकोण से किया है रंगा ें का मनुष्य के मना ेभावों पर गहरा प्रभाव पड़ता ह ै कुछ गर्म रंग जैसे लाल, पीला व नारंगी जो हमें ख ुषी, हर्ष , उत्साह एव ं चित्त प ्रसन्नता को दर्षा ते ह ै ं एवं ठंडे रंग जैसे नीला, हरा, बै ंगनी ख ुषहाली, शीतलता, शान्ति आ ैर संता ेष क े प ्रतीक व सूचक होते ह ै ं। श्व ेत रंग पवित्रता का धोतक ता े काला रंग अवसाद दुःख व्यथा, उदासी एवं विद्रा ेह की भावना स े जुड़ा होता ह ै। रंगा ें का स ंव ेगा ें पर भी प ्रभाव पड़ता ह ै। स्नायु स ंस्थान से संब ंधित रा ेग अर्थात् मानसिक रा ेगिया ें की चिकित्सा क े लिए भी रंगा ें का प ्रयोग किया जाता ह ै ठंडे रंग ज ैसे नीला व हरा ऐसे व्यक्तिया ें का े शांति प ्रदान करते है ं।
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डा, ॅ. सीमा सक्सेना. "स ंगीत आ ैर समाज". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886828.

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Abstract:
्रकृति का मूल सिद्वान्त ह ै कि मनूष्य न े अपनी नैस ेर्गिक आवष्यकताओं क े लिये समाज क े अवलम्ब को अवधारित किया उसे अपने सुखःदुख की हिस्सेदारी एव ं व्यवहारिक बल व असुरक्षा से बचकर क े लिये समाज की सृष्टि करनी पड़ी अथवा समाज की शरण में जाना पड़ा। बाल्यकाल, युवावस्था, व ृद्वावस्था, अथवा यह कहा जाये कि जीवन क े प ्रत्येक चरण में मनुष्य का े समाज की आवष्यकता नैसर्गिक होती ह ै। समाज यदि जननी है तो व्यक्ति उसका बालक। विकास की प्रारंभिक अवस्था से निरन्तर प ्रगति पथ पर बढ़ते ह ुऐ उसने अपनी आवष्यकताओं क े रूप सृजन करना आरंभ किया आ ैर-यही सृजन कलाओं का उद्गम स्थल बना। उसे यह पता ही नहीं चला कि कब उसकी इसी सृजनात्मकता ने कलाओं का रूप लिया फिर वा े चाह े स्थापत्य कला, हो या संगीत अथवा चित्रकारी उदाहरण क े लिये उसने प ्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये गृह उपव्यकाआ ें को अपना घर बनाया आ ैर धीरे-धीरे समूहों में अपने घरा ें का निर्माण किया और यही निवास-स्थापत्यकला क े उत्कृष्ट नमूने बने। इस तरह समाज का विकास व कलाओं का विकास समानान्तर रूप में प ्रगति पाने लगे आ ैर प ्रत्येक समूह समाज का े अपने भिन्न परिव ेष, संस्कृति व संगीत से प ृथक रूप में पहचाना जाने लगा। यहाँ व्यक्ति का स्वाधिकार कुछ भी नही था जो कुछ था वह समाज था। अपनी भावनाआ ें की समूह रूप में अभिव्यक्ति कलाओं क े सृजन का मूल भ ूत कारण बनी। अपनी प ्रसन्नता, दुख, शोभ आदि भावनाओं का े उन्ह ंे किसी ना किसी रूप में अभिव्यक्त करना मनुष्य की आवष्कता बन र्गइ । विकास क े क्रम में यही समाज धीरे-धीरे ग्राम, नगर, प्रान्त व देश क े रूप में आकृति पाते गये आ ैर विविध-विविध नगर, प ्रान्तों व देशा े की अपनी संस्कृति व संगीत में परिलक्षित हा ेते गये। मानव हद्य की वे आदिम भावनाएॅ आज भी हद्य स्प ंदन करने में उतनी ही क्षमताऐं रखती ह ै जितनी वे अपनी प्रांरभिक काल मे रखती थी।
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डा, ॅ. स्मिता सहस्त्रब ुद्धे. "स ंगीत क े प्रचार प्रसार में स ंचार साधन¨ ं की भूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.884794.

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Abstract:
संगीत जीवन क¢ ताने-बाने का वह धागा है जिसक¢ बिना जीवन सत् अ©र चित् का अंश ह¨कर भी आनंद रहित रहता ह ै तथा नीरस प्रतीत ह¨ेता ह ै। संगीत में ए ेसी दिव्य शक्ति ह ै कि उसक ¢ गीत क ¢ अर्थ अ©र शब्द¨ं क¨ समझे बिना भी प्रत्येक व्यक्ति उसस े गहरा सम्बन्ध महसूस करता ह ै। ”संगीत“ एक चित्ताकर्शक विद्या ज¨ मन क¨ आकर्षि त करती ह ै। गीत क ¢ शब्द न समझ पाने पर भी ध ुन पसंद आने पर ल¨ग उस गीत क¨ गाते ह ैं, क्य¨ ंकि भारतीय संगीत-कला भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अ ंग है एवं भारत क ¢ निवासिय¨ं की जीवनशैली का प्रमाण ह ैं। ”संगीत“ मानव समाज की कलात्मक उपलब्धिय¨ ं अ©र सांस्कृतिक परम्पराअ¨ं का मूर्तमान प्रतीक ह ै। यह आदिकाल से ही जनजीवन क ¢ लिये आत्मिक उल्लास अ©र सुखानुभूतिय¨ ं की ललित अभिव्यक्ति का मध ुरतम माध्यम रहा ह ै। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परिवर्तनशीलता एवं विकास का अनुपम उदाहरण रहा ह ै। परिवर्तन¨ ं में स्वयं क¨ समाहित करने की इस कला में अद्वितीय शक्ति रही ह ै। इस विकास क ¢ क्रम में नवीन प्रय¨ग ह ुए परंतु विकास की धारा कहीं टूटी नहीं है, जैसे फल पकता है अ©र उसका बीज उसी क¢ अन्दर रहता है उसी तरह शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाअ¨ ं क¢ मूल का भी कभी विच्छेद नहीं ह ुआ, परन्तु डार्विन क ¢ सिद्धान्त ”सरवाईवल आॅफ फिटेस“ या य¨ग्यतम् की अतिजीवितता क¢ अनुसार परिवर्तन ह¨ना समय की माँग है। स्वयं क¨ समष्टि में पचा लेने की शक्ति क ¢ आधार पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत नव विन्यास ग्रहण करता गया। भारत क ¢ इतिहास में कलाअ¨ं की दृष्टि से युगांतकारी परिवर्तन ह¨ते रह े है। साहित्य, संगीत चित्रकला जैसी संवेदनशील कलाएं युग की समाप्ति तक अपने अस्तित्व क¨ बनाए रखने क ¢ लिये विभिन्न विधाअ¨ं में बँटती चली गयीं। आज क¢ इस व ैज्ञानिक युग में विज्ञान का प्रभाव जीवन क ¢ प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिग¨चर ह¨ रहा है। आध ुनिकतम व ैज्ञानिक उपकरण¨ं क¢ माध्यम से आज हम अपनी इस पारम्परिक सांगीतिक धर¨हर क¨ सुरक्षित रख पाने में सफल व सक्षम ह¨ सक¢ ह ैं।
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ख ुट, डिश्वर नाथ. "बस्तर का नलवंश एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 47–52. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20217.

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Abstract:
सभ्यता का विकास पाषाण काल स े प ्रार ंभ हा ेता ह ै। इस काल म ें बस्तर म े रहन े वाल े मानव भी पत्थर क े न ुकील े आ ैजार बनाकर नदी नाल े आ ैर ग ुफाआ ें म ें रहत े थ े। इसका प ्रमाण इन्द ्रावती आ ैर नार ंगी नदी के किनार े उपलब्ध उपकरणों स े हा ेता है। व ैदिक युग म ें बस्तर दक्षिणापथ म ें शामिल था। रामायण काल म ें दण्डकारण्य का े उल्ल ेख मिलता ह ै। मा ैर्य व ंश क े महान शासक अशा ेक न े कलि ंग (उड ़ीसा) पर आक्रमण किया था, इस य ुद्ध म ें दण्डकारण्य क े स ैनिका ें न े कलि ंग का साथ दिया था। कलि ंग विजय क े बाद भी दण्डकारण्य का राज्य अशा ेक प ्राप्त नही ं कर सका। वाकाटक शासक रूद ्रस ेन प ्रथम क े समय दण्डकारण्य म ें सम ुद ्रग ुप्त न े आक्रमण किया। उसन े दक्षिणापथ क े 12 राजाआ ें का े परास्त किया था। सम ुद ्रग ुप्त न े 35र्0 इ . म ें दक्षिण का ेसल क े राजा मह ेन्द ्र (जा े वाकाटक का करद साम ंत था) तथा महाका ंतार क े राजा व्याघ ्रराज का े पराजित किया था। बस्तर म ें नलव ंश का साम ्राज्य 29र्0 इ 0 स े 95र्0 इ 0 तक माना जाता ह ै ।
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डा, ॅ. श्रीमती प्रतिभा श्रीवास्तव. "र ंग, स ेहत, सब्जियाँ - एक दृष्टिका ेण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–5. https://doi.org/10.5281/zenodo.890493.

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Abstract:
रंगा ें का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। इनके द्वारा हमें अपने चारों ओर की स्थितिया ें का ज्ञान होता ह ै आ ैर रंगा ें का प्रभाव ज्ञात हा ेता है। रंग मनुष्य की आँख में वर्णक्रम से मिलने पर छाया संब ंधी गतिविधियों से उत्पन्न होते ह ै। मूलरूप से इन्द्रधनुष क े सात रंगा ें का े ही रंगा ें का जनक माना जाता है। ये सात रंग लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला व ब ैंगनी ह ै। मानवीय गुण धर्म में आभासी बोध के अनुसार लाल, नीला व हरा रंग हा ेता है। रंगा ें स े विभिन्न प ्रकार से वस्तु प ्रकाष स्त्रोत एवं श्रेणियां इत्यादि आती ह ै। प ्रकाष स्त्रोता ें के भा ैतिक, गुणधर्म जैसे प्रकाष विलियन, समावेषन, परावर्तन, इत्यादि जुड़े ह ै, जिनसे रंग संया ेजन ज्ञात हा ेते है। रंग क्या ह ै ?-रंगा ें की खोज में विभिन्न व ैज्ञानिकों एवं दार्ष निकों की जिज्ञासा रही ह ै परन्तु इसमें व्यवस्थित अध्ययन में सर्व प ्रथम ‘न्यूटन’ का नाम आता ह ै जिन्हा ेंने सूर्य क े प ्रकाष से रंगा ें की खा ेज की। उन्होंने पि ्रज्म में सफ ेद काँच को देखा आ ैर उन्ह ें रंग दिर्खाइ दिए तब सूर्य का प ्रकाष छा ेटे छेद द्वारा अंध ेरे कमरे में आता था उस प्रकाष को एक प्रिज्म काँच द्वारा रूपवर्तित कर सफ ेद पर्दे पर डालने पर सफ ेद क े स्थान पर सात रंग दिखे ये रंगक्रम लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला तथा ब ैंगनी ह ै। जब न्यूटन न े प ्रकाष मार्ग पर एक और पि ्रज्म पहले वाले पि ्रज्म से उल्टा लगाया तो इन सात रंगा ंे का प ्रकाष मिलकर प ुनः सफ ेद रंग प ्रकाष बन गया। इस प ्रकार की जानकारी प ्राप्त की। रंगा ें क े स्त्रा ेत -रंगा ें का मुख्य स्त्रा ेत ‘सूर्य का प्रकाष’ है। सूर्य क े प ्रकाष से विभिन्न रंगों की उत्पत्ति हा ेती ह ै। इसे हिन्दी भाषा में ‘‘ब ै नी जा ह पी ना ला’’ कहते ह ै। अंग्र ेजी में इसे ष्ट प् ठ ळ ल् व् त्ष् क े रूप में प ्रदर्षि त किया जाता है।
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डा, ॅ. नीरज राव. "स ंगीत क े प्रचार-प्रसार म ें स ंचार साधना ें की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1. https://doi.org/10.5281/zenodo.886994.

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Abstract:
मनुष्य को आदिकाल से ही संगीत मना ेरंजन एव ं आमोद-प्रमोद का साधन रहा ह ै। आदिकाल से ही मानव ने अपने मना ेरंजन क े साधन क े लिये विभिन्न प्रकार क े प ्रया ेग किये जैसे-जैसे मानव अपनी सभ्यता का विकास करता गया व ैसे-व ैसे उसकी समझ आ ैर सूझ-बूझ ने नृत्य, गायन आ ैर वादन की ओर आकर्षि त किया। मानव ने सभ्यता और संस्कृति को समझकर अपने का े प ्रकृति क े साथ तालमेल करते ह ुए संगीत का े सीखा। हमारे पा ैराणिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख ह ै कि माँ पार्वती की गायन मुद्रा को देखकर भगवान षंकर ने क्रमषः पाँच राग हिंडा ेल, दीपक, श्री, मेघ, का ैषिक आदि रागों की रचना की एवं संगीत की उत्पत्ति भगवान षिव क े ताण्डव तथा माता पार्वती के लक्ष्य नृत्य से मानी र्गइ । इस प ्रकार ताण्डव के ‘‘ता’’’, आ ैर लस्य क े ‘‘ल‘‘ इन दा े षब्दों से ताल का निर्मा ण हुआ। भगवान षिव से संगीत विद्या माता सरस्वती, सरस्वती से नारद, नारद से हनुमान एवं अन्य देवताओं आदि को प ्राप्त ह ुआ। धीरे-धीरे इस कला का प्रचार-प ्रसार धरती पर मनुष्य ला ेक में ह ुआ। भारत में आजादी से पूर्व संगीत राजाआ ें, महाराजाओं, नवाबा ें क े यहाँ षाोभायमान था। सम्भ ्रान्त समाज में गायन-वादन अथवा नृत्य की कल्पना करना भी संभव नहीं था। भारत के दो महान संगीत सुधारक एवं प ्रचारक स्वर्गी य पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे एव ं प ं. विष्ण ु दिगम्बर पलुस्कर जी ने संगीत प ्रचार-प्रसार क े लिये अथक परिश्रम एवं प ्रयास किया तथा सम्प ूर्ण भारतवर्ष में संगीत क े प ्रचार एवं प ्रसार में अपना अतुलनीय या ेगदान दिया। पं. विष्ण ु नारायण भातखंडे का े ही यह श्र ेय जाता ह ै कि उन्होंने प ्रथम प ्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू से उच्च षिक्षा जगत में संगीत का षिक्षण कार्य प ्रारंभ कराया और विष्वविद्यालयों क े पाठ्यक्रम रूप में सम्मिलित हा े सका।
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मोनीषा, वीरवानी. "स ेहत का मीत - स ंगीत". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.885867.

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Abstract:
संगीत लोगा ें का े संव ेदना क े स्तर पर एक गहरी समझ देकर उन्ह ें ब ेहतर बनने की दिशा में प्र ेरित करता ह ै आ ैर यही तत्व जब निज से व्यापक हा ेता ह ै ता े दुनिया भी बदल सकती ह ै. ये संगीत ही है जो आदि का े अ ंत से जा ेडकर हमारे हृदय का साहित्य बन जाता ह ै। आत्मा का े स्नेह से भर देता ह ै मन का े गहन अन्धकार से लेकर अनन्त ऊंचाइया ें तक ले जाता ह ै । संगीत क® ईश्वर का दर्जा प्राप्त ह ै, इसीलिए इस विधा में शुध्दता का विश ेष महत्व है। सात ष ुघ्द अ©र पा ंच क®मल स्वर®ं क े माध्यम से मन क® साधने का उपाय ह ै संगीत। अतः कहा जा सकता ह ै कि शरीर तथा मन क® स्वस्थ््ा, प्रफुल्लित रखने क े लिए संगीत आवश््यक ह ै। इससे शरीर, मन, मस्तिष्क स्वस्थ््ा रहता ह ै, एकाग्र रहता ह ै। संगीत से तनाव भी दूर ह®ता ह ै। विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगा ें द्वारा यह सिद्ध हो चुका ह ै कि संगीत साधना व या ेग साधना दोना ें से मनुष्य क े जीवन में शक्ति का विकास होता ह ै और अनेक बीमारिया ें का उपचार किया जा सकता ह ै म्यूजिक थेरेपी यानी संगीत चिकित्सा आजकल अनेक स्वास्थ्य समस्याआ ें से राहत दिलाने में अहम भूमिका निभा रही ह ै। आप अगर ज्यादा तनाव में रहते ह ै ं या अनिद्रा की समस्या से पीडित ह ैं ता े इस चिकित्सा की सहायता ले सकते ह ै ं । हर ध्वनि से विशिष्ट तरंगें प ैदा होती ह ैं। ये ध्वनि तरंगें सीधे हमारे मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इन्हीं तरंगा ें से अस्तित्व में मौज ूद हर चीज प्रभावित हा ेती ह ै। अगर का ेई संगीत सही शब्दों आ ैर उपयुक्त रागों क े साथ तैयार किया जाए तो वह हमारे मस्तिष्क पर उसी तरह काम करेगा जैसे किसी ’कम्प्यूटर’ क े अ ंदर ’साफ्टव ेयर’ काम करता ह ै। चूंकि हमारा पूरा शरीर मस्तिष्क क े नियंत्रण म ें हा ेता ह ै, इसलिए हम मस्तिष्क पर उपचारी संगीत क े माध्यम से अप ेक्षित प्रभाव डालकर सही परिणाम प्राप्त कर सकते ह ैं।
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ज्योति, ढोल े. ""विश्वविद्यालयीन विद्यार्थिया ें म ें पर्या वरण जागरूकता: एक अध्ययन"". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.881961.

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Abstract:
आज हम 21वीं सदी म े प्रव ेष कर च ुके है, जिसम ें विज्ञान आ ैर प्रा ैद्योगिकी एक महत्वप ूर्ण भूमिका निभा रहे ह ै। इस प्रगति न े जहां एक आ ैर ब्रह्माण्ड के अन ेक रहस्या ें को सुलझाया ह ै । वही द ूसरी और मानव का अन ेकान ेक सुख सुविधाए ं प्रदान की है। इन मानवीय प्रगति एव ं विकास म े पर्यावरण तो सद ैव सहायक रहा है, परन्त ु इस विकास की दौड ़ मे हमन े पर्यावरण की उप ेक्षा की आ ैर उसका अनियन्त्रित शोषण किया ह ै। तात्कालिक लाभा ें के लालच मे मानव न े स्वयं अपन े भविष्य को दीर्घ कालीन संकट मे डाल दिया है। परिणामस्वरूप जीवन क े स्त्रोत पर्यावरण का अवनयन होता जा रहा है। इसी परिप ेक्ष्य मे यह परियोजना कार्य प्रस्त ुत है। भारत का सर्वाेच्च न्यायालय यह महसूस करता है कि भारत का हर नागरिक पर्या वरण जानकारी व जवाबदारी को समझ े व पर्या वरण सुधार संब ंधी सुझाव द े । शोध कार्य में द ेव निदर्षन ;ैंउचसपदह डमजीवकद्ध प्रणाली का प्रयोग कर प्रष्नावली भरवाकर प्राथमिक आंकड ़ों का संकलन किया गया तथा विष्वविद्यालय का सर्वेक्षण कर जानकारी प्राप्त की गई। शोध कार्य हेत ु प्राथमिक के साथ-साथ द्वितीयक आंकड ़ों का उपयोग किया गया। कार्य क्षेत्र का चयन हिमाचल प्रद ेष विष्वविद्यालय के पांच विभागों (आर्ट स्, काॅर्मस, र्साइ ं स, कम्प्यूटर व अन्य विभागों) का चयन कर प्रत्य ेक विभाग के 5-5 विद्यार्थियो ं स े प्रष्नावली भरवाई जाकर आंकड ़े प्राप्त किये गये है। पर्यावरण समस्या एव ं समस्या से निदान पान े सम्बन्धि जागरूकता को समझन े के लिए प्रष्नावली त ैयार की गई। समस्या से संब ंधित निष्कर्ष एव ं सुझाव दिए गए है।
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स©म्या, सिंह. "शिक्षण एवं प्रदर्शन में इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ ं की भूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.884809.

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Abstract:
ैदिक अवधारणा क े आधार पर नाद का निर्मा ण सर्वप्रथम ईश्वर की अभिव्यक्ति है। आदिम काल स े ही अ¨ऽमकार क¨ ब्रह्मनाद माना गया। आज का संगीत मनुष्य क े प्रयत्न¨ं स े अपने वर्तमान रूप में परिणित ह ुआ ह ै। परिवर्तन प्रकृति का नियम ह ै अ©र यही परिवर्तन हमारे शास्त्र्ाीय संगीत में भी दिखता ह ै जिसने कहीं सकारात्मक त¨ कहीं नकारात्मक छाप छ¨ड़ी ह ै। इसी क्रम में संगीत शिक्षण एवं प्रदर्श न में इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ं की भूमिका बह ुत अहम रही है ं। स्वतन्त्र्ाता के बाद अब राष्ट्रीय संरक्षण पाकर भारतीय शास्त्र्ाीय संगीत प्रदीप्त ह¨ गया, भारतीय संगीत ने एक नवीन करवट ली, जिसके फलस्वरूप रियासती राजाअ¨ं के संरक्षण में पनप रहा संगीत अब राष्ट्रीय संरक्षण में आ गया। जहाँ आज शास्त्र्ाीय संगीत विद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर एक अहम विषय क े रूप में पढ़ाया एवं सिखाया जा रहा ह ै वही शास्त्र्ाीय संगीत का प्रचार-प्रसार मंच प्रस्तुतिय¨ं के माध्यम से ह¨ रहा ह ै। शिक्षण संस्थान¨ं में संगीत का शिक्षण करने क े लिए आज कई प्रकार के इल्¨क्ट्रॉनिक वाद्य¨ं का प्रय¨ग किया जाने लगा है चाहे व¨ संगीत की क¨ई भी विधा गायन, वादन या नृत्य।
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प, ्रो. अर्चना भट्ट सक्सेना. "मालवी लोकगीता ें में स ंगीत". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886958.

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Abstract:
भारतीय लोक जीवन सदैव संगीत मय रहा ह ै। भारत वर्ष का का ेई अंचल का ेई जाति ए ेसी नही ं जिसके जीवन पर संगीत का प ्रभाव न पड़ा हो। भारतीय स ंगीत के लिए कहा जाता ह ै कि साहित्य से ब्रह्म का ज्ञान और संगीत से ब ्रह्न की प्राप्ति होती है। भारत में प ुरातन काल से विभिन्न पर्वो एवं अवसरा ें पर गायन, वादन व नृत्य की परंपरा रही है। लोकगीत प ्राचीन संस्कृति एव ं सम्पदा के अमिट वरदान ह ै जिसमें अनेकानेक संस्कृतिया ें की आत्माआ ें का एकीकरण हुआ है। लोक संगीत जन-जीवन की उल्लासमय अभिव्यक्ति ह ै। पद्म श्री ओंकारनाथ क े मतानुसार- ‘‘देवी संगीत क े विकास की प ृष्ठभूमि लोक संगीत ह ै। जिस देष या जाति का सम्व ेदनषील मानव जिस समय अपने हृदय क े भावों का े अभिव्यक्त करने क े लिए उन्मुख हुआ उसी अवसर पर स्वयंभू स्वर, लय, प ्रकृत्या उनके मुख से उद्भ ूत ह ुए आ ैर उन्ही ं स्वर, गीत आ ैर लय को नियम बद्ध कर उनका जो शास्त्रीय विकास किया गया वही देषी संगीत बना।‘‘ लोक गीतों में शब्द एव ं भाव-सा ैन्दर्य की अपेक्षा क ंठ से निसृत स्वर एवं भाव-ध्वनिया ें का विष ेष महत्व है। लोकगीतों की मौखिक परम्परा में जिन गीतों का अस्तित्व अधुनातनकाल पर्यन्त वि़द्यमान ह ै उसका कारण ही ह ै श्रवण रूचिर-स्वर लहरियों का आर्कषण- जिन गीतों की गायन श ैली अधिक सरल एवं मध ुर हा ेती ह ै उनका प ्रभाव जनमानस पर निरन्तर बना रहता है। संव ेदनषील मानव हृदय क े भाव सहजतः मुख स े अभिव्यक्ति होते ह ै। स्वर एव ं लयबद्ध हो जाने क े पष्चात् एक निष्चित ‘‘ध ुन क े साथ‘‘ गेय पद्धति में प ्रकट ये भाव ही गीत बनते ह ै। गीता ें क े मूल में होती हैं- लोक धुनें । ये लोक धुनें ही गीत को कर्ण प्रियता व मध ुरता स े ओतप ्रोत करता ह ै। इन लोक धुनों की संख्या मालवा अंचल में असीमित ह ै। ये लोकधुनें निसर्ग सिद्ध ह ै। इन्ही लोकधुनों में भारतीय संगीत क े अनेक राग छिप े ह ुए ह ै ं। शास्त्रीय संगीत एव ं विभिन्न राग रागिनिया ें का विकास लोक धुनों में व्याप्त स्वरों पर आधारित ह ै। मालवी एवं अत्य प्रा ंता े की लोकधुना ें का े लेकर शास्त्रीय संगीत क े क्रमिक विकास का अध्ययन करने में कुमार गंधर्व ने विष ेष प ्रयास किया ह ै। उनकी खोज के आधार पर यह निष्चित रूप से कहा जा सकता ह ै कि शास्त्रीय संगीत का विकास और सौदंर्य लोकधुनो ं से व्याप्त ह ै। ला ेकधुना ें में शास्त्रीय संगीत का ज्ञान होता ह ै। कुछ नई धुनें ए ेसी भी ह ैं जिनके द्वारा नवीन रागों का निर्माण किया जा सकता है।1
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म, ुकेश दीक्षित. "सामाजिक समस्याएं व पर्या वरण: उच्चतम न्यायालय की भूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.882783.

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Abstract:
पर्यावरण से मानव का गहरा संब ंध ह ै। मन ुष्य जब से इस पृथ्वी पर आया, उसन े पर्या वरण को अपन े साथ जोड ़े रखा है। सूर्य, चन्द ्रमा, पृथ्वी, पर्वत, वन, नदियां, महासागर, जल इत्यादि का प्रयोग मन ुष्य मानव विकास के आर ंभ से करता आ रहा है। मन ुष्य अपन े द ैनिक जीवन में लकड ़ी, भोजन, वस्त्र, दवायें इत्यादि प्राप्त करन े हेत ु प्राकृतिक सम्पदा का शुरू से उपयोग किया है और वर्त मान मे निर ंतर जारी है। सामाजिक परिवर्त न क े साथ औद्योगिक विकास एव ं जनसंख्या वृद्धि म ें पर्यावरण को प्रभावित किया है। औद्योगीकरण के कारण व्यक्ति आज अपनी आवश्यकता क े अन ुरूप पर्यावरण को बदलन े के लिये सक्रिय कारक बन गया है। वनो का विनाश वायु एव ं जलीय प्रद ूषण एव ं कृषि उत्पादन हेत ु कीटनाशक दवाओं के बढ ़त े हुए प्रयोग न े वातावरण म ें व्यापक परिवर्तन किये है। अकाल स ूखा अतिवृष्टि भूकम्प एव ं महामारी ज ैसे विभिन्न प्रकार के रोग मानव सभ्यता क े विनाश के कारण बन े हुए हैं। आज औद्योगीकरण के चरम विकास क े साथ पर्यावरण प ्रद ूषित हो रहा ह ै। वसुन्धरा ज्ञात गृहा ें से सबसे सुन्दर है आ ैर मन ुष्य उसकी श्र ेष्ठतम क ृति। इस पृथ्वी पर जीवन लगभग ड ेढ ़ करोड ़ वर्ष पहले से ह ै। जीवन के विकास म ें एक महत्वप ूर्ण पड ़ाव के रूप में मानव जाति का उद ्दभव हुआ। सभी जीवों में ‘‘मानव जीवन’’ श्रेष्ठ है। इसकी बौद्धिक, शारीरिक क्षमता अन्य जीवों की त ुलना मे ं अत्याधिक विकसित है। मुनष्य की आँख प ्राकृतिक पर्यावरण में ही खुली। उसन े अपन े जन्म के साथ ही प ्राकृतिक वातावरण के तत्वा ें (हवा, जल, वनस्पति, मिट ्टी इत्यादि) का उपया ेग अनिवार्य रूप से करना प्रार ंभ कर दिया। इस प्रकार मानव न े प्राक ृतिक पर्यावरण का उपभोग चाह े जान े-अनजान े किया हो या प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लेकिन अपन े जन्म के साथ ही उपभोग प्रारम्भ कर दिया। अतः मन ुष्य का पर्या वरण से अविभाज्य स ंबंध ह ै। पर्या वरण स े मानव का संब ंध आदिकाल से चला आ रहा है। विष्व के सबसे प्राचीनतम ग्र ंथ ‘‘ऋग्व ेद’’में भी प्राकृतिक तत्वा े की आराधना शान्ति के लिए की गई। जिससे मन ुष्य भी शान्तिमय व सुखमय जीवन व्यतीत कर सके।
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अभय, ज. ैन. "जलवायु परिवर्तन आ ैर मध्यप्रदेश". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.881829.

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Abstract:
विकास आ ैर पर्यावरण के बीच स ंत ुलन की बात लम्ब े समय से चली आ रही है, लेकिन विकास चक्र के चलत े कहीं न कहीं पर्या वरण की अनद ेखी होती आ रही है आ ैर ए ेसी स्थितियाँ आज हमार े सामन े चुना ैती एव ं सकंट के रूप म ें है। अन ेक स ंकल्प, वाद े, नीतियाँ आ ैर कार्यक्रम आदि के क्रियान्वयन के बावजूद भी पर्यावरण चुनौतियाँ हमार े सामन े ह ै। मौसम म ें बहुत अधिक उतार-चढ ़ाव हो रहे है, अधिक बरसात या सूखा पड ़ना संया ेग नहीं बल्कि पर्या वरण परिस्थितियों में आ रहे खतरनाक बदलाव के सूचक और परिणाम ह ै। जलवायु परिवर्त न से निपटना न केवल हमार े स्वास्थ्य के लिये बल्कि आन े वाली पीढि ़या ें के स्वास्थ्य को लाभ पहुँचान े के लिये सर्वाधिक महत्वप ूर्ण है। जलवायु परिवर्त न का सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों और समाज क े निचले तबको पर पड ़ता ह ै क्योंकि उनके पास साधन सीमित होत े है। जलवायु परिवर्त न की वजह से कृषि पर काफी नकारात्मक असर पड ़ा है। जिससे प ैदावार में कमी के कारण खाद्यान्न की समस्या उत्पन्न हा े रही है। क ृषि सुविधाओं के विस्तार, अन ुसंधान व विकास पर विचार करना जरूरी ह ै, क्योंकि बढ ़त े वैश्विक तापमान न े मौसमी घटनाआ ें की भयावहता, फसलों का न ुकसान, पानी की कमी एव ं अन्य स ंकटों मंे वृद्धि की है। जलवाय ु परिवर्त न के कारण होन े वाली विनाशलीला के प्रवाह को रोकन े के लिये क्रांतिकारी निर्णय लेन े की आवश्यकता ह ै। पर्यावरण संरक्षण क े लिए कान ून तो उपलब्ध ह ै किन्त ु उनका समुचित पालन और जन चेतना को अधिक सक्रिय करन े की आवश्यकता है ताकि विकास आ ैर पर्यावरण मंे संत ुलन बना रहे।
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प, ्रो. विनीता वर्मा. "वैश्वीकरण के युग में स ंचार साधना ें क े माध्यमा ें स े भारतीय संगीत की बढ़ती लोकप्रियता". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.887002.

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Abstract:
‘‘आ ना े भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।’’ अर्था त् - ‘हे परम प ्रकाशक परमात्मा सद्विचार सभी दिशाओं में आयें। हमारे पूर्वज कितने दूर दृष्टा थ े, यह इस बात का द्योतक ह ै कि, जिस व ैश्वीकरण के महत्व का े शेष विश्व के लोग आज समझ पाये ह ैं, उसे हमारे मनीषिया ें ने बह ुत पहते ही निर्धा रित कर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की अवधारणा का े हमारी संस्कृति का आधार बनाया। वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व में ह ुए तकनीकी विकास एवं संचार क्रान्ति के कारण समस्त विश्व ही एक ग्राम के समान ह ै, क्या ेंकि संचार साधनों ने इसे इतना जोड़ दिया ह ै कि प ूरी दुनिया ही चंद कदमा ें एव ं कुछ घ ंटा ें की दूरी में सिमट र्गइ ह ै और विश्व व्यापीकरण की प ्रक्रिया से पश्चिमीकरण प्रक्रिया में तेर्जी आइ ह ै। इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आज भारतीय संगीत के पटल पर जा े शब्द सर्वाधिक सुर्नाइ दे रहा ह ै, वह है- ‘‘ग्लोबल म्यूजि ़क’’। यह वह संगीत है, जा े व ैश्विक स्तर पर सुना जाता ह ै और जिसका उत्पादन-प्रकाशन और वितरण संगीत से संब ंधित उद्योगा ें स े होता ह ै। ‘ग्ला ेबलाइज ेशन, भूमण्डलीकरण या व ैश्वीकरण का अर्थ है- ‘‘विश्व में चारों ओर अर्थव्यवस्थाओं का बढ़ता ह ुआ एकीकरण।’’ ब्लैक बेल डिक्शनरी आॅफ सोशिया ेलाॅजी के अनुसार- ‘भूमण्डलीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत विभिनन समाजा ें का सामाजिक जीवन, राजनीति और व्यापारिक क्षेत्र से लेकर संगीत, व ेशभ ूषा एव ं जनमिडिया के क्षेत्रा ें तक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त दु्रत गति से प्रभावित हुआ ह ै। व ैश्वीकरण अथवा भूखण्डलीकरण जैसी कल्पनाएँ भारतीय संस्कृति में प ्राचीन काल से ही विद्यमान रही ह ै।
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स, ंध्या जैन. "वैदिक काल म ें पर्यावरणीय संरक्षण क े प ्रति च ेतना पर एक अध्ययन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.883020.

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Abstract:
हिन्द ू धर्म के सबसे प्राचीन ग ्रंथ व ेद आ ैर उपनिषद ् है इनमें जगह जगह प्रक ृति से विरासत में मिली सभी वस्त ुओं का जीवन स े गहरा जुड ़ाव मिलता है आ ैर इन सभी को अत्य ंत पवित्र मानकर लोग इनकी प ूजा अर्चना करत े है। व ेद वैदिक युग की शिक्षा के पाठ ्यक्रम की पाठ ्यपुस्तकें रही है शिक्षार्थी व ेद मंत्रों तथा सूक्तियों को कंठस्थ करत े और जीवन का अंग बनात े। वैदिक काल म ें पर्यावरण शिक्षा, प्रद ूषण के कारणा ें और निवारण के विषय में चिंतन किया जाता रहा ह ै। वैदिक युग के सिद्ध ग्रंथों न े पर्यावरण शिक्षा का े सर्वो परि माना। उनकी सीख आज और अधिक प ्रांसगिक व हितसाधक है।
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डा, ॅ. शोभना जोशी. "''कथक नृत्य म ें नवाचार आ ैर डाॅ. सुचित्रा हरमळकर''". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886804.

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Abstract:
कवि जयश ंकर प्रसाद की प ्रसिद्ध प ंक्तियाँ ह ैं - प ुरातनता का यह निर्मोक, सहन करती न प ्रकृति पल एक। नित्य-नूतनता का आनंद, किय े ह ै ं परिवर्तन में ट ेक।।1 अर्था त् प ्रकृति प ुरातन का वहन पल भर क े लिए भी नहीं करती ह ै। नित्य नवीनता आनंददायी होती ह ै अतः प ्रकृति परिवर्तन की टेक पर, नित्य नवीन रूप धारण करती है। इसीलिए प ्रकृति रमणीय ह ै। प ्रकृति में मिट्टी, जल, हवा, अग्नि है जो हमारे संपर्क में ह ै और अंतरिक्ष जो दृश्यमान ह ै। इन मुख्य तत्वों क े अतिरिक्त प ्रकृति के अ ंग ह ै ं- समस्त, जल, थल, नभचर-जीव, ज ंगल। ज ंगल में व ृक्ष, पा ैधे, लताएँ है ं। प्रकृति के ये सभी अंग व ैविध्य से भरपूर ह ै। पर जल तृषा शान्त करता ह ै, मिट्टी मे ं उर्व रता होती ह ै, हवा प ्राण देती ह ै, वृक्ष छाया, लकड़ी, फल, फूल आ ैषधि देते ह ै ं, मिट्टी संभालते ह ैं; ये मूलभ ूत गुण सभी प ्रकार क े व ृक्षों में न्यूनाधिक हा ेते ह ै आ ैर जल में भी किन्तु परिवर्तन की प्रक्रिया सतत् प ्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रकृति में चलती रहती है। प्राकृतिक उपादनों क े मूलभ ूत गुण अद्यतन एक है ं यह मानों परंपरा ह ै और नित्य परिवर्तन प्रकृति का नवाचार। मनुष्य प ्रकृति का एक हिस्सा है। प ्रकृति की सर्वाधिक कृपा जिस पर है। चिंतन- मनन, सा ेच-विचार की शक्ति क े साथ प ्रकृ ति की तरह कलात्मक सृजन की शक्ति भी उसे प्राप्त ह ै। प ्रकृति की ऐसी संतान मनुष्य कैसे प ुरातन को यथावत् रहने दे सकता है। परिवर्तन की, नवाचार की यह गति विश्व के ग्राम में बदलने स े तीव ्र आ ैर अपरिहार्य र्हुइ ह ै। नव्य चेतना से प ुष्ट आचार ही नवाचार है। नवाचार, नव$आ$चर् स े बना ह ै। नव-नया, आ-प ूर्ण तः, चर्-चलना। तब कला के संदर्भ में नवाचार का संभावित अर्थ ह ै, पूर्ण तः नयी गति, नयी दिशा में।
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Aradhna, Sharma. "र ंगा े क े माध्यम स े या ेग साधना का महत्व". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.892011.

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Abstract:
रंगा ें में नया रूप, नया भाव, स्थापित करने की जो अनुठी लाक्षाणिकता एवं अनुभवों क े मिश्रण से प ्राप्त इस प्रक्रिया को उपया ेग में लाया गया ह ै ं। यह ज्ञार्नाजन का प्रथम पक्ष जो मनुष्य क े जीवन में जन्मजात हा ेता ह ैं। अर्था त भावनाआ ें क े माध्यम से कार्य करने की रीति जिसका विकास, अभ्यास और अनुभव से होता ह ैं। भावो का े इस प ्रकार से उधघाटित किया जाता ह ैं। जा े पथ प ्रदर्ष क की पहचान बन जाती ह ैं। भावों का े अ ंतराल में अ ंकित कर समाया ेजित करने का विनम्र भाव भावात्मक शैली गतिषील होती ह ैं। जो रंगा ें का स्थायित्व स्थापित करने की विकास गति का अनूठा प्रया ेग ह ैं। रंगा ें की प ्रधानता हम सभी रंगा े का े जीवन के आभामण्डल में समायोजन करने के माध्यम से उसमें व्यापक रूप का े प ्रभावित करते हैं। हमारे सुख-दुख उत्तेजना, भय, विराम, उल्लास आदि सभी भावनाओं क े उद्धिपन में रंगा ंे का प ्रभाव देखा जा सकता हैं। रंगा े की भाषा में रंगभावना एव ं विचारांे क े संक्षिप्त रूप होते है ं। रंगा ंे द्वारा उनका प्रया ेग करने की विधि व्यक्तिगत अनुभव आ ैर रूचि से प ्रभावित होती ह ै। जीवन मंे अर्थ सार को व्यक्त करने में रंग क े समय्र्थ का उपयोग अपनी अनुभुती क े माध्यम से किया जाता ह ैं। 1 .....श्वेत प ्रकाष सभी रंगा े का योग ह ै ं। सूर्य क े वर्णषट के रंगा ें का े प ुनः एक कर देने से श्व ेत प ्रकाष बन जाता है। सभी रंग श्व ेत प ्रकाश का अंग हा ेने के कारण श्व ेत की तुलना में कम शक्तिशाली हा ेते है। 2 रंग प ्रदार्थ की सभी रंगतों का े मिलान े से एक अद्भुत छटा दिगदर्शि त होती ह ै प ्रकृति में रंगा ें की जो तीव ्रता होती ह ै। उसे भावा ें क े माध्यम से अवतरित किया जाता ह ै। अन्य प ्रयुक्त तरल पदार्थ क े कारण ही रंगा ें की चमक में अंतर आ जाता ह ै। अ ंतर भावों की भाव ुकता से रंग पदार्थ सतः से प ्रकाश को परिवर्तित करते है। उनमें उपस्थित वायु के कणों क े कारण वे ध ुधले दिखाई देते ह ै। एवं प ्रकाश क े अपर्वतन के कारण उनका प ्रभाव बदल जाता ह ै। रंगा ें को मिलने में अधिक से अधिक शुद्धता का बना रहना आवश्यक है। स्वच्छ रंगा ें का े अ ंतर मन म े समहित करने क े लिए रंगा ें मे ं अतिरिक्त भाव एव ं सामजस्य की भावना का ओत प ्रा ेत हा ेना अत्यंत आवश्यक ह ै। रंगाा ें को चिरकाल से व ैज्ञानिक तरिका े ं से क्रम बद्ध रेखने का प्रायस किया जा रहा ह ै। जिससे रंगा े का सर्वमान एव ं साधारण कम रेग चक्र क े रूप स्थापित ह ुआ ह ै। इसमें अनेक प्रकार की रंगते पदर्षित हा ेती ह ै। तथा इनमें से जब किसी रंग की अधिकता हा ेती है ं तो वह उदियभाव दृष्टि गोचर हा ेता ह ै?
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या, ेगेन्द्र सिंह नरूका फ. ूलैता. "वशेष बालका ें की कला म ें र ंग संया ेजनः- एक अध्ययन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.889271.

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Abstract:
वषेष बालका ें (मानसिक,विकलंाग,मूक-बधिर,अंध) से कला सृजनकार्य करवाना अपने आप में एक चुनौती प ूर्ण कार्य है। उनमें रंगा ें की समझ प ैदा करना, उनक े सार्थ क उपयोग का े समझाना आ ैर फिर उसे सृजनात्मकता की ओर अग्रसर करना श्रम साध्य कार्य है। विषेष बालकों क े रंग संया ेजन का े समझने क े लिए सर्व प्रथम उन्ह े ं रंग, कैनवास आ ैर ब्रष क े साथ कुछ चित्रित करने क े लिए अक ेले छा ेड़ देना चाहिए। क ुछ समय बाद उनके रंग-संया ेजन का े दृष्टिगत करना चाहिए। रंगा ें से विष ेष बालकों की मानसिक भावनाओं आ ैर संवेगा ें का े समझा जा सकता है। पीले व ब ैंगनी रंग का अधिक उपयोग करन े वाले बालकों में प ्रफ ुल्लता और ख ुषी के भाव देखे जा सकते ह ै वहीं लाल रंग का अधिक प्रया ेग करने वाले बालका ें में उग्रता व क्रोध क े लक्षण दिखाई देते ह ै। हरे रंग का प्रयोग करने वाले बालक प ्रसन्नता आ ैर निष्चिंता लिए होते ह ै। इसी तरह नीले रंग का अधिक प्रया ेग करने वाले बालक शान्त व स्थिर प ्रकृति के होते है। मना ेविष्लेषका ें और वैज्ञानिका ें ने अपने अनेक प ्रयोगा ें द्वारा यह सिद्ध किया है कि रंगा ें का विष ेष बालकों पर गहरा प ्रभाव पड़ता ह ै। रंगा ें में वह शक्ति ह ै जो इन्ह ें भावनात्मक व मानसिक रूप स ें मजब ूत बनाती है। खेल-ख ेल में रंगा ें क े प ्रया ेगा े द्वारा विषेष बालका ें क े समीप आया जा सकता ह ै तथा इनसे मित्रता की जा सकती है।
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आशा, सक्सेना स. ुनीता चैहान. "ज ैव विविधता और उसका संस्थितिक एवं असंस्थितिक स ंरक्षण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.838910.

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Abstract:
सामान्य शब्दों में जैव विविधता से तात्पर्य सजीवों (वनस्पति और प्राणी) म ें पाए जान े वाले जातीय भेद से ह ै। व्हेल मछली से लेकर सूक्ष्मदर्षी जीवाणु तक मन ुष्य से लेकर फफंूद तक ज ैव विविधता का विस्तार पाया जाता है। पर्या वरणीय ह्रास क े कारण जैव विविधता का क्षय हुआ है। मानव के अनियंत्रित क्रियाकलापा ें, बिजली, लालच और राजनीतिक कारणांे से जैव विविधता का विनाष बहुत त ेजी स े हो रहा ह ै। लगातार बढ ़ती जनसंख्याा, नगरीय क्ष ेत्रों की वृद्धि बाॅधों, भवनो ं तथा सड ़कांे का निर्मा ण, कृषि के लिए वना ें का कटाव, खदाना ें की खुदाई आदि ए ेसे कुछ उदाहरण है जिनसे प ्राक ृतिक संसाधनों में कमी आई है। जैव विविधता एक ए ेसा संसाधन है जिसे फिर से नहीं बनाया जा सकता ह ै। आज ए ेसा कोई कारगर तरीका नहीं है जिससे लुप्त हुए पौधों और जन्त ुआ ें को फिर से उत्पन्न किया जा सके। जैव विविधता का संरक्षरण मुख्यतः दो प्रकार से किया जा सकता हैः- 1 संस्थानिक संरक्षण ;प्छ ैप्ज्न् ब्व्छैम्त्ट।ज्प्व्छद्ध इसके अन्तर्ग त जाति का संरक्षण उनके मूल आवासा ें पर ही किया जाता है। 2 असंस्थानिक संरक्षण ;म्ग् ैप्ज्न् ब्व्छैम्त्ट।ज्प्व्छद्ध इस प्रकार क े संरक्षण के अन्तर्गत जाति का संरक्षण उनक मूल आवास से द ूर ले जाकर किया जाता है 3 दोनों प्रकार के संरक्षण एक द ूसर े के प ूरक ह ैं । इसके अतिरिक्त एक और संरक्षण विधि का भी प ्रयोग किया जाता है जिसे इन विट ªों ;प्छ टप्ज्त्व् ैज्व्त्।ळम् द्ध संग्रहण कहा जाता ह ै। इसमें पौधो ं का संग्रहण प ्रयोगषाला परिस्थितियों में किया जाता ह ै।
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डा, ॅ. अर्चना रानी. "वर्ण-सौन्दर्य द्वारा दर्शक स े संवाद करती भारतीय कला". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.888762.

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Abstract:
कला और सौन्दर्य-ये दा े शब्द कला जगत में एक ज ैसे होते हुए भी बह ुत विस्तृत ह ैं। स्थूल तैार पर हम कला आ ैर सा ैन्दर्य में का ेई अन्तर नहीं कर पाते। सा ैन्दर्य एक मानसिक अवस्था ह ै आ ैर वह देश-काल से मर्या दित है। इस सा ैन्दर्य रूपी व ृक्ष की दो शाखायें ह ैं-एक प्रकृति तथा दूसरी कला। कलागत सौन्दर्य पर दा े दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। पहली दृष्टि यह है जिसमें हम कलाकार को क ेन्द्र में रखकर विचार करते ह ै ं अर्थात् कलाकार की कल्पना में किस प ्रकार कोई कलाकृति आकार ग्रहण करती ह ै आ ैर वह किस रूप में दर्श कों क े सम्मुख प्रकट हा ेती ह ै। दूसरी दृष्टि में दर्श क का े क ेन्द्र में रखा जाता है, अर्थात् कलाकृति को निरख दर्शक क े मन में क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और उसके व्यक्तित्व अथवा सामाजिक जीवन में किस प ्रकार कितनी मात्रा में परिवर्तन करती ह ै। किसी भी कृति के रसास्वादन में वर्ण का विशेष महत्व है। वस्तुतः वर्ण स्पेस में प ्रकाश की श ृंखला है, अर्था त् प्रकाश का गुण ह ै।1 वर्णों द्वारा ही मानव-जीवन लय तथा रसमय होता ह ै। वर्णों का सुन्दर या ेजन ही कृति को मना ेरम रूप प्रदान करता है। भारतीय कला के छः अ ंगा ें में वर्ण भी कला क े महत्वप ूर्ण अंग क े रूप में वर्णि त है। ‘शिल्परत्न’, ‘कादम्बरी’, ‘नाट्यशास्त्र’ तथा ‘विष्णुधर्मोत्तर प ुराण’ आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्णों क े प ्रकार एवं महत्व का सविस्तार वर्ण न ह ै। वर्ण का स्रोत सूर्य ह ै। जिस प्रकार सूर्य सभी ऊर्जाओं का स्रोत ह ै उसी प्रकार वर्ण भी उसक े प्रकाश से ही उत्पन्न होते ह ै ं।2 माघ मास में या वर्षा ऋतु में आकाश में जो इन्द्रधनुष दिखाई देता है, उसमें सात वर्ण होते ह ै ं जा े वर्ण दर्शक को सूर्य क े प्रकाश के कारण ही दिखाई देते ह ै ं।3 अतः वर्ण का उत्पत्ति-स्रोत सूर्य का प ्रकाश ही ह ै। हमें भी अपने दैनिक जीवन में विभिन्न रंगा ें की जो आभा दिर्खाइ देती है, उसका अस्तित्व प ्रकाश द्वारा ही संभव ह ै। एक ब ंद अ ंध ेरे कमरे में रंगा ें का कोई अस्तित्व नहीं होता, क्या ेंकि अंध ेरा अंधा हा ेता है।
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डा, ॅ. वसंुधरा पवार. "स ंगीत म ें नवाचार का इतिहास". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886069.

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Abstract:
भारतीय संगीत का इतिहास उतना ही प्राचीन आ ैर अनादि ह ैं, जितनी मानव जाति। इसका सभारंच व ैदिक माना जाता ह ै। जितनी प्राचीन हमारे देश की सभ्यता आ ैर संस्कृति है उतना ही विस्तृत एव ं विषाल यहाँ के संगीत का अतीत ह ै। भारतीय संगीत का उद्भव सामदेव की ऋचाओं से ह ुआ है तथा इसका शैषव काल ऋषि मुनियों की तपोभूमि तथा यज्ञवेदिया ें क े पावन घ्र ुम क े सान्निध्य में सुवासित हा ेकर व्यतीत ह ुआ। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने नाद का े ईश्वर के समान कहा गया ह ै, तथा नाद ब्रह्य की सदैव उपासना की ह ै। “ न नादेन बिना गीतं न नादेन बिना स्वरः। न नृŸां तस्मान्नादात्मकं जगत्।। ” न ता े नाद के बिना गीत है, न नाद क े बिना स्वर है, न नाद के बिना नृत्य है, यह समस्त जगत् ही नादात्मक ह ै। नादजनित आनंद का कोई अ ंत नही ह ै। सृष्टि का आधारभूत तत्व नाद ह ै। जो कि ‘ऊँ‘ कार वाचक है। ‘संगीत दर्पण‘ के रचयिता ‘दामोदर प ंडित‘ ने नाद की व्याख्या करते हुए लिखा ह ै- “ नादेन व्यंज्यते वर्ण ः पदं वर्णा त् पदाद्य। व्चसा े व्यवहारोडचं नादाधीनमतों जगत्।। ” नाद क े या ेग से वर्णा े की उत्पत्ति हा ेती ह ै, आ ैर वर्ण से शब्दों की सिध्दी होती ह ै शब्दों से भाषा की उत्पत्ति, आ ैर शषा क े होने से ही सब व्यवहार चलते ह ै। यद्यपि भारतीय संगीत क े उद्गम क े विषय में विभिन्न दृष्टि कोण ह ै। अधि संख्य विद्वान किसी न किसी रूप में धार्मिक मान्यताओं से संगीत को जा ेड़ने का प्रयत्न करते ह ै। भगवती सरस्वती को विद्या और कला की देवी कहा गया। सरस्वती के हाथों मे वीणा का होना संगीत का प्रतीक है। इसी प्रकार कृष्ण की ब ंशी, भगवान विष्णु का शंख तथा भगवान शंकर का डमरू संगीत क े प्रतीक ह ै।कहा जाता ह ै कि डमरू से सभी स्वरा ें तथा वाद्य के बोला ें की सृष्टि हुई ह ै। भारतीय संगीत सर्व दा से धर्मा नुक ूल रहा ह ै। हिंदु सदैव साधना क े माध्यम र्स े इ श्वर प्राप्ति का प्रयास करते रह े ह ै ं। साधना मार्ग का प्रथम माध्यम संगीत ही ह ै । संगीत की महानता का हमारे धर्म ग्रंथा ें में विशिष्ट रूप से उल्लेंख किया गया ह ै।
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उषा, महोबिया. "मुगल चित्रकला म ें र ंग स ंया ेजन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1. https://doi.org/10.5281/zenodo.891884.

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Abstract:
प ्राचीन समय से ही भारतीय चित्रकला का इतिहास बह ुत समृद्ध विषाल एवं विस्तृत रहा है। मुस्लिम आक्र्रमण से प ूर्व जैन, बौद्ध एवं हिन्दुओ ने चित्रकला के क्षंेत्र में अपना योग दान दिया। अज ंता चित्रकला विष्व में प ्रसिद्ध ह ै, आ ैर इन चित्रो का निर्माण गुप्त काल मे ह ुआ जिन पर प्राकृतिक रूप से बने रंगा े का प ्रयोग किया गया ह ै। मध्यकाल मे चित्रकला मै महात्वप ूर्ण परिवर्तन आये, सल्तनत काल की चित्रकला र्मै इ रानी प ्रभाव देखने को मिलता ह ै। दरबारी चित्र, वीणा, सितार, वेषभूषा, आभ ूषण आदि के चित्रा े में सजीव रंगा े का प ्रया ेग किया गया । जिनसे चित्र सजीव, जीव ंत प्रतीत होते है । आ ैर इन चित्रो में नीले, हरे, आ ैर सुनहरे रंगा े का प ्रया ेग ब ंेहद खूबसूरती स े किया गया ह ै। चित्रकला की ईरानी श ैली में हिन्दू श ैली को प ्रभावित किया, जिसक े परिणाम स्वरूप मुगल श ैली का जन्म ह ुआ । मुगलो क े समय चित्रकला के क्षेत्र मे वास्तिविक विकास आरम्भ होता ह ै। जहाॅगीर के समय तक यह कला अपने चरमा ेत्कर्ष पर पह ुंच चुकी थी । बाबर को चित्रकला से विषेष प्रेम था, इस कला को उसने संरक्षण दिया, उसके दरबार का प्रसिद्ध चित्रकार ’’बहजाद’’ था। इस समय प ेड पौधे, उद्यान बगीचे, दरबार, आखेट क े चित्रा े में प ्राकृतिक रूप बनाये गये हरे काल, नीले सुनहरे, रंगा े का प्रयोग सुन्दर ढंग स े किया गया ह ै। ह ुमायू ने अपने दरबार मै चित्रकारो का े संरक्षण दिया । चित्रा े में बारीक रेखाए, वस्त्रो पर सुनहरे रंग का प ्रया ेग आ ैर अन्य चमकदार रंगा े का प ्रया ेग किया गया रंगा े क े मिश्रण की कला मुख्य रूप से अपनाई र्गइ । जिससे चित्रो में अकथनीय सुन्दरता आ गई आ ैर तथा निर्जीव चित्रा े में भी ऐसा प ्रतीत होता ह ै, मानो उनमें आत्मा हो जीवन हो । अकबर अपने समय का महान शासक हुआ, उसक े दरबार में सत्रह प ्रमुख चित्रकार थे। इस समय फारसी आ ैर हिन्दूष ैली दोना े का अदभूत मिश्रण देखने का े मिलता ह ै, दरबार में बादषाहा े की शान - शा ैकत का चित्रण आकर्ष क और कलापूर्ण बनाने क े लिए उन्हे सुनहरे रंगा े से सजाया गया, शाही हरम के दृष्य मुख्यतः श्र ृंगार करती स्त्रिया ंए वे आख ेट के चित्रा े में नीले गहरे समुन्द्री आ ैर सुनहरी रंगा े का विषेष रूप से प ्रयोग ह ुआ। नीम,आम, क ेला आ ैर बरगद क े व ृक्षो क े भी संजीव रंग क े चित्रा े की भी अधिकता है।
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डा, ॅ. साधना चैहान. "प्रकृति एव ं र ंग ;पर्यावरण के स ंदर्भ मेंद्ध". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.889233.

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Abstract:
मानव जीवन आ ैर प्रकृति का संबध पृथ्वी की रचना के साथ अटूट रहा ह ै, मानव ने प ्रकृति से प ्राप्त सभी चीजा ें का उपभोग अपने जीवनयापन आ ैर मना ेरंजन के लिये किया ह ै, एक ओर उसे प ्रकृति से भोजन, आवास आ ैर वस्त्र प ्राप्त होता है ता े दूसरी ओर प ्रकृति के दृश्या ें को देखकर और कलाकारों क े द्वारा चित्रित कर शान्ति की अदभूत अनुभूति होती ह ै। सर्व प ्रथम कलाकारों द्वारा जो चित्र चित्रित किये गय े उनमें प ्रकृति चित्रण नदी, पेड़, पा ैधे, पर्व त आ ैर पश ु पक्षी सभी चित्रित किये गये तथा इन्हें चित्रित करने में सहायक सामग्री रंग, तुलिका वह भी प्रकृति से प ्राप्त होती ह ै। सर्व प ्रथम कलाकारों ने प ्रकृति से प ्राप्त रंगा ें का उपया ेग अपनी कलाकृति में किया। आदिवासी ला ेक कला में माण्डना, फड़, अल्पना, मधुबनी आदि में प ्राकृतिक रंगा ें का उपया ेग किया गया ह ै। ये रंग कभी कभी पत्थरों , फ ूला ें तथा पत्त्यिों से बनाए जाते ह ै। प ्रकृतिमें जिन रूपों की ओर हम आकर्षि त हा ेते ह ै तथा जो हमें आनन्द प ्रदान करते ह ै, उनकी प्रतिकृति मात्र कला नहीं ह ै उन रूपों का आधार लेकर उनसे प ्रभावित होकर तथा उनका रूपा ंतरण करके कलाक ृतियों का निर्मा ण हा ेता रहा ह ै।‘प ्रकृति में अनेक ए ेसी आकृतिया ंे का े देखकर हम आनन्दित होते ह ै जिनका कोई अर्थ नहीं होता ह ै। क ेवल उनकी चाक्षुष आकृति अपनी छाप छोड़ती ह ै। किन्तु चित्र में किसी रूप में सादृश्य की तथा अर्थ की इच्छा बनी रहती ह ै। झरने, नदी, समुद्र में मोटे तने क े काठ में रेखाआ ें की आवृत्ति आकर्षि त करती ह ै।‘ 1 ‘मानव जीवन की भंाति रंग प ्रकृति क े उदय का इतिहास भी बड़ा रहस्यमय विराट आ ैर अज्ञात है। मनुष्य ने जिस समय प ्रकृति की गोद मे ं अपनी आंख ें खोली उस समय से ही उसने अपने जीवन का े सुखी व समृद्ध बनाने की कोशिश की आ ैर इसको फलीभूत करने ह ेतु उसने ए ेसी क ृतियों का सृजन किया जो उसके जीवन को सुखद आ ैर सुचारू बना सके।‘
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डा0, इन्दु शमा, та अंजुली बिसारिया डा0. "र ंगा ें का मनौवैज्ञानिक प्रभाव एवं र ंग चिकित्सा". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.889225.

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Abstract:
सोशिएट प ्रोफेसर चित्रकला विभ्सृष्टि की प ्रत्येक वस्तु में रंग ह ै। मानव जीवन से रंग का नैसर्गिक सम्बन्ध है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव जीवन रंगा ें क े मध्य ही दृष्टिगोचर हा ेता ह ै। प्रकृति की प ्रत्येक रचना चाहे वह सूर्य हो धरणी हो, आकाश हा े या व ृक्ष हो का ेई न कोई रंग लिय े ह ुये ह ैं। वस्तुआ ें क े धरातल में रंग हा ेने के कारण ही वह हमें दिर्खाइ देती है। रंग क े अनुभव का माध्यम प ्रकाश ह ै, जो वस्तु से प ्रतिबिम्बित हा ेकर हमारे अक्षपटल तक पह ुॅंचता ह ै। अतः प ्रकाश क े परिवर्तित हा ेने से अथवा प ्रकाश की मात्रा कम या अधिक होने से एक ही रंग की वस्तुएॅं अलग-अलग दिर्खाइ पड़ती ह ैं। तेज प्रकाश में जैसी रंगते दिखाई पड़ती हैं धुंधले प ्रकाश में व ैसी नहीं दिखाई पड़ती। लाल रंग क े प ्रकाश में सफ ेद वस्तुएॅं भी लाल दिखती हैं तथा हरा रंग काला दिखता ह ै। अर्थात् विभिन्न स्थाना ें पर प ्रकाश की मात्रा तथा वातावरण की भिन्नता क े कारण रंग व्यस्था मे ं परिवर्तन नह ा ेने पर भी रंग परिवर्तन दिर्खाइ पड़ता ह ै।रंगा ें का अनुभव या वर्ण बोध हमारे दृश्यात्मक अनुभव का महत्वपूर्ण पक्ष ह ै। प ्रकाश किरणों क े द्वारा ही हम वस्तु क े रंग का े देखते ह ै ं। जा े प ्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता ह ै वह कुछ तो उसमें समा जाता ह ै आ ैर कुछ प ्रतिबिम्बित होकर हमारे अक्षपटल पर पहुॅंचता है। अक्षपटल के पाश्र्व में रोड्स आ ैर काॅन्स नामक सूक्ष्म तन्तु ग्रन्थियाॅं होती ह ैं जिनके द्वारा वस्तु से प ्रतिबिम्बित तरंगा ें द्वारा वस्तु का वर्ण अनुभव हा ेता ह ै। काले व सफेद रंग की अनुभूति रोड्स द्वारा आ ैर पीला, नीला, लाल हरा आदि रंगा ें की अनुभूति काॅन्स द्वारा होती ह ै। लाल व हरा रंग काॅन्स के एक सेट द्वारा तथा पीला, नीला दूसरे सेट द्वारा दिर्खाइ पड़ता ह ै। इसीलिये हरा व लाल एक साथ देखने या पीला नीला एक साथ देखने स े आंखें शीघ्र नहीं थकती। रंगा ें का अनुभव करने में तरंग गति का अपना महत्व है। प ्रकाशीय तरंगा ें की विभिन्न लम्बाईया ें क े कारण विभिन्न रंग दिखाई पड़ते ह ै ं। जिस रंग की जितनी तरंग गति हा ेगी व उतनी ही शीघ ्रता से चलता ह ुआ दिर्खाइ देता ह ै आ ैर उतना ही अधिक नेत्रों का े आकर्षि त करता है। तरंगा ें की लम्बाई के कारण ही उसमें ऊष्मता या प ्रखरता होती ह ै। अधिक तरंग गति वाले रंग स ूर्य व अग्नि क े समीप होते ह ैं तथा इन्ह ें अधिक देर तक देखने से नेत्रा ें को कठिर्नाइ हा ेती ह ै। ऐसे रंग ऊष्ण रंगा ें की श्र ेणी में आते ह ैं जैसे लाल, पीला, नारंगी आदि। उसक े विपरीत जिन रंगा ें का सम्बन्ध प ्रकृति की हरियाली, आकाश, नदी, वृक्ष, मैदान आदि से होता ह ै उनका प ्रभाव भी शीतलता प ्रदान करता है तथा उनकी तरंग गति भी कम होती है। ए ेसे रंगा ें को देखने से नेत्र शीतलता का अनभव करते हैं अतः ए ेसे रंग शीतल रंगा ें की श्रेणी में आते ह ैं जैसेः- नीला, हरा आदि। अपने इन्हीं प ्रभावों क े कारण ऊष्ण रंग अग्रगामी या शीतल रंग प ृष्ठगामी कहलाते ह ैं यह वास्तव में उनकी तरंग गति क े कारण होता ह ै। इसीलिये ऊष्ण रंगा ें का े अग्रभूमि में व शीतल रंगा ें का प ्रयोग प ृष्ठभ ूमि में किया जाता ह ै।
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डा, ॅ. सुषमा श्रीवास्तव. "विज्ञापन की सृष्टि: स ंगीत की दृष्टि". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886102.

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Abstract:
संचार को जीवन का पर्या य कहा जा सकता है हमारे शरीर की लाखों का ेशिकाएँ आपस में लगातार संचार करती रहती ह ैं। जिस क्षण यह प्रक्रिया बंद हो जाती ह ै उसी क्षण हम मृत्यु को प ्राप्त हा े जाते ह ैं। जीवन का दूसरा नाम संचार संलग्नता है, संचार-श ून्यता मृत्यु का द्योतक ह ै। वर्तमान परिवेश में संचार का व्यापक स्तर ह ै ‘जनसंचार‘ अर्थात जब हम किसी भाव या जानकारी को दूसरा ें तक पहुँचाते ह ै ं आ ैर यह प ्रक्रिया सामूहिक पैमाने पर होती है ता े इसे ‘जनसंचार‘ कहते ह ैं। जनसंचार में प्रेषक तथा बड़ी संख्या में ग्रहणकर्ता क े बीच एक साथ संपर्क स्थापित हा ेता ह ै एवं इस बात की संभावना बनी रहती ह ै कि सूचना या जानकारी प्राप्त करने वाले लोगा ें में से अधिकांश में कुछ न कुछ प ्रतिक्रिया अवश्य उत्पन्न होगी। जनसंचार माध्यमों में सबसे सशक्त माध्यम ह ै ‘दृश्य-श्रव्य माध्यम। दूरदर्श न क े विभिन्न चैनलों क े माध्यम से किया जाने वाला जनसंचार मानव जाति पर व्यापक प ्रभाव डालता ह ै। यह दृश्य-श्रव्य संचार माध्यम ह ै।इसमें हम देखने व सुनने का कार्य एक साथ करते ह ै। इस माध्यम की विशेषता यह है कि इसमें सूचनाओं या विचारों का एक तरफा संचार होता ह ै। भूमंडलीकरण की शक्तियाँ इस संचार माध्यम क े बिना खड़ी नहीं रह सकती इसमें जन ‘उपभा ेक्ता‘ के रूप में विद्यमान हा ेता है। उपभोक्तावादी संस्कृति में भद्रता और सामाजिक हैसियत को वस्तुओं से जोड़ा जाता है। दृश्य-श्रव्य माध्यम में मना ेरंजन क े द्वारा उपभा ेक्ता का े आकर्षि त कर बह ुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पादों का विक्रय करती ह ै उत्पादित वस्तुओं की माँग निरंतर बनी रहे अतः इसकी सूचना उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए ही विज्ञापन की प ्रक्रिया का जन्म ह ुआ।
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षषि, जोषी. "विस्थापन, पुनर्वा स एव ं पर्या वरण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.883036.

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Abstract:
मन ुष्य अपनी सुख समृद्धि, भोग एव ं महत्वकांक्षाओं की प ूर्ति हेत ु जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों एव ं पर्या वरणीय तत्वों का अनियोजित एव ं अनियन्त्रित प्रयोग कर रहा ह ै, इस कारण पयावरणीय विघटन एव ं असंत ुलन की स्थिति उत्पन्न हो र्गइ है। जल, वायु, भूमि, वन एव ं खनिज संजीवनी का निरन्तर विघटन हो रहा है, जल स्त्रोत स ूख रहे है, वातावरण विषाक्त हा े रहा है आ ैर भूमि का क्षरण भी हो रहा है। वनो ं के विनाष से पर्यावरण ह्ास में वृद्धि ह ुई है। इन सबके के साथ ही एक अमानवीय सामाजिक समस्या उत्पन्न हुई है और वह ह ै विस्थापन और पुनर्वास की समस्या। प ्रकृति के नजदीक निवास कर रहे लोगों की व्यथा, आदिवासी जनजातिया ें के निवास की समस्या, उनके घरो ं के उजड ़न े और बसन े के बीच की अमानवीय यातना को झेलन े की समस्या अभी तक अनस ुनी है। इनकी व्यथा को व्यक्त करती बाबा आमट े की पँक्तिया ें द ृष्टव्य ह ै:-श् ‘‘यह एक बावली आपदा है सर्वा ेच्च न्यायालय क े फ ैसले से प ैदा भ्रष्ट और प ूँजीवादी त ंत्र ह ै जो न्यास का मात्र प ुरोहिताई का प ुनीत व ेष पहन े नहीं द ेता गार ंटी कि आदमी के हका ें की हिफाजत हो कि बचे रह ें दीन-हीन आदिवासी’’ नदियाँ हमार े द ेष की नाडि ़याँ ह ैं, जीवन ह ै। इन पर बिजली उत्पादन एव ं विकास के नाम पर बड ़े-बड ़े बाँध बनाए जा रहे हैं इससे बिजली की समस्या भी हमेषा के लिए समाप्त नहीं होगी। नदियों के जल को बाँध द ेन े से वहाँ धीर े-धीर े गाद भरती जायेगी। जल सूख जायेगा, हमार े प्राकृतिक संसाधन जल को पान े क े समाप्तप्राय हो जायेंग े। प्राक ृतिक असंत ुलन होगा। इससे र्कइ षहर ड ूब में आ जायेंग े और वहाँ रहन े और बसन े वाला ें का द ुःख अपन े ही द ेष में, षहर में विस्थापितों जैसा होगा व होता भी है।
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किशोर, एरंडे. "मानव जीवन में स ंगीत की उपादेयता". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886065.

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Abstract:
समस्त ललित कलाआ ें में संगीत का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण ह ै। इसके अध्ययन आ ैर अभ्यास से मनुष्य लौकिक तथा अलौकिक दोना ें सुख प्राप्त करता है। मानव जीवन संगीत से ओत-प्रा ेत ह ै। मनुष्य ज्ञान शील प्राणी ह ै। अतः उसे संगीत से विशेष आनन्द प्राप्त होता ह ै। मानव जीवन सदा संगीत से अनुप्राणित होता रहता है। मानव जीवन नाना प्रकार के उत्थान-पतन, हर्ष विवाद तथा राग द्वेष आदि द्वन्द्वात्मक भावा ें का केन्द्र होता ह ै। जहाँ एक आ ेर जीवन की जटिल समस्यायें मनुष्य का े चिन्तित करती रहती ह ै। वहाँ दूसरी ओर स ंगीत मनुष्य की सारी चिन्ताआ ें का निराकरण करता रहता ह ै। मानसिक तथा शारीरिक व्यथा से आक्रान्त हा ेकर जब मनुष्य अति व्यस्त हा े जाता ह ै तो मन की उध्दिग्नता को शान्त कर पुनः सशक्त बनाने की क्षमता एक मात्र संगीत में ही ह ै। समाज को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित बनाने में संगीत का विशेष या ेगदान ह ै। मना ेगत भावा े का े सजीव आ ैर साकार रूप देकर उसे अत्यन्त आकर्ष क आ ैर रंजक बनाने का एकमात्र कार्य संगीत का ही है। संगीत से साक्षात विष्णु भगवान प्रसन्न हा ेते ह ै ं। परमात्मा से लेकर देव, दानव, मनुष्य, पश ु एवं समस्त जड़ चेतन स ंगीत की मध ुर स्वर लहरा े से आंदा ेलित हो जाते ह ैं। संगीत से क ेवल मना ेरंजन ही नहीं अपितु धर्म भी होता ह ै। व ैदिक काल में राजसूर्य जैसे महान यज्ञा ें में संगीत का प्रया ेग किया जाता था। मंत्रा ें का उच्चारण भी संगीतात्मक होता है। उदात्त, अनुदात्त आ ैर स्वरित आदि तत्वों का उल्लेख वेदा ें में मिलता ह ै। जिन मंत्रा ें का उच्चारण इन तत्वों का े उप ेक्षित करके किया जाता ह ै व े मंत्र अश ुद्ध माने जाते ह ैं। सृष्टि के स्वर्णिम विहान से लेकर प्रलय की काली स ंध्या तक स ंगीत का अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ता ह ै।
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हरीश, केशरवानी. "खेती के नये आयामः समझा ैता क ृषि". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.883533.

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Abstract:
बढ ़ती जनसंख्या, बदलती जीवन शैली, कृषिगत उत्पादों का व्यवासायीकरण क े साथ साथ मौसमी परिवर्तनशीलता, उत्पादन प्रवृत्ति मे बदलाव और कृषिगत विषमता के परिणाम स्वरूप सबस े प्रमुख म ुददा कृषि के सुधार और विकास का ह ै। मानव अपन े विकास की चाहे जो सीमा निर्धारित कर ले पर ंत ु उसकी उदरप ूर्ति जमीन से उगे आनाज या उसके प्रसंस्करण स े ही होगी। कृषि के संदर्भ मे तमाम प्रकार के बदलावों क े परिणाम स्वरूप कृषि प ्रणाली मे भी बदलाव द ेखे जा सकत े हैं। साथ ही विश्व की जनसंख्या त ेजी के साथ बढ ़ रही ह ै तथा भारत के संदर्भ मे यह तथ्य है कि यह विश्व की द ूसरी सर्वाधिक जन ंख्या वाला द ेश है जा े 2030 तक यह चीन का े पीछे छोड ़त े ह ुए विश्व की सर्वाधिक आबादी वाला द ेश हो जाएगा। साथ ही भारत की आबादी मे प ्रतिवर्ष 2 करोड ़ लोग बढ ़ जात े ह ै जिनकी आवश्यकता ह ेत ु रोटी, कपड ़ा, मकान की माॅग म े भी व ृद्धि होती जाती है। कृषि उत्पादन क े संदर्भ मे 1960 के दशक मे हरित क्रान्ति आई और कृषि उत्पादन मे लगातार वृद्धि ह ुई पर ंत ु वर्त मान (हरित क्रान्ति क े 55 वर्ष के पश्चात) म े इसक े र्कइ नकारात्मक प्रभाव जिसमे प्रद ूषण, उत्पादकता म े कमी, बीजों की प ्रतिरोधक क्षमता मे कमी, क ृषिगत असमानता, उत्पादन आधारित असमानता इत्यादि। मा ॅग और जरूरतों के हिसाब से कृषि के पर ंम्परागत स्वरूप मे बदलाव भी किया जाना चाहिए जिसस े कृषि उत्पादन तो बढ ़े साथ ही किसानो को भी ज्यादा लाभ हो सके और कृषि कार्य बोझ न रह े। इन उपरोक्त मुददा ें का े निबटाने के लिए सबसे ब ेहतर उपाय साझौता आधारित कृषि है। प्रस्त ुत शोध पत्र मे कृषि विकास के विविध पक्षों को द ेखत े हुए समझौता कृषि स ंदर्भ मे विकास की संभावनाआ े ं पर विवरण प्रस्त ुत करन े का प्रयास किया गया ह ै जिससे बढ ़ती जनसंख्या और बदलती जीवन शैली के लिए लाभदायक और उद्देश्यप ूर्ण होगा। साथ ही भारत के संदर्भ म े समझौता कृषि के विकास की संभावनाओं आ ैर अवसरों के साथ कुछ रणनीतिक सुझााव भी प ्रस्त ुत करन े का प ्रयास किया गया ह ै।
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प, ्रो. किन्श ुक श्रीवास्तव, та ड्योंडी रश्मि. "ला ेक संगीत में झलकता समाज का प्रतिबिम्ब". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886960.

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Abstract:
मानव समाज में संस्कृति पायी जाती ह ै। यह संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती ह ै। इसी कारण प ्रत्येक समाज की संस्कृति जीवित रहती ह ै। प ्रत्येक समाज की स ंस्कृति भाषा, प्रथा, ज्ञान, परम्पराएँ, धर्म, कानून, संगीत, लोक कला, लोक-संगीत, लोक-कथाएँ, साहित्य आदि में निहित होती ह ैं। समाज में मनुष्य की पारस्परिक अन्तः क्रियाएँ एक-दूसरे का े प ्रभावित करती है तथा इन्हीं क्रियाआ ें क े आधार पर ही सांस्कृतिक समाज बनता ह ै। अतः समाज का दर्प ण ला ेक संस्कृति में ही निहित ह ै। ‘‘संस्कृति की परम्परा में संगीत सबसे अधिक लोकप्रिय ह ै। लोक संगीत संस्कृति की विशाल विभूति ह ै। समाज के जनसाधारण क े मना ेरंजनार्थ लोक संगीत की भाषा सरल, धुनें सहज एव ं हृदय ग्राहय होती ह ै। मानव समाज की दैनिक क्रिया, हल चलाना, पशु चराना, चक्की पीसना, गोड़ना। ख ेते नियराना ें कुआ ें से पानी भरना, शादी ब्याह, नामकरण, उत्सव, त्यौहार, प ्राकृतिक स्थल लहलहाते ख ेत, नदी क े बहते जल की ध्वनि, झर-झर झरते झरने, वर्षा , बसंत ऋतु ,खिलते रंग बिरंगे फ ूल आदि प ्राकृतिक घटनाएँ लोक गीतों क े उद्गम स्थल ह ैं ‘‘ला ेक गीतों क े लिये श्रीराम त्रिपाठी जी ने ‘ग्रामगीत’ शब्द को अपनाया ह ै। लोक गीतों को ग्रामगीत कहने के पीछे यह अनुभव है कि ग्रामीण लोगा ें ने ही लोकगीतों की परम्परा का े सुरक्षित रखा ह ै। भारतीय जीवन से संबद्ध विभिन्न संस्कार व उत्सवों का स्थान शहरी जीवन में अप ेक्षाकृत कम ह ै, अतः नाना अवसरा ें पर गाए जाने वाले गीत गाने के अवसर पाए बिना नष्ट हो रह े ह ैं जबकि देहातिया ें क े लिए अभी भी उत्सवों ,त्या ैहारों क े किए उत्साह ह ै। अतः खेता ें की बुआई, कटाई, नियर्राइ , शादी ब्याह के समय, अनायास ही उनके हृदय से ये गीत निःसृत हो जाते ह ैं। लोक संगीत की ये स्वर लहरियाँ इन्ही ं त्या ैहारों तथा मेले व पर्वा ें पर ही सुनाई देकर समाप्त नहीं होती बल्कि ये मनमोहक ताने यहाँ के बसने वाले जनसाधारण क े जीवन में निरन्तर गूँजती ह ै। मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक क े अवसर पर भी लोक संगीत अभिन्न स्थान रखता है। लोक गीत विभिन्न परिस्थिति अनुसार अलग-अलग भावनाआ ें से भरपूर अनेक समय पर जन साधारण क े हृदय से स्वतः ही निर्मि त हा ेते चले जाते ह ै ं। अतः लोक संगीत समाज में रहने वाले साधारण व्यक्ति की स्वर, लय व ताल युक्त साधारण मनोभावाभिव्यक्ति ह ै।
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सचिव, ग©तम (श¨ध छात्र्ा). "चित्र्ाकला म ंे र ंग (प्राग ैतिहासिक काल स े वर्तमान काल तक क े परिप्रेक्ष्य म ें)". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.892056.

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Abstract:
मानव जीवन में वर्ण (रंग) का महत्वपूर्ण स्थान ह ै। प्रत्येक वस्तु क¨ई न क¨ई रंग लिये हुये ह ै। वस्तुअ¨ ं के धरातल में रंग ह¨न े के कारण ही वह हमें दिर्खाइ देती ह ै। रंग¨ ं के प्रति मानव का आकर्ष ण कभी घटा नहीं है। इसीलिये आदिम गुफाचित्र्ा¨ं से ल्¨कर आधुनिक मानव तक ने स©न्दर्य क े विकास में रंग¨ ं का सहारा लिया है। रंग¨ ं का महत्व हमें मानव जीवन के इतिहास के हर अध्याय में देखने क¨ मिलता ह ै। वर्ण प्रभाव अर्थात् रंग प्रभाव के आधार पर चित्र्ा क¨ स©न्दर्य प्रधान बनाया जा सकता है। रंग हमारे जीवन का महत्वप ूर्ण हिस्सा है; इसके बिना प्रकृति उपस्थित किसी भी पदार्थ या जीव का अपना क¨ई वजूद नहीं ह ै। रंग¨ ं के द्वारा ही हमें उसकी पहचान ह¨ती ह ै। रंग का अपना एक अस्तित्व ह ै जिसकी अपनी ही एक भाषा ह ै अ©र उस भाषा क¨ एक कलाकार बह ुत अच्छे से समझता ह ै। तभी वह रंग¨ ं का प्रय¨ग उचित ढंग से चित्र्ाकला में करता ह ै। कला में रंग का अपना ही एक अलग ही स्थान है। कला संस्कृत भाषा का शब्द ह ै। इस शब्द के लिये फ्र ेंच शब्द ।तज (आर्ट) अ©र ल्©टिन में ‘आर्स’ ह ै, जिसका अर्थ ह ै बनाना या प ैदा करना। कला एक प्रकार का शारीरिक व मानसिक क©शल ह ै। कला शब्द का प्रय¨ग आज काव्य, संगीत, चित्र्ा, वास्तु आदि ललित-कलाअ¨ं के लिये किया जाता ह ै। समय-समय पर विद्वान¨ं एवं कला-मर्मज्ञ¨ं ने कला या ललित -कला क¨ र्कइ ढंग से परिभाषित किया है। महान दार्श निक प्ल्¨ट¨ के अनुसार- ‘‘कला सत्य की अनुकृति ह ै।’’ वहीं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कला के लिये कहा ह ै- ‘‘कला में मनुष्य अपने भाव¨ं की अभिव्यक्ति करता ह ै।’’ कला जीवन क¨ ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ से समन्वित करती ह ै। कला में ही मानव मन की संव ेदनाये उभारने, प्रकृतिय¨ं क¨ ढाने तथा चिंतन का कार्य ह¨ता ह ै। आकार से भिन्न किसी दृश्य पदार्थ का वह गुण ह ै, जिसका अनुभव केवल आँख¨ं से ही ह¨ता ह ै। प्रकाश से किसी वस्तु क¨ देखते ह ैं। प्रकाश से ही हमें रंग¨ ं का ब¨ध ह¨ता ह ै। कहा जाय त¨ रंग एक मानसिक अनुभूति ह ै, जैसे-स्वाद या सुगंध। एक ही आकार की द¨ अलग-अलग वस्तुअ¨ं का अनुभव या पहचान रंग¨ ं के द्वारा ही ह¨ता ह ै। हमारी दृष्टि रंगत¨ ं वाली वस्तुअ¨ ं पर सबसे पहल्¨ जाती ह ै।
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ेगरिमा, गुप्ता. "पणिक्कर की कृतियों म ें र ंगा ें का रसात्मक रूझान". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.890301.

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Abstract:
हम सभी अपने जीवन में रंग¨ ंे से व्यापक रूप में प्रभावित ह¨ते ह ैं हमारे सुख-दुख, उत्त्¨जना, विश्राम, उल्लास आदि सभी भावनाअ¨ं क े उद्दीपन में रंग¨ ं का प्रभाव देखा जा सकता ह ै। चित्र्ाकार की भाषा में रंग भावना एवं विचार के संक्षिप्त रूप ह¨ते ह ैं। प्रत्येक चित्र्ाकार द्वारा रंग¨ ंे क¨ प्रय¨ग करने की विधि व्यक्तिगत अनुभव अ©र रुचि से प्रभावित ह¨ती ह ैं, चित्र्ा के अर्थसार क¨ व्यक्त करने मंे चित्र्ाकार रंग की सामथ्र्य का उपय¨ग अपनी अनुभूत तकनीक स े करता ह ै। इस भ©तिक जगत में उस परम् शक्ति ने अनेक वस्तुअ¨ं का निर्माण किया ह ै। सम्भवतया जीवन भर उनकी संख्या भी न गिनाई जा सके। विभिन्न प्रकार के पत्थर उनक े वर्ण तथा रूप एव ं स्पर्श ज्ञान ह¨ते ह ै ं। इसी प्रकार लकड़िय¨ ं क े रेश्¨-प्रवाह, वर्ण तथा धरातल, फूल-पत्तिय¨ं की मृदुता तथा वर्ण का आस्वादन दर्शक क¨ सुखद अनुभूतियाँ प्रदान करता ह ैं। पणिक्कर का 40 अ©र 50 क े दशक का ज¨ कार्य है व¨ विश्व के प्रकाश क¨ मूल आश्चर्य के रूप में संगृहित करता ह ै, रंग अ©र रूप ज¨ उन्हांेने बह ुत ही प्रभावी तरीक े से प्रदर्शि त किया। 50वां का दशक पणिक्कर क े लिए मानव रूप आ ैर स्थान की खोज का महत्वपूर्ण काल था। उन्होंने अपना ध्यान मूल रूप से भारतीय परिदृश्य और रंगा ें को अपने चित्रा ें में समझने की तरफ क ेन्द्रित किया। अजंता की कथाओं से उन्ह े ं आदर्श रंग पर अलंकारिक प ्रदर्श न का े समझने का मौका दिया। इससे उनका ध्यान रंगा ें कथाओं की तरफ केन्द्रित किया।
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सीमा, शमा, та तिवारी आभा. "पर्यावरण संरक्षण एव ं मानवीय स ंवेदना आज के संदर्भ म ंे". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.883549.

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Abstract:
मानव एव ं प्रकृति एक द ूसर े के प ूरक हैं। मन ुष्य का जीवन प्रकृति अर्थात ् पर्यावरण संरक्षण के बिना संभव नही ं है। मन ुष्य की आत्मके ंदि ्रत सोच के कारण प ्रकृति का दोहन करत े हुए उसन े संरक्षण का विचार त्याग दिया। कटत े हुए व ृक्ष, प ्रद ूषित होती हुई नदियाँ, सूखत े ह ुए कुँए, धुँए और धूलका ग ुबार बनती हुई हवा, कीटनाशका ें के जहर से भरी हुई खाद्य सामग ्री, मन ुष्य की सूखती हुई संव ेदना की कहानी कह रहे है ं। हम सब प्रक ृति की संतान ह ै। पँचतत्वों स े निर्मित है, हमारा शरीर: भूमि, वायु, जल, आकाश एव ं अग्नि। ये पाँच तत्व ही पर्यावरण है ं। इनमंे से एक भी यदि प ्रद ूषित होता ह ै तो मानव जीवन भी प ्रभावित हा ेता है। “माता भूमिः प ुत्रो अहं पृथिव्याः। (अथर्व 12/12)1 अर्था त ् भूमि मेरी माता है एव ं मैं पुत्र हूँ “मानव”। वर्त मान संस्कृति मं े “माता” के स्थान से प ्रकृति का े विस्मृत कर दिया गया ह ै। मानवीय संव ेदनाओ ं को प ुनः जाग ्रत करन े हेत ु य ुवा वर्ग के लिये “मूल्य आधारित शिक्षा” की आवश्यकता महसूस की गई। “मूल्यपरक शिक्षा” का अर्थ ह ै जीवन को सार्थक बनान े की पहल। शिक्षा केवल ज्ञानार्जन करन े का साधन ही नहीं, अपित ु “विश्व कल्याण” ह ेत ु जीवन को उपया ेगी बनान े की प्रथम सीढ ़ी ह ै। “रोजगार” प्राप्त करन े के अतिरिक्त “सर्वजन हिताय” का लक्ष्य प्राप्त करना ही आज की शिक्षा का उद ्द ेश्य होना चाहिय े। “सर्वप्रथम इस प ृथ्वी” को जीवन जीन े योग्य बनाए रखना प ्रत्येक मानव का प ्रथम कत्र्त व्य ह ै। व ृक्षों, नदियों क े जीवन से हमंे यही प ्रर ेणा मिलती हैं: हमार े प्राचीन मूल्य हमंे यही शिक्षा द ेत े हैं: “परोपकाराय फलन्ति व ृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः। परोपकाराय द ुहन्ति गावः परोपकारार्थमिद ं शरीरम ्।
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स, ुषीला गायकवाड ़. "''शहरी गंदी बस्तियों म ें पर्यावरण संबंधी समस्याएँ''". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.883551.

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Abstract:
वर्त मान में हम जिस वातावरण एव ं परिव ेष द्वारा चारो ं ओर से घिरे है उस े पर्यारण कहत े है। पर्यावरण में सभी घटकों का निष्चित अन ुपात में स ंत ुलन आवष्यक ह ै, किन्त ु मन ुष्य की तीव्र विकास की अभिलाषा एव ं प ्रकृति के साथ छेड ़छाड ़ के कारण यह स ंत ुलन धीर े-धीर े समाप्त हो रहा है। पृथ्वी पर निर ंतर बढ ़ती जनसंख्या आज विष्व में चि ंता का प्रमुख कारण बन रही ह ै, क्योंकि जनसंख्या व ृद्धि न े लगभग सभी द ेषा ें को किसी न किसी प ्रकार से प ्रभावित किया है आ ैर उनकी प ्रगति में बाधाए ं उत्पन्न की है। जनसंख्या का दबाव विकसित देषों में तो कुछ अधिक नहीं है, किंत ु विकासषील व अविकसित द ेषों म ें स्थिति बहुत अधिक दयनीय है। जनसंख्या व ृद्धि की यह दर चिंताजनक है, क्यो ंकि निर ंतर विकास के बावजूद भी हमारी अधिकांष जनसंख्या निम्न जीवन स्तर जी रही है। खाद्यान उत्पादन में अप ूर्व वृद्धि के बावजूद सभी को पोषक उपलब्ध नही ं है। अधिक स्थिति दयनीय हो रही ह ै। संसाधन समाप्त हो रहे है, ऊर्जा का संकट है, प ेयजल की कमी आ ैर पर्यावरण प ्रद ुषित है। बढ ़ती जनसंख्या के कारण वनों का विनाष भूमिगत जल का अनावष्यक दोहन, आवासीय काॅलोनियों का प ्रसार, ऊर्जा की कमी आदि समस्याएँ उत्पन्न हो गई ह ै। कुल जनसंख्या के साथ नगरीय जनसंख्या का प्रतिषत लगातार बढ ़ता जा रहा ह ै। औद्योगिक क्रांति क े पश्चात ् औद्योगीकरण व नगरीयकरण की तीव्र प्रक्रिया न े विषाल नगरों व आ ैद्या ेगिक केंद ्रों का निर्माण किया जिसके कारण नगरों का विकास हुआ, परिणाम स्वरूप जनसंख्या के एकीकरण को प्रा ेत्साहन मिला और अधिकांष जनसंख्या विषाल नगरों मे ं तथा आ ैद्या ेगिक केंद ्रों म ें एकत्रित हो गई। इन विषाल नगरों तथा औद्योगिक क ेंद ्रो ं में बढ ़ती हुई जनसंख्या के परिणामस्वरूप आवास की समस्या उत्पन्न हा ेन े लगी। बढ ़ती र्हुइ जनसंख्या के लिए आवास की समुचित व्यवस्था न होन े के कारण ग ंदी बस्तियों का निर्माण हुआ। आज ए ेसा कोई भी कोई भी औद्योगिक नगर नहीं है जहाँ कि गंदी बस्तियाँ द ेखन े को न मिलती हो। अतः यह कहना अतिष्योक्ति होगी कि गंदी बस्तियां आध ुनिक आ ैद्योगिक नगरीकरण की परिचायक ह ै।
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डा, ॅ० रश्मि जैन. "र ंगा े की बढती कीमता ें का तैलचित्र व्यवसाय पर प्रभाव - एक अध्ययन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.888782.

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Abstract:
संसार के समस्त प ्राणिया ें मे केवल मानव एक ए ेसा प्राणी है जा े सोन्दर्य की अनुभूति करता है। मानव सभ्यता मे कला की उत्पत्ति मानव मन मे सा ेन्दर्य क े प ्रति जिज्ञासा क े कारण हुई ह ै। इसके माध्यम स े मनुष्य अपने भाव, मन की अनुभूति व्यक्त करके आन्नद महसूस करता ह ै अर्था त उसकी सृतनात्म प ्रव ृति की अभिव्यक्तिी कला के माध्यम से करता ह ै। इसमें चित्र,मूर्ति अभिनय,गायन,वादन एव ं हात्तका ेथत शामिल है। इसका उद्देश न क ेवल सृजन करना है बल्कि यह संस्कृति की परम्परा को बनाये रखने मे भी सहायक हा ेता ह ै, जो जनकल्याण क े लिए उपया ेगी ह ै। कला का े सामान्यतः दो वर्गो मे बाटाॅं जाता ह ै- ललितकला एवं व्यवसायिक कला ललितकला का मुख्य उद्देश्य स्वतः सूखाय हा ेता ह ै जो मन का े आन्नद देता ह ै दुसरी और व्यवसायिक कला एक ऐसा कार्य ह ै जिससे किसी की जिविका का निर्वा ह हा ेता समाज की आवश्यकताको की प ूर्ति करने मे व्यवसायिक कला का निरन्तर या ेगदान रहा ह ै। एक उत्पादक इसी बात को ध्यान मे रखकर अपना उत्पादन करता ह ै। आ ैर उस उत्पादन को सर्व . उपयोगी एवं लाभप ्रद बनाने के लिए समय क े अनुसार उसमे रगा े के माध्यम से परिवर्तन करता है। इन्टिरियर डिजाइनिंग और चित्रकारिता आज एक प ्रमुख लाभप्रद व्यवसाय का रूप ले चुकी है। आन्तरिक सज्जा मे तैलचित्रा े का अधिक प ्रयोग कर इसकी ख्याति का े जन जन तक पह ुचॅंा दिया ह ै। प ्राचीनकाल मे राजा-महाराज एवं धनी व्यक्ति अपनी गृहसज्जा मे तैलचित्रा े का प ्रयोग बढे प ैमाने पर करते थ े। आमजनता कच्ची दीवारा ें पर जमीन पर कच्चे रंगा े स े चित्रकारी करते थे लेकिन आजकल इन्टिरियर डिजाइनों मे अच्छे किस्म के रंगा े का प्रयोग गृहसज्जा मे करके इस व्यवसाय मे नये आयाम खोल दिए है जो व्यक्तिया ें की आय व रोजगार का साधन बन रहा ह ै। इस व्यवसाय मे भावों को ध्यान मे रखकर रंगा े क े प ्रयोग स े वस्तुओं की सुन्दरता आ ैर विविधता को बढा देते ह ै।
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स, ुधा शाक्य. "वर्तमान पर्यावरणीय समस्याएं एव ं सुझाव". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.883040.

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Abstract:
भारत में प ्राचीन काल से ही प्रकृति एव ं पर्यावरण का अट ूट संब ंध रहा है, और धार्मिक ग ्रंथा ें में प्रकृति को जा े स्थान प्राप्त है वह अत ुलनीय है। प्रक ृति की सुरक्षा के लिये हमारी संस्कृति में अन ेक प्रयास किये गये, सामान्य जन को प्रकृति से जोड ़े रखन े के लिये उसकी रक्षा, प ूजन, विधान, संस्कार आदि को धर्म से जोड ़ा गया। गा ै एव ं अन्य जानवरो ं का प ूजन व ंश रक्षा के लिये तथा विभिन्न नदियों, प ेड ़ों, पर्व तों का प ूजन उसकी सुरक्षा और अस्तित्व को बनान े क े लिये अति आवश्यक हा े गया था। पर ंत ु जैसे समय व्यतीत होता गया व्यक्तियों की विचारधारा, सोच, अभिव ृत्ति, आस्था, भावों में परिवर्त न होता गया और व्यक्ति धीर े-धीर े स्वार्थी हा ेता चला गया। प्रकृति को दा ेहन एव ं क्षरण करता चला गया जिसका परिणाम आज हमार े सामन े है। हमारा परिव ेश जिसमे व्यक्ति, प ेड ़-पौधे एव ं जीव-जंत ु निवास करत े हैं, पर्यावरण तो कहलाता ह ै पर ंत ु आज जो स्थिति उसकी है वह बहुत चिंतनीय एव ं व्यथित करन े वाली है। जिस पर्यावरण म ें रहकर व्यक्ति अपना स्वास्थ्य संवर्धन करता था वही आज उसके लिये अभिशाप हो गया है। जिसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। हमन े स्वार्थवश स्वयं का विकास एव ं प्रगति करन े के लिये पर्यावरण क े साथ खिलवाड ़ किया ह ै और उसक े प्रद ूषित किया है। जिसका द ुष्प्रभाव आज व्यक्ति के जीवन में विभिन्न गंभीर बीमारियो, प ्राकृतिक आपदा, जलवायु, परिवर्त न आदि के रुप में परिलक्षित हो रहा है। चाणक्य न े पर्यावरण की महत्व को स्पष्ट करत े हुये कहा है कि किसी भी राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छता पर निर्भर करती ह ै। चरक स ंहिता में भी स्पष्ट उल्लेख है कि स्वास्थ्य जीवन के लिये शुद्ध वाय ु, जल और मिट ्टी आवश्यक कारक ह ैं। पर्या वरणीय असंत ुलन के कारण आज द ेश की गरीबी, ब ेरोजगारी, भुखमरी, गंभीर शारीरिक रोग जैसे एड ्स, कैंसर बगैरह उत्पन्न हो रहे ह ैं। राष्ट ªीय प ्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एम.एस.एस.ओ.) के सर्वेक्षण के अन ुसार वर्ष 2011-12 में द ेश में गरीबी र ेखा के नीचे रहन े वालों की स ंख्या 26 करोड ़ 94 लाख थी इसी प्रकार केन्द ्रीय स्वास्थ्य एव ं परिवार कल्याण मंत्रालय नई दिल्ली (2015) की रिपोर्ट के अन ुसार एच आई बी/एड ्स पीडि ़तों की संख्या महाराष्ट ª में 1 लाख 59 हजार 25 रोगी ह ैं आ ैर यह राज्य द ेश में एड ्स रोगियों की क ुल संख्या के आधार पर प्रथम स्थान पर ह ै। इसके बाद द ूसरा स्थान आंध्रप्रद ेश का है जहां 1 लाख 31 हजार 892 एड ्स रोगी है ं।
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रान, ू. उपाध्याय. "प्राक ृतिक संसाधनों क े संरक्षण म ें समाज की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.883012.

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Abstract:
भारतवर्ष में प ्राचीन शास्त्रों, व ेद-पुराणों मे ं, धर्म ग्रन्थो में तथा ऋषि-मुनियों न े पर्या वरण की शुद्धता पर अधिक बल दिया है । व ेदों में प ्रकृति प ्रदत्त पर्या वरण को द ेवता मानकर कहा गया है कि- ‘‘या े द ेवा ेग्नों या े प्सु चो विष्वं भ ुव नमा विव ेष, यो औषधिष ु, या े वनस्पतिषु तस्म ें द ेवाय नमो नमः’’ अर्था त जा े स ृष्टि, अग्नि, जल, आकाष, प ृथ्वी, और वाय ु से आच्छादित ह ै तथा जो औषधियों एव ं वनस्पतिया ें में विद्यमान ह ै । उस पर्यावरण द ेव को हम नमस्कार करत े है । प्रकृति मानव पर अत्यंत उदार रही ह ै । पृथ्वी पर अपन े उद्वव के बाद से ही मानव अपन े अस्तित्व के लिय े प्रकृति पर निर्भर रहा है । मानवीय आवष्यकताओं की प ूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के साधना ें की आवष्यकता होती है इन संसाधनों द्वारा ही मानव की म ूलभूत आवष्यकताए ं रोटी, कपड ़ा एव ं मकान की प ूर्ति होती है । इन साधनो ं के अभाव म ें सुखद मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है । प्रकृति से प ्राप्त होन े वाले पदार्थ , जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मानव की खुषहाली के लिये उपयोग किय े जात े ह ै, ‘प ्राक ृतिक संसाधन’ कहलात े ह ै । मन ुष्य क े जीवित, स्वस्थ्य व प्रसन्न रहना प्राक ृतिक संसाधनो ं की उपलब्धता तथा पुनः परिसंचरण पर निर्भर करता है। संसाधन को अंग्रेजी मे ं ‘त्मेवनतबम’ कहत े ह ै । यहा ं ‘त्म’का अर्थ ‘पुनः’ तथा ‘ैवनतबम’ का अर्थ ‘उपाय’, ‘साधन’ या ‘स्त्रोत’ से ह ै । अतः प्राक ृतिक संसाधना ें का सामान्य अर्थ उन साधनों से लिया जाता है जा े कि मानव के विकास एव ं आवष्यकता की प ूर्ति में बार-बार सहायता करती है । उदाहरणार्थ- सूर्य का प ्रकाष प्रत्येक दिन मानव शरीर को विटामिन ‘डी’ प ्रदान करता है तथा फसल, पौधे एव ं वृक्षों को सहायता प्रदान करता है । इसी प्रकार प्रकृति न े मानव को उन ेक वस्त ुए ं उपहार के रूप में दी है । प्रकृति के द्वारा निःषुल्क रूप से प्रदान वस्तुए ं ‘प्राकृतिक संसाधन’ कहलाती है । जैस े-वायु, जल, भूमि, खनिज, ताप, प्रकाष, मिट ्टी, जलवाय ु व त ेल आदि। प्राकृतिक संसाधनो ं से आषय उनके अधिकतम सद ुपयोग एव ं मानव कल्याण मे ं लाभ के लिये ह ै । इसके लिए कुषल प्रब ंध की आवष्यकता है, ताकि उपस्थिति संसाधन लम्ब े समय तक अधिक लोगा ें की आवष्यकता की प ूर्ति कर सकें ।
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भारती, खर े., та कुमार अंजलि. "वानिकी एवं पर्या वरण". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.574868.

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Abstract:
एक अरब स े ज्यादा जन सैलाब के साथ भारतीय पर्या वरण का े स ुरक्षित रखना एक कठिन कार्य ह ै वह भी जबकि हर व्यक्ति की आवश्यकताएॅ ं, साधन, शिक्षा एव ं जागरूकता के स्तर में असमान्य अंतर परिलक्षित होता है। संत ुलित पर्या वरण के बिना स्वस्थ जीवन की कल्पना करना मात्र एक कल्पना ही है। पर्यावरण स े खिलवाड ़ के परिणाम हम र्कइ रूप में वर्त मान में द ेख रहे हैं एव ं भोग रहे ह ैं। पर्यावरण विज्ञान आज के समय क े अन ुसार एक अनिवार्य विषय ह ै। यह सिर्फ हमारी ही नहीं अपित ु व ैश्विक समस्या ह ै। वर्त मान पर्यावरणीय अस ंत ुलन का े द ेखत े हुए इस विषय स े हर व्यक्ति का े जुड ़ना चाहिए एव ं जोड ़ना चाहिए। वानिकी एव ं पर्या वरण विज्ञान से प्राक ृतिक संसाधनों का सतत ् प्रब ंधन एव ं नई तथा कारगर तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण का संरक्षण आ ैर स ुधार किया जा सकता है। मानव समाज न े विज्ञान एव ं अन्य क्षेत्रो ं में अभूतप ूर्व विकास किया ह ै पर ंत ु इस विकास के चलत े उसन े प्राकृतिक संसाधना ें का क्रूरता क े साथ उपयोग किया है या यह कहा जाये कि द ुरूपयोग किया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इससे हमार े प्राकृतिक संसाधनों के साथ पर्यावरण को भी न ुकसान हुआ है और इसक े परिणाम द ेखन े के लिए हमें कही ं द ूर जान े की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति के साथ सतत ् की जा रही बर्बरता के कारण आज हम बढ ़त े बंजर इलाके, कम उपजाऊ भूमि, प्रद ूषण से भर े हमार े नगर आ ैर बाढ ़ तथा सूखे की क्रूरता झ ेलत े मानव समाज एव ं क्षेत्र हमार े समकक्ष ही उपलब्ध ह ैं। आज सारा विश्व पर्यावरण संत ुलन को सुधारन े के लिए विवश है। इस परिप्रेक्ष्य में वन एव ं पर्यावरण शब्द एक द ूसर े के प ूरक लगत े हैं। वनों के प ्रब ंधन से पर्यावरण में सुधार होना अवश्यम्भावी है। व ैश्विक स्तर पर पर्यावरण को हुए न ुकसान एव ं इसकी ब ेहतरी के लिए किये जा रहे प्रयासा ें तथा हमार े आसपास ह ुए भयावह परिवर्त न से सीख ल ेकर अब प ूर े मानवसमाज को सचेत होन े की जरूरत है। अगर हम अब भी सावधान नही ं हुए तो हमें विनाशकारी परिणाम भ ुगतन े से र्कोइ नही ं बचा सकता। विभिन्न द ेशों में ह ुई ओद्या ैगिक क्राॅ ंतियाॅ ं भी पर्यावरण के लिए खतरनाक रहीं। यूरोप म ें ह ुई आ ैद्या ेगिक क्राॅ ंति के 100 वर्ष बाद ही विश्व की जनसंख्या दोगुनी हो गयी। जनस ंख्या वृद्धि न े मन ुष्य की आवश्यकताओं की सीमाओं को आश्चर्यजनक रूप से बढ ़ा दिया।
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डा, ॅ0 नाजिमा इरफान. "भारतीय चित्रकला में र ंगा ें का या ेगदान (अब्दुर्रहमान चुगताई के विष ेष संदर्भ में)". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.889177.

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Abstract:
मानव जीवन में वर्ण का महत्वप ूर्ण स्थान ह ै। प्रत्येक वस्तु का ेई न कोई रंग लिये हुए ह ै। रंगा ें क े प ्रति मानव का आकर्ष ण कभी घटा नही ह ै। इसीलिये आदि मानव से लेकर आधुनिक मानव तक ने सा ैन्दर्य क े विकास में वर्ण का सहारा लिया ह ै। कमरे की रंग व्यवस्था से लेकर बाग बगीचा ें में फ ूल पौधों की रंगया ेजना तक में कलाकार ने अपना हस्तक्ष ेप किया ह ै क्योंकि रंगा ें का अपना एक प्रभाव हा ेता ह ै जो मानव की मानसिक भावनाओं का े उद्वेलित करने की शक्ति रखता ह ै। वर्ण सार्वभौमिक ह ै तथा चित्रकला में सबसे अधिक महत्व रंग का े दिया जाता है। रंगा ें क े विविध रुपों मे ं मन की भावनायें जुड़ी ह ै ं जैसे बसन्त का रंग नारंगी, मेघ का नीला, दीपक का पील, श्री का हरा, मालाकोश का काला और भैरव का सफेद जा े चित्रों क े आधार बने। अजन्ता काल से ही कलाकार रंग क े प्रति सजग हो गया था। रंग जा े अजन्ता में इतना उभार नहीं पा सके थे व े राजस्थानी व पहाड़ी कलम में अपनी पूर्ण चटख मटक के साथ फूट पड़ते ह ै ं तथा यूरा ेप क े अभिव्यंजनावाद व फावीवाद की तरह अभिव्यक्तिपरक हा े गये। अजन्ता युग से लेकर जैन कला से होती ह ुई 16वीं शताब्दी तक इस परम्परा का विकास होता रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में आ ैर बीसवीं शताब्दी क े आरम्भ में भारतवर्ष में जा े चित्रकला उपजी वह पाश्चात्य कला का अनुकरणमय ही रही और वह भी बह ुत मध्यम श्र ेणी की। आधुनिक भारतीय चित्रकारों में रंग पर खोज करने वाले कलाकारों में अवनीन्द्रनाथ टैगोर, नन्दलाल बा ेस, क्षितिद्रनाथ मजूमदार क े नाम सामने आते ह ैं। ब ंगाल शैली के चित्रकारा ें की श्रृंखला में एक नाम अब्र्दुरहमान चुगताई है जिनक े चित्रों की सफलता में वर्ण या ेजना अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती ह ै। आपकी रंग या ेजना क े बारे में आलोचक व समीक्षक भी अपने तथ्य रखते ह ैं। पाकिस्तान के समकालीन राष्ट्रपति मुहम्मद अय्यूब खान ने आपक े चित्रा ें में रंगा ें क े जादू का अनुभव किया है।3 अब्दुर्रहमान चुगर्ताइ का जन्म लाहौर में 21 सितम्बर सन् 1897 ई0 को ह ुआ था।4 इनका सम्बन्ध इस्लामी परिवार करीम बख्श मेमार क े परिवार, जो मौलिक रुप से हिरात क े निवासी थे, जो अफगानिस्तान में ह ै। परन्तु मुगल काल में भारत में सा ंस्कृतिक परिवर्तन क े समय यह परिवार हिरात से प ्रवास कर लाहा ैर में आ बसा। अब्दुर्रहमान चुगताई का जीवन एक कलाकार की तरह 1915र् इ 0 में श ुरु हुआ। चुगताई की कला स्वयं से उत्पन्न कला साधना है जिसमें रंगा ें का महत्वपूर्ण स्थान ह ै।
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दिवाकर, सिंह ता ेमर. "कार्बन टेªडिंग एंव कार्बन क्रेडिट जलवायु परिवर्तन समस्या समाधान म ें सहायक". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.803452.

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Abstract:
जलवायु परिवर्त न की समस्या के लिए न तो विकसित द ेष आ ैर न ही विकासषील द ेष जिम्मेदारी लेन े का े त ैयार ह ैं। क्या ेंकि र्कोइ विकास से समझौता नहीं करना चाहता है। इसी कारण यह समस्या ओर द्यातक बनती जा रही ह ै। अभी हाल ही में ग ्रीन हाऊस ग ैसा ें के कारण विष्व के समक्ष समस्याएॅ उभकर सामन े आई हैं। 1) ओजोन परत म ें छिद ्र:- धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की परत हमें सूर्य से निकलन े वाली पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं। परन्त ु हवाई ईधन और र ेफ्रिजर ेषन उद्योग स े उत्सर्जित होन े वाली क्लोरा े फ्लोरो कार्बन गैस से धरती के वातावरण में विद्यमान ओजोन की सुरक्षा छतरी में छिद ्र हा े गए हैं। 2) समुद ्र स्तर में वृद्वि:- वैष्विक तपन के फलस्वरूप हिम पिघल रहे ह ैं जिसके कारण सम ुद ्र के जल स्तर में त ेजी से व ृद्वि हो रही है। 3) भूजल का विषैला होना:- सम ुद ्र का जल स्तर बढ ़न े से तटवर्ती क्षेत्रा ें क े भूजल के खारा होन े का खतरा बढ ़ गया है। 4) ध्रवो ं की बर्फ का पिघलना:- वैष्विक तपन के कारण पृथ्वी के ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। इसस े समुद ्र क े जल स्तर में व ृद्वि हो रही ह ै। 5) वन क्षेत्रो ं का सिक ुड ़ना:- बदलत े मा ैसम आ ैद्या ेगीकरण और शहरीकरण ज ंगलों की कटाई से वन क्षेत्र काफी सीमित होता जा रहा है। 6) लुप्त प्राय जीव:- उपर्यु क्त समस्याआ ें के कारण धरती पर जैवविविधता संकीर्ण होती जा रही है। अंद ेषा है कि वैष्विक तपन के दुष्प्रभाव स े धरती पर विद्यमान पा ैधों की 56 हजार प्रजातियों और जीवों की 37000 नस्लें लुप्त प ्राय हा ेती जा रही ह ैं।
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अ, ंजना जैन. "भारत म ें प ेयजल प्रद ुषण - मानव स्वास्थ्य के लिए एक चुना ैति". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH 3, № 9 (Special Edition) (2017): 1–5. https://doi.org/10.5281/zenodo.883525.

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Abstract:
पृथ्वी का 2/3 भू-भाग जल स े घिरा ह ुआ है। पृथ्वी पर जल की मात्रा 1.4 मिलियन क्यूबिक मीटर आंकी गई है। जिसका 97.57ः भाग महासागरों में होन े के कारण खारा जल है। लगभग 36 क्यूबिक मीटर स्वच्छ जल जा े पीन े व उपयोग म ें ल ेन े योग्य है उसम ें स े लगभग 28 मिलियन क्यूबिक मीटर जल बर्फ के रूप म ें ध्रुवों पर जमा ह ै। हमार े वास्तविक उपया ेग के लिये उपलब्ध लगभग 8 मिलियन क्यूबिक मीटर जल पर द ूनिया के लगभग 6 अरब से ज्यादा की आबादी निर्भर है।’1 पीन े योग्य जल के स्त्रोत के रूप में नदियाँ, तालाब, कुए व नलकुप उपलब्ध है। और इनके जल का उपयोग भी हम उसी स्थिति म ें कर सकत े है। जब यह जल प्रद ुषण से मुक्त हो। शुध्द और इसके स्त्रा ेत सीमित है। शुध्द जल में अवांछित रसायनों व पदार्थो के मिलन े से अमृत त ुल्य जल जानलेवा भी हो सकता है। जल प्रद ुषण-भौतिक, रसायनिक अथवा ज ैवकीय ग ुणों में इस तरह परिवर्तन हा े जाये जिससे घर ेलू, व्यवसायिक, औद्योगिक क ृषि कार्यो ं म ें उपया ेग न किया जा सके या जिसका मानव स्वास्थ, प ेड ़-पौधों तथा जीव-जन्त ुआ ें पर उसका विपरीत प्रभाव पड ़े। उससे जल प्रद ुषण की स्थिति बनती है। विष्व स्वास्थ संगठन के अन ुसार 86 फीसदी से अधिक बीमारियों का कारण प ्रद ूषित प ेयजल है। वर्त मान म ें 1600 जलीय प्रजातियाँ जल प ्रद ूषण के कारण लुप्त हा ेन े के कगार पर है।
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डा, ॅ. श्वेता पाण्डेय. "जामिनी राय की कला म ें र ंग योजना की भ ूमिका". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.888821.

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Abstract:
जामिनी राय ने अपनी कला यात्रा के दौरान असंख्य चित्रा ें का निर्माण किया। इस निर्मा ण कार्य में शायद ही ऐसा कोई विषय हो जो जामिनी राय की तूलिका क े माध्यम से प्रकट ना हो सका हो। कला के प ्रति उनका समर्पण व उनकी निरन्तरता क े कारण ही उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में चित्रा ें का निर्माण किया। जामिनी राय ने अपने ही चित्रा ें को र्कइ बार दोहराया है, इसलिये यह कह पाना बड़ा कठिन ह ै कि का ैन सा चित्र पहले का ह ै, कौन सा बाद का, सिर्फ श ैली को देखकर ही निर्मा ण काल का अनुमान लगाया जा सकता है। इसक े अतिरिक्त जामिनी राय ने अपने चित्रा ें में कभी भी तिथि का उल्लेख नही किया है, इस कारण यह समस्या और भी जटिल हो जाती ह ै। जामिनी राय ने एक ही विषय पर र्कइ चित्रा ें को बनाया है जिनमें उन्हा ेंने बाद में कुछ ना कुछ परिवर्तन करते ह ुए पुनः निर्मा ण किया। इस प ्रकार उन्हा ेंने अपनी कला यात्रा के दौरान अलग-अलग विषयों पर आधारित अनेक ख ूबसूरत चित्रा ें का निर्मा ण किया जिसमें भारतीय मिट्टी की सा ैंधी महक ह ै। जामिनी राय ने अपनी कलायात्रा के आरम्भ में चित्रा ें क े निर्मा ण कैनवास व तैल रंगा ें का प ्रयोग किया आ ैर बह ुत लम्ब े समय तक इस विधा स े ही कार्य करते रह े। धीरे-धीरे समय क े साथ जब जामिनी राय ने अपनी कला यात्रा क ेा एक नई दिशा दी तब उनके जीवन में र्कइ परिवर्तन आ गए। उन्हा ेंने सदैव अपनी कला में नवीनता लाने क े लिए नित नए कला प्रया ेगा ें को जारी रखा। जामिनी राय स्वेच्छा से आवश्यकता क े अनुसार अपनी कला में परिवर्तन किया करते थ े। अपने इन कला प ्रयोग की सफलता क े प ्रति आश्वस्त जामिनी राय ने अपनी सुविधा के अनुसार निरन्तर कार्य करना ही उचित समझा। अपने इन प ्रयोगा ें क े लिए उन्ह ें र्कइ सारे त्याग भी करने पड़े। वर्षों से प ्रया ेग में लाने क े बाद उन्होंने तैल रंग व कैनवास का भी मोह त्याग दिया आ ैर देशज (भारतीय) माध्यमों की उपया ेगिता को समझ कर उसे प ूर्ण रूप से अपना लिया। उन्होंने अपने चित्रा ें क े लिए स्वयं धरातल तैयार करना श ुरू कर दिया और साथ ही दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को पीसकर या घा ेलकर बिना किसी रासायनिक क्रिया क े स्वयं रंग तैयार किया करते थ े। पूर्ण तः देशज ढंग से कार्य करने क े कारण उनक े चित्रा ें म ें भारतीय आत्मीयता प ्रकट हो र्गइ । जामिनी राय ने अपनी कलायात्रा क े दौरान र्कइ माध्यमों में चित्रा ें का निर्मा ण किया जामिनी राय ने जब अपनी कला शिक्षा आर्ट्स काॅलेज कलकत्ता में आकर आरम्भ की, तब उन्होंने यूरा ेपीय श ैली में काम करना श ुरू किया था। उनक े आरम्भिक चित्र तैल चित्रण माध्यम में किये गये ह ै। तैल ंरग का प्रयोग उन्हा ेंने कैनवास व बोर्ड दोना ें पर ही किया है। उनक े द्वारा निर्मित तैल माध्यम क े कुछ प ्रसिद्ध चित्र निम्नलिखित ह ै- दृश्य चित्र, शान्ति निकेतन, नदी का दृश्य, स्टील लाइफ, लोहार, गाय के साथ क ृष्ण, मां व शिश ु व नग्न युवती आदि।
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डा, ॅ. श्रीमती मनोरमा चा ैहान, та शीतल सोनी श्रीमती. "''सांझी ला ेककला में: र ंगा े स े आकर्षण'' (ला ेकस ंस्क ृति मंच इंदौर क े विश ेष संदर्भ म ें)". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.890505.

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Abstract:
लोककला दा े शब्दों का मिश्रित रूप ह ै (लोक$कला) लोककला। ‘‘ला ेक’’ शब्द का प्रयोग उस सम्प ूर्ण जनसमुदाय के लिए किया जाता है जो साथ मिलकर कार्य को करते है तथा ‘‘कला’’ कल्पनाआ ें का े आकार देने कि क्रिया को कहते है। अर्था त विश ेष जनसमुदाय द्वारा उनकी कल्पना को आकार देने की पद्धती को ला ेककला कहा जाता ह ै। मालवांचल मध्यप ्रदेश का हृदय स्थल ह ै तथा इसमें विश ेष इन्दौर शहर ह ै यहां की जनता आज भी धर्मप ्रेमी तथा अपनी संसकृति संजा ेए ह ुए ह ै। यहाँ के अनुकूल प ्राकृतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक वातावरण के साथ ही ला ेक संस्कृति ला ेक साहित्य, लोक संगीत, एव ं लोककला भी समृद्ध है। इसमें एक लोककला ह ै ‘‘संजा’’। इस लोककला पर्व को कुँवारी लड़कीयाँ श्राद्ध पक्ष में हर वर्ष भादवा माह की पूर्णि मा से अश्विन माह की अमावस्या तक अच्छा वर पाने क े लिए संजा पूजन एवं व ्रत-उपवास के माध्यम से करती ह ै। जिस प ्रकार पार्व ती जी ने भगवान शंकर को स ंजा वृत के द्वारा प्राप्त किया था। संध्या देवी नमस्तुत्ये, शा ंतीदात्री सुख प्रदा वर दात्री शिवपि ्रया, वंशव ृद्धि कराभवः। संध्या शिवपि ्रया माता, मंगला सर्व शा ंति दात्री प ्रतिं प ्रयच्छ में देवी वरदात्री नमा ेसततु।।
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डिम्पल, गुप्ता. "विज्ञापन क े र ंगा े ं का समाज पर प ्रभाव". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.888847.

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Abstract:
वस्तुआ ें क े धरातल में रंग हा ेने क े कारण ही वह हमें दिखाई देती है। धरातलों पर प्रकाश की मात्रा कम व अधिक होने से एक ही रंग की वस्तुएँ अलग-अलग दिर्खाइ देती है। यह विविध रंग हमें सूर्य के द्वारा ही सब वस्तुओं को प ्राप्त होता है। स ूर्य की किरणों में सात प ्रकार के रंग हा ेते है। और उन्हीं के द्वारा ही आकश में इन्द्रधनुष बनता है। रंग एक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक आ ैजार है। हर रंग अलग-अलग प ्रभाव छा ेड़ता ह ै। रंगा ें का समाज पर बह ुत प्रभाव पड़ता ह ै यदि मानवीय जीवन आ ैर प्रकृति से रंग निकाल दिया जाय तो इस धरती पर सब सूना-सूना नीरस सा लगने लगेगा रंगा ें के प्रति हर व्यक्ति की भावनाएँ अलग-अलग हा ेती है। विज्ञापन में रंगा ें का मिलान एक जादुई असर छा ेड़ता ह ै। रंग संया ेजन में सन्तुलन लाने व व्यक्ति क े क ेन्द्रित ध्यान का े हटान े में मदद करता ह ै। एक रंग का े दूसरी जगह लगाकर उसका संतुलन बनाया जाता है या उतना ही तेज कोई दूसरा रंग आँखों का े दूसरी तरफ खींचते है। रंगा ें का रुझान हमें किसी वस्तु को खरीदने में मदद करता ह ै। रंग भिन्न-भिन्न तरीके से व्यक्ति पर अपना प्रभाव छा ेड़ता है। हर रंग का जीवन में मन आ ैर शरीर से बहुत सम्बन्ध हा ेता है ं रंगा ें से सा ैन्दर्य ह ै। जीवन में रंगा ें से उत्साह मिलती ह ै रंगा ें से ही जीवन में उमगा ें क े फ ूल खिलते ह ै। लाल रंग रंगा ंे म ें सबसे ऊपर ह ै ये लाल रंग प्यार का प्रतीक है क्या ेंकि हमारे रक्त का रंग लाल होता ह ै इस लिए इसे जीवन से जोड़ा गया ह ै।
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