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Journal articles on the topic 'साक्षारता'

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1

डॉ., प्रीति शर्मा, та कुमार कामले मुकेश. "बैगा जनजाति महिलाओं का सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण (कबीरधाम जिले के बोड़ला ब्लॉक के अंतर्गत घुरसीपकरी ग्राम के विशेष संदर्भ में)". INTERNATIONAL EDUCATION AND RESEARCH JOURNAL - IERJ 11, № 2 (2025): 67–69. https://doi.org/10.5281/zenodo.15583714.

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Abstract:
प्रस्तुत शोध पत्र में शोधार्थी द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के कबीरधाम जिले के बोड़ला जनपद पंचायत के अंतर्गत घुरसीपकरी ग्राम में निवासरत विशेष पिछड़ी जनजाति&nbsp;<strong>बैगाओं</strong>&nbsp;का सर्वेक्षण पद्धति से वैज्ञानिक अध्ययन कर उक्त गांव के&nbsp;<strong>बैगा</strong> महिलाओं के जीवन में पिछले 10 -15 वर्षों में हुऐे सामाजिक -आर्थिक बदलाव को जानने का प्रयास किया गया है । शोधार्थी द्वारा अपने अध्ययन के उद्वेष्य की पूर्ति हेतु अध्ययन प्रविधि के रूप में अवलोकन एव साक्षात्कार का प्रयोग कर साक्षात्कार अनुसूची को उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया है ।
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डा, ॅ. प. ्रतिभा सा ेलंकी. "हि ंदी गीति - काव्य आ ैर स ंगीत का पारस्परिक स ंब ंध आ ैर नवाचार". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886954.

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Abstract:
संगीत आ ैर साहित्य दोना ें ही मनुष्य क े भावों का े व्यक्त करने क े महत्वपूर्ण माध्यम ह ै। दोना ें क े समन्वय से अलौकिक सा ैंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती ह ै जो मानव मन का े सच्चिदानंद की अनुभूति और सत्यम्-षिवम्-सुंदरम् की प ्रतीति कराती ह ै। वाराहोपनिषद के अनुसार संगीत सम्यक गीत है, भागवत प ुराण नृत्य तथा वाद्य यंत्रा ें क े साथ प्रस्तुत गायन का े संगीत कहता ह ै तथा संगीत का लक्ष्य आनंद प ्रदान करना मानता ह ै। यही उद्द ेष्य साहित्य का भी होता है। साहित्य अक्षर ब्रह्म आ ैर षब्द ब ्रह्म से साक्षात कराता ह ै ता े संगीत नादब ्रह्म और तालब्रह्म से। साहित्य आ ैर संगीत दोनों का साथ चोली-दामन का सा है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती क े एक हाथ में वीणा ह ै तो दूसरे म ें प ुस्तक भी है। भर्तृहरिकृत नीति-षतकम् में कहा गया ह ै - साहित्य स ंगीत कला विहीनः साक्षात् पषु पुच्छं विषाणहीन: अर्था त साहित्य, संगीत आ ैर कला स े विहीन मनुष्य साक्षात पष ु के समान ह ै। ये प ंक्तियाँ साहित्य आ ैर संगीत क े सह अस्तित्व का े प ूर्ण रूपेण स्पष्ट करती ह ै। स्वर के बिना षब्द आ ैर षब्द के बिना स्वर अपूर्ण ह ै। दोनों का सम्मिलन ही उन्ह ें प ूर्ण करता ह ै। नाट्यषास्त्र क े जनक भरतमुनि क े अनुसार संगीत की सार्थकता गीत की प ्रधानता में ह ै। गीत, वाद्य आ ैर नृत्य में गीत ही अ ्ग्रगामी ह ै, ष ेष अनुगामी। गीत षब्द प ्रधान संगीत आ ैर संगीत नादप्रधान गीत ह ै। गीत को षब्द रूप में स ंगीत आ ैर संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है।
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प्रा., सुधाकर इंडी. "'दरिद्र देवो भव' - स्वामी विवेकानंद के मानवतावादी विचारों की प्रासंगिकता (नरेंद्र कोहली और राजेन्द्रमोहन भटनागर के उपन्यासों के संदर्भ में)". International Journal of Humanities, Social Science, Business Management & Commerce 08, № 01 (2024): 159–64. https://doi.org/10.5281/zenodo.10491944.

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Abstract:
स्वामी विवेकानंद<strong> </strong>भारत के सभी दीन-दुखियों, गरीबों, दलितों को ईश्वर का अंश मानते हैं। दरिद्र साक्षात् नारायण का अंश है और उसकी सेवा करना ही ईश्वर की सेवा करना है। आज भारत के सामाजिक परिस्थितियों का जायजा लेने पर ज्ञात होता हैं कि समाज से वंचित उपरोक्त लोग कुछ विशिष्ठ कहे जानेवाले लोगों से प्रताड़ित, शोषित होते हुए नजर आ रहे हैं। उससे छुटकारा पाने के लिए किये जानेवाले उनके संघर्ष को नजरंदाज करके मानवता को कुचलते हुए दरिद्र नारायण को और दरिद्रता की ओर धकेला जा रहा है। ऐसे में स्वामी विवेकानंद के मानवतावादी विचार आज के हालातों को सुधारने में अधिक प्रासंगिक हैं।<strong> </strong>
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सतीश, चन्द्र दास. "आधुनिकसंस्कृतसाहित्ये गलज्जलिकायाः वैशिष्ट्यम्". Kiraṇāvalī 16, № 1-4 (2024): 313–20. https://doi.org/10.5281/zenodo.14688909.

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Abstract:
स्मिन् क्षेत्रे गलज्जलिकासाहित्यम् अन्यसाहित्यमिव मानवानां कृते उपकरोति। अस्मिन् साहित्ये प्रभुसम्मितकाव्योपदेशः, सुहृत्सम्मितकाव्योपदेशः, कान्तासम्मितकाव्योपदेशश्चेति उपदेशत्रयमपि समग्रतया प्राप्यते। अतः समाजस्य सर्वमपि क्षेत्रमनेन प्रसन्नतां प्राप्नोति। तथा च अत्र सामाजिकं, राजनैतिकम्, आध्यात्मिकं, साम्प्रदायिकम्, ऐतिहासिकमित्यनेकतत्त्वपूरितं भवति गलज्जलिकासाहित्यम्। गलज्जलिकासाहित्यस्य भावः व्यङ्ग्यार्थवाक्यार्थलक्ष्यार्थभेदेन तत्र तत्र प्रतिफलितो भवति। अतः सचेतसां प्रफुल्लता आगच्छन्ति। कठिनोऽपि विषयः कोमलतया सरसतया च प्रदर्शितो भवति। अतः वक्तुं शक्यते यत् &ndash; &lsquo;कविता कवेर्मुखनिर्गता साक्षात् कृपाणी निष्कृपा।&rsquo; (औदुम्बरी) - &lsquo;निष्कृपा-कृपाणी&rsquo; इति। इयं केवलं कवितायाः विशेषणं न, अपि तु काव्यस्य प्रयोजनमपि इति कथ्यते। अतः अस्मिन् शोधप्रपत्रे मया संस्कृतगलज्जलिकायाः उद्भवः तथा तस्याः विकासः इति एतयोः विमर्शः कृतः। तथा संस्कृतगलज्जलिकायां ये ये विषयाः वर्तन्ते तथा &nbsp;तेषां संरचना पद्धत्यादि विषये यथायथम् अस्यां शोधपत्रिकायां प्रस्तावः क्रियते।<strong>कूटशब्दाः </strong> संस्कृतगलज्जलिका, इतिहासः, आरम्भिका-मध्यिका-अन्त्यिका, सामाजिकम्, राजनैतिकम्, समजोन्नत्युपायाः।
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पौडेल, शिवराज. "सङ्गीतमा नादानुसन्धान". Journal of Fine Arts Campus 4, № 1 (2022): 37–45. http://dx.doi.org/10.3126/jfac.v4i1.51760.

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Abstract:
नादलाई साक्षात् ब्रह्मस्वरूप मानेको हुनाले सम्पूर्ण जगत नै नादको अधीनमा रहेको मानिन्छ । यहि नादको साधना वा माध्यमले ब्रह्म प्राप्ति अथवा अभिष्ट लक्ष्यको साक्षात्कार गर्नको लागि गरिने खोजलाई नादानुसन्धान भनिएको छ । सङ्गीतमा प्रयोग हुने ध्वनिलाई पनि नाद भनिएको छ । त्यसैले सङ्गीत सृजनाको आधार पनि नाद नै रहेको मान्न सकिन्छ । आहत र अनाहत गरी २ नादमा ब्रह्म साक्षात्कार गराउने नाद र लौकिक ख्याति प्राप्ति गराउने नादको उत्पत्ति, भेद, स्वरूप, लक्षण र महत्व लगायतका विषयमा स्पष्टता हासिल गर्नु नै यस अध्ययनको उद्देश्य रहेको छ । यसका लागि सङ्गीत एवं वैदिक वाङ्मयमा दिइएका तथ्य र प्रमाणहरूका आधारमा गुणात्मक विधिद्वारा व्याख्या तथा विश्लेषण गरी सुक्ष्मताले नियाल्ने र त्यसलाई उजागर गर्ने लक्ष्य राखिएको छ । ब्रह्म प्राप्ति अथवा मोक्षमार्गमा जान चाहनेले आहतको तुलनामा अनाहत नादको उपासना धेरै गर्ने गरेको र यसलाई मुक्तिदायक नाद मानेको पाइयो भने संसारको विलासिता र अनेक लौकिक इच्छा पूर्तिको कामना गर्नेहरूले केवल आहत नाद अर्थात् रक्तिदायक नादको साधना गर्ने गरेको पाइएको छ । साथै अनाहत नादको व्यवहारिक सङ्गीतसंग कुनै सम्वन्ध नरहेको भनिए तापनि अत्यन्त चञ्चल मन उपास्यब्रह्ममा स्थिर गर्न आहतनादले पनि ठुलो भूमिका निर्वहन गरेको हुन्छ भन्ने अध्ययनले देखाएको छ । नादानुसन्धानको विषयमा अध्ययन गर्न चाहनेहरूलाई यस अध्ययनको परिणामले ज्ञान अभिबृद्धि गर्नुको साथै शास्त्र प्रमाणित निश्चित मार्ग प्रशस्त गर्ने छ भन्ने अपेक्षा गरिएको छ ।
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रश्मि, जोशी, та खान असलम. "चित्रकार विष्णु चिंचालकर का कला संसार". International Journal of Research - Granthaalayah 7, № 11(SE) (2019): 261–64. https://doi.org/10.5281/zenodo.3592638.

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Abstract:
&#39;&#39; एम. एफ. हुसैन ने कहा था कि उनकी गहरी रेखायें विष्णु चिंचालकर की देन हैं। चिंचालकर को लोग गुरुजी के नाम से भी जानते हैं। हुसैन, बैन्द्रे और देवलालीकर तीनों ही जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्&zwnj;स में गुरुजी के सीनियर रहे हैं। अपनी कला से दौलत और शोहरत के शिखर को छूने की बजाए गुरुजी प्रकृति की ओर मुड़ गए। सरलता ही उनकी विशिष्ठता रही है। उनकी ऊंगलियों की दिव्यता से आस-पास की वस्तुओं जैसे तार-प्लग में बारहसिंगा, चप्पल में मोनालिसा, जाम में टैगोर, बनियान में ईसा-मसीह से साक्षात होता है। पेड़ की छाल, पत्तियों, फली, बीज, टहनियां, टूटी लकडियां, भुट्टों से बनाई गई कलाकृति उन्हें पिकासों के समकक्ष बनाती है&#39;&#39; (प्रभु जोशी)। भारतीय चित्रकला में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद निरंतर विकास हो रहा था। तभी विष्णु चिंचालकर रंगों और केनवास की दुनिया से बाहर पलायन कर गए। वहां जहां जीवन से परित्य वस्तुओं की आकृतियों को आत्मा प्रदान करने एवं एक अकल्पनीय छवि खोजने की इच्छा छुपी बैठी थी। आपके हाथों का जादुई स्पर्श पाकर कई परित्यक्त चीजें एक नई काया को प्राप्त होने लगी। कला के क्षेत्र में परम्परागत माध्यम को चुनौती देकर उसकी जगह पर नवाचार करना वाकई बहुत कठिन कार्य होता है। विष्णु चिंचालकर ने यह कार्य न केवल किया, बल्कि उसे सार्थकता तक भी पहुंचाया।
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डा, ॅ. संगीता शर्मा. "भारतीय लोक संस्कृति आ ैर रंग". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.890501.

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Abstract:
मानव के पास संस्कृति ह ै इसीलिए वह पशु से अलग ह ै। भर्तृ हरि ने माना ह ै - “साहित्य स ंगीत कला विहीनः साक्षात् पश ु पुच्छ विषाण हीनः।।“ डा ॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - “लोक शब्द का अर्थ जनपद या गाँव नहीं बल्कि नगरों व गाँवों मे फ ैली वह समूची जनता ह ै जिसका आधार पा ेथियाँ नहीं, अकृत्रिम आ ैर सरल जीवन व्यतीत करने वाले जन ह ै।“ लोक संस्कृति का अहम भाग ह ै लोक कला। यह संस्कृति का पहचान है जहाँ तक भारतीय लोक संस्कृति की बात ह ै इसमें लोक कला का विष ेष महत्व है। कला का प्रयोजन अभिव्यक्ति, यष प ्राप्ति, धनोपार्जन, सेवा, आनंद की प्राप्ति, विष्व कल्याण आदि हो सकते ह ै। भौगोलिक स्थितियाँ लोक चित्रों क े रंग संया ेजन का े प्रभावित करती ह ैं। भोपाल व होषंगाबाद के मध्य आ ेबेदुल्लागंज क े दक्षिण में स्थित भीमब ेटका की गुफाआ ें में अधिकांषः चित्रित गुफाएं मध्य पाषाण काल की ह ै। इनमें अधिकतर चित्र लाल व सफ ेद रंग क े ह ैं। इनके अलावा कुछ चित्र पीले व हरे रंगा ें क े भी ह ै। यहाँ क े भूगर्भी य जमाव में पाए गए पदार्थों से बनाए गए रंग उस काल की भा ैगोलिक स्थिति व उस काल की लोक संस्कृति के सहसंबंध का े स्पष्ट करते ह ैं। वहाँ क े अधिकांष चित्र मध्य पाषाण काल के है ं। इनमें चित्रित ला ेक संस्कृति के प्रतीक पश ु-पक्षी उस काल की सामाजिक स्थिति का दृष्यांकन ह ै। इनमें नृत्य, व ेषभूषा, आभूषण, माता-पुत्र, मद्यपान, आखेट, सामूहिक नृत्य आदि के भी चित्र है। इन शैल चित्रा ें क े माध्यम से ला ेक संस्कृति क े सा ेपाना ें को भी जाना जा सकता है।
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Solanki, Pratibha. "HINDI GEETI - INTERACTION AND INNOVATION OF POETRY AND MUSIC." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 3, no. 1SE (2015): 1–2. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v3.i1se.2015.3468.

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Abstract:
Both music and literature are important means of expressing human emotions. With the coordination of both, the supernatural beauty is the creation of rain, which gives the human mind the realization of Sachchidananda and realization of Satyam-Shivam-Sundaram. According to the Varahapanishad, music is the perfect song, Bhagavata Purana refers to singing presented with dance and musical instruments and the goal of music is to provide pleasure. The same purpose is also for literature. Literature provides syllable Brahma and Shabda Brahma and music with Nadabrahm and Talbrahm. Both literature and music are closely related. Goddess Saraswati, the master of learning, has a veena in one hand and a book in the other. The policy of fraternity states&#x0D; संगीत और साहित्य दोनों ही मनुष्य के भावों को व्यक्त करने के महत्वपूर्ण माध्यम है। दोनों के समन्वय से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत्यम्-षिवम्-सुंदरम् की प्रतीति कराती है। वाराहोपनिषद के अनुसार संगीत सम्यक गीत है, भागवत पुराण नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य आनंद प्रदान करना मानता है। यही उद्देष्य साहित्य का भी होता है। साहित्य अक्षर ब्रह्म और षब्द ब्रह्म से साक्षात कराता है तो संगीत नादब्रह्म और तालब्रह्म से। साहित्य और संगीत दोनों का साथ चोली-दामन का सा है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के एक हाथ में वीणा है तो दूसरे में पुस्तक भी है। भर्तृहरिकृत नीति-षतकम् में कहा गया है
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मगर Magar, ढकबहादुर Dhakbahadur. "नेपालको इतिहासमा सिद्ध र प्रथम सहिद लखन थापा मगर". Kutumbha vani 5, № 1 (2024): 139–45. http://dx.doi.org/10.3126/kv.v5i1.71006.

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Abstract:
सानो गोर्खा राज्यको इतिहास देखि सिङगो नेपालको इतिहासमा देखिएका एकै जाति ,समूदाय, एकै स्थानमा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्वहरु सिद्ध लखन थापा मगर र प्रथम सहिद खलन थापा मगरको उदय र अन्त भएको थियो । सिद्ध लखन थापा मगर राजा राम शाहको शासन कालमा साक्षात भगवती रानी लिलावतीको सेवकको रुपमा गोरखनाथ बावाले सिद्ध बनाएर गोर्खा दरवारमा लगेका थिए । दरवारमा रानीको सेवकको साथै राजा राम शाहको प्रमुख सल्लाहकारको रुपमा पनि रहेका थिए । उनले दैवीय चमत्कारीका कार्यहरु गरी तत्कालीन गोर्खा दरवारमा आश्चर्यचकित बनाएका थिए । राजाको निधन पछि सति जान लागेकी रानीको सल्लाह अनुसारनै आफ्नो घर आएर बसे । साथै रानीले भने अनुसार नै सिलाको रुपमा उत्पन्न भएर पुन सेवा गर्ने अवसर प्रदान गरिन । मनकामना देवीको रुपमा उत्पती भए पछि सिद्ध लखन थापा मगर मूल पूजारी भएर सेवा गर्न थाले । उनले मनकामना देवीको पूजाविधी र पुजारी वंशानुगत व्यवस्था मिलाएर तीर्थ गर्न गए, धेरै दिन पछि फर्केर आए , तर घरमा आफ्नो काजकिरिया गरि सकेको भन्ज्याङमा भेट भएका चेलीबाट थाहा पाएपछि नजिकैको गुफामा आफुले टेकेको भीमसेनपातीको लाठी गुफा अगाडि राखेर अलप भए । त्यस्तै प्रथम सहिद लखन थापा मगर वि.स.१८९१ मा जन्मी गोरखनाथ गणमा सैनिक भएका थिए । जंग बहादुर राणाको निरङकुस शासनबाट आक्रोसित भै सैनिक सेवा छोडी धार्मिक आडमा जंग बहादुर राणाको विरुद्ध जनस्तरको समर्थन प्राप्त गरी विद्रोह गरेका थिए । वि.स. १९३३ मा जंग बहादुरले उनी लगाएत अन्य सात जनालाई हत्या गरेका थिए ।अतः उनकै पे्ररणा बाट २००७ सालको क्रान्ति सफल भएको थियो । आज हजारौं सहिदहरुको सृखलाको क्रममा प्रथम सहिदको रुपमा सम्मानित भएका छन ।
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गोपाल, गोस्वामी. "विरासत का संरक्षणः एक चिन्तन". Recent Researches in Social Sciences & Humanities (ISSN: 2348 – 3318) 10, № 01 (Jan.-Feb.Mar.) (2023): 34–36. https://doi.org/10.5281/zenodo.7940839.

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पिता की आज्ञानुसार राजपाट त्याग कर रामचन्द्र का चैदह वर्षों का वनवास&rsquo; तथा &lsquo;कलियुगी पुत्र द्वारा सम्प&Yuml;िा के लिए पिता की हत्या&lsquo;, भारतीय संस्कृति के मूल्यों के हनन की यह व्यथा-कथा अपने आप मंे गंभीर चिन्तन का विषय है। आधुनिक युग विज्ञान एवं तकनीकी का युग है। दुनिया सिमट कर इतनी छोटी हो गयी है कि आज विभिन्न संस्कृतियां एक दूसरे पर अपना प्रभाव डाल रही हैं। पाष्चात्य संस्कृति ने भारतीय युवाओं के मस्तिष्क, रहन-सहन और सोचने-विचारने की क्षमता को इतना प्रभावित कर दिया है कि नैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि बहुमुल्य मूल्यों से युक्त भारतीय आज मौद्रिक मूल्यों की झूठी चमक के सामने अपने हीरे-जवाहरातों से युक्त संस्कृति रूपी खज़ाने को खोता जा रहा है। जिस देष की संस्कृति को सभ्यता अपनी दासी बना लेती है, वहाँ की संस्कृति की अकाल मृत्यु हो जाया करती है। अतः आवष्यकता है अपनी धरती पर एक ऐसा पौधा लगाने की जिसमें विज्ञान की सहायता से &lsquo;सत्यम&lsquo; रूपी पुष्प खिल सकें, जिसकी &lsquo;षिवम&lsquo; रूपी महक मानव में कल्याणकारी भावना विकसित कर सके, तथा जिससे सुसज्जित विष्व में हम &lsquo;सुन्दरम्&lsquo; का साक्षात् दर्षन कर सके। आज जिन आधुनिक संचार माध्यमों के मायाजाल ने हमारे युवाओं को दृगभ्रमित कर रखा है वहीं संचार-साधन संस्कृति की रक्षा का कार्य-भार संभालें और एक ऐसे पर्यावरण को निर्मित करें जिसमें हम अपनी भारतीय प्राचीन अक्षुण्य संस्कृति के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकें। इसके अतिरिक्त हमें स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करना होगा ताकि अनुकरण द्वारा भावी पीढ़ी में वे समस्त मूल्य विकसित हो सकें जो उनमें देवत्व का दर्षन करा सकें तभी भारतीय संस्कृति पुनः जागृत हो सकेगी और भारतीय युवा स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर सकेगा। नई षिक्षा नीति 2020 इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान देगी, इसके प्रारूप को देखते हुए यह आषा की जा सकती है।
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रणिता, घोष. "श्रीमच्छंकराचार्यकृतच्छान्दोग्योपनिषद्भाष्यस्य कतिपयशब्दवाक्यानां रूपवाक्यशब्दार्थतत्त्वनिरूपणम्". Kiraṇāvalī 16, № 1-4 (2024): 321–26. https://doi.org/10.5281/zenodo.14688944.

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Abstract:
छान्दोग्योपनिषदि शांकरभाष्ये कतिपयशब्दवाक्यानि सन्ति येषां रूपवाक्यशब्दार्थतत्त्वानुसारं जालबन्धविमोचनेनार्थनिरूपणेन प्रतिपाद्यविषयाणां परिस्फुरणं भवति।&nbsp;&lsquo;तत्सत्सृष्टं तेज ऐक्षत तेजोरूपसंस्थितं सदैक्षतेत्यर्थः&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।२।३,&nbsp;शांकरभाष्यम्), &lsquo;ता आप ऐक्षन्त पूर्ववदेवाबाकारसंस्थितं सदैक्षतेत्यर्थः&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।२।४,&nbsp;शांकरभाष्यम्) इति शांकरभाष्ये लक्षणावृत्त्या तेजःशब्देन अप्शब्देन च तेजसोऽपां चाधिष्ठानं सद् ब्रह्म अवबुध्यते। &lsquo;तेजःप्रभृतीक्षत इवेक्षत इत्युच्यते भूतम्&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।२।४,&nbsp;शांकरभाष्यम्) &nbsp;इति शांकरभाष्ये इवशब्दप्रयोगद्वारेण तेजःप्रभृतीनां गौणेक्षणकर्तृत्वं संपादितम्। सदधिष्ठितत्वापेक्षस्य तेजःप्रभृतिन ईक्षितृत्वस्य गौणत्वम्, सत ईक्षितृत्वस्य मुख्यत्वं च प्रतिपादिते शारीरकमीमांसाभाष्ये शंकराचार्येण। अनेनाद्वैतवेदान्ती शंकराचार्यः पारमार्थिकदृष्ट्या सत्कारणवादी विवर्तवादी वेति ध्वनितम्। &lsquo;हन्तेदानीमहमिमा यथोक्तास्तेज आद्यास्तिस्रो देवता, अनेन जीवेनेति&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।३।२,&nbsp;शांकरभाष्यम्) इति शांकरभाष्ये जीवशब्दात् तृतीयया विभक्त्या जीवस्य द्वारत्वम्, अहमिति कर्तृपदेन च ब्रह्मणः कर्तृत्वमुक्तम्। धर्मराजाध्वरीन्द्रकृते वेदान्तपरिभाषाग्रन्थे उक्तम्- पञ्चतन्मात्राद्युत्पत्तौ सप्तदशावयवोपेतलिङ्गशरीरोत्पत्तौ हिरण्यगर्भस्थूलशरीरोत्पत्तौ च परमेश्वरस्य साक्षात् कर्तृत्वम्, इतरनिखिलप्रपञ्चोत्पत्तौ च परमेश्वरस्य हिरण्यगर्भादिद्वारा कर्तृत्वमिति। अत्र परपमेश्वरस्य हिरण्यगर्भादेश्चेति कर्तृद्वारयोरेकत्वमस्ति, द्वैतापत्तेः। &lsquo;जीवेन&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।३।२,&nbsp;शांकरभाष्यम्)&nbsp;इति पदे &lsquo;प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्&rsquo; इति कात्यायनकृतवार्त्तिकानुसारेण प्रकृत्यादित्वात् तृतीया। &ldquo;जीवो हि नाम... &lsquo;ध्यायतीव लेलायतीव&rsquo;&nbsp;इति च वाजसनेयके&rdquo; (छान्दोग्योपनिषद्- ६।३।२,&nbsp;शांकरभाष्यम्)&nbsp;इति भाष्ये प्रतिबिम्बवाद एव शंकराचार्येण स्वीकृतः,&nbsp;न त्वाभासवाद:। तद्भाष्ये आभासशब्दः छायाशब्दश्च प्रतिविम्बवादिसंमतप्रतिबिम्बवाचकौ, न त्वाभासवाचकौ। &lsquo;मननदर्शनश्रवणादिव्यवहाराय&rsquo;&nbsp;(छान्दोग्योपनिषद्- ६।८।१,&nbsp;शांकरभाष्यम्)&nbsp;इति शांकरभाष्ये व्यवहारशब्देन प्रमाणाप्रमाणे इति उभौ एव व्यवहारौ बुध्येते। जाग्रदवस्थायां यथा चाक्षुषादिप्रत्यक्षप्रमाणानि सन्ति,&nbsp;स्वप्नावस्थायां तथा चाक्षुषादिप्रत्यक्षासत्त्वेऽपि &lsquo;स्वप्ने रथमपश्यम्&rsquo;,&nbsp;&lsquo;स्वप्नान्ते दिव्यं शरीरभेदमास्थाय तदुचितान् भोगान् भुञ्जान एव प्रतिबुद्धः&rsquo;&nbsp;(ब्रह्मसूत्रम्- १।१।१,&nbsp;भामती) इत्यादिरूपेण दर्शनश्रवणादिव्यवहारा: सन्त्येव। स्वप्नावस्थायां दर्शनश्रवणादिव्यवहारा न प्रमाणजन्या:,&nbsp;स्वाप्नविषयेण सह इन्द्रियसंनिकर्षाभावात्। <strong><em>मुख्यशब्दा:</em></strong> &nbsp;&nbsp;&nbsp;<em>गौणेक्षणकर्तृत्वम्</em>,&nbsp;<em>सत्कारणवाद:</em>,&nbsp;<em>विवर्तवाद:</em>,&nbsp;<em>प्रतिबिम्बवाद:</em>,&nbsp;<em>जाग्रदवस्था</em>,&nbsp;<em>स्वप्नावस्था</em>।
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आदित्य, कुमार. "आत्म ज्ञान की प्राप्ति में स्वर योग की उपयोगिता एवं स्वास्थ्य प्रबंधन का विश्लेषणात्मक अध्ययन". RECENT RESEARCHES IN SOCIAL SCIENCES & HUMANITIES 11, № 3 (2024): 1–8. https://doi.org/10.5281/zenodo.13997485.

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Abstract:
ब्रह्मांड तथा उसके खंड पिंड आदि का निर्माण स्वर से ही होता है। स्वर साक्षात परमेश्वर शिव का स्वरूप है जो सृष्टिकी उत्पत्ति पालन तथा संहार करने वाले हैं। स्वर से ही तीनों लोक प्रतिष्ठित हैं, और स्वर को जानने से हीआत्मा काबोध होता है।स्वर ज्ञान आधारित ऐसे प्रयासों और अभ्यासों के संकलन को स्वर साधना की संज्ञा दी जाती है जिसकेअंतर्गत साधक स्वरों को नियंत्रित करते हुए प्राण का प्रबंधन करना सीख कर जीवन के जन्म, मृत्यु एवं मोक्ष के प्रश्न कोसरलता से हल कर लेता है एवं जीवन पर स्वामित्व प्राप्त कर अनंत वर्षों तक निरोग जीवन व्यतीत करता है तथा अंततःब्रह्मज्ञान के मार्ग पर आरूढ़ होकर मोक्ष को सरलता से प्राप्त कर लेता है। यदि कहा जाए कि मानव मुक्ति की सहजसाधना हेतु सर्वप्रथम प्रयास भारतवर्ष में ही हुए हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। स्वर आधारित ज्ञान पर उपलब्धविभिन्न ग्रंथ स्वर ज्ञान को मूलतः आदिनाथ शिव एवं जगदंबा पार्वती के वार्तालाप से अवतरित मानते हैं। स्वर योगभारतीय संस्कृति की प्राचीनतम विज्ञान एवं कला है जिसमें शरीरस्थ जीवन तत्व, प्राण की गतिविधि और जीवन के सभीकार्यों के संपादन का पूर्ण विश्लेषण किया गया है। स्वर योग एक ऐसी वैज्ञानिक विधि है जिसके द्वारा सूर्य, चंद्र, ग्रहोंको शरीर में स्थित सूक्ष्म नाड़ियों की सहायता से यदि अपने अनुकूल बना लिया जाए तो संसार में ऐसा कोई भी कार्यनहीं रह जाता जिससे असंभव कहा जा सके। स्वर योग का संबंध हमारे शरीर की प्राणिक ऊर्जा की ताल लयबद्धता सेहै। स्वर इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि स्वास्थ्य द्वारा किस प्रकार शारीरिक प्राण ऊर्जा को नियंत्रित एवं संयोजितढंग से संचालित कर ब्रह्मांडिय प्राणिक ऊर्जा से सामंजस्य स्थापित किया जाए।
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किशोर, एरंडे. "मानव जीवन में स ंगीत की उपादेयता". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.886065.

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Abstract:
समस्त ललित कलाआ ें में संगीत का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण ह ै। इसके अध्ययन आ ैर अभ्यास से मनुष्य लौकिक तथा अलौकिक दोना ें सुख प्राप्त करता है। मानव जीवन संगीत से ओत-प्रा ेत ह ै। मनुष्य ज्ञान शील प्राणी ह ै। अतः उसे संगीत से विशेष आनन्द प्राप्त होता ह ै। मानव जीवन सदा संगीत से अनुप्राणित होता रहता है। मानव जीवन नाना प्रकार के उत्थान-पतन, हर्ष विवाद तथा राग द्वेष आदि द्वन्द्वात्मक भावा ें का केन्द्र होता ह ै। जहाँ एक आ ेर जीवन की जटिल समस्यायें मनुष्य का े चिन्तित करती रहती ह ै। वहाँ दूसरी ओर स ंगीत मनुष्य की सारी चिन्ताआ ें का निराकरण करता रहता ह ै। मानसिक तथा शारीरिक व्यथा से आक्रान्त हा ेकर जब मनुष्य अति व्यस्त हा े जाता ह ै तो मन की उध्दिग्नता को शान्त कर पुनः सशक्त बनाने की क्षमता एक मात्र संगीत में ही ह ै। समाज को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित बनाने में संगीत का विशेष या ेगदान ह ै। मना ेगत भावा े का े सजीव आ ैर साकार रूप देकर उसे अत्यन्त आकर्ष क आ ैर रंजक बनाने का एकमात्र कार्य संगीत का ही है। संगीत से साक्षात विष्णु भगवान प्रसन्न हा ेते ह ै ं। परमात्मा से लेकर देव, दानव, मनुष्य, पश ु एवं समस्त जड़ चेतन स ंगीत की मध ुर स्वर लहरा े से आंदा ेलित हो जाते ह ैं। संगीत से क ेवल मना ेरंजन ही नहीं अपितु धर्म भी होता ह ै। व ैदिक काल में राजसूर्य जैसे महान यज्ञा ें में संगीत का प्रया ेग किया जाता था। मंत्रा ें का उच्चारण भी संगीतात्मक होता है। उदात्त, अनुदात्त आ ैर स्वरित आदि तत्वों का उल्लेख वेदा ें में मिलता ह ै। जिन मंत्रा ें का उच्चारण इन तत्वों का े उप ेक्षित करके किया जाता ह ै व े मंत्र अश ुद्ध माने जाते ह ैं। सृष्टि के स्वर्णिम विहान से लेकर प्रलय की काली स ंध्या तक स ंगीत का अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ता ह ै।
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डॉ., पूर्वी निमगांवकर. "संगीत का चित्रकला से संबंध". International Journal of Research - Granthaalayah 7, № 11(SE) (2019): 268–69. https://doi.org/10.5281/zenodo.3592642.

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Abstract:
भारतीय संगीत का इतिहास, भगवतशरण शर्मा की पुस्तक के अनुसार<sup>1 </sup>इन खुदाईयों में श्री शंकर भगवान की तांडव नृत्य करती हुई एक मूर्ति, एक नारी की मूर्ति जो नृत्य मुद्रा में है मिली। इसके साथ ही ऐसे कई चित्र भी मिले है, जिनमें नृत्य के उत्कृष्ट नमूने भी प्राप्त हुए। एक ऐसी मिट्&zwnj;टी की मूर्ति प्राप्त हुई जिसके गले में ढोल जैसा वाद्य है, और एक वाद्य जो आधुनिक मृदंग के पूर्वज जैसा भी प्राप्त होता है। कई चित्रों में वीणा का मूल रूप तथा &#39;&#39;कर ताल&#39;&#39; ऐसे वाद्य दिखाई पड़ते है। इतनी प्राचीन संस्कृति जिसमें दो विभिन्न कलाएँ संगीत और चित्र कला का उद्&zwnj;गम लगभग साथ ही हुआ होगा, ऐसा प्रतीत होता है। भारतीय संगीत गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों कलाओं से मिलकर बना है, इसमें सूर, लय, तथा ताल के साथ ही सौन्दर्यता तथा बंदिश के भाव, भाषा का भी अत्यंत महत्व है। प्राचीन इतिहास में मूर्तिकला एवं नृत्य कला के इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि मुर्तियों की भाव भंगिमाओं तथा उनके द्वारा धारण किये गये वाद्य संगीत के अस्तित्व तथा स्थापित होने के प्रमाण है। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि भारत की सांस्कृतिक विरासत जैसे प्राचीन मंदिरों तथा धार्मिक ग्रंथो के साथ ही भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन देशी प्रान्तीय लोक संगीत में जिस प्रकार उल्लेखित है, उसी प्रकार मंदिरो तथा धार्मिक स्थलो पर भगवान श्री कृष्ण एवं राधा की मूर्तियों का अत्यंत सुंदर तथा आकर्षक चित्रण मंदिर की दीवारों तथा धार्मिक स्थलों पर बनाये हुए मिलते है। अर्थात संगीत और चित्रकला के स्थापित होने का समय साथ-साथ ही होगा। संगीत विषय में कलाकार मनोवृत्ति से चित्र पटल पर अपनी कला की अभिव्यक्ति करता है एवं चित्रकला में कलाकार उन भावों को मूर्त रूप देकर एक साक्षात उदाहरण प्रस्तुत करता है।
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गरिमा, पाठक. "बुन्द ेलखण्ड क े कलासाधक: किशन सा ेनी के चित्रा े ं का रंगस ंया ेजन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.892058.

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Abstract:
ब ुन्देलखण्ड के कला साधक श्री किशन सा ेनी जी का जन्म उ.प ्र. के झांसी जिले में 19 नवम्बर सन् 1958 को ह ुआ। इनके पिता जी श्री सूरज प ्रकाश सा ेनी मूलतः राजस्थानी थे लेकिन र्कइ वर्षा ें से झा ंसी में ही रह रह े ह ैं इनकी माताजी का नाम श्रीमति चंदा सोनी ह ै। सन् 1975 में सा ेनी जी ने र्हाइ स्कूल की परीक्षा पास की लेकिन परिस्थितिवश वे आगे नही ं पढ़ सक े। आज उनके व्यक्तित्व, व्यवहार आ ैर ज्ञान को देखकर का ेई भी यह नहीं सा ेच सकता कि उनकी संस्थागत शिक्षा के कुछ चरण बाकी रह गये है और वह इस तथ्य क े भी साक्षात् उदाहरण ह ै कि ‘कला किसी भी स्कूली शिक्षा व ज्ञान की मोहताज नहीं’ बचपन से ही सोनी जी ने अपने पिता जी को वस्त्रा ें को अलंकृत करते ह ुए देखा अतः उनक े अन्दर आनुवांशिकी गुणो क े अनुसार एक कलाकार क े गुण स्वतः ही आ गए । इनकी माता जी ने इनका मनोबल हमेशा बढ़ाए रखा। सोनी जी ने बालपन में ही अपने पिता जी ने कढाई का काम सीख लिया और धर्ना जन हेतु उनकी सहायता करने लगे परन्तु इस काम में इनका मन नहीं लगा। तब इन्हा ेने अपनी माता जी की प ्रेरणा स े, चित्रकला की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इन्होने अपना प ्रथम व्यक्ति चित्र अपनी ‘नानी मां’ का बनाया। इस समय इनकी आयु महज 14 वर्ष की थी ं। कला क्षेत्र में सा ेनी जी के कार्य प े्ररक इनके माता-पिता एर्वं इ श्वर की आराधना है। कला जगत क े महान कलाकार राजारवि वर्मा एवं एम.एम. प ंडित को इन्हा ेने अपना आदर्श माना और उनक े अनुसार ही आधुनिक भारतीय भावपूर्ण यथार्थ श ैली चित्रण का े अपनी कला का मुख्य ध्येय बनाया। सोनी जी के श्र ंगारिक चित्रा ें में श्री राजारवि वर्मा जी का एवं व्यक्तिचित्रा ें पर एस.एमप ंडित जी के चित्रों का प्रभाव दिर्खाइ देता ह ै।
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Poonam and Pintu Kumar. "Environmental Consciousness in Hindu Tradition – A Cultural and Philosophical Perspective." RESEARCH HUB International Multidisciplinary Research Journal 12, no. 4 (2025): 115–17. https://doi.org/10.53573/rhimrj.2025.v12n4.016.

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Abstract:
The Hindu tradition embodies a deep-rooted environmental consciousness that integrates cultural, spiritual, and philosophical values. Nature is revered not just as a life-support system but as a divine manifestation. This perspective, sustained from the Vedic era to modern times, emphasizes harmony with nature through the worship of the five elements—earth, water, fire, air, and space—collectively known as the Panchmahabhutas. Ancient scriptures like the Vedas, Upanishads, and Puranas convey messages of ecological balance, portraying Earth as a mother and nature as sacred. Practices such as tree worship, water conservation, and animal protection are central to religious rituals and festivals. Symbols and deities in Hinduism also reflect ecological wisdom, promoting a lifestyle of coexistence. In today’s era of environmental crises, this traditional ecological knowledge offers sustainable models rooted in ethics and spirituality. It advocates a shift from exploitation to reverence for nature, aligning development with dharma (righteous duty). Abstract in Hindi Language: हिंदू परंपरा में पर्यावरण चेतना गहराई से समाई हुई है, जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक मूल्यों से जुड़ी हुई है। प्रकृति को केवल जीवन सहायक तंत्र के रूप में नहीं, बल्कि ईश्वर के साक्षात स्वरूप के रूप में पूजनीय माना गया है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक यह दृष्टिकोण निरंतर बना रहा है, जिसमें पंचमहाभूत—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—की आराधना के माध्यम से प्रकृति के साथ समरसता पर बल दिया गया है। वेद, उपनिषद और पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथ पर्यावरणीय संतुलन का संदेश देते हैं, जहां पृथ्वी को मां और प्रकृति को पवित्र माना गया है। वृक्ष-पूजा, जल-संरक्षण और पशु-संरक्षण जैसे कार्य धार्मिक अनुष्ठानों और त्योहारों का अभिन्न अंग हैं। हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीकों में भी पर्यावरणीय ज्ञान समाहित है। आज के पर्यावरण संकट के समय में यह पारंपरिक ज्ञान एक नैतिक और आध्यात्मिक आधार पर आधारित सतत जीवनशैली की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है। Keywords: लघुकथा, बिहार, हिंदी साहित्य, साहित्यिक परंपरा, समकालीन लेखन, सामाजिक संदर्भ
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मासीवाल, डॉ. हेमलता. "मन्नू भंडारी के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण". International Journal of Advance and Applied Research 5, № 35 (2024): 124–28. https://doi.org/10.5281/zenodo.13856635.

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Abstract:
प्रस्तावना:साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य का हमेशा यही प्रयास रहता है कि समाज को उच्च मानवीय मूल्यों से परिचित कराये, समाज में जो भी &nbsp;अमानवीय और असद हो उसके विरोध में आवाज़ उठाए, समानता स्थापित करे। बदलते समय के अनुसार साहित्य में भी बदलाव आता है और इन्हीं बदलाओं का कभी पैरोकार बनता है तो कभी प्रतिरोध करता है। यह उसकी रचनाओं में साक्षात दिखाई देता है। प्राचीन काल से लेकर अद्यतन हम समाज में जो भी परिवर्तन देखते हैं वह साहित्य में &nbsp;विशेषकर कविता, कहानी, नाटक उपन्यास आदि में भी देखने को मिलता है। साहित्य में जीवन के यथार्थ-विश्लेषण को अधिक महत्व दिया जाता है। साहित्यकार तत्कालीन परिस्थितियों की व्यापकता और उसके परिणाम में अछूते नहीं पाते, दरअसल जीवन को त्याग कर साहित्य की सर्जना संभव नहीं है और मनुष्य का जीवन का भी समस्या रहित नहीं है। वर्तमान समय में तो समस्याएं ही जीवन का पर्याय बन गई है आज का साहित्यकार कोरी कल्पनाओं के ताने-बाने बुनने की अपेक्षा यथार्थ धरातल पर उतरकर उसे अपना कथ्य बनाता है।हिंदी लेखिकाओं का रचना संसार सन 1900 से आरंभ होता है। इन लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से उपन्यास जगत में क्रांति ला दी है। आजादी के बाद की &nbsp;लेखिकाएं समाज की ज्वलंत समस्याओं और घटनाओं को अपनी रचनाओं में उतारकर उन्हें समाज के सम्मुख रख रहे हैं। इन लेखिकाओं ने समाज-जीवन की हर समस्या और उनके मन में उड़ते प्रश्नों को अपने साहित्य का विषय बनाया है। इनमें छठवें दशक की सबसे चर्चित रचनाकार मन्नू भंडारी हैं, उन्होंने हिंदी कथा साहित्य को अपनी रचना धर्मिता से एक नयी राह दिखाई और संबंधों के दरमियान गहरी होती हुई दरारें, अतर्द्वंद्व के कारण उठता हुआ सैलाब, पात्रों की क्रमशः उठती-गिरती हुई मानसिकता, कथ्य की सहजता को अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया है। उन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैवाहिक आदि अनेक समस्याओं को उजागर किया है।
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Saini, Naresh Singh. "Role of Shakuntala in Abhijnan Shakuntalam written by great poet Kalidas in Sanskrit literature." RESEARCH REVIEW International Journal of Multidisciplinary 9, no. 5 (2024): 301–5. http://dx.doi.org/10.31305/rrijm.2024.v09.n05.036.

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Abstract:
This gradual development of Shakuntala's character as a heroine is very natural. At the end of the play, the sacrifice of life was completed with the union of co-wife, good husband and good man. This is the ultimate ideal of human life. At the center of achieving this ultimate ideal, the character of ideal heroine Shakuntala is present everywhere. All the events have happened around this. In fact, the portrayal of Shakuntala is a picture of extremely joyful sweetness. Shakuntala's simplicity is mature, serious and permanent in crime, sorrow, knowledge, patience and forgiveness. We get a glimpse of her motherhood in the ashram of sage Marich. Where the entire love of her heart overflows for her son, thus Kalidas has given a bright and unique character to the world literature by portraying Shakuntala as the living embodiment of affection, cordiality, modesty, femininity, decency, compassion and motherhood. Shakuntala has been described in this world famous drama Abhigyan Shakuntalam by the great poet Kalidas. Abstract in Hindi Language: नायिका के रूप में शकुंतला के चरित्र का यह क्रमिक विकास परम स्वाभाविक है। नाटक के अंत में सपत्नी, सदपत्य तथा सत्पुमान् तीनों के सम्मिलन से जीवन यज्ञ पूर्ण हो गया। यही मानवजीवन का चरम आदर्श है। इस चरम आदर्श की प्राप्ति के केंद्र में आदर्श नायिका शकुंतला का ही चरित्र सर्वत्र विद्यमान है। इसी के इर्द-गिर्द सारी घटनाये घटी हैं। वस्तुतः शकुंतला का चित्रण अत्यंत हर्षित करने वाली मधुरिमा का चित्र है। शकुंतला की सरलता अपराध में, दुःख में, अभिज्ञता में, धैर्य में और क्षमा में परिपक्व है, गंभीर है और स्थायी है। मारीच ऋषि के आश्रम में हमें उसके मातृत्व की झलक मिलती है। जहां उस के हृदय का समग्र प्रेम पुत्र के लिए उमड़ पड़ता है इस प्रकार कालिदास ने शकुंतला को स्नेह, सौहार्द, लज्जा, नारीत्व, शालीनता और करूणा तथा मातृत्व की साक्षात् प्रतिमा के रूप में अंकित करके विश्व- साहित्य को एक पवन, समुज्ज्वल और अनुपम चरित्ररत्न प्रदान किया है। यह नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम में महाकवि कालिदास के द्वारा यह विश्व प्रसिद्ध नाटक में शकुंतला का वर्णन किया गया है। Keywords: मानवजीवन, चरित्र, स्नेह, सौहार्द
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Pathak, Garima. "ARTISTS FROM BUNDELKHAND: COLOR COMBINATION OF KISHAN SONI'S PAINTINGS." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 2, no. 3SE (2014): 1–3. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v2.i3se.2014.3681.

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Abstract:
The art seeker of Bundelkhand, Mr. Kishan Soni ji was born in U.P. It was held in Jhansi district of 19 November 1958. His father Mr. Suraj Prakash Soni was originally Rajasthani but has been living in Jhansi for many years, his mother's name is Mrs. Chanda Soni. In 1975, Soni ji passed the high school examination but under the circumstances he could not study further. Today, by looking at his personality, behavior and knowledge, no one can think that there are few stages of his institutional education left and he is also a true example of the fact that 'art is not an attachment to any schooling and knowledge'Since childhood, Soni ji saw her father embellishing the clothes, so in him, according to the genetic properties, the qualities of an artist automatically came into being. His mother always kept his morale high. Soni ji, in his childhood, learned his father's work of embroidery and started helping him for Dharnjan, but he did not mind in this work. Then he, with the inspiration of his mother, shifted his attention to painting. He made his first person portrait of his 'granny mother'. At this time, he was only 14 years of age.&#x0D; बुन्देलखण्ड के कला साधक श्री किशन सोनी जी का जन्म उ.प्र. के झांसी जिले में 19 नवम्बर सन् 1958 को हुआ। इनके पिता जी श्री सूरज प्रकाश सोनी मूलतः राजस्थानी थे लेकिन कई वर्षों से झांसी में ही रह रहे हैं इनकी माताजी का नाम श्रीमति चंदा सोनी है। सन् 1975 में सोनी जी ने हाई स्कूल की परीक्षा पास की लेकिन परिस्थितिवश वे आगे नहीं पढ़ सके। आज उनके व्यक्तित्व, व्यवहार और ज्ञान को देखकर कोई भी यह नहीं सोच सकता कि उनकी संस्थागत शिक्षा के कुछ चरण बाकी रह गये है और वह इस तथ्य के भी साक्षात् उदाहरण है कि ‘कला किसी भी स्कूली शिक्षा व ज्ञान की मोहताज नहीं’बचपन से ही सोनी जी ने अपने पिता जी को वस्त्रों को अलंकृत करते हुए देखा अतः उनके अन्दर आनुवांशिकी गुणो के अनुसार एक कलाकार के गुण स्वतः ही आ गए । इनकी माता जी ने इनका मनोबल हमेशा बढ़ाए रखा। सोनी जी ने बालपन में ही अपने पिता जी ने कढाई का काम सीख लिया और धर्नाजन हेतु उनकी सहायता करने लगे परन्तु इस काम में इनका मन नहीं लगा। तब इन्होने अपनी माता जी की प्रेरणा से, चित्रकला की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इन्होने अपना प्रथम व्यक्ति चित्र अपनी ‘नानी मां’ का बनाया। इस समय इनकी आयु महज 14 वर्ष की थीं।
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प्रा., डॉ. संभाजी दादाराव पाटील. "महात्मा गांधींचे विचार आणि साहित्य". उदयगिरी - बहुभाषिक इतिहास संशोधन पत्रिका 01, № 04 (2023): 575–80. https://doi.org/10.5281/zenodo.10258859.

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Abstract:
मोहनदास&nbsp;करमचंद&nbsp;गांधी&nbsp;हे&nbsp;इतिहासातील&nbsp;एक&nbsp;वैश्विक&nbsp;व्यक्तिमत्त्व,&nbsp;पंचा&nbsp;नेसणाऱ्या&nbsp;कृश&nbsp;शरीराच्या&nbsp;या&nbsp;माणसाने&nbsp;ना&nbsp;कधी&nbsp;उच्च&nbsp;राजकीय&nbsp;पदे&nbsp;भूषविली,&nbsp;ना&nbsp;अमाप&nbsp;संपत्ती&nbsp;जमवली.&nbsp;तरीही&nbsp;ते&nbsp;विश्ववंदनीय&nbsp;ठरले.&nbsp;आयुष्याच्या&nbsp;सुरुवातीलाच&nbsp;त्यांनी&nbsp;सत्याच्या&nbsp;आधारे&nbsp;जगण्याचा&nbsp;संकल्प&nbsp;केला&nbsp;व&nbsp;अखेरपर्यंत&nbsp;तो&nbsp;पाळला.&nbsp;यामुळे&nbsp;त्यांच्या&nbsp;ठिकाणी&nbsp;प्रचंड&nbsp;असे&nbsp;नैतिक&nbsp;सामर्थ्य&nbsp;निर्माण&nbsp;झाले.&nbsp;उच्च&nbsp;नैतिक&nbsp;मूल्यांच्या&nbsp;आधारे&nbsp;लढा&nbsp;देऊन&nbsp;बलाढ्य&nbsp;अशा&nbsp;इंग्रज&nbsp;साम्राज्याच्या&nbsp;तावडीतून&nbsp;हिंदुस्थानची&nbsp;सुटका&nbsp;केली.&nbsp;देश,&nbsp;धर्म,&nbsp;जातीच्या&nbsp;पलीकडे&nbsp;जाऊन&nbsp;संबंध&nbsp;मानवजातीच्या&nbsp;मुक्तीसाठी&nbsp;त्यांनी&nbsp;आपले&nbsp;आयुष्य&nbsp;वेचले.&nbsp;सत्य,&nbsp;अहिंसा,&nbsp;मानवता, बंधुता&nbsp;या&nbsp;चिरंतन&nbsp;अशा&nbsp;नीतिमूल्यांची&nbsp;जगाला&nbsp;देणगी&nbsp;दिली.&nbsp;महात्मा&nbsp;गांधी&nbsp;हे&nbsp;एक&nbsp;जगाला&nbsp;पडलेले&nbsp;स्वप्न&nbsp;होते.&nbsp;देदीप्यमान&nbsp;ताराच&nbsp;तो&nbsp;साक्षात&nbsp;सत्य!&nbsp;आपल्या&nbsp;व्रतस्थ&nbsp;जीवनादर्शातून&nbsp;त्यांनी&nbsp;नवा&nbsp;इतिहास&nbsp;घडविला.&nbsp;निष्कलंक&nbsp;चारित्र्य,&nbsp;साहस,&nbsp;धैर्य&nbsp;आणि&nbsp;दृढनिश्चय&nbsp;अशा&nbsp;अनेक&nbsp;गुणाचा&nbsp;मिलाफ&nbsp;त्यांच्या&nbsp;ठिकाणी&nbsp;होता.&nbsp;सागराप्रमाणे&nbsp;विशाल&nbsp;असणाऱ्या&nbsp;या&nbsp;व्यक्तिमत्त्वात&nbsp;अनेक&nbsp;जाती,&nbsp;धर्म,&nbsp;संप्रदायांना&nbsp;सामावून&nbsp;घेण्याची&nbsp;क्षमता&nbsp;होती.&nbsp;म्हणूनच&nbsp;आजही&nbsp;संबंध&nbsp;मानवजातीच्या&nbsp;हृदयसिंहासनावर&nbsp;ते&nbsp;विराजमान&nbsp;झालेले&nbsp;दिसतात.&nbsp;रात्रीच्या&nbsp;गर्भात&nbsp;उद्याचा&nbsp;उषःकाल&nbsp;व्हावा&nbsp;आणि&nbsp;त्या&nbsp;तेजाने&nbsp;सर्व&nbsp;बातावरण&nbsp;मंगलमय&nbsp;व्हावे,&nbsp;अशी&nbsp;स्थिती&nbsp;सबंध&nbsp;जगाने 'गांधीयुगात&nbsp;अनुभवली.&nbsp;त्याची&nbsp;प्रभा&nbsp;साहित्यजगतात&nbsp;प्रकर्षाने&nbsp;उमटली.महात्मा&nbsp;गांधीजींचा&nbsp;जीवनपरिचय (जन्म&nbsp;२&nbsp;ऑक्टोबर&nbsp;१८६९&nbsp;मृत्यू&nbsp;३०&nbsp;जानेवारी&nbsp;१९४८)&nbsp;मोहनदास&nbsp;करमचंद&nbsp;गांधी&nbsp;यांचा&nbsp;जन्म&nbsp;गुजरात&nbsp;राज्यातील&nbsp;पोरबंदर&nbsp;येथे&nbsp;वैष्णव&nbsp;वाणी&nbsp;कुटुंबात&nbsp;झाला.&nbsp;त्यांचे&nbsp;वडील&nbsp;पोरबंदरचे&nbsp;दिवाण&nbsp;होते.&nbsp;आई&nbsp;पुतळाबाई,&nbsp;वडील&nbsp;करमचंद&nbsp;हे&nbsp;शीलवंत&nbsp;व&nbsp;धर्मनिष्ठ&nbsp;दाम्पत्य&nbsp;होते.&nbsp;घरी&nbsp;धर्मग्रंथांचे&nbsp;पठण,&nbsp;उपवास,&nbsp;व्रत&nbsp;इत्यादी&nbsp;धार्मिक&nbsp;विधी&nbsp;नित्यानियमाने&nbsp;होत.&nbsp;ध्रुव,&nbsp;प्रल्हाद,&nbsp;हरिश्चंद्र&nbsp;यांच्या&nbsp;जीवनावर&nbsp;आधारित&nbsp;नाट्यप्रयोग&nbsp;आणि&nbsp;इतर&nbsp;धार्मिक&nbsp;यांचा&nbsp;गांधीजींच्या&nbsp;बालमनावर&nbsp;खोल&nbsp;परिणाम&nbsp;झाला.&nbsp;अशा&nbsp;प्रकारे&nbsp;अहिंसा,&nbsp;सत्याग्रह,&nbsp;सदाचाराची&nbsp;मनोभूमिका&nbsp;लहानपणीच&nbsp;तयार&nbsp;झाली.मोहनदास&nbsp;व&nbsp;कस्तुरबा&nbsp;यांचा&nbsp;विवाह&nbsp;विद्यार्थिदशेतच&nbsp;वयाच्या&nbsp;१३व्या&nbsp;वर्षी&nbsp;झाला.&nbsp;१८८७&nbsp;मध्ये&nbsp;मॅट्रिकची&nbsp;परीक्षा&nbsp;उत्तीर्ण&nbsp;होऊन&nbsp;ते&nbsp;१८८८&nbsp;ला&nbsp;बॅरिस्टर&nbsp;बनण्याच्या&nbsp;हेतूने&nbsp;इंग्लंडला&nbsp;गेले.&nbsp;बॅरिस्टरच्या&nbsp;शिक्षणाबरोबरच&nbsp;त्यांनी&nbsp;जगातल्या&nbsp;प्रमुख&nbsp;धर्मग्रंथांचा&nbsp;अभ्यास&nbsp;केला.&nbsp;१०&nbsp;जून&nbsp;१८९१&nbsp;रोजी&nbsp;ते&nbsp;बॅरिस्टर&nbsp;झाले.&nbsp;१८९३&nbsp;मध्ये&nbsp;ते&nbsp;दक्षिण&nbsp;आफ्रिकेत&nbsp;वकिली&nbsp;करण्यासाठी&nbsp;रवाना&nbsp;झाले.&nbsp;तेथील&nbsp;वर्णभेद,&nbsp;गुलामी&nbsp;प्रथा,&nbsp;जुलमी&nbsp;कर&nbsp;इत्यादींनी&nbsp;हैराण&nbsp;होऊन&nbsp;सत्याग्रहाच्या&nbsp;माध्यमातून&nbsp;न्याय्य&nbsp;हक्कांसाठी&nbsp;त्यांनी&nbsp;लढा&nbsp;दिला.&nbsp;दक्षिण&nbsp;आफ्रिकेत&nbsp;त्यांनी 'इंडियन&nbsp;कॉंग्रेस'&nbsp;नावाची&nbsp;संस्था&nbsp;स्थापन&nbsp;केली.&nbsp;बोअर&nbsp;युद्धात&nbsp;गोऱ्या&nbsp;सैनिकांची शुश्रूषा&nbsp;केली.&nbsp;१९०७&nbsp;मध्ये&nbsp;काळ्या&nbsp;कायद्याविरुद्ध&nbsp;सत्याग्रह&nbsp;केला.&nbsp;१९१२&nbsp;साली&nbsp;गांधीजींची&nbsp;व&nbsp;त्यांचे&nbsp;राजकीय&nbsp;गुरू&nbsp;गोपाल&nbsp;कृष्ण&nbsp;गोखले&nbsp;यांची&nbsp;भेट&nbsp;झाली.&nbsp;त्यांनी&nbsp;दरबान&nbsp;शहराजवळ&nbsp;फिनिक्स&nbsp;आश्रमाची&nbsp;स्थापना&nbsp;केली.&nbsp;हरिद्वार&nbsp;येथे&nbsp;कांगडी&nbsp;गुरुकुलाचे&nbsp;आचार्य&nbsp;श्रद्धानंद&nbsp;यांनी&nbsp;त्यांचा&nbsp;प्रथम 'महात्मा'&nbsp;म्हणून&nbsp;उल्लेख&nbsp;केला.&nbsp;त्यांनी&nbsp;२५&nbsp;मे&nbsp;१९१५&nbsp;मध्ये&nbsp;अहमदाबादजवळ&nbsp;साबरमती&nbsp;येथे 'सत्याग्रहाश्रमा'ची&nbsp;स्थापना&nbsp;केली.&nbsp;१९१७&nbsp;मध्ये&nbsp;चंपारण्य&nbsp;येथे&nbsp;नीळ&nbsp;उत्पादक&nbsp;शेतकऱ्यांसाठी&nbsp;सत्याग्रह&nbsp;केला.&nbsp;१९२०&nbsp;मध्ये&nbsp;असहकार&nbsp;चळवळ,&nbsp;१९३०&nbsp;मध्ये&nbsp;सविनय&nbsp;कायदेभंग,&nbsp;१९३१&nbsp;मध्ये&nbsp;गोलमेज&nbsp;परिषद,&nbsp;१९३२&nbsp;मध्ये&nbsp;गांधी-आंबेडकर&nbsp;करार,&nbsp;१९४२&nbsp;साली&nbsp;चले&nbsp;जाव&nbsp;चळवळ&nbsp;सुरू&nbsp;करून&nbsp;१५&nbsp;ऑगस्ट&nbsp;१९४७&nbsp;रोजी&nbsp;हिंदुस्थानला&nbsp;स्वातंत्र्य&nbsp;मिळवून&nbsp;देण्यात&nbsp;ते&nbsp;यशस्वी&nbsp;झाले.&nbsp;त्याना&nbsp;नेताजींनी 'राष्ट्रपिता'&nbsp;हा&nbsp;सर्वोच्च&nbsp;बहुमान&nbsp;दिला.&nbsp;३०&nbsp;जानेवारी&nbsp;१९४८&nbsp;रोजी&nbsp;त्यांचा&nbsp;मृत्यू&nbsp;झाला.
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-, निशान्त उपाध्याय. "प्रकृति पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की पर्यावरणीय संचेतना :". International Journal For Multidisciplinary Research 6, № 1 (2024). http://dx.doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i01.13028.

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Abstract:
मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक काल से आज तक जितने भी लोकनायक हुए हैं राम इन सभी में महानायक हैं। लोकदृष्टा तुलसीदास का मानना है कि सभी प्राणियों में साक्षात् राम आत्मवत् हैं वही जीवन के केन्द्र में है, सारा संसार उनकी रचनात्मक चेतना का प्रतिबिम्ब है। अयोध्या नगरी से प्रारंभ हुई युवराज राम की जनचेतना की सांस्कृतिक यात्रा में प्रकृति का भरपूर योगदान रहा है। यह लोक जागरण यात्रा कई नदियों के किनारे विभिन्न भाषा-भाषी अनेक जातियों को जोड़ती हुई, अनेक पर्वतमालाओं और गंगा-यमुना के मैदानों से गुजरती हुई दण्डकारणय, पंचवटी, किष्किन्धा और रामेश्वरम् होती हुई श्रीलंका पहुँचती है इसमें लोक जीवन, लोक संस्कृति और प्रकृति के उपहारों का त्रिवेणी संगम प्रतीत होता है। इस संस्कृति यात्रा में राज सत्ता पर लोकजीवन का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
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PRAVIN, PAL. "भारतीय राजनीति में पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएं एक विश्लेषण". 2 березня 2018. https://doi.org/10.5281/zenodo.7143542.

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Abstract:
भारत आरंभ से ही कृषि प्रधान देश रहा है प्राचीन काल के विभिन्न ग्रंथों में वृक्षों नदियों जल पर्वत वायु इत्यादि का गुणगान किया गया है तथा उन्हें साक्षात पूजनीय माना गया है वर्ष 1972 ने पर्यावरण पर एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन स्टॉकहोम में आयोजित किया गया इस सम्मेलन में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी राय देते हुए कहा कि गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक है आगे उन्होंने कहा कि हमें हमारी गरीबी को शक की निगाह से देखते हैं और दूसरी ओर से हमारे द्वारा अपनाए गए तरीकों की आलोचना करते है&nbsp;&nbsp;इस प्रकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 को में नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत कहा गया है कि राज्य पर्यावरण वन वन्य जीवों का संरक्षण एवं संवर्धन करें 21 वी शताब्दी जहां अपनी अति आधुनिकता के लिए जानी जाएगीवही&nbsp; इतिहास में इसे&nbsp;&nbsp;पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुंचाने का भी श्रेय&nbsp;मिलेगा
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Nema, Mayuri. "भारतीय परम्परा से आवृत्त लोक एवं जनजातीय कलाएं और साहित्य". ShodhShreejan: Journal of Creative Research Insights 1, № 1 (2024). https://doi.org/10.29121/shodhshreejan.v1.i1.2024.8.

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Abstract:
भारत की संस्कृति धरोहर और उसकी विविधता ने सदियों से लोगों को आकर्षित किया है, यह भूमि लोक और जनजाति कलाओं और साहित्य के अद्वितीय और समृद्ध रूपों का घर है भारतीय लोक और जनजाति कलाएं और साहित्य न केवल अपनी रंगीनता और विविधता के लिए जाने जाते हैं , बल्कि वह हमारे संस्कृति परंपराओं और सामूहिक स्मृतियों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं यह कलाएं और साहित्य भारतीय समाज की आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं और उसकी गहराइयों को समझने में मदद करते हैं ,संस्कृत में प्राचीनता और नव्यता का अद्भुत समावेश है या अदृश्य के पुलों के सहारे अतीत को वर्तमान से जोड़ती है जो व्यक्ति के मन व सामाजिक ताने-बाने को स्थिरता प्रदान करती है तथा चरित्र व अस्मिता को लाभान्वित कर प्रशस्ति के पथ खोलती है.अतः संस्कृति साक्षात समाज से आबध्ह है कहा जाता है की संस्कृति एक गुण एवं चेतना है जो साहित्य और कला के माध्यम से प्रतिनिधित्व होकर विस्तार पाती है, साहित्य में तथ्य स्पष्ट रहते हैं किंतु कला में यह सूक्ष्म रूप से आकर के साथ सुनिश्चित रहते हैं, कला साहित्य के विचारों और भावो को दृश्यबिम्ब प्रदान करती है। विचारों को शब्द व रेखा के माध्यम से स्पष्ट रूप में जाना जाता है अतः साहित्य और कला का उद्धव केंद्र एक ही है ,इस शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय परंपरा में लोक और जनजाति कलाओं और साहित्य की गहराई और उनके महत्व का विश्लेषण करना है|
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Parashar, Shalu Mahesh Kumar. "गुजरात के आदिवासी सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत श्री ठक्कर बापा (पंचमहाल जिल्ले के विशेष संदर्भ में)". 5 липня 2022. https://doi.org/10.5281/zenodo.6861884.

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Abstract:
<strong>&#39;</strong><strong>ठक्कर बापा</strong><strong>&#39; </strong><strong>अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी थे। लोगों का कहना था कि वे अपने आप में एक संस्था थे। वे जिस युग में थे</strong><strong>, </strong><strong>वहाँ समाज के दुर्बल अंग की उपेक्षा की जा रही थी</strong><strong>; </strong><strong>तब बापा ने दलितों और पिछड़े वर्ग को साथ लेकर प्रगति का रास्ता पकड़ा। उनकी अडिग लोक-सेवा ने हर दीन-दुःखी और गरीब को सम्मान दिया और उन्हें सबका बापा बना दिया। राष्ट्रपिता बापू भी उन्हें बापा ही कहा करते थे। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक जिस अपूर्व निष्ठा</strong><strong>, </strong><strong>अनन्य भक्ति व अथक परिश्रम से उन्होंने अपना सेवा-व्रत निभाया</strong><strong>, </strong><strong>वह निस्संदेह बेजोड़ कहा जा सकता है। बापा विनम्रता और सरलता की मूरत थे</strong><strong>; </strong><strong>जब काका कालेलकर ने उनसे लेखन के लिए कहा तो वे बोले</strong><strong>, &#39;&#39;</strong><strong>मेरे जीवन में ऐसा कुछ नहीं है</strong><strong>, </strong><strong>जो लिखने लायक हो।</strong><strong>&#39;&#39; </strong><strong>उन्हें भाषण देना नहीं आता था और न ही वे साहित्यिक भाषा में लेख लिखते थे</strong><strong>, </strong><strong>बस उन्हें डायरी लिखने का शौक था। मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानकर शोषित-उपेक्षितों के कल्याण और सुख के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करनेवाले सेवाव्रती कर्मयोगी ठक्कर बापा की प्रेरक-पठनीय जीवनी है यह पुस्तक।</strong> <strong>ठक्करबापा त्याग</strong><strong>, </strong><strong>सेवा</strong><strong>, </strong><strong>बलिदान तथा करुणा के साक्षात् पर्याय थे । उनका सम्पूर्ण जीवन पीड़ित मानवता की सेवा के लिए ही समर्पित था । अपने सेवाभाव के कारण वे उन सन्तों की श्रेणियों में आ गये</strong><strong>, </strong><strong>जिन्होंने मानव कल्याण के लिए जीवन ग्रहण किया था । 81 वर्ष की अवस्था तक भी कार्य करते हुए 19 जनवरी</strong><strong>, </strong><strong>1951 को इस महान् इंसान ने अपना शरीर ईश्वर को समर्पित किया।</strong>
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