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Journal articles on the topic 'सादृश्य'

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1

अधिकारी Adhikari, अनिल Anil, रेखा Rekha रेग्मी Regmi та निर्मला Nirmala ढकाल Dhakal. "ज्वरसमना प्रकृति कवितामा रूपकालङ्कार {Allegory in Jwarasamana Prakriti Poetry}". KMC Journal 6, № 2 (2024): 365–80. http://dx.doi.org/10.3126/kmcj.v6i2.68921.

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Abstract:
प्रस्तुत लेख ज्वरसमना प्रकृति कवितामा अर्थालङ्कारअन्तर्गत रूपकालङ्कारको विश्लेषण तथा त्यसका आधारमा कविताको मूल्याङ्कनमा केन्द्रित छ । यस लेखमा गुणात्मक अनुसन्धान पद्धति तथा कवितामा रूपकालङ्कार र यसका भेदको प्रस्तुति भएका उद्धरणका आधारमा विश्लेषण र मूल्याङ्कन हुने भएकाले यो पाठमा अभिव्यक्त विषयवस्तुको विश्लेषणकेन्द्री एवम् विश्लेषणात्मक विधिको प्रयोग भएको लेख हो । यस लेखको सैद्धान्तिक र अवधारणात्मक आधार संस्कृत काव्यचिन्तनअन्तर्गतको रूपकालङ्कार र यससम्बन्धी मान्यता हो । शब्दमा सन्निहित अर्थ तथा त्यसलाई निधारण गर्ने उपमान, उपमेय साधारण धर्म तथा वाचक शब्दले उपमान र उपमेयबीचमा अभेद्य सम्बन्ध प्रस्तुत गरी प्राप्त हुने अर्थ रूपकालङ्कारको मूलभूत अभिलक्षण हो । प्रस्तुत ज्वरसमना प्रकृति अलङ्कार प्राप्तिका दृष्टिले रूपकालङ्कार अङ्गी रूपमा प्रतिपाद्य भएको कविता हो । यस कवितामा परम्परित रूपकालङ्कार प्रयोग भएका सन्दर्भमा उपमान, उपमेय अभेद्य सम्बन्ध प्रस्तुत भई यी दुईमा प्रयोगगत भिन्नता नदेखिई अर्थ प्रस्तुत भएको छ । यस कवितामा प्रयोग भएको सावयव रूपकालङ्कारमा प्रकृतिका विभिन्न अवयव तथा प्राणीजगत्सँग सम्बन्धित अवयवका बीचको अभेद सादृश्य सम्बन्ध स्थापित भई आलङ्कारिकता सिर्जना भएको छ । यस कवितामा प्रस्तुत भएको मालारूपकालङ्कार एक उपमानका अनेक उपमेयका साथ अभेद सादृश्यको शृङ्खलाबाट काव्यिक आलङ्कारिकता सिर्जना गर्ने कलात्मक माध्यम बनेको छ । यस लेखमा ज्वरसमना प्रकृति कवितामा उपर्युक्त तीन रूपकभेदका साथै हेतुरूपकालङ्कारको साध्य–साधन अभेदसम्बन्धबाट सृजित आलङ्कारिकता सहित अङ्गी अलङ्कारका रूपमा रूपकालङ्कारको सहजात प्रयोगबाट काव्यिक कलासौन्दर्य सिर्जना गरेको विषयमा विमर्श भएको छ ।
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2

Adhikari, Anil. "दुबसु क्षेत्रीका कवितामा विपठन". Dristikon: A Multidisciplinary Journal 15, № 1 (2025): 155–68. https://doi.org/10.3126/dristikon.v15i1.77137.

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Abstract:
प्रस्तुत लेख कवि दुबसु क्षेत्रीका कवितामा विपठन मूल समस्यासँग सम्बन्धित विषयको विश्लेषणमा केन्द्रित रहेको छ । पुस्तकालयबाट सङ्कलित सामग्रीको उपयोग गरिएको यस लेखमा गुणात्मक अनुसन्धान पद्धति तथा पाठमा प्रस्तुत विषयवस्तुको विश्लेषणमा आधारित विश्लेषणात्मक विधिको उपयोग भएको छ । विनिर्माणिक प्रक्रियाका रूपमा विपठन साहित्यमा अन्तर्पाठीयताका माध्यमबाट कुनै पनि कृति स्वायत्त, सार्वभौम तथा स्वतन्त्र विधात्मक अभिलक्षणयुक्त नभई बहुल सौन्दर्यनिर्मितिमा आधारित हुन्छन् भन्ने अवधारणा हो । कवि क्षेत्रीका कविता पूर्वपाठको पुनर्पठन र उत्तरपठन भई संरचित रहेका छन् । यिनका पूर्वपाठको पुनर्पठन गरी रचना गरिएका कवितामा नेपाली साहित्यका मानवभूगोलमा स्थापित मानवीय विश्वाससँग सम्बन्धित आप्तवाक्यका साथै पूर्वस्थापित साहित्यकारका सिर्जनामा अभिव्यक्त गरिएका विषयलाई जस्ताको तस्तै प्रयोग गरी नयाँ पाठनिर्मितिका लागि अन्तर्वस्तुका रूपमा उपयोग गरिएको छ । पूर्वपाठको उत्तरपठन गरिएका कृतिका विषयवस्तु, कला र भावसौन्दर्यको निर्मितिका लागि पुनर्पठनकै सादृश्य पाठको विपठन गरिएको छ । यस लेखमा विनिर्माणिक प्रक्रियाका रूपमा विपठनसम्बन्धी अवधारणाका आधारमा क्षेत्रीका कविताको विश्लेषण गरी काव्यिक सौन्दर्य निर्मितिका लागि पुनर्पठन र उत्तरपठन गरिएका कृति साहित्यिक रूपमा बहुल सौन्दर्य प्रस्तुत गर्ने पाठमा परिणत भएको विषयमा विमर्श गरिएको छ ।
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3

रीता, शर्मा. "प्रकृति चित्रण में रंगों का अद्भुत सामंजस्य-कलाकार रामकुमार". International Journal of Research - Granthaalayah Conference-Composition of Colours, № 12 (2019): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.3361247.

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Abstract:
मानव जीवन के साथ-साथ चित्रकला में वर्ण का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ण मानव जीवन एंव चित्र का सार है जिस प्रकार कविता के लिये शब्द, संगीत के लिये लय तथा काव्य के लिये रस की आवश्यकता हाती है, उसी प्रकार चित्र के लिये रंग का होना अनिवार्य है। रंग के अभाव में चित्र नीरस है इसलिए आदिम गुहावासियों से लेकर आज तक कलाकार रंगा ें का आश्रय लेकर आत्माभिव्यक्ति करता आया है। भारतीय चित्र षडंग में वर्ण-सामांजस्य को वर्णिका भंग नाम से सम्बोधित किया गया है। चित्र में रंगों की यथा सम्भव मिली-जुली भंगिमा वास्तव में वर्णिका भंग है। वस्तुओं में रंगों के माध्यम से ही चित्र के स्वभाव, वतावरण तथा अर्थ का ज्ञान होता है यही कारण है कि चित्र का वर्ण नियोजन करते हुये कलाकार या तो बाह्य यर्थाथ के समान रंगों का प्रयोग करता है या प्रतीकात्मक सादृश्य के आधार पर चित्रों की रचना करता है। यदि आज चित्रकला में रंगों का अध्ययन करे तो यह ज्ञात होता है कि कलाकार अपने अन्र्तमन के अनुरूप रंगों का प्रयोग करता है। 
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फतखुतदीनोवा, इरोडा. "अनुवाद में समतुल्यता की समस्याएं।". Oriental Renaissance: Innovative, educational, natural and social sciences 4, № 22 (2024): 123–25. https://doi.org/10.5281/zenodo.13765702.

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Abstract:
समकक्षता डिग्री, समकक्षता बढ़ाने पर डिग्री का स्थान, आवेदन की विधि अनुवाद में प्रासंगिक मुद्दे माने जाते हैं। इसका उद्देश्य समतुल्यता द्वारा उठाए गए मुद्दों की समस्याओं की पहचान करना, समतुल्यता का मूल्य निर्धारित करना, मूल पाठ और अनुवाद के बीच अर्थों की समानता की तुलना करना है। उद्देश्य: अनुवाद में तुल्यता की डिग्री निर्धारित करना, संचार के लक्ष्य को बनाए रखते हुए वाक्यांशों का अध्ययन करना, तुलना और विशेष शब्दों में समकक्ष अर्थ निर्धारित करना। हमारे शोध का उद्देश्य अनुवाद के पाठ में परिवर्तित मूल पाठ की तुलना और वाक्यांशों का रूप है; और अनूदित पाठ में समकक्ष रूप शोध का विषय है। अध्ययन में तुलनात्मक विश्लेषण की पद्धति का उपयोग किया गया।  अध्ययन सामग्री का उपयोग "अनुवाद के सिद्धांत और अभ्यास" और "भाषाविज्ञान संस्कृति" के शिक्षण में किया जा सकता है। वैज्ञानिक शोध कार्य में परिचय, निष्कर्ष और ग्रंथ सूची शामिल होती है। मूल पाठ और अनुवाद के समकक्ष वाक्यांशों के संक्रमण पर उनके अर्थ में संकुचन देखा गया है, साथ ही मूल पाठ से अनुवाद के पाठ में संक्रमण पर, उनके अर्थ में कमी आई है और पूरक के रूप में, नया मूल्य ग्रहण किया गया है।
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5

Maske, Mahesh Zumbar. "संस्कृत में न्याय का क्या अर्थ हैं ? और उसकी व्युत्पत्ती क्या हैं ? एवं संस्कृत में मुझे जो न्याय अच्छे लगे उनका विवरण ।". International Journal of Advance and Applied Research 10, № 4 (2023): 132–35. https://doi.org/10.5281/zenodo.7794250.

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Abstract:
संस्कृत में ‘न्याय’ शब्द का उपयोग कई अर्थों में होता है। संस्कृत व्याकरणशास्त्र की व्युत्पत्ति प्रक्रिया के अनुसार उसका अर्थ किया जाय तो ‘नीयते प्राप्यते अनेन सः न्यायः।’ अर्थात् जिसके द्वारा विशेष वस्तु या स्थिति प्राप्त की जाती है, वह न्याय है। संस्कृत में न्याय (नियन्ति अनेन ; नि + इ + घं) का एक अर्थ समानता, सादृश्य, लोकरूढ़ नीतिवाक्य, उपयुक्त दृष्टान्त, निर्देशना आदि होता है। अर्थात् कोई विलक्षण घटना सूचित करनेवाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो, 'न्याय' कहलाती है। ऐसे दृष्टान्त वाक्यों (या कहावतों) का व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पड़ने पर होता है। लोकन्याय का अर्थ है, समाज में प्रचलित और सुप्रसिद्ध उदाहरणों को एक नाम दे देना और उचित स्थान पर उस नाम का उपयोग करके कम शब्दों में बड़ी बात कह देना। लोकरूढ नीतिवाक्यों के प्रयोग से कम शब्दों में और तर्कसम्मत ढंग से विचार व्यक्त करने में सुविधा होती है। संस्कृत में इनका प्रयोग व्याकरण और आयुर्वेद ग्रन्थों में हुआ है। शास्त्रों में जटिल बातों को सरल तरीके से कहने की अन्य युक्तियाँ भी हैं, जैसे- तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, अर्थाश्रय, कल्पना, वादमार्ग आदि। न्याय दो प्रकार के होते हैं - लौकिकन्याय तथा शास्त्रीयन्याय।
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Maske, Mahesh Zumbar. "संस्कृत में न्याय का क्या अर्थ हैं ? और उसकी व्युत्पत्ती क्या हैं ? एवं संस्कृत में मुझे जो न्याय अच्छे लगे उनका विवरण ।". International Journal of Advance and Applied Research 10, № 4 (2023): 132–35. https://doi.org/10.5281/zenodo.7794499.

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Abstract:
संस्कृत में ‘न्याय’ शब्द का उपयोग कई अर्थों में होता है। संस्कृत व्याकरणशास्त्र की व्युत्पत्ति प्रक्रिया के अनुसार उसका अर्थ किया जाय तो ‘नीयते प्राप्यते अनेन सः न्यायः।’ अर्थात् जिसके द्वारा विशेष वस्तु या स्थिति प्राप्त की जाती है, वह न्याय है। संस्कृत में न्याय (नियन्ति अनेन ; नि + इ + घं) का एक अर्थ समानता, सादृश्य, लोकरूढ़ नीतिवाक्य, उपयुक्त दृष्टान्त, निर्देशना आदि होता है। अर्थात् कोई विलक्षण घटना सूचित करनेवाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो, 'न्याय' कहलाती है। ऐसे दृष्टान्त वाक्यों (या कहावतों) का व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पड़ने पर होता है। लोकन्याय का अर्थ है, समाज में प्रचलित और सुप्रसिद्ध उदाहरणों को एक नाम दे देना और उचित स्थान पर उस नाम का उपयोग करके कम शब्दों में बड़ी बात कह देना। लोकरूढ नीतिवाक्यों के प्रयोग से कम शब्दों में और तर्कसम्मत ढंग से विचार व्यक्त करने में सुविधा होती है। संस्कृत में इनका प्रयोग व्याकरण और आयुर्वेद ग्रन्थों में हुआ है। शास्त्रों में जटिल बातों को सरल तरीके से कहने की अन्य युक्तियाँ भी हैं, जैसे- तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, अर्थाश्रय, कल्पना, वादमार्ग आदि। न्याय दो प्रकार के होते हैं - लौकिकन्याय तथा शास्त्रीयन्याय।
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शेर्पा, दावा. "भाषिक परिवर्तनको अध्ययन (A study of linguistic change)". NUTA Journal 9, № 1-2 (2022): 161–69. http://dx.doi.org/10.3126/nutaj.v9i1-2.53861.

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Abstract:
संसारका कुनै पनि जीवित भाषाका भाषिक ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य र अर्थमा परिवर्तन हुन्छ । ग्रिम नियमअनुसार मूल भारोपली भाषाका घोष अल्पप्राण व्यञ्जन ग, द, ब जर्मनिक भाषामा अघोष अल्पप्राण क, त, प, मा घोष महाप्राण घ, ध, भ जर्मनिक भाषाका ग, द, ब, मा अघोष अल्पप्राण क, त, प जर्मनिक भाषाका सङ्घर्षी अघोष महाप्राण ख, (ह), थ, फ र घ, ध, भ,मा परिवर्तन हुन्छ । भाषिक ध्वनि परिवर्तन समीभवन, विषमीभवन, विपर्यास, आगम र लोप प्रक्रियाबाट हुन्छ । प्रगत समीभवनः संस्कृतमा अग्नि > प्राकृतमा अग्गो > आगो, भई ग् ई न्, मा समीभूत भएको छ । परागत समीभवनः भक्त > प्राकृतमा भत्त > भात, पारस्परिक समीभवनः अद्य > प्राकृतमा अज्ज (आज) भई ध्वनि परिवर्तन भएका छन् । विषमीभवनः पिशाच > पिचास, विपर्यासः विरामी > विमारी । आगमः स्कुल > इस्कुल । त्यसैगरी पहिले छोरीलाई ‘चेली’ भनिन्थ्यो तर आजभोलि दिदी, बहिनी र छोरीलाई ‘चेली’ भन्नु अर्थविस्तार हो । पहिले ‘मरिच’ शब्दले पिरो पदार्थलाई जनाउँथ्यो तर हाल आएर खास पिरो पदार्थ मात्र जनाउनु अर्थसङ्कोच हो भने सुखिमवासीको अर्थ नेपालबाट सुखिम वा सिक्किम गएर बस्ने हुन्थ्यो तर हाल आएर जायजेथा नभएको सुकुमवासी हुनु अर्थान्तर हो । आइन्छ > ‘जाइन्छ’ > ‘गइन्छ’ हुनु व्याकरणिक परिवर्तन वा सादृश्य हो । लोपः उपाध्याय > पाध्या । घोषीभवनः काक > काग, । अघोषीभवनः सबै > सपै, । महाप्राणभवनः कर्पार > खप्पर, र अल्पप्राणभवनः बुढो > बुडो, आदि ।
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8

Sharma, Rita. "WONDERFUL HARMONY OF COLORS IN NATURE ILLUSTRATION RAMKUMAR." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 2, no. 3SE (2014): 1–3. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v2.i3se.2014.3615.

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Abstract:
Characters have an important place in human life as well as in painting. Varna is the essence of human life and pictures, just as words are needed for poetry, rhythm for music and juice for poetry, similarly color is essential for pictures. In the absence of color, the picture is monotonous, so from primitive cavities to the present day, artists have been taking the shelter of colors and expressing their souls.In the Indian painting conspiracy, cohesion is referred to as the name Variak Bhang. The possible mixing of colors in the picture is actually a color breakdown. Objects have knowledge of the nature, atmosphere and meaning of the picture only through colors. That is why the artist either uses the same color as the external meaning or makes pictures based on the symbolic analogy while planning the picture of the picture. is. If we study colors in painting today, then it is known that the artist uses colors to suit his inner mind.
 मानव जीवन के साथ-साथ चित्रकला में वर्ण का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ण मानव जीवन एंव चित्र का सार है जिस प्रकार कविता के लिये शब्द, संगीत के लिये लय तथा काव्य के लिये रस की आवश्यकता हाती है, उसी प्रकार चित्र के लिये रंग का होना अनिवार्य है। रंग के अभाव में चित्र नीरस है इसलिए आदिम गुहावासियों से लेकर आज तक कलाकार रंगों का आश्रय लेकर आत्माभिव्यक्ति करता आया है।भारतीय चित्र षडंग में वर्ण-सामांजस्य को वर्णिका भंग नाम से सम्बोधित किया गया है। चित्र में रंगों की यथा सम्भव मिली-जुली भंगिमा वास्तव में वर्णिका भंग है। वस्तुओं में रंगों के माध्यम से ही चित्र के स्वभाव, वतावरण तथा अर्थ का ज्ञान होता है यही कारण है कि चित्र का वर्ण नियोजन करते हुये कलाकार या तो बाह्य यर्थाथ के समान रंगों का प्रयोग करता है या प्रतीकात्मक सादृश्य के आधार पर चित्रों की रचना करता है। यदि आज चित्रकला में रंगों का अध्ययन करे तो यह ज्ञात होता है कि कलाकार अपने अन्र्तमन के अनुरूप रंगों का प्रयोग करता है।
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Mathur, Kumkum. ""COORDINATION OF COLORS IN MUSIC" (WITH SPECIAL REFERENCE TO RAGAMALA PAINTINGS)." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 2, no. 3SE (2014): 1–5. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v2.i3se.2014.3561.

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Abstract:
The third chapter in the book titled Kamsutra (2E-3E century AD) of Vatsyayan Muni discusses the forty-four arts. In which the first place is Geethan (music), in the second place Badyam (instrumental music), in the third place Nrityam (dance) and in the fourth place, Alakhya i.e. 'painting'. The commentary (11-12th century) of the third chapter of the first authority of the Kamasutra (Jayamangala) was presented by Pandit Yashodhar. Under which the six parts of Alekhya (painting) were described. 1. Variation 2. Proof, 3. Bhava, 4. Lavanya Yojana, 5. Analogy and sixth varna-breach. "Ring-break" means the combination of different colors with proper balance. In the 'conspiration' (six parts of the painting), the color of the varna is placed at the end because it is the extreme point of 'conspiracy' practice. We can imagine the remaining five organs, but it is necessary to do long exercises by paintbrush to break the varna. Varna jnanam sada nasti kya tasya japapujanai: that is, it is useless to practice the five limbs of 'Shadang' without Varna Gyan.
 वात्सायन मुनि के कामसूत्र (2 ई-3 ई शताब्दी ई0) नामक ग्रन्थ में तीसरे अध्याय के अन्तर्गत चैसठ कलाओं का विवेचन किया गया है। जिनमें प्रथम स्थान पर गीतं (संगीत) द्वितीय स्थान पर बाद्यं (वाद्य- वादन), तृतीय स्थान पर नृत्यं (नाच) तथा चतुर्थ स्थान पर आलेख्यं अर्थात ‘चित्रकला’ को माना है। ‘कामसूत्र के प्रथम प्राधिकरण के तीसरे अध्याय की ‘जयमंगला’ नामक टीका (11-12वी शताब्दी) पण्डित यशोधर द्वारा प्रस्तुत की गई। जिसके अन्तर्गत आलेख्य (चित्रकला) के छह अंग वर्णित किये गये। 1. रूपभेद 2. प्रमाण, 3. भाव, 4. लावण्य योजना, 5. सादृश्य एवं छटवां वर्णिका-भंग। ‘‘वर्णिका-भंग’’ अर्थात विभिन्न रंगों का उचित सन्तुलन के साथ संयोजन। ’षडंग’ (चित्रकला के छह अंगों) में वर्णिका भंग का स्थान अंत में इसीलिये रखा गया क्योंकि यह ‘षडंग’ साधना का चरम बिन्दु है। शेष पांचों अंगों की हम कल्पना कर सकते हैं परन्तु वर्णिका भंग हेतु तूलिका द्वारा दीर्घ अभ्यास करना आवश्यक है। वर्ण ज्ञानं सदा नास्ति किं तस्य जपपूजनैः अर्थात वर्णज्ञान के बिना ’षडांग’ के पांच अंगों की साधना करना व्यर्थ है।1
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डा, ॅ. साधना चैहान. "प्रकृति एव ं र ंग ;पर्यावरण के स ंदर्भ मेंद्ध". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–2. https://doi.org/10.5281/zenodo.889233.

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Abstract:
मानव जीवन आ ैर प्रकृति का संबध पृथ्वी की रचना के साथ अटूट रहा ह ै, मानव ने प ्रकृति से प ्राप्त सभी चीजा ें का उपभोग अपने जीवनयापन आ ैर मना ेरंजन के लिये किया ह ै, एक ओर उसे प ्रकृति से भोजन, आवास आ ैर वस्त्र प ्राप्त होता है ता े दूसरी ओर प ्रकृति के दृश्या ें को देखकर और कलाकारों क े द्वारा चित्रित कर शान्ति की अदभूत अनुभूति होती ह ै। सर्व प ्रथम कलाकारों द्वारा जो चित्र चित्रित किये गय े उनमें प ्रकृति चित्रण नदी, पेड़, पा ैधे, पर्व त आ ैर पश ु पक्षी सभी चित्रित किये गये तथा इन्हें चित्रित करने में सहायक सामग्री रंग, तुलिका वह भी प्रकृति से प ्राप्त होती ह ै। सर्व प ्रथम कलाकारों ने प ्रकृति से प ्राप्त रंगा ें का उपया ेग अपनी कलाकृति में किया। आदिवासी ला ेक कला में माण्डना, फड़, अल्पना, मधुबनी आदि में प ्राकृतिक रंगा ें का उपया ेग किया गया ह ै। ये रंग कभी कभी पत्थरों , फ ूला ें तथा पत्त्यिों से बनाए जाते ह ै। प ्रकृतिमें जिन रूपों की ओर हम आकर्षि त हा ेते ह ै तथा जो हमें आनन्द प ्रदान करते ह ै, उनकी प्रतिकृति मात्र कला नहीं ह ै उन रूपों का आधार लेकर उनसे प ्रभावित होकर तथा उनका रूपा ंतरण करके कलाक ृतियों का निर्मा ण हा ेता रहा ह ै।‘प ्रकृति में अनेक ए ेसी आकृतिया ंे का े देखकर हम आनन्दित होते ह ै जिनका कोई अर्थ नहीं होता ह ै। क ेवल उनकी चाक्षुष आकृति अपनी छाप छोड़ती ह ै। किन्तु चित्र में किसी रूप में सादृश्य की तथा अर्थ की इच्छा बनी रहती ह ै। झरने, नदी, समुद्र में मोटे तने क े काठ में रेखाआ ें की आवृत्ति आकर्षि त करती ह ै।‘ 1 ‘मानव जीवन की भंाति रंग प ्रकृति क े उदय का इतिहास भी बड़ा रहस्यमय विराट आ ैर अज्ञात है। मनुष्य ने जिस समय प ्रकृति की गोद मे ं अपनी आंख ें खोली उस समय से ही उसने अपने जीवन का े सुखी व समृद्ध बनाने की कोशिश की आ ैर इसको फलीभूत करने ह ेतु उसने ए ेसी क ृतियों का सृजन किया जो उसके जीवन को सुखद आ ैर सुचारू बना सके।‘
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डाॅ., कुमकुम माथुर. "''संगीत म ें र ंगा े का समन्वय''". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–5. https://doi.org/10.5281/zenodo.888770.

Full text
Abstract:
वात्सायन मुनि के कामसूत्र (र्2 इ -3 ई शताब्दी ई0) नामक ग्रन्थ में तीसरे अध्याय के अन्तर्गत चा ैसठ कलाओं का विव ेचन किया गया है। जिनमें प ्रथम स्थान पर गीतं (संगीत) द्वितीय स्थान पर बाद्यं (वाद्य- वादन), तृतीय स्थान पर नृत्यं (नाच) तथा चतुर्थ स्थान पर आलेख्यं अर्था त ‘चित्रकला’ को माना ह ै। ‘कामसूत्र के प्रथम प्राधिकरण के तीसरे अध्याय की ‘जयमंगला’ नामक टीका (11-12वी शताब्दी) पण्डित यशोधर द्वारा प्रस्तुत की गई। जिसके अन्तर्गत आलेख्य (चित्रकला) के छह अंग वर्णित किये गये। 1. रूपभेद 2. प ्रमाण, 3. भाव, 4. लावण्य या ेजना, 5. सादृश्य एव ं छटवां वर्णिका-भ ंग। ‘‘वर्णिका-भंग’’ अर्थात विभिन्न रंगा ें का उचित सन्तुलन के साथ संया ेजन। ’षड ंग’ (चित्रकला के छह अंगा ें) में वर्णि का भ ंग का स्थान अंत म ें इसीलिये रखा गया क्या ेंकि यह ‘षडंग’ साधना का चरम बिन्दु है। श ेष पांचों अंगों की हम कल्पना कर सकते ह ै ं परन्तु वर्णि का भंग ह ेतु तूलिका द्वारा दीर्घ अभ्यास करना आवश्यक ह ै। वर्ण ज्ञान ं सदा नास्ति किं तस्य जपपूजनैः अर्था त वर्ण ज्ञान के बिना ’षडांग’ के पांच अंगों की साधना करना व्यर्थ है।1 गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रय ं संगीतम ुच्यत े ।। (संगीत रत्नाकर (।।2।।)2 गीतं वाद्यं तथा नत्य तीनों विधायें संगीत के अन्तर्गत आती ह ै। इनके सम्मिलित प्रया ेग से संगीत में भाव सम्प्रेषण की क्षमता बढ़ती ह ै। कलाओं में संगीत चित्र एव ं काव्य कलाए ं विशेष महत्व रखती है। ललितकला के लिये आवश्यक ह ै कि उसमें सा ैन्दर्य, माध ुर्य, सहजता, सरलता, प ्रवाह एव ं तेजस्विता अर्था त ओज हा े। ‘लयात्मकता’ लालित्य का प ्रमुख गुण ह ै। संगीत, काव्य एवं चित्रकला में ये सभी गुण विद्यमान रहते ह ैं। वास्तव में ललित कलाएं हृदय का े शक्ति एवं आनंद प ्रदाय करती ह ै। संगीत में एक अतिरिक्त गुण यह ह ै कि यह कला मनुष्या ें के अतिरिक्त प ्रकृति, पश ु-पक्षियों का े भी अपने आकर्षण से प ्रभावित करती ह ै। अन्य ललितकलाओं में यह सामथ्र्य अपेक्षाकृत कम ह ै। काव्य, शिल्प, वास्तु एवं चित्रकला, ब ुद्धि के संया ेग से भावों का े उत्कर्ष कराने में सफल होती है ं। संगीत, काव्य एव ं चित्र तीना ें कलाओं मे ं एक तत्व अवश्य उपस्थित रहता है, वो है ‘लय’। ‘लय’ पर तीना ें कलाओं का सौन्दर्य अवलंबित रहता है। चूंकि संगीत में ‘लय’ व्यक्त करने ह ेतु किसी भा ैतिक उपादान की आवश्यकता नहीं पड़ती इसीलिये ‘संगीत’ विश ेषतः ‘गान’ कला अन्य ललित कलाआ ें में अग्रणी मान्य की गई ह ै।
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Chauhan, Sadhna. "NATURE AND COLOR; WITH REFERENCE TO ENVIRONMENT." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 2, no. 3SE (2014): 1–2. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v2.i3se.2014.3596.

Full text
Abstract:
The relation of human life and nature has been unbroken with the creation of the earth, human has consumed everything obtained from nature for his livelihood and entertainment, on the one hand he receives food, shelter and clothes from nature and on the other hand nature Seeing the scenes and portraying them by the artists is an incredible feeling of peace. Nature, river, trees, plants, mountains and animal birds are all depicted in the paintings painted by the artists first and the color, Tulika, the material that is helpful in drawing them, is also derived from nature. The artists first used colors from nature in their artwork. In tribal folk art, natural colors have been used in Mandana, Phad, Alpana, Madhubani etc. These colors are sometimes made with stones, flowers and leaves. The nature of the forms that we are attracted to and which gives us joy, is not just a replica of the art, but the art forms have been created by being influenced and transformed by the basis of those forms. We rejoice which has no meaning. Only his visceral figure leaves his mark. But the desire for analogy and meaning in some form remains in the picture. The waterfalls, the river, the sea attracts the frequency of the lines in the thick stem of the stem. '
 मानव जीवन और प्रकृति का संबध पृथ्वी की रचना के साथ अटूट रहा है, मानव ने प्रकृति से प्राप्त सभी चीजों का उपभोग अपने जीवनयापन और मनोरंजन के लिये किया है, एक ओर उसे प्रकृति से भोजन, आवास और वस्त्र प्राप्त होता है तो दूसरी ओर प्रकृति के दृश्यों को देखकर और कलाकारों के द्वारा चित्रित कर शान्ति की अदभूत अनुभूति होती है। सर्वप्रथम कलाकारों द्वारा जो चित्र चित्रित किये गये उनमें प्रकृति चित्रण नदी, पेड़, पौधे, पर्वत और पशु पक्षी सभी चित्रित किये गये तथा इन्हें चित्रित करने में सहायक सामग्री रंग, तुलिका वह भी प्रकृति से प्राप्त होती है। सर्वप्रथम कलाकारों ने प्रकृति से प्राप्त रंगों का उपयोग अपनी कलाकृति में किया। आदिवासी लोक कला में माण्डना, फड़, अल्पना, मधुबनी आदि में प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया गया है। ये रंग कभी कभी पत्थरों , फूलों तथा पत्त्यिों से बनाए जाते है। प्रकृतिमें जिन रूपों की ओर हम आकर्षित होते है तथा जो हमें आनन्द प्रदान करते है, उनकी प्रतिकृति मात्र कला नहीं है उन रूपों का आधार लेकर उनसे प्रभावित होकर तथा उनका रूपांतरण करके कलाकृतियों का निर्माण होता रहा है।‘प्रकृति में अनेक ऐसी आकृतियांे को देखकर हम आनन्दित होते है जिनका कोई अर्थ नहीं होता है। केवल उनकी चाक्षुष आकृति अपनी छाप छोड़ती है। किन्तु चित्र में किसी रूप में सादृश्य की तथा अर्थ की इच्छा बनी रहती है। झरने, नदी, समुद्र में मोटे तने के काठ में रेखाओं की आवृत्ति आकर्षित करती है।‘
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भट्टाचार्यः, प्रणवेशः. "न्यायव्याकरणतन्त्रानुरोधं पदस्वरूपविवेचनम्". Kiraṇāvalī 16, № 1-4 (2024): 381–86. https://doi.org/10.5281/zenodo.14720965.

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Abstract:
पदं खलु मूलवस्तुस्वरूपं वर्तते शास्त्रारम्भं प्रति। पदं विना न शास्त्रं उत्पद्यत इति भावः। पदानां समूहः वाक्यम्, वाक्यसमूहं च शास्त्रमित्यस्मदभिप्रायः। अपदं नाम पदभिन्नं पदधर्मरहितं प्रातिपदिकादिकम्। तन्न शोस्त्रे संयुज्यन्ते। शब्दः खलु द्विविधः, ध्वन्यात्मकः वर्णात्मकश्चेति। शास्त्राध्ययनजन्ये शाब्दबोधे वर्णात्मकशब्दः (पदम्) हेतुरिति। पदस्य स्वरूपमिति पदस्वरूपम्, तद्विषयकं विवेचनं विचार इति पदस्वरूपविवेचनम्। तच्च विवेचनं तावत् न्यायशास्त्रानुरोधं व्याकरणशास्त्रानुरोधञ्च अस्मिन् निबन्धे उपस्थाप्यते। वस्तुतस्तु&nbsp;पदस्वरूपविषये नैयायिकवैयाकरणमतेषु किञ्च नैयायिकमतेष्वेव सादृश्यं, वैसादृश्यमपि समुपलभ्यते।&nbsp;तेषां सादृश्यवैसादृश्यानां यथामति विचार एव विषयः। <strong>कूटशब्दाः</strong> पदम्, वर्णसमूहः, शक्तिः, शब्दः
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Tripathi, Swati, Jyoti Srivastava, Arti Garg, et al. "Surface pollen quantification and floristic survey at Shaheed Chandra Shekhar Azad (SCSA) Bird Sanctuary, Central Ganga Plain, India: a pilot study for the palaeoecological implications." Journal of Palaeosciences 71, no. 2 (2022): 159–76. http://dx.doi.org/10.54991/jop.2022.1838.

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Abstract:
Accuracy of vegetation reconstruction portraying land cover of the past is based on a careful analysis of pollen production, dispersal and their quantitative deposition. The present attempt to integrate sampling of pollen–vegetation spectrum through Crackles Protocols for vegetation surveys, at three spatial zones with intervals of 0–10 m (A), 10–100 m (B) and 100–1000 m (C) at Shaheed Chandra Shekhar Azaad Bird Sanctuary in Uttar Pradesh with tropical dry deciduous forest, is a maiden approach. In these studies, the standard vegetation survey around the pollen surface sampling sites is prerequisite for quantifying pollen–vegetation relationship in modern analogues of the past. The underlying theory of this approach is based on the fact that the relative pollen productivity (RPP) is constant in space and time within a region or biome. The floristic survey of the sanctuary is integral to this pilot study, Crackles Bequest protocol, and is intrinsic to run the Extended R–Value (ERV) model for obtaining estimates of relative pollen productivities (RPPs) for quantitative palaeoecological interpretations from tropical to subtropical forest covers in northern India. The modern pollen assemblage from surface sediment samples established the dominance of Poaceae pollen, along with those of Acacia, Albizia and Mimosa species. The multivariate principal component analysis (PCA), applied to quantify the data on the survey of different vegetation communities revealed that out of the four identified vegetation communities, community D consisted of herbaceous patches including Ageratum, Parthenium, Rumex, Tephrosia, Eclipta alba, Oxalis, Cannabis and Launea, community B mainly comprised of tree taxa like Terminalia, Barringtonia and Pongamia, whereas the communities A and C represented mixed vegetation comprising of trees, shrubs and herbs. The present maiden analysis through the Crackles Bequest protocol method served as a preliminary step to establish the quantitative ‘pollen–based’ vegetation reconstruction in the Gangetic Plains of Central India and is expected to serve as a model for similar studies in other regions. सारांश अतीत के भू-आवरण को चित्रित करने वाले वनस्पति पुनर्निर्माण की सटीकता पराग उत्पादन, फैलाव और उनके मात्रात्मक जमाव के सावधानीपूर्वक विश्लेषण पर आधारित है। शहीद चंद्र शेखर आज़ाद (एससीएसए) पक्षी अभयारण्य, मध्य गंगा मैदान से 0-10 मीटर (ए), 10-100 मीटर (बी) और 100-1000 मीटर (सी) के अंतराल में तीन स्थानिक क्षेत्रों में, वनस्पति सर्वेक्षण के लिए क्रैकल्स प्रोटोकॉल के माध्यम से पराग-वनस्पति स्पेक्ट्रम के नमूने को एकीकृत किया गया। यह भारत के उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन से किया गया प्रथम प्रयास था। पुरावनस्पति एवं पुरापारिस्थितिकी को समझने के लिए पराग-वनस्पति संबंधों को निर्धारित करने की आवश्यकता है। आधुनिक सादृश्य को स्थापित करने के लिए पराग सतह नमूना स्थलों के आसपास मानक वनस्पति सर्वेक्षण अनिवार्य है। इस दृष्टिकोण का अंतर्निहित सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि सापेक्ष पराग उत्पादकता (आरपीपी) एक क्षेत्र या बायोम में स्थानिक व लौकिक रूप से स्थिर है। अभयारण्य का वनस्पति सर्वेक्षण इस मूल अध्ययन, क्रैकल्स बेक्वेस्ट प्रोटोकॉल का अभिन्न अंग है, और उत्तरी भारत के उष्णकटिबंधीय से उपोष्णकटिबंधीय वनों में मात्रात्मक पुरापारिस्थितिक व्याख्याओं के लिए सापेक्ष पराग उत्पादकता (आरपीपी) के अनुमान प्राप्त करने के लिए विस्तारित आर-वैल्यू (ईआरवी) मॉडल को चलाने के लिए वास्तविक है। सतह तलछट के नमूनों से आधुनिक पराग जमाव ने अकेसिया, अल्बिजिया और माइमोसा प्रजातियों के साथ-साथ पोएसी (घास) पराग के प्रभुत्व को स्थापित किया है। विभिन्न वनस्पति समुदायों के सर्वेक्षण पर डेटा की मात्रा निर्धारित करने के लिए लागू बहुभिन्नरूपी प्रमुख घटक विश्लेषण (पीसीए) से पता चला है कि चार पहचाने गए वनस्पति समुदायों में से, समुदाय ‘डी’ में एजेरटम, पार्थेनियम, रुमेक्स, टेफ्रोसिया, एक्लिप्टा अल्बा, ऑक्सलिस, कैनाबिस और लाउनिया सहित गैर-वृक्षीय प्रजातियों के समूह शामिल हैं। समुदाय ‘बी’ में मुख्य रूप से टर्मिनलिया, बैरिंगटोनिया और पोंगामिया जैसी वृक्षीय प्रजातियाँ शामिल हैं, जबकि समुदायों ‘ए’ और ‘सी’ ने पेड़ों, झाड़ियों और जड़ी-बूटियों से युक्त मिश्रित वनस्पति का प्रतिनिधित्व किया। क्रैकल्स बेक्वेस्ट प्रोटोकॉल पद्धति के माध्यम से वर्तमान प्रथम विश्लेषण, मध्य भारत के गंगा के मैदानों में मात्रात्मक 'पराग-आधारित' वनस्पति पुनर्निर्माण स्थापित करने के लिए एक प्रारंभिक कदम है, और अन्य क्षेत्रों में इसी तरह के अध्ययन के लिए यह एक प्रतिमान के रूप में कार्य करेगा।
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Adhikari, Shukraraj. "दाम्पत्य सम्बन्धका प्रक्रिया : ऐतिहासिक आधार र प्रेम". Perspectives on Higher Education 14 (31 грудня 2024): 261–72. https://doi.org/10.3126/phe.v14i1.76640.

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Abstract:
प्रस्तुत लेख दाम्पत्य सम्बन्धका प्रक्रियामा आधारित छ र यस सम्बन्धमा त्यसका ऐतिहासिक आधार तथा प्रेमका बारेमा विवेचना गरिएको छ । मानिसको जैविक उत्पादन र सामाजिक अस्तित्व दाम्पत्य सम्बन्ध तथा वैवाहिक प्रक्रियाले मात्र कायम गर्दछ । खास खालका विधि तथा पद्धति पूरा गरेपछि मात्र वैवाहिक प्रक्रिया पूरा भएको मानिन्छ । यसै सन्दर्भमा मानवसभ्यताको आरम्भदेखि नै मानिसले वैवाहिक प्रक्रियाका लागि केके संस्कारजन्य प्रक्रिया निर्माण गरेको थियो, प्रेमप्रणय भाव कस्तो रहेको थियो, भन्ने प्रश्नको उत्तर खोज्ने हेतुले यो अनुसन्धानको अवधारणा अगाडि बढाइएको छ । यसका लागि ऐतिहासिक अन्तर्वस्तु विश्लेषणविधिका माध्यमबाट गुणात्मक स्वरूपका तथ्यहरूको सङ्कलन तथा विश्लेषण गरिएको छ । तथ्यहरूको गहन विश्लेषण पछि दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापनार्थ स्वयंवर, सप्तपदी, अग्नि परिणयन, पाणी ग्रहण, अश्मारोहण, गृह प्रवेश लगायतका विविध संस्कारजन्य विधिहरू वेदकालीन समय देखि नै निर्माण र अभ्यास हुँदै आएको पाइयो । तथ्यगत प्राप्तिहरूले जैविकीय समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण र संरचनात्मक प्रकार्यवादी दृष्टिसँग सादृश्यता राखेको देखिन्छ ।
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Ferozia, Yogeshwari. "WOMAN MARKING TRADITION IN INDIAN PAINTINGS." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 7, no. 11 (2019): 301–5. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v7.i11.2019.3758.

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Abstract:
English: In our ancient Indian religious texts, painting is considered to be the best among all the arts. It is supposed to give religion, artha, kama and moksha such as&#x0D; Kalanan Pravarna Chitram Dharmakamarthamoksadam.Mangalya Pratham Hyattad Graha Yatra Pratishtam 4&#x0D; Just like Sumeru in mountains, Garuda in egg animals, Raja in humans and painting in arts is best.&#x0D; Such as Sumeru Pravaro Naganan Yathandjanan Garud: Pradhan.As Jananan Pravar: Kshishistha and Kalanamichitrachalakpa: ॥1&#x0D; According to the trilogy'Chitraan sarv shilpanan mukh lokasya ch priyam'That is, painting is prominent in all crafts.The Kamasutra discusses six limbs for the rest of the picture.Roopbheda: Proof of sentiment.Analogy&#x0D; Hindi: हमारे प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथों में समस्त कलाओं में चित्रकला को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष को देने वाली है यथा&#x0D; कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम्‌।मंगल्य प्रथमं ह्येतद्‌ ग्रहे यत्र प्रतिष्ठितम्‌॥जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरू, अण्डज प्राणियों में गरुड, मनुष्यों में राजा एवं कलाओं में चित्रकला सर्वोत्तम है।&#x0D; यथा सुमेरु प्रवरो नागानां यथाण्डजानां गरुडः प्रधानः।यथा जनानां प्रवरः क्षितीशस्तथा कलानामिहचित्रकल्पः॥1समरांगण सूत्रधार के अनुसार'चित्रं हि सर्व शिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम्‌'अर्थात्‌ सभी शिल्पों में चित्रकला प्रमुख है।कामसूत्र में एक शेष चित्र के लिए छह अंगों की चर्चा है।रूपभेदाः प्रमाणानि भाव-लावण्य योजनम्‌।सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडंगकम्‌॥2
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Gandhi, Alapparani. "MUSIC USE IN MEDICINE: A PREVIEW." International Journal of Research -GRANTHAALAYAH 3, no. 1SE (2015): 1–3. http://dx.doi.org/10.29121/granthaalayah.v3.i1se.2015.3509.

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Abstract:
Music is an art that affects not only the conscious but also the roots. Music not only gives pleasure, but is also indicative of the mental state of man or creature and also affects our emotions. The inclusion of tone and tempo in music affects our soul. Human actions are also dynamic because of the resemblance between the two, the raga raagnis affect our soul and body. The power of raga and rhythm comes due to their regularity. It is the nature of man's behavior that we are more affected by regularity or harmony than by balancing imbalance, order in chaos, and reconciliation. Therefore, we can say that restraint and harmony of tone and rhythm affect us.&#x0D; संगीत एक ऐसी कला है जिससे न केवल चेतन अपितु जड़ भी प्रभावित होता है। संगीत केवल आनंदानुभूति ही नहीं देता वरन् मनुष्य या प्राणी की मानसिक स्थितियो की भी सूचक होता है और हमारे मनो भावों को भी प्रभावित करता है। संगीत मे स्वर व गति (लय) का समावेश हमारी आत्मा को प्रभावित करता है। मानवीय क्रियाए भी गत्यात्मक होती है दोनों मे सादृश्यता होने के कारण ही राग रागनियाँ हमारी आत्मा और शरीर को प्रभावित करती है। राग और लय की शक्ति इनकी नियमितता के कारण ही आती है। यह मनुष्य का स्वभावगत व्यवहार है कि असंतुलन में संतुलन, अव्यवस्था में व्यवस्था और असामंजस्य में सामंजस्य लाने की अपेक्षा नियमितता या स ंयम से हम अधिक प्रभावित होते है। अतः हम यह कह सकते है कि स्वर एवं लय का संयम तथा सामंजस्य ही हमें प्रभावित करता है।
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डॉ., योगेश्वरी फिरोजिया. "भारतीय चित्रों में नारी अंकन परंपरा". International Journal of Research - Granthaalayah 7, № 11(SE) (2019): 301–5. https://doi.org/10.5281/zenodo.3592695.

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Abstract:
हमारे प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथों में समस्त कलाओं में चित्रकला को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष को देने वाली है यथा &nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम्&zwnj;। &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; मंगल्य प्रथमं ह्येतद्&zwnj; ग्रहे यत्र प्रतिष्ठितम्&zwnj;॥ &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरू, अण्डज प्राणियों में गरुड, मनुष्यों में राजा एवं कलाओं में चित्रकला सर्वोत्तम है। &nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; यथा सुमेरु प्रवरो नागानां यथाण्डजानां गरुडः प्रधानः। &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; यथा जनानां प्रवरः क्षितीशस्तथा कलानामिहचित्रकल्पः॥<sup>1</sup> &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; समरांगण सूत्रधार के अनुसार &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; &#39;चित्रं हि सर्व शिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम्&zwnj;&#39; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; अर्थात्&zwnj; सभी शिल्पों में चित्रकला प्रमुख है। &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; कामसूत्र में एक शेष चित्र के लिए छह अंगों की चर्चा है। &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; रूपभेदाः प्रमाणानि भाव-लावण्य योजनम्&zwnj;। &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडंगकम्&zwnj;॥<sup>2</sup> &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;
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डा, ॅ. अल्पनारानी गाँधी. "चिकित्सा क े क्ष ेत्र म ें स ंगीत का प्रया ेग: एक स ंक्षिप्तावलोकन". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.887025.

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Abstract:
संगीत एक ऐसी कला ह ै जिससे न क ेवल चेतन अपितु जड़ भी प्रभावित होता ह ै। संगीत क ेवल आनंदानुभूति ही नहीं देता वरन् मनुष्य या प ्राणी की मानसिक स्थितिया ें की भी सूचक होता ह ै आ ैर हमारे मना ेभावों का े भी प ्रभावित करता ह ै। संगीत म ें स्वर व गति (लय) का समाव ेश हमारी आत्मा को प ्रभावित करता ह ै। मानवीय क्रियाए ं भी गत्यात्मक होती ह ैं दोनों म ें सादृश्यता होने क े कारण ही राग रागनियाँ हमारी आत्मा और शरीर को प ्रभावित करती ह ैं। राग और लय की शक्ति इनकी नियमितता क े कारण ही आती ह ै। यह मनुष्य का स्वभावगत व्यवहार ह ै कि असंतुलन में संतुलन, अव्यवस्था में व्यवस्था आ ैर असामंजस्य में सामंजस्य लाने की अपेक्षा नियमितता या स ंयम से हम अधिक प्रभावित हा ेते है ं। अतः हम यह कह सकते ह ै कि स्वर एवं लय का संयम तथा सामंजस्य ही हमें प ्रभावित करता ह ै। प ्राणियों मात्र पर संगीत क े प ्रभाव क े अनेक उदाहरण हमें मिलते ह ै ं। सांगीतिक प ्रभाव के विषय में श्री उमेश जा ेशी ने अपनी प ुस्तक ‘‘भारतीय संगीत का इतिहास‘‘ में लिखा है कि ‘‘संगीतज्ञ वत्सराज उदयन का वीणा वादन पर इतना अधिकार था कि वह उसके द्वारा मस्त गजा ें का े पकड़ लेता था। जिस वक्त वह वीणा वादन करता था तो स्वयं उसमें इतना तन्मय हा े जाता था कि फिर उसको कुछ भी खबर नहीं रहती थी। वास्तव में उस वक्त वह अपना अस्तित्व स्वर लहरियों में प ्रवाहित कर दिया करता था आ ैर हाथी मस्त होकर झूमते ह ुए चले आते थ े आ ैर वीणा की स्वर लहरिया ें में नृत्य करते।1 इसी प्रकार हम देखते ह ै कि माताओं द्वारा लोरिया ं गाकर बच्चों का े चुप कराना, सुलाना, झुनझुने से बच्चों का े प ्रसन्न करना आदि ऐसे अनेक उदाहरण अपने बीच देखने को मिलते है ं जा े संगीत व लय का ही प्रभाव दर्शाता ह ै। इसी प ्रकार प ्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक संगीत की कुछ विशिष्ट धुनों एव ं गीतों क े माध्यम से सैनिका ें में एक प ्रकार का जा ेश प ैदा हा े जाना तथा मरने मिटने तक सब कुछ कर गुजरने क े लिए तैयार हो जाना भी संगीत क े प्रभाव का ही उदाहरण ह ै।
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