Academic literature on the topic 'वास्तुकला का विकास'

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Journal articles on the topic "वास्तुकला का विकास"

1

शिल्पा, मसूरकर. "स ंगीत म ें नवाचार फ्यूज ़न म्यूजिक". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.885869.

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Abstract:
भारत देश कला व संस्कृति का प ्रतीक माना जाता ह ै। भारतीय संगीत हमारे भारत की अमूल्य धरा ेहर क े रूप में अति प ्राचीन काल से ही सर्वोच्च स्थान पर विद्यमान है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही संगीत भी अस्तित्व में आया होगा, ऐसा माना गया ह ै, परंतु देखा जाये तो प ्रकृति क े रोम-रोम में ही संगीत बसता है, नदियों की बहती धारा, कल-कल की ध्वनि, हवा की सन्-सन् ध्वनि, पत्तों से टकराती हवा की ध्वनि व पत्तों पर गिरती बारिश के बूंदों क े टप्-टप् की ध्वनि, पक्षियों की चहचहाट आदि में संगीत को देखा, सुना, समझा व महसूस भी किया जा सकता ह ै। संगीत ही धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष का एकमात्र साधन है। भारत में पिछले र्कइ वर्षों से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थि क रूप से निरंतर परिवर्तन होते आये ह ैं जिसका प्रभाव निश्चित ही कला व संस्कृति पर भी पड़ता आया है। संगीत तो व ैदिक काल से ही मानव सभ्यता का अ ंग रहा है, तो इसमें भी परिवर्तन आना अपरिहार्य ह ै। भारतीय संगीत क े इतिहास क े अनुसार प्रत्येक काल में चाहे बा ैद्ध काल या जैन काल या रामायण व महाभारत काल या पा ैराणिक काल या गुप्त काल या मौर्य काल या राजप ूत काल या मुगल काल हा े, सभी कालों में संगीत की स्थिति व उसमें र्कइ बदलाव दिर्खाइ देते ह ै ं। चूंकि प ्रत्येक काल का राजा अपनी पसंद क े अनुरूप संगीत को मान देता था, इसके अलावा प ्रत्येक काल में संगीत क े ही अनेक ए ेसे विद्वान व संगीतज्ञ ह ुए जिन्होंने संगीत पर र्कइ ग्रंथ लिख े जैसे- भरतकृत नाट्यशास्त्र, शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर, मतंगकृत बृहद्देशी, अहोबलकृत संगीत पारिजात आदि। प ्रत्येक ग्र ंथ में संगीत क े नवीन-नवीन पारिभाषिक शब्दा ें क े साथ संगीत का स्वरूप भी बदलता रहा ह ै। जैसे- सर्व प्रथम जाति गायन था, फिर प ्रब ंध गायन, ध्र ुपद गायन, फिर ख्याल गायन प ्रचलित हुआ। उसी तरह ग्राम राग वर्गीकरण, मेल राग वर्गीकरण, फिर राग-रागिनी पद्धति, रागांग वर्गी करण और अंततः थाट राग वर्गीकरण पद्धति प ्रचार में आई जिसका श्रेय स्व. प ं. वि.ना. भातखण्डे जी को जाता ह ै।
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2

द्विजेश, उपाध् याय, та मकुेश चन्‍द र. पन डॉ0. "तबला एवंकथक नृत्य क अन् तर्सम्‍ बन् धों का ववकार्स : एक ववश् ल षणात् मक अ्‍ ययन (तबला एवंकथक नृत्य क चननांंक ववे ष र्सन् र्भम म)". International Journal of Research - Granthaalayah 5, № 4 (2017): 339–51. https://doi.org/10.5281/zenodo.573006.

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Abstract:
तबला एवांकथक नृत्य ोनन ताल ्रधाान ैं, इस कारण इनमेंसामांजस्य ्रधततत ैनता ै। ूरवव मेंनृत्य क साथ मृो ां की स ां त ैनतत थत ककन्तुबाो म नृत्य मेंजब ्ृां ािरकता ममत्कािरकता, रांजकता आको ूैलुओांका समाव श ैुआ तन ूखावज की ांभतर, खुलत व जनरोार स ां त इन ूैलुओांस सामांजस्य नै ब।ाा ूा। सस मेंकथक नृत्य क साथ स ां कत क कलए तबला वाद्य का ्रधयन ककया या कजस मृो ां (ूखावज) का ैत ूिरष्कृत एवां कवककसत प ू माना जाता ै। तबला वाद्य की स ां त, नृत्य क ल भ सभत ूैलुओांकन सैत प ू में्रधस्तुत करन मेंस ल साकबत ैु। कथक नृत्य की स ां कत में ूररब बाज, मुख्यत लखन व बनारस ररान का मैत् वूरणव यन ोान रैा ै। कथक नृत्य की स ां कत क कलए तबला वाोक द्वारा नृत्य क वणणों, वणव समरै , रमनाओांआको क अनुप ू ैत वणणों, वणव समैर , रमनाओांका कनमाव ण व मयन ककया या कजसका ूिरणाम यै ैुआ कक समय क साथ-साथ तबला वाोन सामग्रत का कवकास ैनता मला या कथक-नृत्य क वतव मान स् वप ू कन ो खन स यै त्‍ य भत जजा र ैनता ै। कक कथक-नृत्य एवांइसकी नृत्य सामग्रत(रमनाओ)ां क कवकास में तबला वाोन सामग्रत की भत मैत् वूरणव भरकमका रैत ै। इस आाार ूर ोनन ैत एक-ोरसर क ूररक कै जा सकत ैं स ां तत कवद्वान भत इस त्‍ य का समथव न करत ै। कक जैााँएक ओर तबल की रमनाओांका कथक नृत्य कन समृद्ध करन में यन ोान रैा ै।वैत ोरसरत ओर कथक की कवकभन् न ूोारात न भत तबला वाद्य क कवकास में अूनत मैत् वूरणव भरकमका कनभा। ै। त्‍ य क आाार ूर कथक नृत्य एवां तबला क ूुनप द्धार का काल 1700 शताब् ोत का जत् तराद्धव माना जाता ै। अत यै कैा जा सकता ै। कक तबला श।लत एवांकथक नृत्य का कवकास साथ-साथ ैुआ कथक नृत्य क साथ तबला स ां कत क कारण तबला वाोन सामग्रत(रमनाएाँ) एवांकथक नृत्य सामग्रत(रमनाएाँ) का कवकास एवांकवस्तार भत साथ-साथ ैनता मला या ्रधस्तत शना ु ूत्र का जद्द श् य तबला एवां कथक नृत्य की रमनाओांक अन् तसव ्‍ बन् ा क कवकास का अन् व षण ण एवां कवश् ल षण ण करना ै।
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3

राय, अजय क. ुमार. "जनसंख्या दबाव से आदिवासी क्षेत्रों का बदलता पारिस्थितिकी तंत्र एवं प्रभाव (बैतूल-छिन्दवाड़ा पठार के विशेष सन्दर्भ में)". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 31–38. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20214.

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Abstract:
जनजातीय पारिस्थितिकी म े ं वन, क ृषि म े ं स ंलग्नता, आवास, रहन-सहन का स्तर, स्वास्थ्य स ुविधाआ े ं का अध्ययन आवश्यक हा ेता ह ै। सामान्यतः धरातलीय पारिस्थ्तििकी का े वनस्पति आवरण क े स ंदर्भ म ें परिभाषित किया जाता ह ै। अध्ययना ें स े यह स्पष्ट ह ैं कि यदि किसी स्थान पर जनस ंख्या अधिक ह ैं आ ैर यदि उसकी व ृद्धि की गति भी तीव ्र ह ै ं ता े वहा ं पर अवस्थानात्मक स ुविधाआ ंे क े निर्मा ण क े परिणास्वरूप तथा विकासात्मक गतिविधिया ें क े कारण विद्यमान स ंसाधना ें पर दबाव निर ंतर बढ ़ता ही जाता ह ैं, प ्रस्त ुत अध् ययन म े ं शा ेधार्थी आदिवासी एव ं वन बाह ुल्य क्ष ेत्र ब ैत ूल-छि ंदवाड ़ा पठार म ें जनस ंख्या दबाव स े आदिवासी क्ष ेत्रा ें का बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र क े कारणा ें एव ं प ्रभावा ें का े जानन े का प ्रयास किया ह ै। अध्ययन ह ेत ु ब ैत ूल-छिन्दवाड ़ा पठार का चयन किया गया ह ै जा े कि आदिवासी बाह ुल्य व वनीय प ्रधान क्ष ेत्र ह ै। अध्ययन क े प ्रम ुख उद ्द ेश्य ह ै- अध्ययन क्ष ेत्र म ें जनस ंख्या व ृद्वि की प ्रव ृत्ति का आ ॅकलन एव वनीय स ंसाधना ें क े दा ेहन क े परिणामस्वरूप बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र एव ं आदिवासी स ंस्क ृति पर पड ़न े वाल े प ्रभाव का अध्ययन करना । वर्षा क े जल का नियमन, ताप, उष्णता तथा वाष्पा ेत्सर्ज न एव ं हवा क े व ेग आदि का े निय ंत्रित करन े म ें वन्य महत्वप ूर्ण भ ूमिका निभात े ह ै। वना ें क े विनाश स े ए ेसा द ुश्चक्र ्र चलता ह ै कि धीर े-धीर े वनस्पति आच्छादन समाप्त हा ेता जाता ह ै, म ृदा क्षय बढता ह ै आ ैर अन्ततः भा ैतिक पर्या वरण एव ं जलवाय ु म ें परिवर्त न हा ेत े ह ै। इस समग ्र परिप ्रेक्ष्य म ें वना ें की बह ुआयामी भ ूमिका का े द ेखत े ह ुए वन विनाश का े रा ेकन े की दिशा म ें ध्यान दिया जाना चाहिए।
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मिश्रा, आ. ंनद म. ुर्ति, प्रीति मिश्रा та शारदा द ेवा ंगन. "भतरा जनजाति में जन्म संस्कार का मानवशास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 39–43. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20215.

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Abstract:
स ंस्कार शब्द का अर्थ ह ै श ुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर का े त्याग कर द ुसर े शरीर म ें जन्म ल ेता है ता े उसक े प ुर्व जन्म क े प ्रभाव उसक े साथ जात े ह ैं। स ंस्कारा े क े दा े रूप हा ेत े ह ैं - एक आंतरिक रूप आ ैर द ूसरा बाह्य रूप। बाह ्य रूप का नाम रीतिरिवाज ह ै जा े आंतरिक रूप की रक्षा करता है। स ंस्कार का अभिप्राय उन धार्मि क क ृत्या ें स े ह ै जा े किसी व्यक्ति का े अपन े सम ुदाय का प ुर्ण रूप स े योग्य सदस्य बनान े क े उदद ्ेश्य स े उसक े शरीर मन मस्तिष्क का े पवित्र करन े क े लिए किए जात े ह ै। सभी समाज क े अपन े विश ेष रीतिविाज हा ेत े ह ै, जिसक े कारण इनकी अपनी विश ेष पहचान ह ै, कि ंत ु वर्त मान क े आध ुनिक य ुग स े र्कोइ भी समाज अछ ुता नही ं ह ै जिसक े कारण उनके रीतिरिवाजों क े म ुल स्वरूप म ें कही ं न कहीं परिवर्त न अवश्य ह ुआ ह ै। वर्त मान अध् ययन का उदद े्श्य भतरा जनजाति क े जन्म स ंस्कार का व ृहद अध्ययन करना है। वर्त मान अध्ययन क े लिए बस्तर जिल े क े 4 ग ्रामा ें का चयन कर द ैव निर्द शन विधि क े माध्यम स े प ्रतिष्ठित व्यतियों का चयन कर सम ुह चर्चा क े माध्यम से तथ्यों का स ंकलन किया गया ह ै। प ्रस्त ुत अध्ययन स े यह निष्कर्ष निकला कि भतरा जनजाति अपन े संस्कारों क े प ्रति अति स ंवेदनशील ह ै कि ंत ु उनक े रीतिरिवाजा ें म ें आध ुनिकीकरण का प ्रभाव हा ेने लगा ह ै। भतरा जनजाति को चाहिए की आन े वाली पीढ ़ी को अपन े स ंस्कारा ें क े महत्व का े समझान े का प ्रयास कर ें ।
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चा ैहान, ज. ुवान सि ंह. "प ्रवासी जनजातीय श्रमिका ें की प ्रवास स्थल पर काय र् एव ं दशाआ ें का समाज शास्त्रीय अध्ययन". Mind and Society 8, № 03-04 (2019): 38–44. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20196.

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Abstract:
भारत म ें प ्रवास की प ्रक्रिया काफी लम्ब े समय स े किसी न किसी व्यवसाय या रा ेजगार की प ्राप्ति ह ेत ु गतिशील रही ह ै आ ैर यह प ्रक्रिया आज भी ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाय म ें गतिशील दिखाइ र् द े रही ं ह ै। प ्रवास की इस गतिशीलता का े रा ेकन े क े लिए क ेन्द ्र तथा राज्य सरकार न े मनर ेगा क े तहत ् प ्रधानम ंत्री सड ़क या ेजना, स्वण र् ग ्राम स्वरा ेजगार या ेजना ज ैसी सरकारी या ेजनाआ े ं का े लाग ू किया ह ै, ल ेकिन फिर ग ्रामीण जनजातीय ला ेगा े ं क े आथि र्क विकास म े ं उसका असर नही ं दिखाइ र् द े रहा ह ै। ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाया ें म े ं निवास करन े वाल े अधिका ंश अशिक्षित हा ेन े क े कारण शासकीय या ेजनाआ ें का लाभ नही ं ल े पा रह े ह ै। प ्रवास करन े का प ्रम ुख कारण अपन े म ूल स्थान पर रा ेजगार व आय क े स ंसाधन न हा ेन े व क ृषि आय म ें कमी क े करण द ूसर े स्थान या शहरी क्ष ेत्रा ें की आ ेर रा ेजगार की तलाश म ें प ्रवास कर रह े ह ैं। ग ्रामीण जनजातीय परिवारा ें स े हा ेन े वाल े प ्रवास की प ्रक्रिया का े द ेखत े ह ुए शा ेधाथी र् न े अपन े शा ेध अध्ययन ह ेत ु अलीराजप ुर जिल े का चयन किया ह ै, जिस परिवार स े सदस्य प ्रवासी मजद ूरी जात े रहत े या जा रह े ह ै ं। इस प ्रकार स े ग ्रामीण जनजातीय परिवारा े ं स े प ्रवासी मजद ूरी करन े वाल े 300 जनजातीय परिवारा े ं का चयन सा ैद ्द ेश्यप ूण र् निदश र्न पद्धति द्वारा किया गया ह ै जिसम ें यह पाया गया कि 14.3 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि ठ ेक ेदार क े द्वारा रहन े की व्यवस्था न करन े क े कारण किराय े स े रहन े वाल े पाय े गय े, 53.7 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर रहन े ह ेत ु ठ ेक ेदार द्वारा कच्च े भवन व झा ेपड ़ी की व्यवस्था की जाती ह ै जिसम ें पानी, जलाऊ लकड ़ी स ुविध् ाए ं रहती ह ै तथा 32.0 प ्रतिशत उत्तरदाताआ े ं का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर ठ ेक ेदार द्वारा रहन े की स ुविधाए ं उपलब्ध नही ं कराइ र् जाती ह ै जिसक े कारण उन्ह ें रा ेजी-रा ेटी व दिहाड ़ी मजद ूरी पान े ह ेत ु शहरा ें म ें सड ़क किनार े ता े कही ं सम ुद ्र किनारा ें पर मलिन बस्ती क े रूप म े ं स्वय ं झा ेपडि ़या बनाकर बिना बिजली, पानी, लकड ़ी तथा शा ैचालय आदि ब ुनियादी स ुविधाआ े ं स े व ंचित जीवन-यापन कर रह े ह ै ं। अस ंगठित क्ष ेत्र म ें मजद ूरी काय र् करन े वाल े प ्रवासी श्रमिका ें का े प ्रवास स्थल पर श्रम का ूनन आ ैर प ्रवासी अन्तरा र्ज्यीय अधि् ानियमा ें स े व ंचित रखा जा रहा ह ै।
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खापर्ड े, स. ुधा, та च. ेतन राम पट ेल. "कांकेर में रियासत कालीन जनजातीय समाज की परम्परागत लोक शिल्प कला का ऐतिहासिक महत्व". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 53–56. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20218.

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Abstract:
वर्त मान स्वरुप म ें सामाजिक स ंरचना एव ं ला ेक शिल्प कला म ें का ंक ेर रियासत कालीन य ुग म ें जनजातीय समाज की आर्थि क स ंरचना म ें ला ेक शिल्प कला एव ं शिल्प व्यवसाय म ें जनजातीया ें की वास्तविक भ ूमिका का एव ं शिल्प कला का उद ्भव व जन्म स े ज ुड ़ी क ुछ किवद ंतिया ें का े प ्रस्त ुत करन े का छा ेटा सा प ्रयास किया गया ह ै। इस शा ेध पत्र क े माध्यम स े शिल्पकला म ें रियासती जनजातीया ें की प ्रम ुख भ ूमिका व हर शिल्पकला किस प ्रकार इनकी समाजिकता एव ं स ंस्क ृति की परिचायक ह ै एव ं अपन े भावा ें का े बिना कह े सरलता स े कला क े माध्यम स े वर्ण न करना ज ैस े इन अब ुझमाडि ़या ें की विरासतीय कला ह ै। इस शिल्पकला क े माध्यम स े इनकी आर्थि कता का परिचय भी करान े का सहज प ्रयास किया गया ह ै।
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तिवारी, रोली, та चित्रल ेखा वमा. "व्हाट्सएप पर साझा की जाने वाली शैक्षणिक जानकारियो की प्रकृति का अध्ययन". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 23–30. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20213.

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Abstract:
प्रस्त ुत अध्ययन म ें ”व्हाट ्सएप पर साझा की जान े वाली श ैक्षणिक जानकारिया े ं की प्रक ृति का अध्ययन छात्राध्यापका ें क े विश ेष स ंदर्भ म ें” किया गया। क ुल 200 छात्राध्यापकों (100 प ुरूष छात्राध्यापक ए ंव 100 महिला छात्राध्यापिकाआ े ं) का चयन सा ेद्द ेश्य न्यादश र् विधि द्वारा किया गया। शा ेध उपकरण क े रूप में आकड ़ें संग ्रहण करने क े लिय े स्मा र्टफोन म ें प्रय ुक्त व्हाट ्सएप म ैस े ंजर क े माध्यम स े स्क्रीनशा ॅट, छवि (इम ेज) प्रक्रिया का े लिया गया। सा ंख्यिकी विश्ल ेषण ह ेत ु प्रतिशत द्वारा परिकल्पनाओ ं की साथ र्कता की जा ंच की गयी। निष्कष र् म े ं यह पाया गया कि छात्राध्यापका े ं द्वारा श ैक्षणिक जानकारिया ँ सवा र्धिक रूप स े छवि (इम ेज) क े माध्यम स े साझा की जाती ह ैं। आकड ़ो ं क े आधार पर विस्त ृत विश्ल ेषण भी किया गया।
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साह ू, प. ्रवीण क. ुमार. "संत कबीर की पर्यावरणीय चेतना". Mind and Society 9, № 03-04 (2020): 57–59. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20219.

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Abstract:
स ंत कबीर भक्तिकालीन निर्ग ुण काव्यधारा अन्तर्ग त ज्ञानमार्गी शाखा क े प ्रवर्त क कवि मान े जात े ह ैं। उनकी वाणिया ें म ें जीवन म ूल्या ें की शाश्वत अभिव्यक्ति एव ं मानवतावाद की प ्रतिष्ठा र्ह ुइ ह ै। कबीर की ‘आ ंखन द ेखी’ स े क ुछ भी अछ ूता नही ं रहा ह ै। अपन े समय की प ्रत्य ेक विस ंगतिया ें पर उनकी स ूक्ष्म निरीक्षणी द ृष्टि अवश्य पड ़ी ह ै। ए ेस े म ें पर्या वरण स ंब ंधी समस्याआ ें की आ ेर उनका ध्यान नही गया हा े, यह स ंभव ही नही ह ै। कबीर क े काव्य म ें प ्रक ृति क े अन ेक उपादान उनकी कथन की प ुष्टि आ ैर उनक े विचारा ें का े प ्रमाणित करत े ह ुए परिलक्षित हा ेत े ह ैं। पर्या वरणीय जागरूकता आ ैर स ुरक्षा की द ृष्टि म ें कबीर का महत्त्वप ूर्ण या ेगदान यह ह ै कि उन्हा ेंन े सम ूची मानव जाति का े प ्रक ृति क े द्वारा किए गय े उपकारा ें क े बदल े म ें क ृतज्ञता व्यक्त करन े की शिक्षा दी ह ै। उनक े काव्य म ें कही ं व ृक्षा ें की पत्तिया ँ आ ैर फ ूल स ंसार की नश्वरता आ ैर मन ुष्य जीवन की क्षणिकता का बा ेध कराती ह ै ता े कही ं जल का आश्रय ग ्रहण कर परमात्मा स ंब ंधी रहस्यवादी भावनाआ ें का े उद ्घाटित करती ह ै। इस प ्रकार कह सकत े ह ैं कि कबीर की वाणिया ें म ें प ्रक ृति क े विविध रूपा ें की अभिव्यक्ति द ृष्टा ंता ें क े रूप म ें र्ह ुइ ह ै। इसी स े स ंत कबीर की पर्या वरणीय जागरूकता स्वतः सिद्ध हा े जाती ह ै।
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डा, ॅ. गीताली स. ेनगुप्ता. "र ंगा े का मना ेवैज्ञानिक प्रभाव". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Composition of Colours, December,2014 (2017): 1–4. https://doi.org/10.5281/zenodo.889241.

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Abstract:
रंगा ें क े प ्रति मानव का अनुराग आज से नहीं बल्कि सदिया ें से रहा ह ै। रंग प ्रकृति एव ं ईष्वर की सबसे बह ुमूल्य देन ह ै। रंग क े बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प ्रकृति द्वारा रचित अनगिनत वस्तुओं क े विविध रंग प ्र ेरणा क े स्त्रा ेत रह े ह ै ं। इन्ह ें देखकर मनुष्य ने उसे चित्रकलाओं, मूर्तिकलाओं, नाट्य एवं साहित्य में उकेरा है। रंगा ें से हमें निरन्तर ऊर्जा एवं चैतन्य शक्ति प ्राप्त होती है, निष्चित ही रंगविहीन जीवन नीरस, उदासीन एवं एकसार होता है। मनुष्य स्वभाव से सुन्दरता प ्रेमी है। अतः रंगा ें स े उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। पहले प्रकृति से फिर धीरे-धीरे व ैज्ञानिक अनुभवा ें से उसने विभिन्न रंगा ें का सृजन करना सीख लिया ह ै और अपने जीवन को रंगा ें स े सरा ेवार कर लिया। मार्डन सेन्चुरी एनसाइक्लोपीडिया क े टवस 6 के अनुसार- ”रंग प ्रकाश का ही एक गुण ह ै, जिन्हें आँखे देखती ह ै और ये विभिन्न आकार की प ्रकाष लहरों से बनते ह ै ं।“ मना ेवैज्ञानिकों ने रंगा ें का अध्ययन अपने दृष्टिकोण से किया है रंगा ें का मनुष्य के मना ेभावों पर गहरा प्रभाव पड़ता ह ै कुछ गर्म रंग जैसे लाल, पीला व नारंगी जो हमें ख ुषी, हर्ष , उत्साह एव ं चित्त प ्रसन्नता को दर्षा ते ह ै ं एवं ठंडे रंग जैसे नीला, हरा, बै ंगनी ख ुषहाली, शीतलता, शान्ति आ ैर संता ेष क े प ्रतीक व सूचक होते ह ै ं। श्व ेत रंग पवित्रता का धोतक ता े काला रंग अवसाद दुःख व्यथा, उदासी एवं विद्रा ेह की भावना स े जुड़ा होता ह ै। रंगा ें का स ंव ेगा ें पर भी प ्रभाव पड़ता ह ै। स्नायु स ंस्थान से संब ंधित रा ेग अर्थात् मानसिक रा ेगिया ें की चिकित्सा क े लिए भी रंगा ें का प ्रयोग किया जाता ह ै ठंडे रंग ज ैसे नीला व हरा ऐसे व्यक्तिया ें का े शांति प ्रदान करते है ं।
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डा, ॅ. सीमा सक्सेना. "स ंगीत आ ैर समाज". International Journal of Research - GRANTHAALAYAH Innovation in Music & Dance, January,2015 (2017): 1–3. https://doi.org/10.5281/zenodo.886828.

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Abstract:
्रकृति का मूल सिद्वान्त ह ै कि मनूष्य न े अपनी नैस ेर्गिक आवष्यकताओं क े लिये समाज क े अवलम्ब को अवधारित किया उसे अपने सुखःदुख की हिस्सेदारी एव ं व्यवहारिक बल व असुरक्षा से बचकर क े लिये समाज की सृष्टि करनी पड़ी अथवा समाज की शरण में जाना पड़ा। बाल्यकाल, युवावस्था, व ृद्वावस्था, अथवा यह कहा जाये कि जीवन क े प ्रत्येक चरण में मनुष्य का े समाज की आवष्यकता नैसर्गिक होती ह ै। समाज यदि जननी है तो व्यक्ति उसका बालक। विकास की प्रारंभिक अवस्था से निरन्तर प ्रगति पथ पर बढ़ते ह ुऐ उसने अपनी आवष्यकताओं क े रूप सृजन करना आरंभ किया आ ैर-यही सृजन कलाओं का उद्गम स्थल बना। उसे यह पता ही नहीं चला कि कब उसकी इसी सृजनात्मकता ने कलाओं का रूप लिया फिर वा े चाह े स्थापत्य कला, हो या संगीत अथवा चित्रकारी उदाहरण क े लिये उसने प ्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये गृह उपव्यकाआ ें को अपना घर बनाया आ ैर धीरे-धीरे समूहों में अपने घरा ें का निर्माण किया और यही निवास-स्थापत्यकला क े उत्कृष्ट नमूने बने। इस तरह समाज का विकास व कलाओं का विकास समानान्तर रूप में प ्रगति पाने लगे आ ैर प ्रत्येक समूह समाज का े अपने भिन्न परिव ेष, संस्कृति व संगीत से प ृथक रूप में पहचाना जाने लगा। यहाँ व्यक्ति का स्वाधिकार कुछ भी नही था जो कुछ था वह समाज था। अपनी भावनाआ ें की समूह रूप में अभिव्यक्ति कलाओं क े सृजन का मूल भ ूत कारण बनी। अपनी प ्रसन्नता, दुख, शोभ आदि भावनाओं का े उन्ह ंे किसी ना किसी रूप में अभिव्यक्त करना मनुष्य की आवष्कता बन र्गइ । विकास क े क्रम में यही समाज धीरे-धीरे ग्राम, नगर, प्रान्त व देश क े रूप में आकृति पाते गये आ ैर विविध-विविध नगर, प ्रान्तों व देशा े की अपनी संस्कृति व संगीत में परिलक्षित हा ेते गये। मानव हद्य की वे आदिम भावनाएॅ आज भी हद्य स्प ंदन करने में उतनी ही क्षमताऐं रखती ह ै जितनी वे अपनी प्रांरभिक काल मे रखती थी।
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Book chapters on the topic "वास्तुकला का विकास"

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"Vartamaan Samay Mai Digitalicaran ka Prabhav." In Educational Transformation in Digital ERA, edited by Narender Kumar. NIILM University, 2024. https://doi.org/10.70388/niilmub/241208.

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Abstract:
िडिजटलीकरण या 'िडिजटाइजेशन' (Digitization) कसी भी कार क सूचना को या कसी भी कार के दतावेज को िडिजटल प म सुरित रखने क या है। आज के आधुिनक समय म इसका महव बत अिधक है यक हम कसी भी कार क सूचना या डाटा को हाड फॉमट म रखना हो तो बत यादा समय तथा कागज आद बबाद होता है। इसी से बचने के िलए अपने सभी कार के दतावेज जैसे- अपने िशा सबधी प, फोटो, कपनी आद के सभी दतावेज आद को अपने िडिजटल मशीन या कयूटर म संिहत करके रखते ह, िजससे हमारा डाटा यादा सुरित रहता है और उसे ा करना बत ही आसान होता है।
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